गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

दाता

इतवार का दिन था। कई दिनों के कोहरे के बाद कुनमुनी धूप निकल कर आई थी। साढ़े-दस ग्यारह बजे की मुतमईन घड़ियों में बच्चे और नौजवान जहाँ जगह मिले खेल रहे थे। प्रौढ़ और वृद्ध घरों के बाहर कुर्सियां डाल के पड़े हुए थे या बेवजह ही छायाओं की अवहेलना करते हुए धूप के आगे   चहलकदमी कर रहे थे। मगर शांति धूप की अवहेलना करते हुए एक बंद कमरे की घुटी हुई हवा में पुराने सामान को उलट-पुलट रही थी। एक तरफ़ बड़ी सी अलमारी की छोटी-छोटी दराज़ों में पुराने फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी रेकार्डस और ऑडियो कैसेट्स थे। दूसरी दीवार के सहारे लगी रैक्स में रीडर्स डाइजेस्ट, सारिका और माधुरी जैसी पुरानी पत्रिकाओं के अंको के ढेर लगे हुए थे। तीसरी और चौथी दीवार के सहारे अलग-अलग चट्टों में इब्ने सफ़ी, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत के उपन्यास बेतरतीब अन्दाज़ में उपेक्षित से पड़े हुए थे। हालांकि जिस मोटाई की धूल हर साज़ों- सामान पर पसरी हुई थी, वो किसी को भी उपेक्षित का दर्ज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त थी।

'कैसा लग रहा है आप को?' शांति से यह सवाल पूछा आत्माराम जी ने। शांति ने दराज़ में क़ैद कैसेट्स में फंसी अपनी नज़र निकालकर आत्माराम जी को देखा। वो अपनी लहराती सफ़ेद दाढ़ी और मुस्कराती आँखों के वेश में किसी प्राचीन ऋषि जैसे लग रहे थे। उस कमरे और उसमें मौजूद हर असबाब के स्वामी आत्माराम जी ही थे। जिन्होने अपरिग्रह या वैराग्य जैसी किसी भावना से  प्रेरित होकर अपने उस प्रिय और प्राचीन संग्रह को दान करने का इरादा कर डाला था। और उस  इरादे को एक रंगीन कागज़ की शकल में सोसायटी की हर इमारत की नोटिस बोर्ड में चिपका दिया था। शांति आत्माराम जी को पहले से नहीं जानती थी- वही नोटिस पढ़कर आई थी। और अब उस से आत्माराम जी ने पूछा था कि कैसा लग रहा है उसे। 'उनके संग्रह को देखकर' का वाक्यांश उन्होने कहा नहीं था पर वो सवाल में अन्तर्निहित था।
'अच्छा लग रहा है..' शांति ने कहा। पर वो और कह भी क्या सकती थी।
'पर आप ये सब दे क्यों रहे हैं..?' शांति ने पूछा।
'अब क्या होगा इस सब कबाड़ का.. पड़ा-पड़ा धूल खाता रहता है बस', आत्माराम जी को पत्नी सुमित्रा देवी कमरे में चली आईं थीं। और उनके हाथों में एक ट्रे ही जिसमें ग़ज़क, चिक्की और तिल के लड्डू थे।
'लो खाओ!', उन्होने ट्रे शांति के आगे कर दी।
'नहीं-नहीं.. मैंने अभी नाश्ता किया है।'
'तो क्या हुआ.. ये तो नाश्ते के बाद खाने की चीज़ है..लो खाओ!', सुमित्रा देवी के स्नेहिल आग्रह के आगे शांति को झुकना ही पड़ा।
'मुझे जो पढ़ना था, पढ़ चुका.. सुनना था, सुन चुका.. अब दूसरे लोग इसका सुख लें.. इसी कारण मैंने  इन्हे दान करने का फ़ैसला किया..'
दान करने का भी सुख होता है.. आप को कैसा लग रहा है' शांति ने पूछा।
'अच्छा लग रहा है..', आत्माराम जी अपने सुख की गहराई से मुसकराए।

जब तक यह बात हो रही थी, सुमित्रादेवी ने गुड़ की ग़ज़क की पूरी पट्टी अचरज के मुँह में ठूँस दी। अचरज भी आया था शांति के साथ। आया क्या था, घसीटकर लाया गया था, वो तो धूप में अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहता था पर शांति ही उसे किताबों और संगीत की दुनिया से एक क़रीबी रिश्ता बनाने की नीयत से खींच लाई। आया गया था तो वो भी कुछ अलट-पटल कर देख रहा था, हालांकि उसके मतलब की चीज़ें थी नहीं वहाँ पर। शांति को भी अपने मतलब की चीज़ें कम ही दिखीं। रेकार्डप्लेयर न होने के कारण रेकार्डस तो किसी काम के थे नहीं और कैसेट्स भी अधिकतर उसकी पसन्द के नहीं थे। पर फिर भी बचपन में सुने गानों को फिर से सुनने के चाव से उसने कुछ कैसेट्स अलग कर लिए।

'एक व्यक्ति के लिए पाँच आईटम से ज़्यादा नहीं..' आत्माराम जी ने स्थिर स्वर में कहा।
'जी?!', शांति थोड़ा हड़क गई।
'मैं चाहता हूँ कि मेरा संग्रह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे..'
'अच्छा ख़याल है.. पर मुझे बस यही दो चाहिये..'
कैसेट्स के कवर पर पंकज मलिक और सी एच आत्मा को देखकर आत्माराम जी के चेहरे की लकीरों में विछोह के दर्द की तस्वीर बन गई।
'तो ये दोनों जायेंगे..! ?'
उनकी आवाज़ को सुनकर शांति को लगा कि शायद वो उन्हे देना नहीं चाहते..
'अगर आप इन्हे रखना चाहें तो..'
'नहीं-नहीं.. आप लेके जाइये.. बस इस रजिस्टर में अपना नाम-पता लिख दीजिये..'
'जी?' शांति को समझ नहीं आया..
'अगर कभी मुझे इन्हे सुनने का मन किया तो मुझे पता रहेगा कि ये कहाँ हैं..'
'..ओके..' शांति अटपटा के बोली।

शांति जब अपना नाम दर्ज़ कर रही थी, आत्माराम जी ने कैसेट्स के भीतर एक मोहर मार दी- जिस में उनके नाम व नम्बर के अलावा सप्रेम भेंट भी छपा हुआ था। शांति को लगा कि वो किसी लेण्डिंग लाइब्रेरी में चली आई है।
'मैं यह ले लूँ अंकल?' अचरज एक पुराना ध्वस्त सा एलबम हाथ में लेके खड़ा था।
'अरे ये.. ये तो मेरा स्टैम्प कलेक्शन है..' आत्माराम जी ने विकलता से कहा।
'ले लो बेटा ले लो.. इनके किसी काम का नहीं.. ले जाओ!', सुमित्रा जी ने साधिकार कहा तो अचरज की बाँछे खिल गई। लगभग अनमने से आत्माराम जी ने अपने रजिस्टर में उस एलबम के आगे अचरज का नाम दर्ज़ कर लिया। उनके घर से निकल कर अचरज काफ़ी प्रसन्न था। वो एलबम लेके सीधे घर जाने के बजाय घास में खेल रहे अपने दोस्तों के बीच दौड़ गया और उत्साह से उन्हे अपनी नई निधि दिखाने लगा।
**
तीन दिन बाद। शाम को जब शांति घर से लौटकर साँस ले रही थी तो अचानक आत्माराम जी चले आए.. कहने लगे- 'पंकज मलिक सुनने का मन कर रहा था..'
शांति और कर ही क्या सकती थी.. उनका कैसेट था.. उन्होने दिया था.. वही माँग रहे हैं.. कोई कैसे ना कर सकता है.. देना ही पड़ेगा। शांति ने चुपचाप ला के दोनों कैसेट उन्हे थमा दिए। शांति को उम्मीद थी कि वे सी एच आत्मा के कैसेट को लौटा देंगे.. पर वे कुछ नहीं बोले। हाथ में दोनों कैसेट थामे-थामे उन्होने पूछा- 'अचरज नहीं दिख रहा.. ?'
'वो अपने एक दोस्त को आपका एलबम दिखाने गया..',  शांति की उम्मीद फिर ग़लत साबित हुई- उसने सोचा था कि वे ख़ुश होंगे पर वे तो विकल हो गए।
'दोस्तों को.. ? वो स्टैम्प्स बाँट तो नहीं रहा न.. '
'पता नहीं.. मैंने पूछा नहीं.. '
'नहीं.. उसमें कुछ स्टैम्प्स हैं जो मैं अपने पोते को देना चाहता हूँ.. बहुत दुर्लभ स्टैम्प्स हैं.. '
उनके बेचैनी देखकर शांति को कहना ही पड़ा कि अचरज के आते ही वो उसे एलबम के साथ उनके घर भेज देगी। इस आश्वासन के बाद आत्माराम जी अपनी बूढ़ी काया को लिए-लिए सीढ़ियाँ उतर गए।

लौटकर आने पर अचरज ने बहुत हाथ-पैर फेंके कि एक बार दे दिए जाने के बाद वो एलबम उसका हो चुका है पर शांति ने उसे डाँटकर चुप करा दिया। अगले दिन अचरज को भारी मन से उस सप्रेम भेंट को भी उनके घर पहुँचाना पड़ा। उसके नन्हे हाथों के मुक़ाबले एलबम पर आत्माराम जी की पकड़ अधिक बलवती थी।

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(इस इतवार को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 


गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

यमदूत



गाँधी जी ख़ुद एक वकील थे पर वो वकालत के पेशे को बड़ा बुरा समझते थे। उनका मानना था कि वकील झगड़ा निबटाने के बदले झगड़ा बढ़ाने का काम करते हैं, लोगों को चाहिये कि अदालत न जायें और अपना झगड़ा आपस में ही निबटा लें। शांति ने उनकी किताब हिन्द स्वराज पढ़ रखी थी। शांति को ठीक-ठीक याद नहीं पर मोटे तौर पर उसमें गाँधी जी वकीलों से भी ज़्यादा बुरा पेशा डॉक्टरी का लिखते हैं और अस्पतालों में पाप की जड़ होने की बात करते हैं। उन दिनों शांति नौजवान थी और दुनिया के हर पहलू को आदर्श नज़रों से देखने की कोशिश करती थी। बचपन में एक दौर ऐसा भी था जबकि वह ख़ुद भी डॉक्टर बनकर बीमार-बेचारों की सेवा करना चाहती थी। इसीलिए गाँधी जी की ऐसी बातों को उसने, गाँधी जी के प्रति तमाम आदर व सम्मान के बावजूद, एक अतार्किक अनर्गल प्रलाप ही माना। बहुत समय बीत गया। धीरे-धीरे कई कड़वे-कसैले अनुभवों के संशोधनों का शिकार होके के शांति की आदर्शवादी दृष्टि आदर्शों के डेरे से बेघरबार होके दुनियादार हो गई। जीवन के बहुत से पहलुओं के प्रति उसका नज़रिया बदला। वो डॉक्टरों और हस्पतालों के बारे में अब क्या सोचती है वो बाद में बतायेंगे पर पहले वो घटना जिस से गाँधी जी दुबारा प्रंसग में आ गए।

इरफ़ान का छोटा भाई फ़रहान कई दिनों से हस्पताल मे भर्ती था। शांति मिलने गई। शबनम हस्पताल के बाहर ही मिल गई। शांति को देखकर शबनम मुसकराई ज़रूर पर आँखें उदास ही बनी रहीं। आँखों के नीचे झाईंयां पड़ी हुई थीं, शायद थकान और नींद न पूरी होने के चलते। शांति ने फ़रहान का हाल पूछा तो पता चला कि उसके पैंन्क्रियस में कुछ भयंकर संक्रमण हो गया है। एक के बाद एक कई ऑपरेशन हो रहे हैं पर डॉक्टर कुछ भी साफ़-साफ़ कहते नहीं। घरवाले उनकी इस चुप्पी से अपनी उम्मीद की डोर जोड़े हुए हैं।

शबनम ने हौले से उसे बताया कि उसके अपने अनुमान से बचने की उम्मीद बहुत कम है पर अगर वो कुछ बोलती है तो बुरी बनती है.. इसलिए चुपचाप जो हो रहा है होने दे रही है। बीस दिन से आईसीयू में पड़ा हुआ है। ऑक्सीजन की मशीन से लेके न जाने कितने तरह की मशीन के तार और ड्रिप जिस्म से जोड़ रखे हैं। सुबह-शाम टैस्ट हो रहे हैं। हर तीसरे-चौथे रोज़ कोई नई जटिलता पैदा हो जा रही है और नतीजे में एक और ऑपरेशन। ऐसे करते-करते चार ऑपरेशन हो चुके हैं। शबनम ने धीरे से बताया कि डॉक्टर्स ने फ़रहान के पेट को काटकर खुला छोड़ रखा है.. बार-बार चीरने और फिर सीने से बचने के लिए।

ग़लती से एक रोज़ फ़रहान के जिसम को उसी हाल में उसकी माँ ने देख लिया- पछाड़ खा के गिर पड़ीं। रो तो वो पहले भी रही थीं मगर तब से उनकी आँखों की गंगा-जमना बरसाती मिज़ाज की हो गई है। उनको हस्पताल लाने की मनाही कर दी गई है फिर भी वो ज़िद करके चली आती हैं और उन्हे सम्हालना एक अलग काम बना रहता है। और इरफ़ान के अब्बू तो एकदम ही चुप हो गए हैं- न तो कुछ बोलते हैं और न ही हस्पताल आते हैं बस घर पर बैठकर दीवारों को ताका करते हैं। अपने जवान बेटे की इस बीमारी ने उनके चेहरे पर कई सिकुड़नें बढ़ा दी हैं।

पूरा परिवार ग़मज़दा है और फ़रहान की जान के लिए पैसे की कुछ परवाह नहीं कर रहा। वैसे भी हस्पतालों में कोई मोल-भाव नहीं होता। जो रेट बोला जाय, भरना पड़ता है। आदमी अपने दिल के हाथों मजबूर होता है। कितने ही परिवार जो सालों तक पैसा काट-काट कर बचत करते हैं- इसी हस्पताल के चक्कर में सब कुछ न्योछावर करके नंगे हो जाते हैं। और जो बचत नहीं करते वो तरह-तरह के कर्ज़ों के जाल में पड़ जाते हैं। हस्पताल में किसी को रियायत नहीं मिलती। इरफ़ान और उसके परिवार वाले भी फ़रहान की जान के मोह में रोज़ाना पंद्रह से बीस हज़ार स्वाहा कर रहे थे।

शबनम ने कहा नहीं पर एक सच्ची सहेली होने के नाते शांति ने समझ लिया कि शबनम अपने देवर की बीमारी का सोग तो मना ही रही है पर उसके अलावा लगातार की भाग-दौड़ से बेहद थकी और परेशान भी हो चुकी है। परिवार वाले लगभग तीन हफ़्ते से अलग-अलग शहरों से आकर वहीं डेरा डाले पड़े हैं। दिन-रात घर और हस्पताल के बीच चक्कर मार रहे हैं। कुछ लोग तो हस्पताल के आस-पास ही कुछ भी खा-पी के काम चला रहे थे, फिर भी दस-बारह जनों के लिए शबनम सुबह-शाम खाना बना रही है। और उनके कपड़े भी धो रही है। क्योंकि इतने सारे अतिरिक्त काम को करने से शबनम की बाई ने करने से इंकार कर दिया। काम का बोझ उतना भारी नहीं था मगर पूरे परिवार में छायी मुर्दनगी का बोझ उठाना कहीं दुश्वार था।

और हुआ वही जिसे न तो डॉक्टर बता रहे थे और न घरवाले तस्लीम करने को राज़ी थे। तेईस दिन के हस्पताल वास के बाद हस्पताल वालों ने उनका बिल तैयार कर दिया। फ़रहान का लाइफ़सपोर्ट हटा लिया गया। संयोग से शांति उस वक़्त उनके साथ ही मौजूद थी जब मनहूस ख़बर आई और घरवालों में रोना-पीटना मच गया। शांति ने सबसे संयत होने के नाते काग़ज़-पत्तर का काम सम्हाल लिया। हस्पताल के काग़ज़ात पर फ़रहान की रूह ठीक उसी पल इस आलम से आज़ाद हुई थी। लेकिन अगर लाइफ़सपोर्ट को हटाते के बाद फ़रहान के फेफड़ों ने एक भी साँस नहीं भरी तो साफ़ है कि फ़रहान नहीं उसके बेजान जिस्म में ऑक्सीज़न फूँककर दिन-रात काटे जा रहे थे। ये कसरत घरवालों की 'हर कोशिश कर लिए जाने की तसल्ली' के लिए की गई थी या शुद्ध रूप से हस्पताल का मीटर चलाते रखने के लिए- उस ग़मगीन मौक़े पर यह सवाल पूछने का मन किसी घरवाले का नहीं था। शांति का मन ज़रूर था पर वो भी मौक़े की नज़ाकत को देखकर चुप रह गई। और सोचती रही कि उसी नज़ाकत का नाजायज़ फ़ायदा उठाते रहे हैं हस्पताल वाले।

शांति ने देखा कि फ़रहान का जिस्म आईसीयू से निकलने के साथ ही एक दूसरा बेहोश जिस्म उस कमरे में दाख़िल कर दिया गया। शांति को लगा जैसे कि फ़रहान की मौत का ऐलान करने के लिए वो उस कमरे के अगले किराएदार का इंतज़ार भर कर रहे थे। फ़रहान तो बहुत पहले ही मर चुका था। शांति को अचानक लगा कि वो हस्पताल, बीमारों के चंगा करके दुनिया में वापस भेजने से ज़्यादा उन्हे यमराज के पास भेजने का टोलनाका है। और डॉक्टर्स एक तरह के यमदूत हैं जो इन्सान को इस पार से उस पार भेजने का शुल्क वसूल करने का व्यापार करते हैं।

ये वो पल था जब शांति को बरसों पहले पढ़ी हिंद स्वराज की याद हो आई। और नौजवानी में जिस बात पर वो गाँधी जी से सहमत नहीं हो पाई थी, उस पल में उसे एक बार फिर गाँधी बाबा पर श्रद्धा हो आई कि उन्होने सौ बरस पहले ही इन यमदूतों के असली किरदार को पहचान लिया था।


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


सोमवार, 12 दिसंबर 2011

जय भीम !


सरला के आने का समय सवा आठ का तय था। लेट होती तो आठ पचीस नहीं तो आठ तीस तक ज़रूर सरला की चाभी दरवाज़े के लैच में घूमने की आवाज़ आ जाती। सरला कभी घंटी बजाकर घर में नहीं आती थी। उसे पता था कि सुबह के वक़्त सब लोग समय के विरुद्ध एक विषम संघर्ष कर रहे होते हैं। और घर के सभी लोगों के घर में रहते हुए भी शांति द्वारा दी हुई चाभी का इस्तेमाल असल में घरवालों के उस हड़बड़ाए हुए संघर्ष के प्रति सरला की हमदर्दी और रहमदिली है। सवा आठ के बाद, आठ पचीस. आठ तीस बज गए - दरवाज़े के लैच में सरला की चाभी घूमने की सुकूनसाज़ आवाज़ नहीं आई। समय की अबाध चाल में पौने नौ, नौ, साढ़े नौ सभी बजते रहे पर सरला नहीं आई। एक फ़ोन भी लिया था सरला ने पर वो बिल समय पर न जमा न करने के कारण उन दिनों पूरी तरह स्थगित था।

शांति ने सरला को हिदायत दे रखी थी कि नागा करना तो हफ़्ते के किसी भी दिन कर ले पर छुट्टी वाले दिन मत कर। हफ़्ते भर दफ़्तर में घिसने के बाद छुट्टी के दिन घर में घिसना मंज़ूर नहीं था शांति को। उस दिन वो पूरा आराम चाहती थी। उस दिन मंगल था पर वो छुट्टी का ही दिन था। बच्चों के स्कूल की तो छुट्टी थी ही, अजय और शांति का दफ़्तर भी बंद था। लेकिन सरला के नागा कर जाने से शांति की छुट्टी बेकार हो गई।

सरला की अनुपस्थिति से घर पूरी तरह श्रीहीन सा हो गया था। शांति ने कोशिश की। घर ठीक किया, बरतन मांजे, नाश्ता बनाया, पर सरला वाली बात नहीं बनी। नाश्ता करते ही पाखी इमारत के दूसरे बच्चों के साथ क्रिकेट खेलने नीचे भाग गई और अचरज सामने वाले घर में अपनी हमउम्र सहेली टिप्पा के घर चला गया। अजय अपना लैपटॉप गोद में रखकर घर में ही दफ़्तर खोलकर बैठ गया। और चैन की दो साँस लेने के लिए बैठी शांति को एकेक करके घर के वो सारे छूटे हुए काम याद आने लगे जो हफ़्तों से वो टालती रही थी। परदे पुराने हो गए थे-वो नए खरीदने थे; अजय ने अपनी चाभी खो दी थी तो उसके लिए एक डुप्लीकेट बनवानी थी;  फ़िल्टर कॉफ़ी का पाउडर ख़रीदना था जो पूरे शहर में सिर्फ़ हबीबगंज नगर की एकमात्र दुकान पर मिलता था; और अपने लिए एक आरामदायक सैण्डल ख़रीदना था- छुपकर। क्योंकि अजय को हमेशा लगता है कि वो कुछ ज़्यादा ही सैण्डल खरीदती है।

निकलते-निकलते ढाई बज गया। दोपहर की वो दुर्लभ मीठी नींद छोड़कर निकलना आसान नहीं था पर निकली। उसकी सूची में जो-जो काम दर्ज़ थे उन्हे निबटाने के लिए उसे शहा के तीन छोरों पर जाने की ज़रूरत थी। शहर के उत्तरी छोर पर स्थित दुकान से उसे पर्दे खरीदने थे- उस राह पर चलते हुए उसे इमाम हुसैन की शहादत की याद में इमामबाड़े की ओर जाता हुआ ताजियों का समूह और साथ चलते मातमियों का जुलूस मिला। शांति ने मन ही मन करबला की करुण कहानी को याद किया और इमाम को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर के आगे बढ़ी। फ़िल्टर कॉफ़ी खरीदने के लिए शहर पश्चिमी जाते हुए जब वो हबीबगंज से गुज़र रही थी तो रास्ते में उसे एक अलग दल झण्डे-बैनरों के साथ मार्च करता हुआ मिला। और तब शांति को याद आया कि मंगल को पड़ने वाली उस मुहर्रम की तारीख़ ६ दिसम्बर थी। वो काला दिन जिसके बाद से शहर के दो समुदायों के बीच तनाव की दीवार कई फ़ुट और ऊँची हो गई थी। ज़ेहन में उन दिनों की वीभत्स यादें आते ही शांति सिहर गई। और तेज़ी से स्कूटर चलाकर उन यादों से दूर भाग चली।

सैण्डल ख़रीदने के लिए उसका स्कूटर शहर पूर्वी की तरफ़ मुड़ गया। शोरूम पहुँचने के पहले ही  रास्ते में कुछ जाम मिला। शांति ने देखा कि चौराहे पर आकर मिलने वाली आड़ी सड़क से एक और जुलूस गु़ज़र रहा था। इस जुलूस में न तो ताजिए थे और न ही काला दिवस मनाने वाले काले झण्डे। जुलूस का मुँह शांति से आड़ा होने के कारण शांति बैनरों पर लिखी इबारत ठीक से पढ़ नहीं पा रही थी। सिर्फ़ एक बैनर पर उसे जय भीम लिखा हुआ दिखाई दिया। शांति घबरा गई.. क्योंकि भीम नाम से वो एक ही महाभारत वाले महाबली भीम को जानती थी। उसे अंदेशा हुआ कि वो जुलूस काला दिवस मनाने वाले जुलूस के विरोधियों का जुलूस तो नहीं। पर जुलूस में शामिल लोगों के हाव-भाव में भीम वाली कोई आक्रामकता नहीं थी। बल्कि वे बड़े विनीत भाव से धीरे-धीरे नारा लगाते हुए चले जा रहे थे। नारे में भी भीम का ही नाम ले रहे थे- जय भीम बोलो! आगे बढ़ो! जुलूस निकल गया और शांति भीम वाली बात को भूल गई।

अगली सुबह ठीक सवा आठ बजे दरवाज़े के लैच में चाभी घूमने की आवाज़ आई। शांति शिकायती मुद्रा धारण करके रसोई तक पहुँची पर मुसकराती हुई सरला ने पहल की- दीदी कल मैंने आपको देखा था।
'मुझे? कहाँ?'
'आर्यनगर चौराहे पर.. '
'हाँ मैं कल गई थी उधर .. पर तू आर्य नगर चौराहे पर क्या कर रही थी.. ?'
'मैं तो जुलूस में थी!'
जुलूस में?
शांति की आँखों के आगे जय भीम वाला विनीत जुलूस घूम गया।
'वो भीम वाला जुलूस..?
'..हाँ-हाँ दीदी.. वो ही!'
कल के नागे की बात किनारे हो गई.. शांति के कौतूहल ने बाग़ हाथ में ली।
'ये भीम कौन है.. ?'
'भीम.. ? बाबा साहेब!और कौन?!'
बाबा साहेब?'
'हाँ उनका पूरा नाम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर है ना..! कल परिनिर्वाण दिवस था न उनका!'
शांति एकदम सिटपिटा गई और उसकी हालत किसी स्कूली लड़की की तरह हो गई जिसका सही समझे जाना वाला सवाल ग़लत साबित हो गया हो। वो जानती थी डा० अम्बेडकर का काम और पूरा नाम भी जानती थी पर न जाने क्यों वो समझ ही नहीं सकी कि जय भीम में किसकी जय की बात हो रही है।

 सरला ने आगे बताया कि किस तरह बाबा साहेब उसके लिए भगवान से भी बढ़कर हैं। क्योंकि कितने अवतार हुए पर एक ने भी दलितों के उद्धार के लिए कुछ भी नहीं किया। सरला ने ये भी बताया कि उसके घर में भगवान की कोई तस्वीर, कोई मूर्ति नहीं। भगवान के कोने में उसने बाबासाहेब की ही फ़ोटो लगा रखी है।  

शांति को शर्म सी आने लगी अपने आप पर कि वो अपने आपको बड़ा सजग और सचेत समझती है पर उस भीम के बारे में वो न सजग निकली न सचेत, जिसे समाज का सताया हुआ तबक़ा भगवान के समकक्ष या उससे भी आगे रखता है!? और यह सोचकर वह और भी शर्मसार होती रही कि सरला जो उसके घर की दूसरी घरैतिन है उसी के मन में बैठी श्रद्धा का पता भी न पा सकी!? शायद उनके दिलों के बीच कुछ हज़ारों बरस की दूरी है जिसे पाटने में बड़ी मेहनत और कसरत करनी होगी।  

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

मैं नशे में हूँ..



मनीष कुमार जी बोतल साथ लेके शांति के घर आए थे। और आने के पहले से पी के आए थे। दरवाज़ा पाखी ने खोला था। पाखी ने अन्दर आकर अजय को उनके आने की सूचना दी और शांति को उनके मुँह से गंदी बदबू के आने की सूचना दी। मनीष जी बड़े दिनों बाद आए थे। अजय के बचपन के दोस्त थे। शांति दो-तीन बार उनसे बाहर भी मिली थी। बाहर की दुनिया में अजय जी निहायत शरीफ़ आदमी थे। साधारण बातचीत में वो इतना धीरे बोलते थे कि अक्सर उनके कहे हुए शब्द सुनने वाले तक पहुँचने के पहले ही हवा में विलीन हो जाते। भीड़ में इस क़दर मिलकर चलते कि साथ चलते-चलते दृश्य में ही कहीं खो जाते- और अलग से दिखना ही बंद हो जाते। फिर आवाज़ देकर उन्हे बुलाना पड़ता। तो कहीं पास से ही दुर्बल स्वर से वे अपने अस्तित्व का समर्थन करते।

मगर शांति के घर जो मनीष कुमार आते वो कोई दूसरे ही मनीष कुमार होते। उस दिन भी जो मनीष कुमार आए थे वो किसी से दब-दब कर चलने वाले निरीह मनीष कुमार नहीं थे। उनके शरीर की ऊर्जा, गति, संवेग सब अलग था। उनका स्वर भी शेष प्रकृति और संस्कृति से ऊपर, सबसे ऊपर गरज रहा था। कोई चाहकर भी उसे अनसुना नहीं कर सकता। वो अजय के साथ बैठक में थे लेकिन शांति, पाखी और अचरज, सासूमाँ, घर के अलग-अलग कोनों में कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो चुके थे। वे अपने ही घर में मनीष कुमार की विविध अभिव्यक्तियों के श्रोता भर बनकर रह गए थे।

शांति ने सोचा कि विदा करके उनसे मुक्ति पाने का यही एक तरीक़ा होगा कि उन्हे खाना खिला दिया जाय। जब शांति बैठक में पहुँची तो वो भयानक रोष में थे। अजय के सामने इस तरह से खड़े होकर अपने हाथ-पैर हवा में फेंक रहे थे जैसे अजय पर कोई हिंसक हमला करने वाले हों। हालांकि अजय चुपचाप हाथ बाँधे बैठा उन्हे सुन रहा था। फिर शांति को समझ आया कि वो किसी और को ही गाली दे रहे थे- बार-बार.. 'मुझे मारेगा साला!? ..मैं उसकी गरदन तोड़ दूँगा.. कपड़े फाड़ दूँगा.. बड़ा गांधीवादी बन फिरता है.. अपने को संत समझता है.. मारूंगा साले को..संटी से मार-मार कर चूतड़ लाल कर दूंगा!!' न जाने वो कोई प्रेत था या अदृश्य आत्मा। इतना निश्चित था कि वो जो भी था उसने मनीष कुमार जी पर या उनके किसी सम्बल पर बड़ी गहरी चोट करने का दुस्साहस किया था।

फिर मनीष कुमार ने जब शांति को देखा तो चेहरे के भाव बदल गए। लड़खड़ाते हुए हाथ जोड़ लिए और माफ़ी माँगते हुए बखानने लगे कि वो शांति की कितनी इज़्ज़त करते हैं। उस तथाकथित इज़्ज़त की मात्रा को परिभाषित करने के लिए उन्होने अलग-अलग सुरों में कई बार 'बहुत' उच्चारित किया। हालांकि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद वो शांति को कनविन्स कर पाने में असफल रहे। और शांति निश्चल भाव से उन्हे खाने के लिए बुलाती रही। मगर उनकी 'बहुत' इज़्ज़त का कोई अल्पांश भी शांति के आग्रह पर ग़ौर करने के काम न आया। शांति लौट कर भीतर चली आई। वो पीते रहे, बहकते रहे, भड़कते रहे। और तभी उठे जब बोतल में बहकने के लिए सारा ईन्धन शेष हो गया।

शांति ने ईश्वर का धन्यवाद किया और अजय से कहा कि वो उन्हे घर तक छोड़ आए। अजय अपनी गाड़ी की चाभी लेकर नीचे उतरा तो उम्मीद थी कि उनकी यातना समाप्त हो जाएगी मगर और लगभग आधे-पौने घंटे तक कभी ज़ोर-ज़ोर से बेहूदे सुर में गाने की और कभी चिल्ला-चिल्लाकर बहस करने की आवाज़े आती रहीं। कुछ अड़ोस-पड़ोस के लोग भी अपनी बालकनी में खड़े होकर तमाशा देखने व सुनने लगे। फिर जब अजय की कार के बदले एक बाईक की घरघराहट आई और सारी आवाज़े शांत हो गईं तो शांति समझ गई कि अजय उन्हे समझाने में विफल रहा।

जब लौटा तो शांति ने पूछा- 'और तुमने अकेले जाने दिया उन्हे..? एक्सीडेंट हो गया तो?'
'इतनी देर से यही तो समझा रहा था.. पर वो माना नहीं.. कहता रहा कि वो दुनिया का सबसे अच्छा ड्राईवर है..'
'हे भगवान!.. कैसा आदमी है..?'
'बेचारा बहुत दुखी है..'
'बेचारा?.. दुखी?.. वो एक नम्बर का स्वार्थी है..अपने अलावा किसी की नहीं सोचता..'
'क्या कह रही हो तुम.. बहुत भावुक और संवेदनशील आदमी है.. '
'होगा.. पर सिर्फ़ अपनी भावनाओं के लिए संवेदनशील है.. अगर सचमुच संवेदनशील होता तो समझ नहीं जाता कि उसके यहाँ आकर ड्रामा करने से हम सब को कितनी तकलीफ़ होती है?'
'अरे.. बेचारा.. पीने के बाद..'
'किसने कहा है पीने को.. क्यों पीता है? क्या पीकर अधिक बुद्धिमान हो जाता है? अधिक बलवान हो जाता है? पीकर के बस अपनी ओछी भावनाओं में लिथड़ता रहता है.. सोचता है कि दुनिया बड़ी पत्थरदिल हैं और वो सोने के दिलवाला है?'
'हम्म.. ये तो है.. इसकी बीवी ने भी शायद इन्ही सब बातों से तंग आकर आग लगा ली थी.. '
'और देखो..फिर भी नहीं सुधरा!?.. मेरी तो समझ में नहीं आता कि सरकार शराब पर बैन क्यों नहीं लगा देती.. '
'अरे.. ये कैसी बात कर रही हो..? डेमोक्रेसी है.. लोग पीना चाहते हैं तो कैसे बैन लगा देंगे? और अगर सही मात्रा में पी जाय तो सेहत के लिए अच्छी है..'
'अच्छा?? .. ज़रा पता कर लो कितने पीनेवाले मरते हैं लिवर के सिरोसिस से.. और एक बार पीना शुरु कर दिया तो मात्रा का होश रहता है क्या किसी को? .. और लोग तो चरस-गांजा-स्मैक भी पीना चाहते हैं.. उस पर क्यों बैन लगाते हैं?.. स्मोकिंग को बुरा क्यों मानते हैं..? वो भी तो लोग पीना चाहते हैं?'
'अरे उन नशे से तो ज़िन्दगी बरबाद हो जाती है.. '
'और शराब से.. ज़िन्दगी संवर जाती है? कभी उन औरतों से पूछो जो रोज़ अपने शराबी पतियों से पिटती हैं.. अगर कभी सर्वे कराओ तो हर औरत शराब बैन करने के पक्ष में वोट देगी.. '
'हर औरत?'
'सौ में से पन्चानबे तो देंगी..पक्का देगी!' शांति बहुत आन्दोलित थी। और उसकी इस अवस्था को भाँपकर अजय ने हथियार डाल दिये- 'अच्छा जाने दो.. वो गया अपने घर..उसके चक्कर में हम क्यों लड़ें? मैं तो नहीं पीता उसकी तरह शराब.. और न ही तुम्हें पीटता हूँ..? पीटता हूँ क्या..?.. चलो सो जाते हैं.. बहुत रात हो गई..'

अजय के मनुहार से शांति सो तो गई। पर जब सुबह उठी तो भी यही बात उसके सर में चकरा रही थी। और जब सरला काम करने आई तो शांति ने उससे पूछा- 'क्यों सरला, तुम्हारा पति भी तो शराब पीता है न..?
'बहुत! ..रो़ज़ पीता है.. मेरे पैसे छीन के पीता है.. '
'तो फिर क्या करती हो तुम? '
'क्या करुँ.. मेरा बस चले तो मैं उसे खम्बे से बांधकर संटियों से पीटूँ!! पर वो तो मुझे ही पीटता है!!'

***


(इसी इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


चित्र: मार्क शगाल


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