बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

एक गुस्ताख सवाल के बहाने


अभयजी,


एक मुश्किल में हूँ. जहाँ तक मुझे याद है आपने अपनी विनोद अग्रवाल वाली पोस्ट में कुछ ऐसा लिखा था कि आप नही जानते अगर अमिताभ अपने हर वाक्य के साथ श्री राम कहना शुरू कर दें, जैसे कि शाहरुख हर वाक्य में अल्लाह ले आते हैं, तो सेकुलरिस्टों की क्या प्रतिक्रिया होगी. अभी मैं यह या इससे मिलता-जुलता वाक्य उस लेख में नही पा रही हूँ. क्या आपने यह वाक्य एडिट कर दिया है? अगर किया है तो, और अगर आप उचित समझें तो कृपया बताएं की ऐसा आपने क्यो किया?

धन्यवाद

सोनाली

सोनाली जोशी अमरीका के एक संस्थान से मीडिया का अध्ययन कर रही हैं। वे मेरे ब्लॉग की नियमित पाठक हैं, और पिछले हफ़्ते उनका यह पत्र मुझे प्राप्त हुआ।

मेरा जवाब था:

सोनाली,

मैंने ऐसा तो कुछ नहीं लिखा था। हाँ, मैंने यह ज़रूर लिखा था:

“मैं ने पाया है कि सेक्यूलर एथॉस के भद्रलोक ‘अली मौला’ और ‘अल्ला हू’ पर झूमने में तो ज़रा नहीं झिझकते मगर ‘कृष्ण गोविन्द गोविन्द’ की धुन पर संशय में पड़ कर उसमें साम्प्रदायिकता की बू तलाशने लगते हैं। हो सकता है मेरी इस बात से हाफ़पैंटिया लोग उछलने लगें और सेक्यूलर बंधु नाराज़ हो जायं। मगर जो सच है वो सच है।"

और हाँ.. मैं अपनी पोस्टों को लगातार एडिट और रिएडिट करता हूँ। मैं नहीं समझता कि कि आदमी को सब से पहले जो दिमाग़ में आए लिख देना चाहिए। क्रूरता और हिंसा मनुष्य के स्वभावगत गुण है, जबकि मनुष्यता एक संस्कारजन्य अर्जित गुण है। मेरे अन्दर कई तरह के पतित, पतनशील और नकारात्मक विचार और मत वास करते हैं- जातिवादी और साम्प्रदायिक भी- और मैं उनसे लगातार लड़ता हूँ।

मुझे खुशी है तुम में ऐसा गुस्ताख सवाल करने का साहस है।

क्या तुम मुझे इसे एक पोस्ट बनाने की इजाज़त दोगी?

सादर

अभय

जवाब में सोनाली ने ये इजाज़त मुझे बख्श दी।

पिछले दिनों हमारे ब्लॉग जगत के बहुचर्चित अविनाश दास एक नए विवाद में घिर गए। इस विवाद की मूलवस्तु यही मनुष्यता का ही सवाल था हालांकि उसे इस दृष्टि से देखा नहीं गया। बात ये होती रही कि अविनाश ने ऐसा अपराध किया कि नहीं किया..? वो ऐसा कर सकते हैं कि नहीं कर सकते हैं। किया नहीं किया के प्रश्न के सम्बन्ध में लोग महज़ क़यास ही लगा सकते हैं। सच्चाई या तो वो लड़की जानती है, या फिर स्वयं अविनाश। ब्लॉग की दुनिया में लड़की का पक्ष कोई नहीं जानता; पर अविनाश के अनुसार वह लड़की पारम्परिक शब्दावली में चरित्रहीन है। और 'कर सकने' वाले सवाल पर मेरा मानना है कि हाँ वे ऐसा कर सकते हैं।

यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि न तो अविनाश के ऊपर पारिभाषिक अर्थों में किसी बलात्कार का कोई आरोप है और न ही मैं उन्हे बलात्कारी कह रहा हूँ। जहाँ तक मुझे मालूम है उनके ऊपर एक प्रकार की ज़बरदस्ती प्रेम (मॉलेस्टेशन) करने का आरोप है.. और जैसे अविनाश के तमाम नामी और अनाम मित्र कह रहे हैं कि अविनाश ऐसा कर ही नहीं सकते.. मैं मानता हूँ कि अविनाश ऐसा कर सकते हैं। और अविनाश ही क्यों.. हमारे बीच तमाम सारे लोग ऐसा कर सकते हैं.. किन्ही हालात में शायद मै स्वयं ऐसा कर सकता हूँ।

वैसे लोगों के साथ एक तरह की ज़बरदस्ती करना अविनाश का व्यवहार रहा है। ब्लॉग जगत में लोग उनकी उदण्डता से दुखी रहे हैं। उनके 'मोहल्ले' पर लोगों को अनाम चोले पहनकर नामधारी बन्धु गलियाते रहे हैं। गाली खाने वाले लोग विनती करते रहे हैं कि भई ये अनाम गालियों से मुक्ति दिला दो, पर अविनाश ने किसी के निवेदन पर कभी कान नहीं दिया और अपनी नैतिकता पर क़ायम बने रहे हैं।

मनीषा पाण्डे के साथ उनकी चैट को उन्होने जिस तरह से अपने ब्लॉग पर छापा और तमाम मिन्नतों और क्रोध प्रदर्शनों के बावजूद नहीं हटाया, वो एक तरह की ज़बरदस्ती ही थी। फिर एक अन्य प्रकरण में उन्होने हिन्दी के एक सम्मानित कवि असद ज़ैदी के साथ भी अपनी तरह की एक ज़बरदस्ती का नमूना पेश किया।

ब्लॉग जगत में मनीषा के प्रति उनके व्यवहार से सभी स्तब्ध थे, पर अविनाश की नज़र में ऐसी ज़बरदस्ती, उनकी पत्रकारिता की नैतिकता थी। मगर अभी हाल में अविनाश अपनी छात्रा पर प्रेम की ज़बरदस्ती के जिन आरोपों में उलझे हैं, उस के सिलसिले में उन्होने किसी भी नैतिकता का हवाला नहीं दिया बल्कि सीधे-सीधे अपनी छात्रा के चरित्र पर सवाल उठाया है।

अविनाश कोई एक अकेले व्यक्ति नहीं है जिसके ऊपर आरोप लगा है कि उसने एक लड़की के साथ ज़बरदस्ती की है। महिलाएं जानती हैं कि बहुत सारे सम्बन्धी, मित्र और सहकर्मी इस प्रकार की ज़बरदस्ती करते रहते हैं। अधिकतर आरोप तो मन में घुमड़कर ही दफ़्न हो जाते हैं। यदि महिलाएं लगाने पर आएं तो प्रेमी और पतियों पर भी ऐसे अनेको आरोप सामने आ जाएंगे।

मेरा आशय यहाँ पर अविनाश को किसी कटघरे में खड़ा करना है भी नहीं। मेरा आशय पुरुष के उस पाशविक वृत्ति की ओर इशारा करना है जो स्त्री के प्रेम को बाहुबल से हासिल कर लेना चाहता है। इसके पीछे पुरुष का स्वभाव है, सामाजिक संस्कार है, ऐतिहासिक परिस्थितियाँ है.. ये सब बहस का विषय है।

सविता भाभी जैसे साइट्स पर भी प्रगतिशीलता की बहस चलाने वाले अविनाश से मैं उम्मीद करता था कि वे प्रेम को लेकर स्त्री और पुरुष के अलग–अलग रवैये पर एक बहस छेड़ेंगे। मगर वे आत्म-ग्लानि और आत्म दया में लिप्त हो कर दुखी हो गए और अपने नारीवादी होने की बात दोहरा कर रह गए।

अविनाश भले ही मेरे मित्र न हों मगर मैं उनको सलाह देना चाहूँगा कि इस आपराधिक आरोप को बहुत निजी तौर पर ना देंखे बल्कि एक सामजिक वृत्ति के रूप में देंखे.. हम में से कोई भी ये अपराध कर सकता था.. किसी पर भी ये आरोप लग सकता था। क्योंकि हम सब मौलिक रूप से पशु हैं ये सिर्फ़ संस्कार ही हैं जो हमें मनुष्य बनाते हैं। अगर हम निरन्तर अपने आप को सुधारने की प्रक्रिया जारी न रखें तो हम कभी भी अपनी पाशविकता में उतर सकते हैं। दंगो में भी देखा जाता है कि अच्छे भले लोग दरिन्दों में बदल जाते हैं।

अब पिछले दिनों पिंक अन्डीज़ को लेकर ब्लॉग पर जो बहस चलीं उसमें सारथी के संचालक शास्त्री फिलिप- जो ईसा के चरण सेवक हैं और ब्लॉग जगत में बेहद सम्मानित हैं- एक बेहद शर्मनाक कमेंट कर बैंठे।

यह कमेन्ट उन्होने कुछ महिलाओं द्वारा प्रमोद मुतालिक नाम के राक्षस -सही अर्थों में राक्षस; उसके अनुसार महिलाओं पर किया गया हमला, भारतीय संस्कृति की रक्षा में था- को पिंक अन्डीज़ भेजकर की जाने वाली अभद्रता का विरोध करते हुए किया। अनैतिकता और अभद्रता के विरोध का ऐसा जज़्बा कि स्वयं अभद्र हो गए!

मैं ऐसे किसी भी कमेंट से बचने के लिए कुछ भी लिखने के पहले सोचता हूँ.. लिखने के बाद सोचता हूँ.. छापने के बाद भी सोचता हूँ.. और अगले दिन तक भी जो बात अखरती है तो उसे सुधारता रहता हूँ। फिर भी कभी-कभी ग़लती हो जाती है।

मेरा खयाल है कि मनुष्य पैदा तो पशु होता है; निरन्तर संस्कार से ही उसके भीतर से मनुष्यता पैदा होती है।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

वासना का दास

हिन्दी फ़िल्मों मे आज के पहले कभी सेक्स की ऐसी अभिव्यक्ति नहीं हुई थी जैसी अनुराग कश्यप ने देव डी. में कर दिखाई है। सुनते हैं अनुराग कश्यप ने अनुरोध किया था कि उनकी फ़िल्म को सेंसर करने वाले पैनल में पुरुषों से अधिक महिलाएं मौजूद हों। अक्सर पुरुष स्वयं को महिलाओं के बारे में सब कुछ तय करने का जन्मजात अधिकारी समझते हैं। शायद अनुराग का यह अनुरोध स्वीकार भी कर लिया गया क्योंकि फ़िल्म के आज़ाद-ख्याल संवाद सलामत हैं और अनुराग ने बिना उनका हनन किए नारी पात्रों का जो सेक्स के प्रति अनगढ़ भाव दर्शाया है वो भी।

आम तौर पर जिन्हे छिनाल या रण्डी के रूप में जाना जाता है अनुराग ने उन्हे ही अपनी नायिकाओं के रूप में पेश किया है। फ़िल्म के तीनों नारी पात्र एक ही चरित्र के हैं उनके नाम और हालात अलग हैं पर प्रेम और वासना के प्रति उनका नज़रिया एक ही है। घर-गृहस्थी चलाने वाली मिडिल क्लास वाइफ़ पारो और पहाड़गंज के कोठे से धंधा करने वाली चंदा मूलतः एक ही जैसी औरत हैं.. ये महज संयोग है कि एक कोठे पर बैठी है और एक अपने पति के बच्चे पाल रही है। देव डी के नारी पात्र के भीतर कई रंग हैं और उनकी शख्सियत कहीं मुकम्मल है। देव वैसा ही एकाश्मी है जैसा कि वह हमेशा से था फ़र्क बस इतना है कि वह दारू के साथ-साथ कोकेन भी सुड़क रहा है।

देव डी के कथ्य में अनगढ़ अनुभूतियाँ तमाम हैं मगर उदात्त भाव नहीं दिखते.. ये अनायास तो नहीं हुआ होगा.. निश्चित ही अनुराग मानते हैं कि यही आज की सच्चाई है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रेम और वासना के वितान को रंगते हुए अनुराग वासना वाले छोर पर कुछ अधिक दूर तक चले गए कि संतुलन बिगड़ा हुआ लगता है। मैं मानता हूँ कि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रेम को वासना के अर्थ में ही जानता है। लेकिन 'जब वी मैट' और 'जाने तू या जाने ना' जैसे फ़िल्मों की भारी सफलता उसी युवा वर्ग के मानस में एक स्वाभाविक अबोधता, मासूमियत का भी इशारा देती हैं जिस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व देव डी के चरित्र करते हैं।

फ़िल्म में नारी पात्रों की तो एक यात्रा दिखती है मगर देव को अनुराग ने एक अजीब सी सी जकड़न दे दी है। फ़िल्म की शुरुआत से ही वो एक ऐसे ढाँचे में फँसा दिखता है जिस से वो कभी नहीं निकलता। उसके एहसासों को दर्शकों का कुछ पता नहीं पड़ता बस सिगरेट, गाँजा और दारु ही जैसे उसके अस्तित्व का अर्थ बनते दिखते हैं।

पूरी फ़िल्म के मूल में सेक्स है.. पर एक दफ़े भी देव डी सफलता पूर्वक किसी के साथ सहवास नहीं कर पाता! इस बात के इशारे हैं कि सेक्स चारों ओर है.. मगर आप होते हुए कभी नहीं देखते। होते-होते न होते हुए देखते हैं। क्या जिस यथार्थ में फ़िल्म के चरित्र जीवित हैं.. उस में प्रेम की परिणति सम्भोग में सम्भव नहीं? या सम्भोग ही सम्भव नहीं?

मेरे एक दोस्त का कहना है कि हम एक विभाजित यथार्थ के उपभोक्ता हैं। इस टुकड़े-टुकड़े हो चुके यथार्थ की टूटन को हम क़तरा-क़तरा जानते हैं, पूरी तरह पहचानते भी नहीं। क्योंकि न सिर्फ़ हम जिस में स्थित हैं वो यथार्थ बिखरा हुआ है बल्कि हमारा अपना निजी अस्तित्व भी कई जोड़ों में बँटा हुआ है। इसीलिए जब अनुराग कश्यप जैसा प्रतिभाशाली फ़िल्मकार इस विभाजित यथार्थ को एक ढाई घण्टे की शक़ल प्रदान करता है तो लोग आह और वाह कर उठते हैं। अनुराग अपने चरित्रों को मानवीय तो बनाते हैं पर अपने एक जटिल अंदाज़ में।

देव डी हमारे यथार्थ का प्रतिबिम्ब है और एक सफल प्रतिबिम्ब है। सवाल ये है कि क्या बीमार को बीमारी का नाम बता देने भर से उसकी बीमारी ठीक हो जाने वाली है? मेरे दोस्त का मानना है कि मन की चोटों को सहलाने के लिए ओज़ू जैसे सिनेमा की ज़रूरत है जो दिलो दिमाग़ को झकझोरती नहीं, उसे पर ठण्डे फाहे रखती है।ओज़ू नहीं तो अलमोदवार ही सही जो समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों को भी एक मानवीय गरिमा प्रदान कर देते हैं। दिक़्क़त मगर ये भी है कि जिसे दारू की लत पड़ जाये वो ठण्डक पहुँचाने वाले रूहअफ़्ज़ा को लात मारता है, ठण्डे फाहों की क्या बात है!

फ़िल्म के भीतर दो सिनेमैटिक स्टाइल हैं। देव डी के दिल टूटने के पहले वाली हिस्से को अनुराग ने काफ़ी सपाट अन्दाज़ से पेश किया है। मगर पारो की शादी के बाद देव की स्मोकिंग स्मोकिंग उठता है धुँआ वाली दुनिया काफ़ी नशीले अन्दाज़ में प्रस्तुत की गई है। और उसके प्रति अनुराग की एक विशेष रागात्मकता नज़र आती है। हर निर्देशक की एक पैट थीम होती है.. लगता है नश्शे की सर्रियल दुनिया अनुराग की थीम है। जो नो स्मोकिंग में भी थी.. और सुना है कि अनुराग की बहुचर्चित पहली फ़िल्म जो आज तक रिलीज़ नहीं हुई, 'पाँच' की भी वही विषय वस्तु है। किसी ने शायद सही कहा है कि हर निर्देशक एक ही फ़िल्म बार-बार बनाता है।

निजी तौर पर मुझे आदमी के नारकीय पतन की धूमिल दुनिया में कोई दिलचस्पी नहीं पर अनुराग कश्यप और उनके अपने प्रति ईमानदार सिनेमा में है। क्योंकि अनुराग हिन्दी की दुनिया में सच्चे सिनेमा के हिरावल हैं। उनकी सफलता से अनेको नए रास्ते खुलेंगे और मैं बहुत कस के चाहता हूँ कि अनुराग कश्यप सफल हों।

अनुराग का सब से अधिक तारीफ़ का पक्ष भी यही है कि वो अपनी पसन्द का सिनेमा बना रहे हैं। किसी निर्माता और वितरक की समझ के अनुसार दर्शक की पसन्द का सिनेमा नहीं बना रहे। अच्छे सिनेमा के बनने की ये पहली शर्त है- जो बना रहा है अगर उसे ही पसन्द नहीं तो किसी और को क्यूंकर पसन्द आएगा।

ब्लैक फ़्राईडे हमारे समय के विकृत वास्तविकता पर आधारित एक अद्भुत फ़िल्म थी। नो स्मोकिंग एक बहकी हुई फ़न्तासी। देव डी को मैं अद्भुत तो नहीं कह सकता मगर नो स्मोकिंग से बहुत बेहतर है। अनुराग से और भी बेहतर सिनेमा बनाने की उम्मीद है!

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

शब्दों के शत्रु

अभिनेता इरफ़ान की नई फ़िल्म 'बिल्लू बारबर' का नाम बदल कर कुछ और किया जा रहा है। बारबर एसोसिएशन को 'बारबर' शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति है। खबर है कि फ़िल्म में जहाँ-जहाँ बारबर शब्द का इस्तेमाल आया है, उड़ाया जा रहा है। मैं भी बारबर एसोसिएशन से यहाँ पर बारबर शब्द के प्रयोग के लिए क्षमा चाहता हूँ। पूछना बस इतना चाहता हूँ कि वे किस दैवीय अधिकार से इस शब्द का उपयोग अपनी एसोसिएशन के नाम के लिए कर रहे हैं?

एक और खबर है- देवबन्द के उलेमा ने उन मुसलमान नेताओं के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है जो मुलायम सिंह के अवसरवादी कल्याण-प्रेम से खौरिया कर बहन जी की शरण में चले गए हैं। फ़तवा दिया गया है कि वे जय भीम नहीं कह सकते। जय भीम कहना ग़ैर-इस्लामी है। खुदा के अलावा किसी की बन्दगी ग़ैर इस्लामी है.. माफ़ करें खुदा नहीं अल्लाह। खुदा तो ईरानी भगवान है.. उस की बन्दगी करना भी ग़ैर इस्लामी है।

दाद देनी चाहिए देवबन्द के उलेमा की, जो जय भीम बोले बिना ही, जय भीम बोलने पर पाबन्दी लगा गए। शायद उन्होने ये फ़तवा लिख कर जारी किया होगा? तो क्या मुसलमान बहन जी के सामने जय भीम लिख कर काम चला सकेंगे..? ये पता कर लेना चाहिये। वैसे भीम ज़िन्दाबाद के बारे में क्या ख्याल है? वो इस्लामी है कि ग़ैर इस्लामी? उसमें किसी की परस्ती की बू आती है कि नहीं? भीम छोड़िये किसी की भी ज़िन्दाबाद?.. ज़िन्दा होना इस्लामी है कि ग़ैर इस्लामी?

मैं जानता था कि जय शब्द के भीतर मूल अर्थ 'विपक्षी के पराभव' का है और प्रचलित अर्थ अभिवादन और प्रणाम का है। मगर जय शब्द में छिपे वन्दना के अर्थ को पहचानने के लिए भाई अजित वडनेरकर को, सभी नए-पुराने शब्दों के व्याख्या के लिए देवबन्द के उलेमा के साथ एक इन्टेन्सिव ट्रेनिंग करनी चाहिये!

वैसे 'जय माया' के बारे में भी देवबन्द के उलेमाओं को अपनी राय ज़रूर देनी चाहिये!

सब से रोचक बात मुझे ये लगती है कि बार-बार “ला इलाहा इल अल्लाह” (अल्लाह के सिवा और कोई ईश्वर नहीं.. माफ़ करें.. अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं) बोलने के बावजूद इन उलेमा के लिए ईरानी खुदाओं की, और दलित देवताओं की उपस्थिति बनी रहती है। अल्लाह के हज़ार नामों में खुदा का शब्द इसलिए शामिल नहीं हो सकता क्योंकि वो अरबी मूल का नहीं है? या उस से खुद और खुदा के समीपत्व का बोध होता है? ये उलेमा ये भी भूल जाते हैं कि उन्ही की इस्लामी परम्परा में स्वयं अल्ला मियाँ फ़रिश्ते से ज़्यादा आदमी को अपने क़रीब पाते हैं?

शब्दों के प्रति बढ़ते इस कट्टरपन से मुझे जार्ज ऑरवेल का उपन्यास १९८४ याद आ जाता है जिस का सर्वसत्तावादी तानाशाह हर रोज़ शब्दकोश में से कुछ 'आपत्तिजनक' शब्द मिटाता जाता है।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

एक इन्काई कथा

मैंने अखबार में एक अजीब बात पढ़ी। मेक्सिको में कुछ वैज्ञानिकों ने एक इन्काई शहर# जाने के लिए कुछ मज़दूरों को साथ लिया। रास्ते में एक जगह मज़दूर अचानक रुक गए और आगे जाने से इन्कार कर दिया। इस अड़ियल व्यवहार से वैज्ञानिक बौखला गए.. और उनके बहुत हो हल्ला करने पर भी मज़दूर आगे नहीं बढ़े। घण्टों के इन्तज़ार के बाद मज़दूर फिर चलने को तैयार हो गए.. पूछने पर मज़दूरों में से एक ने बताया कि उनके इस तरह रुक जाने का कारण क्या था..

आप जानना चाहते हैं..? अगर आप अब भी पढ़ रहे हैं तो मैं मान लेता हूँ कि आप ज़रूर जानना चाहते हैं..


मज़दूर ने बताया कि वे बहुत तेज़ चल रहे थे.. इतना तेज़ कि उनकी आत्माएं पीछे छूट गई थीं।

हम अक्सर जीवन में इतना तेज़ दौड़ते हैं कि हमारी आत्मा पीछे छूट ही नहीं जाती.. खो जाती है।

मिकेलएंजेलो अन्तोनियोनी की फ़िल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' में एक चरित्र के मुख से सुनाई गई कथा।

#यह तथ्यत: ग़लत है। इंका सभ्यता का सम्बन्ध पेरू के पर्वतों से हैं.. मेक्सिको में माया सभ्यता के अवशेष हैं।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

आदमी के पास आँत नहीं है क्या?

पिछले दिनों बेगर्स ऑपेरा पढ़ रहा था। १७२८ के लण्डन की दुनिया को दर्शाता ये वही नाटक है जिस पर आधारित कर के बर्टोल्ट ब्रेख्ट ने अपना थ्री पेनी ऑपेरा लिखा। नाटक का नायक मैकहीथ, अपनी तमाम बीवियों में से एक लूसी से ये मार्मिक निवेदन करता है- हैव यू नो बॉवेल्स, नो टेण्डरनेस, माई डियर लूसी, टु सी योर हसबैण्ड इन दिस सरकमस्टैन्सेज़?

आप ही की तरह मैं भी चौंक गया। नाटक के अंत में दिए नोट्स में बॉवेल्स को सीट ऑफ़ काइण्डनेस, पिटी और फ़र्गिवनेस बताया गया है। दया और क्षमा का सम्बन्ध आँतो से जोड़े जाने की बात मैंने पहले नहीं पढ़ी थी। आम तौर पर ह्रदय को इन भावों का आश्रय बताया गया है। इस भिन्नता के बावजूद एक बात यहाँ समान यह है कि शरीर के अंग-विशेष को एक मानवीय भाव का आश्रय बताया गया है। और यह समझ जन मानस में काफ़ी गहरे पैठी हुई है।

जैसे दिलेरी के लिए आम रूप से जिगर को ज़िम्मेदार बताया है- 'अबे जिगरा चहिये जिगरा!' पश्चिम सभ्यता में अण्डकोशों को खतरे उठाने की ज़रूरी माना जाता है- 'ही हैज़ नो बॉल्स!' भारतीय परम्परा में दिल को भय और प्रेम दोनों के लिए आश्रय बताया गया है। कुण्डलिनी तंत्र में ह्र्दय ग्रंथि में स्थित अनहत चक्र में यही दो भाव निवास करते हैं। तुलसी बाबा ये बात अच्छी तरह से जानते थे तभी बेलाग कह गए कि –'भय बिनु होय न प्रीत!'

दिल, जिगर, आँत अगर मनुष्य के पास हैं तो अन्य सभी जानवरों के पास भी हैं। और इसके प्रमाण भी मिलते हैं। आपने सुना होगा कि एक बन्दरिया ने कुत्ते के पिल्ले को पाल लिया। चूहे और बिल्ली की मोहब्बत भरी दोस्ती का वीडियो कल ही एनडीटीवी पर विनोद दुआ साहब दिखा रहे थे। भेड़िये ने मनुष्य के बच्चे को पाला, ऐसी कहानियाँ भी सुनी गई हैं।

मेरी दुविधा यह है कि क्षमा करने वाली आँत, और करुणा उपजाने वाला ह्रदय, अगर सभी कुत्ते, बिल्ली और चूहे के पास है, तो फिर मानवता क्या है? विशेषकर तब, जब कि मनुष्य ही वो अनोखा जानवर है जिसकी हिंसा का भूख और प्रजनन से स्वतंत्र भी एक अस्तित्व है।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

विनोद अग्रवाल का भाव-प्रवाह

मेरे चरित्र का एक बड़ा दोष ये है कि मैं एक से ज़्यादा काम एक वक़्त पर नहीं कर सकता। एक दौर में मेरे सर पर एक ही चीज़ का भूत सवार हो सकता है। एक संतुलन बना कर सब कुछ थोड़ा-थोड़ा कर लेने का शऊर मुझे कभी नहीं आया। मेरी माँ ने मुझे बचपन में ही असत्ती घोषित कर दिया था। केले खाता था तो दिन भर में दरज़न खा जाता था। नहीं खाता था तो सालों नहीं। आयुर्वेदिक संतुलन बनाने की कोशिश बहुत जारी हैं मगर मूल स्तर पर स्वभाव का आज भी यही हाल है। अगर किसी एक से बात कर रहा हूँ तो दूसरे से मोबाइल पर बात करने में भी खीज होने लगती है। इसी दोष के चलते मैं ब्लॉग से भी कभी-कभी गायब भी हो जाता हूँ।

कुछ लोग होते हैं कि काम करते हुए आराम से संगीत भी सुनते रहते हैं। मुझ से ये हुनर कभी नहीं सधा। हुआ हमेशा यही है कि मैंने उठा के संगीत बन्द कर दिया है। लेकिन जब संगीत के पीछे पड़ा हूँ तो महीनों सिर्फ़ संगीत सुना है। सुबह उठने से लेकर कर रात सोने तक, सब काम छोड़-छाड़ के। ऐसे एक दौर में मुझे आबिदा का बुखार चढ़ा था और उनकी भक्ति में पड़ के मैं सिर्फ़ उन्हे सुनने दिल्ली तक चला गया था।

कल अचानक टीवी पर संस्कार चैनल पर एक गायक को देखने लगा और देखता ही रह गया और सुनता ही रह गया। पहले भी एक दो दफ़े देखा था और उन में एक अजब सी कशिश पाई थी। आप सुनिए विनोद अग्रवाल को.. वे गायक भी हैं और संत भी और सूफ़ी भी। गाते-गाते बीच में प्रवचन करते नहीं पर कभी-कभी कर भी देते हैं। उनके कुछ गीत तो ऐसे हैं जिसमें सम्भवतः उनके पास कोई लिखा हुआ गीत भी नहीं होता.. बस वो अपनी धुन में अपने भावों को शब्द देते चलते हैं।

गुलज़ार ने कहीं आबिदा के बारे में कहा है कि आबिदा गाती हैं तो उनकी आवाज़ अल्लाह तक जाती है। गुलज़ार साहब बड़े शाएर हैं उनकी पहुँच मणिरत्नम और यश चोपड़ा तक ही नहीं अल्लाह मियाँ तक है। शायद अल्लाह मियाँ के बगल में बैठ कर ही वे आबिदा को सुनते हैं J पर सच है उनकी बात, आबिदा की आवाज़ में हैं वो जज़्बा।

विनोद जी की आवाज़ भले आबिदा की तरह बुलन्द न हो मगर जब वे गाते हैं तो सुनने वालों के भीतर तक उतर जाते हैं और आँसुओं की शक़्ल में बाहर बह आते हैं। भाव विभोर हो कर खुद भी रोने लगते हैं और अपने सुनने वालों को भी रुला देते हैं। आँखे बन्द कर गाने वाले इस भक्त के भजन को लोग आँखें बन्द कर के सुनते हैं।

मैं ने पाया है कि सेक्यूलर एथॉस के भद्रलोक ‘अली मौला’ और ‘अल्ला हू’ पर झूमने में तो ज़रा नहीं झिझकते मगर ‘कृष्ण गोविन्द गोविन्द’ की धुन पर संशय में पड़ कर उसमें साम्प्रदायिकता की बू तलाशने लगते हैं। हो सकता है मेरी इस बात से हाफ़पैंटिया लोग उछलने लगें और सेक्यूलर बंधु नाराज़ हो जायं। मगर जो सच है वो सच है। बंधुओ से गुज़ारिश है कि इस कृष्ण-भक्त की भावनदी में एक बार उतरने के पहले सोच लें क्योंकि बह जाने का डर है।



रविवार, 1 फ़रवरी 2009

ज़ोया में दम है!

फ़िल्मो की पृष्ठभूमि पर पहले भी फ़िल्में बनी हैं लेकिन न तो कोई कोई इतनी सहज थी और न ही कोई इतनी गूढ़। ज़ोया अख्तर की लक बाई चान्स फ़िल्म के संसार की एक गहरी समझ से बनाई गई फ़िल्म है। ऐसा मालूम होता है जिस दुनिया को वो हमें दिखा रही हैं उसे वो पास से, अन्दर से जानती हैं और समझती हैं। और उसको एक ऐसे शिल्प में गाँठ के दर्शक के सामने प्रस्तुत करती हैं जो न तो भारी है, न भोथरा है और न ही छिछला है।

फ़िल्म मनोरंजक होने के लिए संवेदना का दामन छोड़ नहीं देती। वैसे तो फ़रहा खान भी ओम शांति ओम में फ़िल्मी दुनिया की ही एक कहानी कहती हैं मगर एक सस्ते मखौलिया अन्दाज़ में।

मुझे खुशी है कि ज़ोया में अपनी दुनिया को हमदर्दी से देखने की और उसकी जटिलताओं को एक महीन शिल्प में बाँधने की कला है। ये खुशी और भी ज़्यादा इसलिए है कि वे अपने प्रतिभाशाली भाई फ़रहान अख्तर के उस दृष्टिदोष की शिकार नहीं है जिसके चलते फ़रहान अपनी तीनों फ़िल्मों में अपनी दुनिया की समूची सच्चाईयों को पकड़ने में असफल रहे हैं।

दिल चाहता है ने देश के एक वर्ग-विशेष को ताज़ा हवा के झोंके का स्वाद ज़रूर दिया था। मगर उस देखकर आप को अन्दाज़ा हो जाता है कि फ़रहान कितनी सीमित दुनिया के निवासी है जिसमें कुल जमा तीन दोस्त, उनके महबूब और माँ-बाप भर हैं। शायद इसीलिए उन्हे अपनी तीसरी फ़िल्म बनाने के लिए एक पुरानी फ़िल्म का सहारा लेना पड़ा। वैसे सीखने के लिए कोई उमर कम नहीं होती और फ़रहान की तो उमर ही क्या है। उम्मीद है कि वे अपने हुनर का बेहतर इस्तेमाल करेंगे।

लक बाई चान्स में जाने-पहचाने अभिनेताओं की भरमार है और ज़ोया ने नए—पुराने सब का अच्छा इस्तेमाल किया है। फ़रहान ने फिर साबित किया कि वे सचमुच एक अच्छे एक्टर हैं। रिशी कपूर ने तो कुछ गजब का ही काम किया है। ज़रूर देखें लक बाई चान्स।
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