शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

अरुंधती की नीयत क्या है?

अरुंधती उस देश पर तरस खा रही हैं जो लेखकों की आत्मा की आवाज़ को खामोश करता है। उन्हे तरस आता है उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कार्पोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं। यह पूरा सच नहीं है। बहुत सारे साम्प्रदायिक अपराधी, जनसंहारों के अपराधी, कारपोरेट घोटालेबाज़, लुटेरे, बलात्कारी और ग़रीबों के शिकारी पकड़े गए हैं, उन पर मुक़दमें चलाए गए हैं और तमाम को सज़ा भी हुई है और कई मामले प्रक्रिया में है। लेकिन बहुत से ऐसे अपराधी हैं जो खुले घूम रहे हैं, यह भी सच है। लेकिन एक अधूरे सच को एक सम्पूर्ण सत्य की तरह पेश करने वाली अरुंधती की नीयत क्या है, मैं ठीक-ठीक नहीं जानता।

हालांकि मुझे उनकी इस बात पर कोई ऐतराज़ नहीं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है। किसी को ये लग ही सकता है, उसमें क्या समस्या है? मुझे तो कभी-कभी लगता है कि मुम्बई भी भारत का अभिन्न अंग नहीं है। भारत के मुख़्तलिफ़ हिस्से भारत के भिन्न-भिन्न अंग हैं। उनके इस बयान पर जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, वो बेकार की बाते हैं। सच तो ये है कि मैं स्वयं कश्मीरियों को अधिक से अधिक स्वतंत्रता देने के पक्ष में हूँ। अगर देश से अलग होकर पाकिस्तान से मिल जाने में ही उनकी ख़ुशी है तो मुझे उसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं दिखती। लोगों से अलग न तो कोई देश होता है और न कोई राष्ट्र। लेकिन क्या मामला मेरी आपत्ति का है? क्या राजनैतिक यथार्थ महज़ नैतिकताओं और सदिच्छाओं से संचालित होता है। अगर कोई ऐसा समझता है तो उसकी बचकानी समझ पर तरस खाने के सिवा मेरे पास और क्या विकल्प है?

और तरस से मैं लौटता हूँ अरुंधती के बयान पर जिसमें वे भारत पर तरस खा रही हैं। मुझे उनके इस बयान पर वाक़ई ऐतराज़ है। ये सच है कि हमारा देश कोई हमारे सपनों का भारत नहीं है, भारत में तमाम सारी समस्याएं है, भ्रष्टाचार है, विषमताएं हैं, बहुत सारा कूड़ा-करकट है। जिसको लेकर सभी सचेत नागरिक समय-समय पर चिंतित होते रहते हैं। हमारा देश, हमारा समाज कैसे और बेहतर हो, इसकी चिंता करना स्वाभाविक है मगर जो अरुंधती करती हैं उसे अंग्रेज़ी में ‘इण्डिया-बैशिंग’ (यानी भारत की पिटाई) कहते हैं। और अरुंधती ने इस ‘इण्डिया-बैशिंग’ में महारत सी हासिल कर ली है। हम सब अपने देश को कभी-कभी गरियाते हैं मगर अरुंधती का गरियाना एक्स्ट्राशक्ति और एक्स्ट्राआनन्द के साथ होता है। आज तक उनके इस गरियाने पर लोगबाग दुखी भले हुए हों मगर उन पर राज्य या सरकार ने कभी निगाहें टेढ़ी नहीं की। तो वो किस आधार पर उस देश पर तरस खा रही हैं जो लेखकों की आत्मा की आवाज़ को खामोश करता है? उनके इस अनजानेपन को मूर्खता कहा जाय या मक्कारी?

जब कोई देश को गाली देता है तो वस्तुतः उसके लोगों को ही गाली देता है। देश का अर्थ उस से लोगों से जुदा कुछ नहीं होता। जिस तरह अगर कोई किसी अन्य के ईश्वर को गाली देता है तो वस्तुतः उसे ही गाली देता है क्योंकि उसका ईश्वर उसकी भीतर के सबसे शुभ, सबसे शक्तिमान, और सबसे सुन्दर तत्व की अभिव्यक्ति है। भले ही बाक़ी जगत के लिए उसके ईश्वर में वे सारे गुण दृश्यमान न हों लेकिन उस व्यक्ति की ओर से शुभता, शक्ति और सौन्दर्य के प्रतिमान उसके ईश्वर में आरोपित होते हैं। मैं यह नहीं कहता कि देश ईश्वर है। ये कह रहा हूँ कि देश की अवधारणा में आदमी ने अपनी सामाजिक, सामूहिक पहचान को आरोपित किया होता है। कश्मीरियों और आदिवासियों की हमदर्द बनने वाली अरुंधती भारतवासियों की सामूहिक पहचान पर क्यों इस तरह से हमलावर हो जाती हैं?

क्या इसलिए कि वे भारत के भीतर मौजूद तमाम छोटी-छोटी राष्ट्रीयताओं का तो अनुमोदन करती हैं लेकिन एक अधिक सार्वभौमिक पहचान भारतीयता का खण्डन? किसी भी व्यक्ति के भीतर अपने नाम, पारिवरिक नाम, जातीय पहचान, से लेकर इंसान व प्राणी होने तक पहचानों के कई स्तर होते हैं। व्यक्ति के भीतर मौजूद एक बड़ी पहचान का खण्डन व सीमित पहचान का मण्डन करना, और परोक्ष रूप से भारतीयता में किसी भी एकसूत्रता को नकारना अरुंधती की मूर्खता है  या मक्कारी?

ये ठीक है कि कुछ लोगों में आत्मघृणा के तत्व होते हैं- एक दौर में सभी में होते हैं जिस की अभिव्यक्ति वे अपने माँ-बाप से नफ़रत करके करते हैं- लेकिन अधिकतर लोग अपने आप से, अपने परिवार से और देश से मोहब्बत करते हैं और उस पर किए हुए किसी भी हमले को पसन्द नहीं करते। लगातार भारतीयता की पहचान पर हमला करने वाली अरुंधती की इस आक्रामकता को उनकी मूर्खता कहा जाय या मक्कारी?

अरुंधती कश्मीर में जाकर कश्मीरी पण्डितों के पलायन को बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यको पर अत्याचार न कहकर, एक त्रासदी भर बताती हैं और सैय्यद अली शाह गीलानी की मासूमियत और बदले तेवर से अभिभूत नज़र आती हैं। क्या कोई भी समुदाय अपने पूर्वजों की ज़मीन, घर-बार, ज़मीन-मकाना सिर्फ़ इसलिए छोड़कर भाग खड़ा होता है कि उसे किसी गर्वनर ने कहा है? एक क्षेत्र विशेष से, एक समूह का उसके ख़िलाफ़ बने आतंक के माहौल से घबरा कर पलायन की इतिहास में दूसरी भी मिसालें हैं। क्या अरुंधती इतनी ही मासूमियत से उन्हे भी महज़ त्रासदी, उनकी दुख भरी कहानियों को मनगढ़न्त कह सकती हैं? क्या वे यही बात जर्मनी से यहूदियों के पलायन और नक़बा के वक़्त फ़िलीस्तीन से अरबों के पलायन के लिए भी कहेंगी? यह ठीक है कि पण्डितो का मामला हत्याओं व पलायन के परिमाण में ठीक-ठीक जर्मनी के यहूदियों और फ़िलीस्तीनी अरबों जैसा नहीं है मगर उसका चरित्र वही है। महमूद अहमदीनेज़ाद के होलोकास्ट को नकारने की तर्ज़ पर अरुंधति का मानना कि पण्डितों पर हुआ अत्याचार अधिकतर मामलों में उनके द्वारा पैदा की गई एक झूठी कहानी है- यह अरुंधती की मूर्खता है मक्कारी?

याद रहे सैय्यद अली शाह गीलानी वही शख़्स हैं जिन्होने १९८९-९० में “आज़ादी का मतलब क्या? ला इलाहा इल अल्ला!” चिल्लाकर पण्डितों को हत्याओ करने और अन्ततः उन्हे घाटी से खदेड़ने वाली हिंसक भीड़ का (परोक्ष या अपरोक्ष) नेतृत्व किया था। और ये वही गीलानी हैं जिन्होने दो बरस पहले ही श्राइनबोर्ड विवाद के समय पण्डितों से निरापद हो चुकी कश्मीर घाटी की डेमोग्राफ़िक्स बदलने की साज़िश का राग अलापकर ‘इस्लाम ख़तरे में है’ का कार्ड खेला था। पाकिस्तान के ख़ुले समर्थक और जमाते 'इस्लामी'  के नेता गीलानी में गाँधी की छवि देखने वाली अरुंधती मूर्ख हैं या मक्कार?

किसी भी समस्या का एक राजनैतिक समाधान होता है- राजनैतिक समाधान का अर्थ कि जिसमें एक ऐसे हल की दिशा में अग्रसर हुआ जाता है जो व्यावहारिक हो, जिसे लागू किया जा सके, और जो सभी पक्षों को स्वीकार्य भी हो। लेकिन अरुंधती के पास किसी भी समस्या के हल जैसा कुछ भी नज़रिया नहीं है। अरुंधती जो कुछ भी विचारती हुई दिखती हैं वे आदर्शवादी नैतिकता की जुगालियाँ हैं, राजनीति नहीं। वे उत्पात को बढ़ाने में, फ़ित्‌ने की भाषा बोलने में और ऐसे अतिवादी जुमले फेंकने में तत्पर दिखती हैं जो दिखते-सुनने में तो बड़े लुभावने मालूम होते हैं मगर समस्या के निराकरण में उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती।

मगर उनकी सबसे बड़ी ताक़त यही है कि वे एक जुमलेबाज़ हैं। जो पहले से कहे हुए प्रस्थापनाएं हैं उन्हे वे अतिश्योक्त्ति की चाशनी में डाल के परोसने में सिद्धहस्त हैं। इस लिहाज़ से वे देश के पढ़े-लिखे उदारवादी तबक़े के लिए वैसे ही हैं जैसे कि बिहार के अनपढ़ अहिरों के लिए लालू यादव थे। लालू भी अपनी जुमलेबाज़ी से एक ऐसा माहौल रचते थे कि वे कोई वास्तविक आन्दोलन खड़ा कर रहे हैं और एक वास्तविक परिवर्तन के अग्रदूत हैं। मगर सच्चाई इस से कोसों दूर थी, लालू सिर्फ़ अपने हित साध रहे थे। अरुंधती क्या साध रही हैं- ये फ़िलहाल तो ठीक-ठीक नहीं खुल रहा? यहाँ तक कि उनके खोखले जुमलों का सच भी बहुत सारी ‘लिबरल जमात’ पर नहीं खुल रहा। इकतरफ़ा और अतिरंजित जुमले पेश कर के देश की लिबरल जमात को गुमराही के राह पर धकेलना अरुंधती की मूर्खता है या मक्कारी?

अब जैसे अरुंधती का ये जुमला देखिये कि भारत एक सवर्ण हिन्दू राज्य है। क्योंकि यहाँ मुसलमानों, दलितों, ईसाईयों, सिखों, आदिवासियों, कम्यूनिस्टो और प्रतिरोध करने वालों ग़रीबों पर अत्याचार होता है। लेकिन ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है, जिसमें सवर्णों की सत्ता की रक्षा के लिए नहीं दलितों और पिछड़ों को सत्ता में शामिल करने के लिए क़ानून बनते हैं। ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश तक सत्ता पर दलित राजनीति का वर्चस्व है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य जिसमें देश की अनेक समस्याओं के लिए ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों को दोषी ठहराया जाता है और गरियाया जाता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें ब्राह्मण नहीं, दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? अरुंधती जैसी ‘विद्वान’ और ‘सचेत’ महिला भी इस अन्तर को देख पाने और चिह्नित करने में क्यों चूक जाती हैं कि इस राज्य व समाज में अब अगर कोई बायस है तो अब दलितों और पिछड़ों के पक्ष में।

इस 'सवर्ण हिन्दू राज्य' पर अरुंधती समेत सभी माओवादी एक दूसरे आकलन से आरोप  लगाते हैं कि इस देश को साम्राज्यवादी शक्तियां यानी अमरीका आदि और उनके दलाल यानी सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, अज़ीम प्रेम जी, अम्बानी बंधु, टाटा आदि चला रहे हैं। अगर सचमुच ऐसा है तो क्या वे मानते हैं कि इस सवर्ण हिन्दू आग्रह की जड़ अमरीका तक जाती है? और क्या अरुंधती ये मानती हैं कि टाटा, सोनिया और मनमोहन हो सकते हैं पारसी, ईसाई और सिख मगर चिंता सवर्ण हिन्दू हितों की करते हैं? और आप ख़ुद सोचिये कि अम्बानी अपनी नीतियां तय करते वक़्त हिन्दू हित की चिंता करते हैं? भारत को सवर्ण हिन्दू राज्य बतलाने वाली अरुंधती कश्मीरी आन्दोलन का स्पष्ट वहाबी सुन्नी मुस्लिम चरित्र देखने में जो चूक जाती हैं उसे मैं उनकी मूर्खता समझूँ या मक्कारी?

अरुंधती मानती हैं कि भारत एक कोलिनियल शक्ति है? अरुंधती ने ये बयान कश्मीर जाकर दिया है। कहने का मतलब ये कि वे यह असर पैदा कर रही हैं कि भारत ने कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाया हुआ है। अब तो यह बात आमफ़हम है कि कोई भी ग़ैरकश्मीरी कश्मीर में ज़मीन ख़रीद कर वहाँ अपनी रिहाईश नहीं कर सकता। न तो कोई व्यक्ति और न ही कोई कारपोरेट। और ये भी बात सार्वजनिक है कि भारत या भारत स्थित कोई कारपोरेट कश्मीर से किसी सम्पदा का हरण नहीं कर रहा बल्कि सच्चाई उलटी है, भारत वहाँ पर करदाता के पैसे का बुरी तरह से अपव्यय कर रहा है जिससे मैं स्वयं नाख़ुश हूँ। कश्मीर के सन्दर्भ में उनका यह बयान बिलकुल निर्मूल है। फिर भी अरुंधती इसे बेहद आत्मविश्वास से प्रचारित कर रही हैं। आप बताइये कि उनके इस आत्मविश्वास के पीछे उनकी मूर्खता है या मक्कारी?

दूसरी तरफ़ उनके माओवादी साथी, जिनकी प्रवक्ता की तरह भी अरुंधती सक्रिय हैं, भारतीय राज्य को अमरीकी पूँजी का दलाल बताते हैं। जब उनके समर्थन में अरुंधती बयानबाज़ी कर रही होती हैं तो उनके मुखारविंद से यह भारत एक कोलोनियल शक्ति वाली प्रस्थापना अवतरित नहीं होने पाती, क्यों? क्या इसलिए कि उनके बाज़ू में खड़े होकर अरुंधती कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहती जो उनकी प्रस्थापना के आड़े जाकर उन्हे नाराज़ कर दे? तो इस तरह की मुँहदेखी बात करना अरुंधती की मूर्खता है या मक्कारी?

अरुंधती मानती हैं कि भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करता है? डा० ज़ाकिर नाइक जो ओसामा और तालिबान की ख़ुलेआम ताईद करने की वजह से इंगलिस्तान जाने का वीज़ा हासिल नहीं कर पाए हैं, हिन्दुस्तान में कुछ भी कहने-सुनने के लिए आज़ाद हैं। अपनी मनचाहे विचारों का प्रचार करते हुए वे मानते हैं कि भारत में बोलने की जितनी आज़ादी है उतनी कहीं नहीं। अफ़सोस कि अरुंधती डा०नाइक की तरह साफ़गो नहीं हैं, जो मनचाहे बोलने के लिए आज़ाद होने के बावजूद बेड़ियों की दुहाई देती हैं। तो इसे उनकी मक्कारी कहा जाय या मूर्खता?

अरुंधती मानती हैं कि वे एक स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक हैं? सुनने में यह जुमला बेहद आकर्षक लगता है। लेकिन इस जुमले का खोखलापन किसी ने जाँचा नहीं ठोस सवालो की चोट से। पूछा जाना चाहिये कि एक विराट इम्मोबाइल रिपब्लिक के भीतर स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक होने की आज़ादी उन्हे मिली कहाँ से? क्या यह आज़ादी चीन में है? क्या सोवियत रूस में थी? क्या क्यूबा, ईरान, साउदी अरब में है? और क्या कश्मीर में है? जहाँ मीरवाइज़ मौलवी फ़ारुक़, अब्दुल गनी लोन और न जाने कितने दूसरे नेता पाकिस्तान समर्थित कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवादियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए, क्यो? क्योंकि वे थोड़ी सी वैचारिक आज़ादी का मुज़ाहिरा कर रहे थे। अरुंधती अपने स्वतंत्र मोबाइल रिपब्लिक होने का सेहरा अपने सर पर आप बाँधे घूमती हैं; उसी रिपब्लिक को जुतियाते और थुकियाते हुए, जिसने उन्हे ‘स्वतंत्र’ होने की आज़ादी दी है.. इसे उनकी मक्कारी कहा जाय या मूर्खता?

अरुंधती मानती हैं कि कश्मीर में पिछले तीन माह से भारतीय सुरक्षा सेनाएं निरपराध निहत्थों पर गोलियाँ चला रही हैं? एक तो ये सफ़ाई कर ली जाय कि पत्थर फेंकती भीड़ निहत्थी नहीं होती, जैसे तमाम लोग बता रहे हैं। इस मसले में पूछने की बात ये है कि सुरक्षाकर्मियों गोलियाँ चला रहे थे इसलिए लोग पत्थर फेंक रहे थे? या लोग पत्थर फेंक रहे थे इसलिए सुरक्षाकर्मी उन्हे गोली के डर से धमका कर रोकने की कोशिश कर रहे थे? मेरा ये मानना है कि एक सौ ग्यारह नहीं एक मौत भी बेहद अफ़सोसनाक है, नहीं होनी चाहिये थी। लेकिन ज़रा सोचिये दुनिया की कौन सी सरकार होगी जो पत्थर फेंकती भीड़ के आगे समर्पण कर देगी? राज्य का काम व्यवस्था रखना है, अराजक भीड़ की हिंसा के आगे समर्पण करना नहीं? अगर, मिसाल के तौर पर अगर मैं गीलानी साहब या मैडम अरुंधती की प्रेस कान्फ़्रेन्स में जाकर पत्थर फेंकना चालू कर दूँ तो क्या मेरा विरोध प्रदर्शन हिंसक कहलाएगा या अहिंसक?

पिछले कई दशकों से पाकिस्तान सक्रिय रूप से कश्मीर में तरह-तरह से फ़ित्ना खड़ा करने की मुहिम छेड़े हुए है। हर साल हज़ारों नौजवान और अरबों रुपये सीमा पार से कश्मीर में भेजे जा रहे हैं। हर मुमकिन कोशिश की जा रही है कि ऐसी सूरत खड़ी हो कि भारत में फिर से साम्प्रदायिक आधार पर बँटवारा हो; और इस विशाल देश को छियत्तर टुकड़ों में बाँट दिया जाय और कश्मीर उस योजना की एक केन्द्रीय कड़ी है। खालिस्तानियों और श्रीलंकाई तमिल अलगाववादियों के साथ दिल्ली में आज़ादी का उदघोष करने वाली अरुंधति ये मानकर चल रही हैं कि एक राष्ट्र के छिहत्तर टुकड़े हो जाने से न्याय और शांति की स्थापना हो जाएगी? छिन्न-भिन्न हो जाने में सुनहरे सवेरे को देखने की उनकी यह मासूमियत और इस पूरी तस्वीर में पाकिस्तानी पहलू को नज़रअदांज़ कर देना अरुंधती की मक्कारी है या मूर्खता?

विद्वान लोग बताते हैं कि एक चरित्र वाले लोग एक-दूजे के सदैव शत्रु होते हैं। तो फिर निश्चित ही यह संयोग नहीं है कि अरनब गोस्वामी को सबसे अधिक चिढ़ अरुंधती से है और अरुंधती को अर्नब गोस्वामी से है; अभी हाल की प्रेस कवरेज के बाद अरुंधती की प्रेस कान्फ़रेन्स से टाइम्स नाउ वालों को निकाल दिया गया। अरनब गोस्वामी, राखी सावन्त और अरुंधती राय में वैसे तो बड़ा अन्तर है। लेकिन एक स्तर पर उनमें कोई अन्तर नहीं है, कि ये सभी एक अतिवादी सोच, एक सनसनीखेज़ बयानबाज़ी करके ध्यानार्कषण की नीति में यक़ीन रखते हैं।

अरुंधती कभी माओवादियों से नहीं पूछती कि तुम इन बंदूक की नली से निकालकर सत्ता पा जाओगे तो कौन सा समाज बनाओगे? वो माओवादियों की चन्दाउगाही की भ्रष्ट नीति- जो घूस लेके उद्योगपतियों को मज़े से अपना धंधा चलाने का अधिकार देती हैं- पर कभी सवाल नहीं करतीं? क्यों? क्यों कश्मीरियों के कट्टरपंथी धार्मिकता, उनकी साम्प्रदायिकता और पण्डितों के प्रति घृणा पर वो कभी उन्हे खरी-खरी नहीं सुनातीं? क्यों कभी उनसे नहीं कहतीं कि बन्द करो मासूम नौजवानों को भड़काना? बन्द करो उनके हाथ में गोली, बन्दूक और पत्थर देकर उन्हे बरबादी के रास्ते पर धकेलना? क्यों? क्योंकि वे डरती हैं कि अगर उन्होने राज्य के साथ-साथ आन्दोलनकारियों को भी उसी सुर में गलियाना शुरु कर दिया तो उनको भाव कौन देगा? इसीलिए अगर उनका आन्दोलनकारियों से अलग उनका कोई मत हो भी तो वे उसे ‘इण्डिया-बैशिंग’ के सप्तम सुर से बहुत नीचे, बहुत मंद्र स्वर में उच्चारित करती हैं? क्यों?

अगर कोई यह समझता है कि इतिहास में बदलाव जनान्दोलनों के ज़रिये आते हैं तो वे अहमको़ की ख़ामख़याली में जी रहा है। ज़रा सोचिये मानव जीवन की जिस शकल को हम जी रहे हैं उसे किस जनान्दोलन ने पैदा किया है? मानव जीवन को संवारने और उसे ख़ूबसूरत बनाने वाली शक्तियाँ एकल व्यक्तियों की मेधा, और कुछ संयोगो का मिला-जुला करिश्मा होता है। भीड़, और ख़ासकर नारे लगाने वाली, पत्थर फेंकने वाली उन्मादी, दंगाई भीड़ लूटमार कर सकती है, आगज़नी कर सकती है, तोड़-फोड़ कर सकती है, लेकिन रच सिर्फ़ फ़ित्ना ही सकती है और कुछ नहीं। और अरुंधती, इस देश के बहुत सारे संवेदनशील नौजवान और मेरे बहुत से अज़ीज़ दोस्त अभी तक यही समझते हैं कि ग़ुस्साई भीड़ के हिंसक आक्रोश के नताईज से नया मनुष्य पैदा होगा और नया समाज रचेगा। किसी मज़लूम अवाम का स्वतःस्फूर्त तरीक़े से कभी क्रुद्ध हो उठना एक बात है लेकिन सचेत-संगठित सोच के तहत उस क्रोध को विकसित करना और उससे मुक्तिकामी परिवर्तन की उम्मीद रखने को उनकी मूर्खता माने या मक्कारी?

अरुंधती बोलती हैं एक बेहद ऊँचे नैतिक मंच से जहाँ से सारे व्यावहारिकताएं अनैतिक और अनर्गल मालूम देती हैं। वो जहाँ से खड़ी होकर बोलती हैं वहाँ से उनसे असहमत सारे लोग दलाल और अत्याचारी नज़र आते हैं। लेकिन उनकी अपनी सोच एक बेहद सर्वसत्तावादी सोच है। वे लगातार दुहाई देती हैं कि सरकार ने यह नहीं किया, वह नहीं किया, सरकार इस बात की दोषी है, उस बात की दोषी है। कहने का अर्थ ये है कि वे परोक्ष रूप से यह कहती हैं कि राष्ट्र की सीमाओं के भीतर उसके नागरिकों के जीवन में क्या-क्या घटता है, या नहीं घटता है इसकी सीधी ज़िम्मेदारी सरकार पर है, या उसके विभिन्न घटकों पर है। अरुंधती घटको की अलग से बात नहीं करती, वे सीधे एक मोटे तौर पर राज्यसत्ता की बात करती हैं। मुझे नहीं लगता कि ऊपर-ऊपर से इसमें कोई आपत्तिजनक बात दिखती है लेकिन ये बात अन्दर से बेहद ख़तरनाक अवधारणा है। इसी सोच के साथ जब लोग सत्तातंत्र पर क़ाबिज़ होते हैं तो लोगों के जीवन के नियंता बन बैठते हैं और सार्वजनिक जीवन ही नहीं लोगों के व्यक्तिगत जीवन के भी हर पहलू में दखलंदाज़ी करने लगते हैं क्योंकि ऐसा करना वे अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं। इस सोच के क्या दुष्परिणाम निकलते हैं वो हम तमाम ऐतिहासिक उदाहरणो से पहले से ही जानते हैं।

भारतीय विषमताओं और समस्याओं के प्रति सचमुच दुखी व पीड़ित रहने वाले लिबरल जमात के लोग जो अरुंधती जैसी अतिवादी राजनैतिक समझ के जुलूस में मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले हुए ये देख नहीं पाते कि यह उनके नैतिकमोक्ष का मार्ग नहीं है। व्यावहारिकता का रास्ता नीरस, कठिन और लम्बा होता है, क्रांतिकारिता आकर्षक, आसान और फ़ौरी? मगर व्यावहारिकता का मध्यमार्ग ही वह एकमात्र उपाय है जिस से सबका मंगल और सब ओर शांति संभव है। लेकिन व्यावहारिकता की धुरविरोधी अरुंधती हमेशा एक अतिवादी नैतिकता बघारती नज़र आती हैं। फिर पूछता हूँ इसे उनकी मूर्खता माना जाय या मक्कारी?

एक ऐसी दुनिया जिसमें सत्ता की शकल अब तक हिंसा से तय होती आई है, अरुंधती का यह अपेक्षा कि अहिंसा की सर्वोच्च नैतिकता निभाने की ज़िम्मेवारी राज्य पर है, हास्यास्पद है। ये एक आदर्श के रूप में तो भली मालूम देती है लेकिन व्यावहारिक कसौटी पर यह बात किसी समाज को एक दिन भी सुरक्षा और शांति नहीं दे सकती। अन्त में मैं कहता हूँ कि मैं कश्मीरियों की साम्प्रदायिक आन्दोलन से मूलभूत असहमति रखता हूँ फिर भी कश्मीरियों, और नागाओं को अपने भाग्यनिर्धारण का हक़ मिलना चाहिये, इसका समर्थन करता हूँ। साथ ही मैं माओवादियों के साथ भले न होऊँ लेकिन आदिवासियों की वनसम्पदा का उपयोग किस तरह से हो इस प्रक्रिया में उनकी राय सब से अहम हो, इस माँग की भी ताईद करता हूँ। मेरी विनम्र असहमति सिर्फ़ अरुंधती के अतिवाद और उनकी इण्डियाबैशिंग से है।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

विनोद कुमार शुक्ल : कुछ अनमोल वचन



  • मेरी रचनाएं मेरे बाद सब को सम्बोधित हैं पर सब सुनें, यह ज़रूरी नहीं। 
  • लिखने के कर्म से जो जुड़े हुए हैं वे अपने थोड़े से दायरे में जनता के सुनसान में होते हैं।


  • जब लिखा हुआ सुनसान में है तो लेखक भी है।


  • हम रचना में भाषा से अन्तर्निहित में जाते हैं। भाषा एक दूरी होती है, अर्थ के पहुँचने तक की यह दूरी पार करनी होती है।


  • लगातार जटिल होते संसार में कविता बार-बार अधिकतम अभिव्यक्त होती रहेगी। कविता अत्यन्त बौद्धिक, अत्यन्त अभिव्यक्ति के लिए होगी। अत्यन्त बौद्धिक होना अभिव्यक्ति की एक सरलता होगी।


  • अपनी लिपि में भाषा सुरक्षित रहती है, लिपि भाषा के लिए क़िले की तरह है।


  • जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है।


  • उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है। और एक दस क़दम की कविता भी देर तक की चहलक़दमी होती है।


  • दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।


  • आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।


  • रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं।


  • यथार्थ सुख देता है तो स्वप्न जैसा और दुख देता है तो यथार्थ जैसा। 

  • अगर यथार्थ का एक यथार्थ है तो दूसरा यथार्थ कल्पना का भी है।


(कथादेश, अक्तूबर २०१० के अंक में प्रकाशित उनके साक्षात्कार से निकाले कुछ सूत्र) (रेखाचित्र: प्रमोद सिंह)



शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

अमन के लिए फ़ैसला.. इंसाफ़ नहीं है!



साठ साल बाद एक जटिल मसले पर फ़ैसला आया है। इस देश में न्यायिक प्रक्रिया की धीमी निष्क्रिय गति को देखते हुए तमाम लोग शुक्र मना सकते हैं कि वे अपने जीवनकाल में न्यायालय को एक फ़ैसला सुनाते हुए देख पा रहे हैं। बार-बार बताया जा रहा है कि यह एक नया भारत है, और नया भारत आगे बढ़ गया है, और नए भारत के आगे बढ़ जाने का ये भी एक लक्षण है कि वह कठिन फ़ैसले सुनाने में घबराता नहीं है तो यह अच्छी बात है।

लेकिन जो फ़ैसला आया है, मैं उस से मुतमईन नहीं हूँ। ऐसा नहीं लगता है कि यह किसी न्यायालय का फ़ैसला है। लगता है कि जैसे किसी सदय पिता ने अपने झगड़ते बच्चों के बीच खिलौने का बँटवारा कर दिया है- लो तीनों मिलकर खेलो! मैं कोई न्यायविद नहीं हूँ और न ही मैंने सम्पूर्ण फ़ैसले का अध्ययन किया है। लेकिन निर्णय का संक्षेप पढ़ने से जो बात समझ आती है वह ये है कि चीज़ों का फ़ैसला ताथ्यिक आधार पर नहीं बल्कि मान्यताओं के आधार पर किया गया है।

अब जैसे विवादित स्थल पर मन्दिर था या नहीं, इस को तय करने में मान्यता का सहारा लिया गया है। दूसरी ओर कई सालों से खड़ी मस्जिद पर से वक्फ़ बोर्ड के अधिकार को इस क़ानूनी पेंच के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया कि उन्होने मुक़द्दमा करने में छै साल की देरी कर दी। और अगर वक़्फ़ बोर्ड का अधिकार उस ज़मीन पर है ही नहीं तो उन्हे एक तिहाई हिस्सा दिया ही क्यों जा रहा है? क्या यह अदालत के द्वारा उदारता का प्रदर्शन है? या समाज में व्यापक शांति बनाए रखने के लिए एक सौहार्दपूर्ण कोशिश?

हाँ यह ठीक है कि अगर फ़ैसला यह आता कि ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड की है मस्जिद की फिर से तामीर हो, तो हिन्दू सेनाएं फिर से जूझने लगतीं और देश फिर से बेकार के टंटो में उलझ जाता। और अगर यह फ़ैसला आता कि विवादित ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड का कोई हक़ नहीं और वहाँ पर पहले भी मन्दिर था और आगे भी मन्दिर बने तो मुस्लिम मानस निराशा के अँधेरों में डूबकर किसी भयानक नकारात्मकता का शिकार हो जाता। एक तरह से देखा जाय तो ये फ़ैसला दोनों के बीच एक मध्यमार्गी फ़ैसला है, जो अमन व शांति के लिए शायद बेहतर है।

पर क्या यह अदालत का काम है कि वह ज़मीन की मिल्कियत से जुड़े एक मामले पर अमन और शांति की परवाह के नज़रिये से अपना फ़ैसला सुनाए? तथ्यों के आधार पर फ़ैसला एक होना चाहिये लेकिन कहीं आस्थाएं न आहत हो जायं तो दूसरा फ़ैसला बता दे? यह काम तो सामाजिक संगठनों और राजनैतिक दलों का होना चाहिये! लेकिन अफ़सोस! सामाजिक संगठन और राजनैतिक दल समाज को जोड़ने का नहीं तोड़ने का काम कर रहे हैं। और उनके घोर अपराधों की बहुमत का समर्थन होने की आड़ में छिपाया जा रहा है!

मैं पूछना चाहता हूँ कि इस देश में क्या क़ानून एक निरपेक्ष वस्तु है या वह आदमी की आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक हैसियत देखकर तय होता है? क्या सीवान में कौमरेड चन्द्रशेखर के हत्यारे शहाबुद्दीन को इसलिए सजा नहीं मिलनी चाहिये क्योंकि उसे वहाँ की जनता का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है? क्या कश्मीर से पण्डितों की सुनियोजित ढंग से हत्या करने वाले व्यक्तियों को इसलिए खुले तौर पर राजनीति करते रहने की अनुमति इसलिए मिलती रहनी चाहिये क्योंकि उन्हे छेड़ने से घाटी में शांति लाने की प्रक्रिया को ठेस पहुँचती है? गुजरात में मोदी ने जनता से दोबारा पाँच साल राज करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है क्या इसी बिना पर उसके १२०० निर्दोष मुसलमान नागरिकों की सुनियोजित हत्याकाण्ड चलाने का अपराध माफ़ हो जाता है?

अगर ऐसा नहीं है तो जिस आदमी ने देश के कोने-कोने में जा कर एक महत्वहीन मस्जिद को हिन्दू सम्मान के अतिक्रमण का प्रतीक बनाकर और उस के आधार पर देश के बेरोज़गार नौजवानों की बेकार ऊर्जा को पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ़ प्रेरित करने का जो ऐतिहासिक अपराध किया था, उसे उन सारी हत्याओं का ज़िम्मेदार मानकर सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिये, जो बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद उस कारण इस देश में हुई हैं, और दूसरे देशों में भी हुई हैं। अगर हत्या करना अपराध है तो हत्या करने के लिए उकसाना भी अपराध है!

ये बात हमें साफ़-साफ़ समझ लेनी चाहिये कि बाबरी मस्जिद मुद्दा नहीं है। और न ही राम मंदिर मुद्दा है। मुद्दा कुछ और है! हिन्दुओं की ओर से मुद्दा है बरसों से हुए पराजय और अपमान के इतिहास के बोझ से मुक्ति पाना, और मुसलमानों की ओर से मुद्दा है एक हिन्दूबहुल देश में असुरक्षा और आत्मसम्मान का। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का ज़मीनी झगड़ा चल रहा था बहुत सालों से। १८५५ तक के तो रिकार्ड भी मौजूद हैं। अंग्रेज़ों को इस मामले को सुलझाने में कितनी दिलचस्पी रही होगी, कहना मुश्किल है। लेकिन ग़ौर करने योग्य बात ये है कि आज़ादी मिलने के बाद लोगों ने इस मसले को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि हाथ आई नई ताक़त और सत्ता के ज़रिये इस ज़मीन को क़ब्ज़ियाने का काम किया। धिक्कार है इस देश के नेतृत्व पर जो आज़ादी के तुरंत बाद के उस आंशिक आदर्शवादिता के दौर में भी न तो किसी तरह के न्यायिक आस्थाओं का मुज़ाहिरा कर सका और न ही समुदायों के बीच मन-मुटाव मिटा कर उनके बीच झगड़े सुलझाने का!

ये कोई ढकी-छिपी बात नहीं है, सब जानते हैं कि इस्लाम में बुतशिकनी का एक इतिहास है, एक परम्परा है। मक्का से लेकर भारत तक मुसलमान मूर्तियों को तोड़ते आए हैं। भारत में भी साढ़े छै सौ साल के इतिहास में बहुत से शासक ऐसे भी हुए हैं जिन्होने बहुसंख्यक समुदाय की आस्थाओं को समझते हुए मन्दिरों का निर्माण भी करवाया है लेकिन मुख़्तलिफ़ मुस्लिम शासक बुतशिकनी में मुलव्वस भी होते रहे हैं।

मन्दिरों के तोड़े जाने की बात को स्वीकार करने में बड़ी परेशानी है। एक पक्ष इस अतिचार से इस हद तक आहत हो जाता है कि उस की ज़िम्मेवारी आज के सारे मुसलमानों पर थोपने लगता है, और मुसलमान घबरा कर ऐसे किसी भी अतिचार को मानने से ही इंकार करने लगता है, और उन आक्रांताओ से अपना अलगाव करने के बजाय उनसे चिपटता जाता है। और तीसरा पक्ष, सामाजिक सौहार्द के नाम पर, सिर्फ़ क़ानूनी पहाड़े याद करने लगता है।

जो काम आज अदालत ने किया है – कि आस्था ही प्रमाण है – यह काम बहुत पहले सामाजिक संगठनो और राजनैतिक दलों को करना चाहिये था; और इस्लाम में मस्जिद का कोई महत्व नहीं है, वह सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की एक जगह है। इस्लामी राज्यों में मस्जिद को एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे नेता चाहते तो मुस्लिम समाज को विश्वास में लेकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकते थे, लेकिन हमारे देश के किसी भी राजनैतिक दल में ये साहस नहीं था, न ही है।

अदालत ने आज जो सामाजिक सौहार्द की पुनर्स्थापना का जो क़दम उन्होने उठाया है, उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने उलटा किया। हिन्दुओं के भीतर के इस पराजय बोध, और मुसलमानों के भीतर बैठी असुरक्षा और अपने आत्मसम्मान की रक्षा की भावना का इस्तेमाल किया- सत्ता को हासिल करने के लिए। राजीव गाँधी, लाकॄ आडवाणी, लालू और मुलायम.. सब ने एक या दूसरे समुदाय का राजनैतिक इस्तेमाल करने के दोषी हैं।

लेकिन सारे दोषियों का सिरमौर, लालकृष्ण आडवाणी है। पराजय की भावना एक रोग है, उस से प्रेरित होकर सिर्फ़ और सिर्फ़ पाप किया जा सकता है। और आडवाणी ने देश के नौजवानों को किसी स्वस्थ भाव की प्रेरणा नहीं दी, एक रुग्ण कुण्ठा को कुरेद कर एक राक्षसी आन्दोलन पैदा किया था इस व्यक्ति ने। अपने आन्दोलन के तेवर से उसने सुझाया था कि मस्जिद गिरा देने से हमारे भीतर के पराधीनता की जातीय स्मृति का  निराकरण  हो जाएगा। लेकिन ऐतिहासिक तथ्य क्या कुछ तोड़-फोड़ करने से मिट जाते हैं? और वैसे भी दूसरे को अपमानित करने से अपना सम्मान नहीं होता, न हुआ! स्वाधीनता, आत्मविश्वास और सफलता के उगने की ज़मीन कुछ और ही होती है, कुण्ठा नहीं। 

इसीलिए हिन्दू समुदाय को कुण्ठा से प्रेरित कर रहे आडवाणी  और उस के उस हिंसक आन्दोलन ने प्रतीकों और मूर्तियों में आस्था न रखने वाले मुस्लिम समुदाय को एक ऐसे भय और असुरक्षा के भाव में धकेल दिया जिस में वे एक मस्जिद को ही अपनी आस्था और पहचान का मूर्तिमान स्वरूप समझने लगे! पूरे देश में दंगे हुए, हज़ारों लोग मारे गए। देश में दोनों समुदायों के बीच एक ऐसी दीवार खिंच गई जिसे पाटना पहले से अधिक मुश्किल हो चला है।

ये फ़ैसला ठीक है लेकिन इसी के आधार पर अपने मुसलमान भाईयों के बीच  एक सहजता की उम्मीद करना बेकार है। वे स्वेच्छा से, आपसी बातचीत से, क़ानूनी फ़ैसले के आधार पर, उस स्थान को राममन्दिर बनने के लिए दे देते तो कोई बात नहीं थी। लेकिन ये स्वेच्छा से नहीं हुआ है। सुनियोजित तरह से, जगह-जगह भड़काऊ भाषण कर के मुस्लिमों को नीचा दिखाने के लिए इस मस्जिद को दंगाईयों ने तोड़ा था। इसके पहले कि ऐसा अपमान, ऐसा पराजयबोध, उनके भीतर भी एक रुग्ण-कुंठित मानसिकता को जन्म दे, हमें चाहिये कि इस अपमान के असली अपराधियों पर मुक़द्दमा चलायें। अभी जो हुआ है ये इंसाफ़ नहीं है; उन अपराधियों को दण्डित करना ही असली इंसाफ़ होगा।

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