आजकल अपने हिन्दी ब्लॉग्स की दुनिया में कबाड़ के प्रति कुछ अधिक ही प्रेम उमड़ रहा है। मित्र इरफ़ान के नाम के साथ जुड़कर कबाड़खाना नामक इस ब्लॉग पर पहले-पहले दृष्टि गई थी मेरी। अशोक पाण्डे नामक बन्धु चला रहे हैं इसे.. या उनके शब्दों में कहें तो खरीद रहे हैं पेप्पोर रद्दी पेप्पोर.. लगभग दो महीने हो गए उन्हे अपने मोहल्ले में आए..
इस बीच मैं घूमता-घामता रहा और फिर कुछ कामकाजी बना रहा तो बहुत देख नहीं पाया पाण्डे जी ने क्या-क्या खरीदा। आज अचानक देखता हूँ कि अशोक जी के धंधे में सेंध लगाने एक और कबाड़ी आ गया है। ब्लॉगवाणी पर कबाड़खाना देखा और नाम देखा विकास परिहार। सोचा कि जैसे आजकल तमाम लोग सामूहिक ब्लॉग चला रहे हैं तो ये भी उनके कबाड़ी परिवार के एक सदस्य होंगे। कबाड़खाना पर जा कर देखा तो एक जगमगाती गज़ल सुगबुगा रही थी।
पर मुझे कुछ अजीब सी बू आ रही थी। ये तो किसी दूसरी दुकान पर चला आया हूँ। बहुत खोजने पर भी अशोक पाण्डे का नाम नहीं मिला। फिर इरफ़ान के ब्लॉग से उनके ब्लॉगरोल में जाकर कबाड़खाना पर क्लिक किया तो एक दूसरे दुकान पर पहुँचा। इसका नाम भी कबाड़खाना था। किन्ही कामरेड पंत जी के संस्कृत कबाड़ की एक रोचक कहानी कोई ताज़ी-ताज़ी बेच कर गया था।
ह्म्म.. तो राज़ खुला कि वाक़ई एक ही नाम से दो ब्लॉग सक्रिय हैं.. उनके पते में भी सिर्फ़ एक 'a' का ही फ़र्क है और दोनों सक्रिय भी लगभग एक ही समय पर हुए हैं। दोनों श्रेष्ठ कबाडि़यों से मेरा निवेदन है कि भाई एक ही मोहल्ले में रहना है.. कबाड़ खरीदना-बेचना है.. तो थोड़ा आपस में समझौता कर के नाम में कुछ अन्तर कर लो। जनता के लिए थोड़ी सहूलियत होगी और आप के लिए भी।
2 टिप्पणियां:
हम जैसे कबाड़ी का अनुरोध भी यही है.वैसे आज 'चिरका दिवस' है आपको भी इसीलिये बू आयी क्या ?
भाई अशोक के कबाड़ख़ाने में आपको रामनगर का टौंचा जैसा भी एक लिन्क मिलेगा, समय मिले तो इन तीनों को पढ़ जाएं.बिल्लू का एक और रूप यहां है.
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