मार्च में हुई हत्याओं के बाद भी सीपीआई एम नन्दिग्राम की राजनीति पर अपनी जकड़ बनाने में कामयाब न हो सकी तो इस बार उसने ज़्यादा ताक़त से बढ़-चढ़ कर अचानक हमला किया। और राज्य सरकार इस हमले के प्रति आँखें मूँदे पड़ी रही। अपने शासन के इस लम्बे काल में अपने विरोधियों को एक सुपरिचित अंदाज़ में कुचलने की आदी हो गई है सीपीआई एम। कई बारी यह व्यवहार उसके अपने सहयोगी दलों के साथ भी होता है। हत्या और बलात्कार इस व्यवहार के चमकते हुए अंग होते हैं।
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और यह बात भी दुखद तौर पर सिद्ध हो जाती है कि भारतीय राजनीति में पार्टी का नाम और झण्डे का रंग कौन सा है इस से कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। कांग्रेस और भाजपा के चरित्र का परिचय कराने की किसी को कोई ज़रूरत नहीं.. हज़ारों लाखों लोगों की सुनियोजित हत्याओं के अपराधी हैं ये पार्टियाँ। शिवसेना, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगुदेसम, और सीपीआई एम.. सभी का एक गहरा हिंसात्मक पक्ष है। चुनाव के ज़रिये सत्ता पाने में उनकी पूरी श्रद्धा है मगर लोकतांत्रिक व्यवहार में उनकी आस्था अभी कम है। भारतीय राजनीति का चरित्र है यह। भारत की जनता समय-समय पर प्रतिरोध की आवाज़ें उठाती रही है। आज यह सीपीआई एम के खिलाफ़ है.. कल तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ़ होगा।
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10 टिप्पणियां:
बड़ी अजीब स्थिति है. ख़ुद को बड़ा साबित करने के लिए कुछ भी कर गुजरने पर तैयार हैं लोग. नंदीग्राम में जो कुछ भी हुआ उसके लिए पश्चिम बंगाल के सारे दल दोषी हैं. जितनी जिम्मेदारी सी पी आई (एम्) की है उतनी ही त्रिनामूल कांग्रेस की.
मजे की बात यह है कि सभी लोकतंत्र की रक्षा करने का स्वांग भर रहे हैं. हाय रे लोकतंत्र.....
बहुत सलीके से आपने सत्ता को पाने और उसे बचाए रखने के षडयंत्र की सच्चाई बयान कर दी है।
वाममोर्चा सरकार.. हाय-हाय.. चूल्हे में जाये.. मरे, खुद पे किरासिन गिराये.. अबे, बुद्धा के दानव.. उतार सफेद कुर्ता-पैजामा.. आ सड़क पे आ, आके चप्पल खाय.. नरभक्षी, नराधम.. तेरी नाक में अंडा, मुंह में मेंढक जाये.. हाय-हाय..
साम्यवाद कब से लोकतांत्रिक तथा मानवाधिकारवादी हो गया?
सीपीएम को दो कदम आगे डेढ़ कदम पीछे चल कर क्यों सॉफ्ट ट्रीट कर रहे हो बन्धु!
ज्ञान भाई.. साम्यवाद लोकतांत्रिक नहीं है, ये सच है- क्योंकि दोनों अलग अलग तंत्र हैं। अब साम्यवाद इसलिए अच्छा नहीं है क्योंकि वह लोकतंत्र नहीं है, ये कहना वैसे ही होगा जैसे ये कहना कि लौकी अच्छी नहीं क्योंकि वह आलू नहीं है। वैसे भी साम्यवाद अभी एक यूटोपिया है.. रूस और चीन में आरोपित समाजवाद लागू हुआ था, साम्यवाद नहीं। उनके नाम में भी समाजवादी ही आता है.. जैसे अपने देश के नाम में भी समाजवादी जोड़ा था इंदिराजी ने आपातकाल में, जो आज भी एक मज़ाक की तरह वहीं लगा हुआ है।
रही बात मानवधिकारों की- तो वह कोई 'वाद' नहीं है। अक्सर तो मानवधिकारों की दुहाई वे देते हैं जो सबसे ज़्यादा उसका उल्लंघन करते हैं- जैसे आतंकवादी और अमरीका। फिर भी मानवाधिकार गम्भीर मामला है और उनके लिए लड़ाई जारी रहनी चाहिये।
अब बात सीपीएम के सॉफ़्ट ट्रीटमेंट की.. मेरे ख्याल से मैंने तो उन्हे सबसे बड़ी गाली दे दी है.. उनकी तुलना बजरंगियों के साथ करके। और हाँ.. वे लोकतांत्रिक दल हैं..उतने ही जितने कि कांग्रेस और भाजपा और अन्य दूसरे दल। यही तो कहा है मैंने आलेख में।
वाम विचारधारा के साथ सहानुभूति रखने वाले सभी लोगों का माथा शर्म से झुक गया है नंदीग्राम दखल पर सत्तारूढ दल माकपा की कारगुजारियों और उसको सही ठहराने की वैचारिक लेथन से .
शर्म! शर्म!
Raajneeti par chintan karte samay kripaya Gyaandutt ji ko vishwaas mein avashya lein.
स्टालिनवाद की समीक्षा होगी ?
सही लिखा है। सत्ता की पकड़ बनाये रखने के लिये दमन के बहाने हैं ये क्या?
ठोस परिस्थितियों और समय से काट कर किसी की समीक्षा नहीं होती. स्टालिन ने जो किया और माकपा जो कर रही है, वह दोनों एक ही नहीं है. अगर ऐसा न हो तो इस तर्क के आधार पर लेनिन और हिटलर को भी एक साथ बैठाया जा सकता है.
माकपा के बारे में हमें किसी तरह का भ्रम नहीं रहा कभी. जिन्हें रहा हो, वे रिफ़्रेश हो लें. केवल नाम में कम्युनिस्ट लगा होने से कोई कम्युनिस्ट नहीं हो जाता. माकपा जो कर रही है, यह सामाजिक फ़ासीवाद का असली चेहरा है.
gyandutt jee
अभय भाई ने सही कहा. लोकतंत्र की जो अवधारणा/परिभाषा हमारे-आपके मन में बैठी हुई है, वह असल में पूंजीवाद की दी हुई है. इसके आधार पर साम्यवाद-समाजवाद की तुलना नहीं हो सकती. साम्यवाद-समाजवाद कभी लोकतंत्र हो भी नहीं जकता.
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