रविवार, 18 नवंबर 2007

बस जिये जाना!

कई बार मैंने दूसरे लोगों के दुख-दर्द और रहने की अमानवीय स्थिति को देखकर अपनी नितान्त मूर्खता में ऐसा सोचा है कि वे आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते? अपने भविष्य में होने वाले रोगों के सम्बन्ध में सोचते हुए भी आत्महत्या के बेहूदे संकल्प के विषय में भी विचार किया है। पर आधा जीवन जी लेने और रोगों से भी कुछ सामना कर लेने के बाद ऐसे विचारों की खोखलेपन को समझ लिया.. जिन्हे दोस्तोयेवस्की ने अपराध और दण्ड में ऐसे लिखा है..

"जब किसी को मौत की सज़ा सुना दे जाती है तो वह अपनी मौत से घंटे भर पहले कहता है या सोचता है कि अगर किसी ऐसी ऊँची चट्टान पर, किसी ऐसी पतली सी कगर पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ़ खड़े होने की जगह हो, और उसके चारों ओर अथाह सागर हो, अनंत अंधकार हो, अनंत एकांत हो, अनंत तूफ़ान हो, अगर उसे गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजार साल तक, अनंत काल तक खड़े रहना पड़े, तब भी फ़ौरन मर जाने से इस तरह जिये जाना कहीं अच्छा है! बस जिये जाना, जिये जाना और जिये जाना! ज़िंदगी वह कैसी भी हो!.. कितनी सच बात है! क़सम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा बदज़ात है!.. बदज़ात है वो जो उसे इस बात पर बदज़ात कहता है,"

मनुष्य के भीतर ऐसी जीवन-वृत्ति के बावजूद कुछ ऐसे ज़िन्दादिल लोगों से भी मेरा परिचय रहा जिन्होने स्वयं आत्मघात कर लिया.. कैसा विचित्र बल है आदमी की (आत्मघाती!) विचार शक्ति में जो जीवन-वृत्ति को भी परास्त कर देती है।

10 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

मनुष्य के भीतर ऐसी जीवन-वृत्ति के बावजूद कुछ ऐसे ज़िन्दादिल लोगों से भी मेरा परिचय रहा जिन्होने स्वयं आत्मघात कर लिया..
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यू डेयर नॉट बी सच जिन्दादिल। (नो स्माइली अटैच्ड)

बेनामी ने कहा…

गोरख बाबा से भी ?

मनीषा पांडे ने कहा…

हां अभय, जीवनी शक्ति में बड़ी ताकत है, लेकिन आत्‍मघात की शक्ति में उससे भी कहीं ज्‍यादा। अमरकांत की एक कहानी है, जिंदगी और जों‍क। आपकी इस पोस्‍ट के संदर्भ में बरबस ही उसकी याद हो आई। जिस क्षण कोई ऐसा निर्णय लेता है, उस क्षण वही उसके जीवन का यथार्थ होता है। जिंदगी तब गौण हो जाती है। यह दुनिया का नहीं, समाज का नहीं, जीवन और मृत्‍यु के सिद्धांतों का नहीं, उस व्‍यक्ति का सच है, उसके उस क्षण का सच।

Pratyaksha ने कहा…

पता नहीं आत्मघाती कायर होते हैं या फिर अतिशय बहादुर । पर कोई भी परिस्थिति , कितनी भी दारुण हो , आत्मघात को जस्टीफाई करे ये मेरी समझ में नहीं आता । आखिर मरना तो है ही एक दिन फिर जी कर क्यों न देख लिया जाय । दोबारा ये मौका कहाँ मिलेगा ?

Farid Khan ने कहा…

आत्मा चूंकि अमर है... इसलिए जब तक वह शरीर में रहती है हमें जिये जाने विचार देती रहती है।
काफ़ी काव्यात्मक है आपकी बात ।

ghughutibasuti ने कहा…

इस विषय पर मैंने भी बहुत सोचा है । लोगों को यह कहते भी पाया है कि मनुष्य हर हाल में जीना चाहता है कि उसकी जिजीविषा उससे कुछ भी करवा सकती है । परन्तु मैंने अपने आसपास इसके बिल्कुल विपरीत उदाहरण देखें हैं और सोचती हूँ कि जीवन से मोह न करना भी एक गुण है । मृत्यु एक वरदान है जो न होती तो जीवन बहुत कठिन हो जाता । अभी तो एक आशा होती है कि कभी तो समाप्त होगा या असह्य होगा तो समाप्त भी होगा । अमरत्व से बड़ा कोई श्राप नहीं हो सकता ।
घुघूती बासूती

मीनाक्षी ने कहा…

"कैसा विचित्र बल है आदमी की (आत्मघाती!) विचार शक्ति में जो जीवन-वृत्ति को भी परास्त कर देती है।"
और कैसा विचित्र संजोग है कि आज आपने इस विषय पर लिखा जिस पर मेरा विचित्र बेटा महीनों से बात कर रहा है. सिडनी के सुसाइड क्लब का सद्स्य बनने की गुहार.. मर्सी किलिंग का पक्षपाती...जापान के वाइल्ड चैरी ट्री के नीचे दफनाए जाने की विनती ....चाहे वह पेड़ दुनिया के किसी भी कोने मे क्यो न हो. कहता है मौत से भाग नही सकते तो बात करने से क्यों भागा जाए.
(आपका यह लेख पढकर टिप्पणी देने से रोक न पाई...अन्यथा 1-2-05 की पद्मानन से सितम्बर तक का सारा लिखित दस्तावेज़ पढ़ चुकी हूँ) अब रूमी हिन्दी खुला है और याद आ रही है भूली बिसरी फारसी..!

Pankaj Oudhia ने कहा…

मन पर तो किसी का बस नही। कभी-कभी विचित्र भी सोचता है पर मुझे लगता है कि जहाँ तक हो सके उस पर नकेल कसने की भी कोशिश करनी चाहिये।

Tarun ने कहा…

जिंदगी जीना आधा भरा गिलास है तो वहीं आत्मघाती होना गिलास को आधा खाली देखने जैसा है।

अभय तिवारी ने कहा…

मीनाक्षी जी.. आप ने मेरा लिखा सब पढ़ डाला यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ.. आप ने मेरे लेखन को इस योग्य समझा.. बहुत धन्यवाद..

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