मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

वीडियो भड़ास

पिछले कुछ हफ़्तों से एक शॉर्ट फ़िल्म बनाने में मुब्तिला हूँ। बरसों फ़िल्म-मेकिंग से दूर रहा हूँ.. वापस लौटने में काफ़ी इनर्शिया का सामना करना पड़ रहा है। स्क्रिप्ट तो छै माह पहले ही पूरी हो गई थी, चूँकि आउटडोर की कहानी है तो बरसात ने बिठा दिया.. और आलसी मन ने भुला दिया। बरसात बीतने के बाद याद पड़ी और कसक उठी.. फिर किसी तरह राम-राम करके एक सिनेमेटोग्राफ़र दोस्त का साथ मिला और लोकेशन तै की.. शूटिंग की तारीख भी तै कर दी थी.. मगर एक्टर्स मन-माफ़िक नहीं मिलने से सब कैन्सिल करना पड़ा। अब महीने के आखिर तक के लिए मुल्त्वी है..

इस व्यवधान से खीजकर अपने नाइकॉन कैमरे के वीडियो मोड का इस्तेमाल कर के एक भड़ास निकाल ली। तीन रोज़ पहले रात में शूट किया और सवेरे विन्डोज़ मूवी मेकर पर एडिट कर लिया। कुछ दोस्तों को भेजा तो किसी ने बल भर नहीं गरियाया.. तो.. आज ब्लॉग पर भी डाल रहा हूँ.. बहुत लम्बी नहीं, एक मिनट की है..

अपलोड होने में दिक़्क़्त न करे इसलिए लो क्वालिटी पर रेन्डर किया है.. गुणग्राहक माफ़ करेंगे इस उम्मीद के साथ..


(संगीत: दफ़ेर यूसेफ़ का)

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

क्या आप ने यह नक़्शा देखा है?


मुम्बई पर हुए हमलों को लेकर भारत और पाकिस्तान में हड़कम्प मचा हुआ है। भारत के अन्दर ये समझदारी है कि दस के दस आतंकवादी पाकिस्तान से बोट के ज़रिए आए थे और उनका मक़सद भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुँचाना था जिसके लिए उन्होने लियोपोल्ड कैफ़े, ताज पैलेस और ओबेरॉय ट्राईडेन्ट जैसे होटलों को निशाना बनाया ताकि भारत के लोगों के भीतर एक खौफ़ पैदा करने के साथ-साथ विदेशियों को भी भारत आने और व्यापार करने से हतोत्साहित किया जा सके। नतीजतन भारत को भी पाकिस्तान की ही तरह एक असुरक्षित ज़ोन घोषित मान लिया जाय जहाँ क्रिकेट खेलने से अब भारतीय खिलाड़ी भी इन्कार करने लगे हैं।

मगर पाकिस्तान में आम राय है भारत की यह समझदारी निराधार है और इन हमलों का पाकिस्तान से कोई लेना-देना नहीं। पाकिस्तान ही नहीं अपने भारत के भी कुछ अति सक्रिय बुद्धि आश्रित जीवन जीने वाले बन्धु भी यह प्रचार करने लगे हैं कि यह हमले हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने इज़्रयाइली गुप्तचर संस्था मोसाद के साथ मिलकर आयोजित किए हैं। इनका मानना है कि आतंक का इस आयोजन का मक़सद हिन्दुत्ववादी आतंक की जाँच को दफ़नाना और पूरा ध्यान मुस्लिम आतंकवाद की तरफ़ वापस घुमाना था।

इस सोच के अनुसार ए टी एस प्रमुख हेमन्त करकरे की हत्या कोई दुर्घटना नहीं बल्कि एक सुनियोजित साज़िश है। यहाँ तक कि सी एस टी स्टेशन पर ली गई फोटो में अजमल क़सव के हाथ में बँधा कलावा उस के हिन्दू होने का सबूत है। पाकिस्तान के लोग तो यह भी आरोप लगा रहे हैं कि हम हमले भारतीय गुप्तचर संस्था ने खुद आयोजित किए हैं ताकि वो पाकिस्तान पर हमला कर सके।

पाकिस्तानी पक्ष और हमारा अपना एक बुद्धिजीवी वर्ग सारे सबूतों को अपनी सहूलियत से विश्लेषित कर रहा है। वो मानते हैं सब कुछ भारतीय षडयंत्र है.. मगर हाथ के कलावे के सबूत को षडयंत्र का हिस्सा नहीं समझते.. उसे एक सच की तरह क़सव के हिन्दू होने का प्रमाण मान लेते हैं। हम मानते हैं कि करकरे, कामटे, और सलसकर का एक कार में बैठ कर कामा हस्पताल की ओर जाना के बुरा संयोग था.. वे इस में एक गहरी साज़िश की बू पाते हैं। दि़क़्क़्त ये भी है कि वे सारे घटना क्रम को भारतीय राजनैतिक परिस्थितियों के चश्मे से समझना चाहते हैं। मगर दुनिया छोटी हो गई है और आतंकवाद एक अन्तराष्टीय परिघटना है, जिसे सिर्फ़ बजरंग दल के चश्मे से समझना गहरी भूल होगी।



मुम्बई में आतंकवादी हमले के दो दिन पहले डी एन ए में एक रपट छपी थी जिसमें पाकिस्तान, अफ़्गानिस्तान और ईरान की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने की एक अमरीकी योजना का उद्घाटन किया गया था। और यह भी बताया गया था कि इस योजना को लेकर पाकिस्तानी हल्क़ों में किस तरह की बेचैनी और खलबली मची हुई है। एक बेहतर मिडिल ईस्ट को स्थापित करने की अमरीकी सोच के तहत इस नक़्शे को सबसे पहले आर्म्ड फ़ोर्सेस जर्नल में छापा गया।


इस नए नक़्शे में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत को दक्षिण-पूर्वी ईरान का हिस्सा मिलाकर एक स्वतंत्र देश बना दिया गया है। हेरात समेत पश्चिमी अफ़्गानिस्तान को ईरान में शामिल कर दिया गया है। और नार्थ वेस्ट फ़्रन्टियर प्रोविन्स तथा पाक अधिकृत कश्मीर को अफ़्गानिस्तान के हवाले कर दिया गया है। ईरान और अफ़्गानिस्तान का नफ़ा नुक़्सान बराबर हो गया मगर पाकिस्तान को बुरी तरह क़तर दिया गया है। अगर अमरीका इस योजना को लागू कर ले गया तो पाकिस्तान पंजाब और सिन्द प्रांत की एक पतली सी पट्टी भर बन कर रह जाएगा।

अफ़्गानिस्तान में सात साल लम्बी लड़ाई आज भी किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुँची है क्योंकि कबाइली पख्तूनो के लिए पाक-अफ़्गान सीमा का कोई महत्व ही नहीं है। और तालिबान लड़ाके भाग-भाग कर इधर-उधर होते रहते हैं। बहुत दिनों तक अमरीकियों ने पाकिस्तान से उम्मीद की वे अपनी सीमा तालिबानों से मुक़ाबला करेंगे। मगर उन्होने अपने वाएदों को सदा की तरह ज़िम्मेदारी से नहीं निभाया। लिहाज़ा आजकल अमरीकी सेना पाक सीमाओं का अतिक्रमण बिना उनकी अनुमति के करती रहती है। इस को लेकर भी पाकिस्तान में बेहद आक्रोश रहा है मगर अमरीकी शक्ति के आगे वे बेबस हैं और जानते हैं कि सीधे मुक़ाबले में उनका जीतना सम्भव है इसलिए आतंकवाद का गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हैं।

पाकिस्तान के तमाम आतंकवादी संगठन अपने देश के भीतर, अमरीकी ठिकानों पर हमले तो कर ही रहे थे, इस नक़्शे के सार्वजनिक होने पर और भी बौखला गए। और पाकिस्तान के बाहर भी सुरक्षित समझे जाने वाली मुम्बई जैसी जगहों पर अमरीकी, ब्रितानी और इज़्रायली नागरिकों को निशाना बना डाला। कोई कह सकता है कि मरने वालों तो अधिकतर हिन्दुस्तानी हैं। ठीक बात है लेकिन यह भी देखना चाहिये कि दस में सिर्फ़ दो आतंकवादियों ने शुद्ध भारतीय ठिकानों पर हमला किया.. जब कि छै ने विदेशियों की शरणस्थली पर और दो ने सिर्फ़ यहूदी ठिकाने पर। क्या इस से उनकी वरीयता का कुछ पता चलता है? यह हमला एक अन्तराष्ट्रीय युद्ध का एक हिस्सा था जो भारत की ज़मीन पर लड़ा गया।

आखिर में उन लोगों के लिए एक सलाह जो ये समझते हैं कि हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने हेमन्त करकरे की हत्या करने के लिए यह षडयंत्र रचा- भाई लोगों ज़रा जनता का मूड पकड़ना फिर से सीखो! साध्वी प्रज्ञा और अन्य गिरफ़्तारियों को लेकर आम हिन्दू जनमानस में भाजपा के खिलाफ़ नहीं बल्कि उसके पक्ष में हवा तैयार हो रही थी। लोगों में करकरे के खिलाफ़ एक ग़ुस्सा विकसित हो रहा था.. और साध्वी के प्रति एक सहानूभूति। करकरे की मृत्यु से तो उलटा भाजपा के हाथ से एक चुनावी मुद्दा छिन गया है..

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

पुलिस की धर्म-निरपेक्षता

पिछले दिनो टी वी पर अभिनव भारत के द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों का एक वीडियो चलाया जा रहा है। जिसमें अभियुक्त समीर कुलकर्णी अपने कार्यकर्ताओं के साथ दिखाई पड़ रहे हैं। मालेगाँव बम काण्ड में अभिनव भारत से जुड़े अभियुक्त दोषी हैं या नहीं, ये तो अदालत ही तय करेगी मगर वीडियो देखकर कोई भी ये समझ सकता है कि अभिनव भारत एक अतिवादी संगठन है जो देश के अल्पसंख्यक समुदायों को अपने घोर शत्रु के रूप में चिन्हित करता है। और इस तरह की हिंसक साम्प्रदायिकता अमानवीय है, अधार्मिक है और अक्षम्य है.. मेरे अपने नैतिक मापदण्ड से।

मगर ऐसी साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अभियुक्तों के प्रति भी देश की पुलिस का पाशविक व्यवहार किस क़ानून और नीति की दृष्टि से जाइज़ है, मैं नहीं समझ सकता। अभियुक्तों ने पुलिस पर यातना की कई आरोप लगाये हैं ।

#साध्वी प्रज्ञा सिंह ने उन्हे हिरासत में जबरन अश्लील सीडी दिखा कर पूछताछ करने, एटीएस पर गाली गलौज की भाषा में बात करने और रात में दो बजे नींद से उठाकर धमकियां देने (उनके कपड़े उतारने की भी) समेत कई सनसनीखेज आरोप लगाए हैं। इसके पहले वे अपने हलफ़नामें में पुलिस पर पहले ही आरोप लगा चुकी हैं कि पुलिस ने उन्हे उनके ही शिष्य के हाथों से पिटवाया।

#लेफ्टीनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित ने आरोप लगाया कि एटीएस अधिकारी उनके घर में आरडीएक्स रखकर उनके परिजनों को फंसाने और उनकी पत्नी को नंगा कर के घुमाने और फिर उसका बलात्कार करवाने की की धमकी देते हैं। अन्य आरोपियों ने भी शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं देने के आरोप लगाए।

#रिटायर्ड मेजर उपाध्याय ने आरोप लगाया कि डी आई जी सुखविन्दर सिंह ने उनसे कहा कि मेजर उपाध्याय की माँ गाँव के सारे मर्दों के साथ सोती थी और उन्हे धमकाया कि उनकी बेटी का बलात्कार कर दिया जाएगा और बेटे को नशीली दवाईयों के केस में फँसा दिया जाएगा।

भाजपा, विहिप समेत देश का तमाम हिन्दू जनमानस पुलिस के इस व्यवहार से अपार कष्ट में है। मैं भी इस से अछूता नहीं। पुलिस के ऐसे व्यवहार के क्या कारण है ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है पर मेरा अनुमान है कि अपनी असली धर्म—निरपेक्षता साबित करने का ये कांग्रेसी तरीक़ा है। बाटला हाउस इनकाउन्टर से पुलिस की विश्वसनीयता पर उठ खड़े सवालों को बराबर करने के लिए ‘हिन्दू आतंक’ को घेरा जा रहा है। ये काम बिना इस तरह की यातनाओं के भी सम्भव था लेकिन मुश्किल दूसरी है.. सिर्फ़ आतंक का ही संतुलन नहीं .. यातना का भी संतुलन होना चाहिये।

१९९३ के मुम्बई सीरियल बम धमाको के अभियुक्तों के पुलिस के साथ अनुभव कैसे रहे .. ज़रा मुलाहिज़ा फ़रमाइये.. .

#टौंक के नवाबी खानदान से ताल्लुक़ रखने वाले सलीम दुर्रानी के सर को टॉयलेट सीट में घुसा के उन्हे विष्ठा खाने के लिए मजबूर किया गया।

#अभियुक्त माजिद खान की बीवी नफ़ीसा को दो महीने तक कपड़े बदलने की इजाज़त नहीं दी गई और उसे मासिक धर्म से सने हुए खून के कपड़ों को पहने रखने के लिए मजबूर किया गया।

#अभियुक्तों के लिए पानी दुर्लभ था और कई स्त्रियों को प्यास से आक्रांत हो कर अपनी पेशाब पीनी पड़ी।

#अभियुक्तों के मुँह में चप्पल घुसेड़ना एक आम बात थी।

#अभियुक्त और उनके रिश्तेदारों के गुप्तांगों में लाल मिर्च लगाना पुलिस की यातना का एक सामान्य हिस्सा होता था। इस के चलते कई अभियुक्तों को जीवन भर के लिए बवासीर हो गई।

#यातना के तमाम तरीक़ो में अभियुक्तों के गुप्तांगो पर बिजली के झटके देना भी शामिल रहता।

#पुलिस, अभियुक्त के परिवार के सदस्यों को एक दूसरे को चप्पल और बेल्ट से पीटने के लिए मजबूर करती।

#गर्भवती शबाना को नंगा कर के अपने पिता को चप्पल से पीटने के लिए मजबूर किया गया।

# Young naked Manzoor Ahmad was told to insert his penis into the mouth of Zaibunnisa Kazi, a woman of his mother's age.

#Najma (the sister of Shahnawaz Querishi, an accused) was forced to fondle her father's penis and eat his shit too.
(इस व्यवहार को हिन्दी में लिखने में भी मुझे शर्म महसूस हो रही है)

#बान्द्रा के स्टमक रेस्तरां के मालिक राजकुमार खुराना को पुलिस ने सीरियल बम धमाकों के बारे में पूछताछ करने के लिए बुलाया और उसे ऐसी यातनाओं को दिखाया और धमकाया कि ये उसके साथ भी हो सकता है। खुराना इतना डर गए कि घर जा कर उसने अपने बीबी-बच्चों को मार कर, खुद को भी गोली मार ली।

ये वो चन्द घटनाएं है जो इस तरह की यन्त्रणाओं की एक लम्बी सूची से ली गई हैं जिसे इतिहासकार अमरेश मिश्र ने अपने एक शोधपत्र में तैयार किया है। खेद की बात ये है कि इस शोध पर आधारित लेखों को उन्होने कई पत्र-पत्रिकाओं में भेजा मगर कोई छापने के लिए तैयार नहीं हुआ।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

ओबामा की प्रतिज्ञाएं

राष्ट्रपति ओबामा और उनकी जीत ने अमरीका और दुनिया में एक परिवर्तनकारी उत्साह पैदा किया है। मैं जल्दी किसी की छवि, छटा, और अदा के झांसे में नहीं आता.. ऐसा मुझे लगता है। मगर अमरीकी चुनावों में जीत के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सुनिश्चित हो जाने के बाद भी ओबामा जिस तरह की क्रांतिकारी बातें कर रहे हैं, उसे सुनकर मेरी भीतर भी झुरझुरी हो रही है।

क्या ओबामा सचमुच दुनिया बदल देंगे? क्या वे सचमुच विश्व राजनीति में अमरीका की भूमिका को उलट देंगे? पर्यावरण और पूंजी के सम्बन्ध को पलट देंगे? मेरी इच्छा है कि यह सच होता हुआ देखें हम लोग.. फ़िलहाल तो देखें ओबामा की लच्छेदार वाणी में उनकी प्रतिज्ञाएं..

शनिवार, 15 नवंबर 2008

न्याय का आतंक

पिछले दो हफ़्तो में जिस तरह से हिन्दू साधु और साध्वी आतंकवाद के सिलसिले में पकड़े गए हैं उसे लेकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह तमाम अन्य मित्र भी ऐसा महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा मामला है कि बुरा लगना स्वाभाविक है.. आप की आस्थाएं जहाँ से जुड़ती हों उस इमारत के कुछ लोग यदि गम्भीर आरोपों के घेरे में आ जायं तो धक्का तो लगता है। खासकर और, जब वही आरोप हम दूसरे समुदाय के लोगों पर लगाते रहे हों।

अपने हिन्दू समुदाय के लोगों को मेरा मशवरा हैं कि वे बौखलाए नहीं, संयम से काम लें। यदि आप को लगता है कि आरोपी निर्दोष हैं, और उन्हे महज़ फँसाया जा रहा है, तो देर-सवेर सच सामने आ ही जाएगा।

लेकिन अगर आप मानते हैं कि हिन्दू धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में कांग्रेस पार्टी, केन्द्रीय सरकार, और पुलिस के साथ-साथ न्याय-प्रणाली भी शामिल है तो इस पर गु़स्सा नहीं अफ़सोस करने की ज़रूरत है कि हमारे देश के बहु-संख्यक हिन्दू जन अपने ही धर्म को बदनाम करने की इस तथाकथित साज़िश में खुशी-खुशी सहयोग कर रहे हैं? और जिस समाज के इतने सारे पहलू इस हद तक सड़-गल गए हों उसके साधु-संत और महन्त बन कर घूमने वाले लोग क्या निष्पाप होंगे?

आम तौर पर माना जाता है कि धर्म की भूमिका मनुष्य और ईश्वर के बीच एक स्वस्थ सम्बन्ध स्थापित करने की है। पर यह सच नहीं है.. असल में दुनिया के अधिकतर धर्म अपने स्वभाव में आध्यात्मिक से अधिक सामाजिक हैं। इस भूमिका के सन्दर्भ में एक छोर पर इस्लाम जैसा धर्म है जो सामाजिक जीवन के बारे में सब कुछ परिभाषित करने का प्रयास करता है तो दूसरे छोर पर बौद्धों और जैनों की श्रमण परम्परा जो समाज को त्याग देने में ही धर्म का मूल समझते थे।

इन दो छोरों के बीच हिन्दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय जो अलग-अलग वक़्त पर अलग-अलग भूमिका निभाते रहे हैं। आप को हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले साधकों की परम्परा भी मिलेगी, शुद्ध पारिवारिक जीवन जीने और तिथि-वार के अनुष्ठानों से दैनिक जीवन को अर्थवान करने वाली वैष्णव परम्परा भी है, घोर अनैतिक समझे जाने वाले वामाचारी तांत्रिक भी हैं, और अपने सम्प्रदाय के हितों के लिए हथियार ले कर युद्ध करने वाले अखाड़ों के सन्यासी भी हैं।

अपने धर्म के सामाजिक पहलू के पोषण के लिए इस्लाम में एक लम्बी परम्परा रही है जिसे लोकप्रिय रूप से जेहाद का नाम दिया जाता रहा है। ईसाईयत ने भी अपनी धर्म-स्थानों पर क़ब्ज़े के लिए चार-पाँच सौ साल तक क्रूसेड्स का सिलसिला जारी रखा। इसके अलावा ईसाईयों में पेगन्स के खिलाफ़ हिंसक गतिविधियों में भी उनके भीतर वैसा ही उत्साह जगाया जाता रहा जैसे कि इस्लाम में समय-समय पर क़ाफ़िरों के नाम पर भावनाएं भड़काने का काम होता रहा है।

सनातन धर्म भी इस तरह की सामाजिक हिंसा से अछूता नहीं रहा है। शैव-वैष्णव संघर्ष, बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष का स्वरूप भी बेहद क्रूर और हिंसक रहा है। पुष्यमित्र का अपने ही राजा बृहद्रथ की हत्या कर राज्य हथियाने के पीछे एकमात्र कारण बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष ही था। फिर गुरु नानक जैसे परम ज्ञानी की सिख परम्परा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सैन्य रूप लेना पड़ा (हालांकि विडम्बना ये है सैन्य रूप लेते ही नानक की परम्परा का अस्तित्व गहरे तौर पर बदल गया)।

धर्म के नाम पर होने वाली इस तरह की सारी सामाजिक हिंसा को करने वाले लोग किसी प्रकार के नैतिक दुविधा का सामना नहीं करते क्योंकि वे इस हिंसा का हेतु सीधे अपनी आस्था और नैतिकता के स्रोत अपने धर्म से ग्रहण करते हैं। वे राज्य की न्याय-व्यवस्था से इतर और उससे स्वतंत्र एक न्याय-प्रणाली में विश्वास करते हैं।

किसी ने अपराध किया या नहीं इसका फ़ैसला वो किसी नौकरीपेशा न्यायाधीश पर नहीं छोड़ते, खुद करते हैं। और उसे क्या दण्ड दिया जाना चाहिये ये भी स्वयं ही तय करते हैं और स्वयं ही निष्पन्न भी कर डालते हैं। उनकी अपनी नज़र में वे अपराधी नहीं होते बल्कि उस न्याय—व्यवस्था के रखवाले होते हैं जिस पर उनका पक्का यक़ीन है।

तमिलो के हितों की लड़ाई लड़ने वाला प्रभाकरन भी अपनी नज़र में न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। भूमिहीन किसानों के हितों के लिए हथियार बन्द संघर्ष करने वाले नक्सली भी न्याय के पक्ष में खड़े हैं। ओसामा बिन लादेन और अफ़ज़ल गुरु भी इंसाफ़ के सिपाही हैं। और साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे पर भी यही आरोप है कि उन्होने क़ानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की है।

राज्य का अस्तित्व तभी तक है जब तक वो अपने द्वारा परिभाषित क़ानून को लागू करा सके। इसके लिए ऐसे सभी लोग जो न्यायप्रणाली में दखल देने की कोशिश करते हैं उन्हे राज्य, अपराधी की श्रेणी में रखता है। मगर राज्य चाह कर भी अपनी न्याय की परिभाषा को हर व्यक्ति के भीतर के न्याय बोध पर लागू नहीं कर पाता।

अब जैसे साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे के मामले में ही लोगों ने अपने-अपने न्याय-बोध से फ़ैसले कर लिए हैं। कुछ लोग तो अवधेशानन्द तक को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं। और कुछ लोग आरोपियों के अपराधी साबित हो जाने पर भी उन्हे अपराधी नहीं स्वीकार करेंगे.. क्योंकि उनके न्यायबोध से उन्होने किसी को मार कर कोई अपराध नहीं किया। ऐसे न्याय-बोध के प्रति क्या कहा जाय?

फ़िलहाल मामला अदालत में है और अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है। वैसे तो आधुनिक क़ानून यह कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक निर्दोष है तब तक उसका जुर्म साबित नहीं हो जाता। मगर आजकल इसका उलट पाया जाता है। जैसे परसों ही मैंने कांगेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन को टीवी पर बोलते सुना कि let them prove their innocence.. । मेरा ख्याल था कि आप अदालत में जुर्म साबित करने की कोशिश करते हैं.. मासूमियत नहीं।

मज़े की बात ये है कि उस पैनल डिसकशन में मौजूद विहिप के लोगों ने भी इस बयान पर कोई ऐतराज़ नहीं किया। क्योंकि इस बात पर तो वे खुद भी आज तक विश्वास करते आए हैं और इस समझ की पैरवी करते आए हैं। तभी तो एक बड़ा तबक़ा आतंकवाद के नाम पर पकड़े जाने वाले हर मुस्लिम युवक को अपराधी ही समझता रहा है। यहाँ तक कि कुछ शहरों का अधिवक्ता समुदाय एक स्वर से आरोपी की पैरवी तक करने से इंकार करते रहे हैं और उस मुस्लिम युवक के वक़ील बनने वाले के साथ मारपीट तक करते पाए गए हैं। ये है हमारे समाज का न्यायबोध?

आखिर में साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को आतंकवादी मानने वालों से मैं गुज़ारिश करूँगा कि वे याद कर लें कि आतंकवादे के मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ़्तार मुस्लिम नौजवानों के विषय में उनकी क्या राय होती थी? जो लोग मालेगाँव जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़ों में बम विस्फोट करना न्यायसंगत समझते हैं उनसे कोई क्या कह सकता है? मगर साध्वी प्रज्ञा और दयानन्द पाण्डे को निर्दोष क़रार देने वालें मत भूलें कि गाँधी जी की हत्या का षडयन्त्र करने वाले हिन्दू नौजवान अपनी एक स्वतंत्र नैतिकता और उच्च(!) न्याय-बोध से ही प्रेरित थे।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बनी-बनाई कविता

उदय प्रकाश ने चमत्कारिक कहानियाँ लिखी हैं.. और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। मैं खुद उनकी कहानी-कला का प्रशंसक रहा हूँ, हूँ। मगर उदय जी कवि भी हैं और मैंने अपने छात्र जीवन में उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ा और महसूस करने की भी कोशिश की थी।

उनकी एक कविता-एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएं- एक अन्तराल तक मेरे मानस पर क़ायम रही थी। उस कविता में वैयक्तिक प्रेम और सामाजिक स्वीकृति के बीच के तनाव के ताने-बाने को उन्होने अपनी भाषाई चमत्कार से अच्छे से गढ़ा था। पर उनकी कई अन्य कविताओं में मुझे कभी कोई खास तत्व नहीं नज़र आया। मुझे उन में अनुभूति से अधिक अतिश्योक्ति और एक नाटकीयता ही समझ आई।

आज अचानक अफ़लातून भाई के ब्लॉग पर उदय जी की एक कविता दिखी। जो अफ़लातून भाई ने छापी तो जनवरी २००७ में थी मगर मैं आज ही देख सका। समाजवादी जनपरिषद पर एक नया लेख पढ़ते हुए संयोगवश साइडबार में मैंने उदय जी का नाम देखा .. जिज्ञासा हुई.. क्लिक किया तो पहले कमेंट पढ़ने को मिले।

सभी पाठक कविता से अभिभूत थे.. उदय जी का भी कमेंट था. वे इस इतने आत्मीय और प्रेरणास्पद स्वीकार से गदगद थे। प्रतिक्रियाओं को पढ़ने के बाद कविता पढ़ी..। वैसे तो मैं कविताएं अब नहीं पढ़ता हूँ लेकिन युवावस्था में उदय जी के लिए जो श्रद्धाभाव बना था उसके दबाव में एक बहुत लम्बे समय के बाद कोई कविता पढ़ी.. कविता शुरु होती है ऐसे..

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता-जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

पहली ही पंक्ति ग़ालिब के मिसरे- 'जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है'- का कठिन रूपान्तर है.. ऐतराज़ रूपान्तर से नहीं है.. अगर कोई छवि, रूपक आप के भाव के सादृश्य हो तो पाठक गप्प से निगल लेने को तैयार रहता है मगर मुझ से गप्प हुआ नहीं क्योंकि यहाँ कोशिश वही चमत्कार खड़ा करने की है। खैर.. आगे पढ़ा..


वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ

तो क्या जो पागल नहीं हुए वे ईमानदार नहीं है..? जिस जमात में स्वयं उदय प्रकाश भी शामिल हैं? और यहाँ पर यह भी याद कर लिया जाय कि ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होने प्रेम और क्रांति के जज़्बों के बीच झूलने वाले और अपनी इसी ईमानदारी के चलते विक्षिप्त हो जाने वाले कवि गोरख पाण्डेय का विद्रूप करते हुए एक कहानी भी रची थी-राम सजीवन की प्रेम कथा। जिसमें गोरख जी कभी कभी सहानूभूति के पात्र मगर अधिकतर हास्यास्पद चित्रित किए गए थे।

ईश्वर ‘ कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध..

इस तरह की पंक्तियाँ बेहद असरदार हैं और उदय जी की उसी चमत्कारिक भाषा का प्रदर्शन है..जो उनकी पहचान है। पाठक इनको पढ़ कर कवि की प्रतिभा के आगे ढेर हो सकता है.. हो जाता है.. मगर क्या यही कविता है? ज़रा इन जुमलों पर भी गौर किया जाय..

सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक

सबसे ज्यादा लोकप्रिय


सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर

सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार

सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे

सबसे उत्पीड़ित और विकल

ये जुमले अतिश्योक्ति के एक ऐसे संसार की ओर इशारा करते हैं जिसमें अपना दुख ही सबसे बड़ा है.. और दुख देने वाला सबसे खतरनाक। ऐसी मोटी समझ से किसी महीन अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है क्या? मगर हम करते हैं.. क्योंकि उदय जी हिन्दी साहित्य के आकाश के प्रतिभावान सितारे हैं।

भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित है विचार

उदय जी के दिमाग में एक कल्पित तानाशाह है और है एक कल्पित विद्रोही। उस के अन्तरविरोध की तनी हुई रस्सी पर ही उदय जी अपनी सीली हुई कविता की भाषा सुखा रहे हैं। मेरा कहना है कि भई रस्सी है कि नहीं है.. है तो किस हाल में है.. ज़रा बीच-बीच में जाँच लिया जाय। कम से कम इस तरह की पंक्ति लिखने के पहले तो ज़रूर ही..

वह भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का
समूचा सूचना संजाल

हो सकता है कि ये वाक्य उन्होने नेट पर लिपियों के इस स्वातंत्र्य के पहले लिखें हों.. तो भी ये वाक्य कवि की 'दृष्टा' और 'जहाँ न रवि पहुँचे' वाली उक्तियों को पछाड़ कर उदय जी की वास्तविकता के आकलन क्षमता के प्रति कोई अनुकूल मत नहीं बनाती।

बहुत काल से हम हिन्दी वाले सत्ता की मुखालफ़त करते हुए अपने समाज की सारी कमियों का ठीकरा सत्ता पर फोड़ते जाते हैं। हम विज्ञान और संज्ञान में पिछड़े हैं क्योंकि हमारे भीतर न तो वैज्ञानिक सोच है और न ही औरतों की छातियों और कूल्हों को देखने से फ़ुरसत। इसका दोष सत्ता को देने से क्या सबब?

ये बात ही हास्यास्पद है कि सत्ता लोगों को औरतों के कूल्हे देखने के लिए मजबूर कर रही है। हिन्दी की तमाम छोटी-छोटी पत्रिकाओं में असहमति के आलेख छापे जाते हैं.. लेकिन लोग उन्हे न खरीद के ‘आज तक’ पर ‘सैफ़ ने करीना की चुम्मी क्यों ली’ देखना ही पसन्द करते हैं। क्या इसमें लोगों का कोई क़सूर नहीं? आगे लिखते हैं..

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और
पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ

इन वाक्यों में ईमानदारी भी है और अनुभूति भी.. पर इस पर वे ज़्यादा देर टिकते नहीं, वे वापस अपनी हिन्दी कवियों की चिर-परिचित नाटकीयता के रथ पर सवार हो कर किसी दायोनीसियस को फटकारने लगते हैं..

सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के ,

एक दायोनीसियस प्राचीन काल में यूनान का तानाशाह था। जो खा-खा कर इतना मोटा हो गया था कि बाद में उसे खाना खिलाने के लिए अप्राकृतिक तरीक़े इस्लेमाल किए गए.. आखिरकार वो अपने ही मोटापे में घुट कर मर गया। एक दूसरा दायोसीनियस अशोक के दरबार में यूनानी राजदूत था जिसने बहुत शक्ति और सम्पदा जुटा ली थी। तमाम और दायोनीसियस भी हैं.. ऐसी ही एक मिलते जुलते नाम का मिथकीय चरित्र दायनाइसस (बैकस) भी है जो मद, मदिरा और मस्ती का ग्रीक देवता है। उदय जी किस दायोनीसियस की बात कर रहे हैं? क्या इशारा है ये? किन बाहर से आए लोगों ने भाषा की दुर्गत कर दी है?

हिन्दी भाषा की दुर्गति और इस दायोनीसियस का क्या गूढ़ सम्बन्ध है यह मुझे समझ में नहीं आया। हो सकता है सामान्य समझ के परे होना ही दायोनीसियस जैसे नाम की विशेषता हो। आप को नहीं पता-उदय जी को पता है- वे आप से विद्वान हैं-सीधा निष्कर्ष निकलता है। तमाम विषेषणों से दायोसीनियस का चेहरा भली भाँति लाल कर चुकने के बाद उदय जी आशा के लाल सूरज पर ला कर कविता का अंत कर देते हैं।

लेकिन देखो
हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और
कहता है - ‘ माँ ! ‘

नया बच्चा पैदा हो रहा है.. और मातृभाषा में बोल रहा है.. उद्धार की उम्मीद बनी हुई है। ये कविता का वैसे ही अंत है जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में एक चेज़ के साथ फ़िल्म का क्लाईमेक्स होता था या तमाम प्रेम कथाओं का अंत हॉलीवुड की प्रेरणा से, आजकल एअरपोर्ट पर होने लगा है।

कविता, कहानी, तमाम कला और कलाकारों को तय करने का मेरा पैमाना उसकी सच्चाई ही रहा है.. बहुत साथियों को उदय जी की कविता सच का आईना लग सकती है मुझे वह अपनी तमाम भाषाई चमचमाहटों के बावजूद अतिश्योक्ति, और थके हुए-घिसे हुए शिल्प का एक प्रपंच लगती है।

एक पहले से तय ढांचा, पहले से तय मुहावरे, पहले से तय निशानों पर वार, पहले से तय बातों के प्रति उत्साह.. लगता नहीं कि कुछ नया लिखा जा रहा है.. नया रचा जा रहा है.. कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि कुछ भी नया पढ़ रहा हूँ। ऐसा लगता है कि बने-बनाए खांचों में फ़िट हुआ जा रहा है। विद्रोह का भी एक बना-बनाया स्पेस है हिन्दी और हिन्दी कविता में। जिसे ओढ़कर आप बड़े कवि बन सकते हैं और पुरुस्कार, सम्मान आदि पा सकते हैं।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

मैं हिन्दू क्यों नहीं: कांचा ऐलय्या

कांचा ऐलय्या की किताब 'मैं हिन्दू क्यों नहीं' का उप शीर्षक हिन्दुत्व दर्शन, संस्कृति और राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक शूद्रवादी विश्लेषण ज़रूर है मगर किताब अपने विश्लेषण पक्ष में कुछ दुर्बल रह जाती है और अपनी पहले से तय की हुई प्रस्थापनाओं को सिद्ध करने की आतुरता में अधकचरे निर्णय सुनाने लगती है।

किताब के आखिरी अध्याय में ऐलय्या दलित चिंतन की परम्परा में बुद्ध, फुले और आम्बेडकर के बाद अपना ज़िक्र भी करते हैं। एक महान परम्परा में उचित स्थान पाने की उनकी ये महत्वाकांक्षा सफल हो गई होती यदि उन्होने आम्बेडकर जैसी शोध के अनुशासन, और वैश्लैषिक पद्धति पर निर्भरता दिखाई होती। अफ़सोस है कि एक लम्बे समय तक आम्बेडकर जैसे विद्वानों को अपना सही स्थान नहीं दिया गया क्योंकि वे दलित थे और फिर अफ़सोस है आज कांचा ऐलय्या जैसे विद्वानों को उनकी प्रतिभा से अधिक महत्व दिया जा रहा है क्योंकि वे दलित हैं।

ऐलय्या हिन्दू देवताओं और मिथकों का विश्लेषण करते हुए एक बेहद सहूलियतपरस्त रवैया अख्तियार करते हैं। वे जब चाहते हैं उसे इतिहास बताते हैं और जब चाहते हैं ब्राह्मणों की गढ़ी हुई कहानी क़रार दे देते हैं। रावण एक महान दलित बहुजन राजा था और उसके ब्राह्मण होने की बातें बकवास हैं- ये कहते हुए वे जानते हैं कि कि रावण का होना और उसका ब्राह्मण होना एक ही प्रकार के स्रोतों से मालूम होता है फिर भी वे हंस की भाँति अपने मनमाफ़िक मोती चुनते रहते हैं।

ऐसा नहीं है कि किताब पूरी तरह से खोखली है और उसमें कोई आकर्षक निष्कर्ष नहीं हैं। अब जैसे ऐलय्या जी बताते हैं कि विद्या की देवी सरस्वती स्त्री होते हुए भी हिन्दुत्व में स्त्रियों के विद्यार्जन पर पाबन्दियाँ बनी रहीं। और धन की देवी लक्ष्मी होने के बावजूद स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार नहीं मिलता रहा। हिन्दू धर्म की ऐसी अन्तर्निहित विसंगतियों के विपरीत वे अपनी दलित बहुजन संस्कृति की देवियों-पोचम्मा और कैटसम्मा के गुण और उदारता का वर्णन करते हैं जो अपने भक्तों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं करतीं।

ऐलय्या बताते हैं कि बचपन से ही सिखाई जानी वाली जातीय भेदभाव के अलावा किस तरह बचपन से ही उनका जातीय प्रशिक्षण शुरु हो जाता है जिसमें वे पेड़-पौधों और जानवरों के साथ रिश्तो के बारे में तमाम बाते सीखते हैं जबकि स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा और भाषा उनके जीवन के परिवेष से पूरी तरह विलगित बनी रहती हैं। यहाँ तक कि उनके लिए वेद-पुराण और ओथेलो एक बराबर से अजूबे होते हैं।

वे ये भी बताते हैं कि हिन्दू मानस किस तरह से एक तरफ़ तो अनेको कामुक देवताओं और काम कला की रचना करता है और दूसरी ओर अपने समाज पर तमाम वर्जनाओं की गाँठें भी मारे रखता है जबकि इन कामुक कल्पनाओं और वर्जनाओं दोनों से मुक्त दलित बहुजन समाज में यौनिक चेतना एक स्वतः स्फूर्त ढंग से विकसित हो जाती है।

एक लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में में दलित बहुजन की भूमिका और रामराज्य में हनुमान की भूमिका का उनका समांतर बेहद सटीक है। मगर आने वाले दिनों में जिस दलितीकरण की प्रक्रिया की बात वो कर रहे हैं वो फ़िलहाल की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कैसे सम्भव होगा इस विस्तार में वे नहीं जाते, जबकि दलित बहुजन भी अपनी सामुदायिकता को छोड़-छाड़ निजी सम्पत्ति की होड़ में कूद पड़े हैं।

अपनी भावना और राजनीति में सही होते हुए भी मुझे लगता है कि ऐलय्या जी का विश्लेषण, ऐतिहासिक उत्पीड़न और आज भी चल रहे भेदभाव से उपजे अपने क्षोभ और आक्रोश के चलते बीच-बीच में विक्षेप का शिकार होता रहता है।

ऐलय्या किताब में जब-जब एक निजी नज़रिये से चीज़ों को विश्लेषित करते हैं तो उनकी बात तीर की तरह पैनी होती है और अचूक होती है। जैसे कि उन्हे स्कूल में कभी फुले और आम्बेडकर के बारे में नहीं पढ़ाया गया.. लेकिन ऐसी घटनाओं से वे अपने हड़बड़ाए निष्कर्ष निकालने में सरलीकरण और सामान्यीकरण के शिकार हो जाते हैं।

कांचा ऐलय्या की ये भी प्रस्थापना है कि ब्राह्मण जाति गैर उत्पादक और निष्क्रिय शक्ति है। मुझे यह एक झाड़ूमार बयान लगता है क्योंकि यदि वेद-पुराण, पठन-पाठन, अध्यात्म और दर्शन सब गैर-उत्पादक क्रियाएं हैं तो फिर वे आधुनिक विश्वविद्यालयों में कार्यरत उनके अपने जैसे प्राध्यापकों के काम और अपनी इस किताब की भी उपयोगिता को कैसे सही ठहरा पाएंगे?

वे भी तो न तो खेत में हल चला रहे हैं और न पत्थर ढो रहे हैं.. बन्द कमरे में बैठ कर अपने वर्ग/जाति के हितों के लिए तर्कों का एक तानबाना बुन रहे हैं। आम जनता द्वारा एकत्रित कर से अपना वेतन पाने वाले ऐलय्या जी ब्राह्मणों पर भी तो यही करने का तो आरोप लगा रहे हैं। मगर इस विरोधाभास को वो चिह्नित नहीं करते उलटे वे मानते हैं कि हज़ारों सालों से उत्पादन से दूर रहने के कारण ब्राह्मण-बनिया एक ठस, तर्कहीन, अविवेकी और हिंसक मानस में कै़द हो गया है।

ऐलय्या मानते हैं कि पिछड़ी जाति से आने वाले नवक्षत्रिय हाल में सत्ता में भागीदारी पा गए हैं मगर सत्ता मिलते ही वे भी ब्राह्मणवादी रंग में ढल गए हैं। दक्षिण की पिछड़ी जातियों के उभार और उत्तर में भी उसकी अनुगूँज को रेखांकित करते हुए ऐलय्या जी भूल जाते हैं कि बुद्ध कालीन नन्द वंश, मौर्य वंश, और आल्हा ऊदल जैसे अनेको मध्यकालीन योद्धा भी उच्च जातियों के न होते हुए भी सत्तावान थे और ब्राह्मण उनकी सेवा में थे।

शिवाजी के राज्याभिषेक करने से महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने इनकार ज़रूर कर दिया था मगर काशी के ब्राह्मणों ने ये सम्मान हाथ से जाने नहीं दिया। बाद के वर्षों में पेशवा के सेनापतियों में भोंसले, होलकर और शिन्दे भी उच्च जातियों से नहीं थे। एक तरफ़ वो एक ब्राह्मण पेशवा के सेवक थे और दूसरी ओर तमाम ब्राह्मण उनके आश्रित थे। इतिहास में ब्राह्मणों और पिछड़ी जातियों,शूद्रों और दलितों का सम्बन्ध इतना सरल एकांगी नहीं रहा है जितना अक्सर विद्वजन पेश करते रहे हैं।

ऐलय्या इच्छा ज़ाहिर करते हैं कि दलित बहुजन, पिछड़ी, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का मिलाजुला मंच तैयार हो मगर किताब लिखने के दस साल भीतर ही मायावती ने उनकी इच्छाओं को नज़रअंदाज़ कर के ब्राह्मणों के साथ साझीदारी कर ली है।

एक तरफ़ तो ऐलय्या नेहरू, गाँधी आदि तथाकथित बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ो द्वारा ढाला गया बताते हैं दूसरी तरफ़ आम्बेडकर और फुले के उभार को स्वीकार करना अंग्रेज़ो की मजबूरी बता कर फिर एक बार सुविधाजनक तर्क इस्तेमाल करते हैं। वे मानते हैं कि उपनिवेशवाद ने भी ब्राह्मणवाद की ही मदद की.. पर ऐसा करते हुए वे आम्बेडकर को मिले ज़बरदस्त ब्रिटिश सहयोग को झुठला देते हैं।

ऐलय्या बराबर परिवर्तन में भौतिक स्थितियों की भूमिका को नकारते हुए किसी वर्ग या जाति की सनक और दुराग्रहों को ही ज़िम्मेदार ठहराते जाते हैं। ऐलय्या कहते हैं कि तीन हज़ार साल में अकेले आम्बेडकर ऐसे थे जिन्होने महार घर में जन्म लेकर दलितबहुजन चेतना को जन्म दिया। ऐसा कहते हुए वे रैदास, दादू और कबीर को भूल जाते हैं क्या उनकी आध्यात्मिक चेतना भी सिर्फ़ ब्राह्मणवादी चेतना थी या समाज भौतिक रूप से उस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुआ था जो फुले और आम्बेडकर अपने समय में अंजाम दे सके?

ऐलय्या जी की शिकायत है कि भारत में ब्राह्मणों ने दलितबहुजन के प्रति एक साज़िश के तहत चुप रखकर उन्ह बहिष्कृत किया गया है जबकि योरोप में परस्पर विरोधी संस्कृतियों को भी अपने इतिहास में जगह दी गई है। एक तो वैसे ही भारतीय स्रोतों को ऐतिहासिक स्रोत नहीं गिना जाता यदि ऐलय्या जी उन्हे यह दरजा दे रहे हैं तो पूछा जा सकता है कि पौराणिक आख्यानों में असुर कौन हैं, राक्षस कौन हैं, नाग कौन हैं, दैत्य कौन हैं.. क्या वे विरोधी संस्कृतियों की उपस्थिति नहीं हैं बावजूद इसके कि इस उपस्थिति में एक संस्कृति के गुण और दूसरी के दोष बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए हैं?

ऐलय्या जी अपने किताब में बार-बार बताते हैं कि हिन्दू धर्म संसार का सबसे उत्पीड़क धर्म है और इस्लाम और ईसाईयत आध्यात्मिक लोकतांत्रिक धर्म हैं। वे विभिन्न धर्मों के प्रति कैसी भी राय बनाने और रखने के लिए स्वतंत्र हैं मगर जातीय विभाजन के चारित्रिक दोष के आधार पर हिन्दू धर्म के बारे में यह निर्णय अतिरंजित है।

क्या हिन्दू धर्म इसलिए अलोकतांत्रिक है कि वे उसके भीतर रहते हुए आप किसी भी पूजा-पद्धति और आध्यात्मिक परम्परा को अपनाने और अपनी नई चलाने के लिए भी स्वतंत्र है? तथाकथित लोकतांत्रिक धर्म इस्लाम और ईसाईयत भी आप को यह विकल्प नहीं देते।

दूसरी तरफ़ हिन्दू धर्म छोड़ने पर भी गोवा में कथोलिक ब्राह्मण और मछुआरों के बीच का जातीय विभाजन कम नहीं हो जाता यहाँ तक कि उनके चर्च भी अलग-अलग होते हैं। अमरीका जैसी महान लोकतांत्रिक संस्कृति में भी काले और गोरे चर्चों का भेद आज भी बना हुआ है।

मोहम्मद साहब ने इस्लाम में सबकी बराबरी की बात ज़रूर की है मगर अरब में सिर्फ़ मुसलमान ही रहेंगे और खलीफ़ा सिर्फ़ क़ुरैश से ही होगा क्या यह आग्रह किसी जातीय र्रंगत से मुक्त है? भारत में अंसारी और सैय्यद क्या एक बराबर हैं? इस्लाम के भीतर स्थानीय संस्कृति के आयामों के लिए कितना स्थान है? क्या वो बहुत हद तक अरब संस्कृति में ही केन्दित नहीं है?

दोष-दर्शन करना हो तो इस्लाम और ईसाईयत में भी हज़ारों दोष गिनाए जा सकते हैं। ईसा की करूणा से द्रवित होने वाले यूरोपी लुटेरे लैटिन अमरीका की मूल अमेरी जनजाति का संहार पादरियों के आशीर्वाद के साथ करते थे क्योंकि उनके अनुसार जो ईसाई नहीं वे जीने योग्य नहीं थे। उत्तरी अमरीका में वहाँ आज की मूल रेड इंडियन की जनसंख्या क्या है? क्या वे सब ज़हर खा के मर गए या एक गहरी नफ़रत की नीति के तहत उनका क़त्ले आम किया गया?

ऐलय्या साहब मानते हैं (बिना किसी प्रमाण के) कि आर्य ब्राह्मण बाहर से आए और उन्होने यहाँ के मूल दलितबहुजन को अपदस्थ कर दिया। । यदि एक पल के इसी कहानी को ऐतिहासिक सच्चाई मान भी लिया जाय तो क्या वे प्राचीन आर्य ब्राह्मण आधुनिक आतताईयों से भी गए गुज़रे इसलिए हुए क्योंकि उन्होने बजाय दलित बहुजन का सफ़ाया करने के बजाय उनके साथ एक सामाजिक संयोजन बनाया और एक ही सामाजिक व्यवस्था में रहने का विधान बनाया?

कांचा ऐलय्या की यह किताब हिन्दुत्व दर्शन और संस्कृति की कोई विवेकपूर्ण जाँच नहीं करती बल्कि पूर्व नियोजित निष्कर्ष अपने पाठक पर थोपती है और बताती है कि हिन्दू धर्म का हर एक आयाम सिर्फ़ दलित बहुजन का उत्पीड़न करने के लिए ही है। बड़े दुःख की बात है कि अपनी इस अतिवादी सोच का विस्तार करते हुए वे अपनी चिन्तन शैली में उन्ही हिन्दुत्व वादियों के साथ जा कर खड़े हो जाते हैं वे जिनका इतना भीषण विरोध कर रहे हैं।

हिन्दुत्ववादी मानते हैं कि देश की हर समस्या का कारण मुसलमान और इस्लाम हैं और ऐलय्या घोषणा करते हैं कि सब मुसीबत ब्राह्मणों की खड़ी की हुई है। इस तरह के ब्लैक एंड व्हाईट नज़र से सच्चाई को पकड़ने की उम्मीद बेमानी है। और अन्ततः कांचा ऐलय्या साहब भी निराश ही करते हैं।

कांचा ऐलय्या साहब का सोचना है कि भारत में हिन्दूकरण का जवाब दलितीकरण होना होगा- मतलब ये कि हिन्दुओं को दलित संस्कृति और मूल्यों से सीखना होगा। मुझे उनके इस विचार से कोई दिक़्क़त नहीं.. मेरा स्वयं का भी मानना है कि हिन्दू (भारतीय) संस्कृति ऐसी सड़ाँध भरी अवस्था में पहुँचती जा रही है कि जिसमें उसे बहुत कुछ भूलने और बहुत कुछ फिर से सीखने की ज़रूरत है।

और अपने उन बन्धुओं से तो ज़रूर जिनके ऊपर हज़ारों साल तक उच्च जातियाँ अत्याचार करती रहीं। पर मेरा ऐतराज़ इस दलितीकरण शब्द है। ये ठीक है कि गाँधी जी के हरिजन के जवाब में तत्कालीन राजनीति के परिदृश्य में दलित शब्द उपयुक्त था जो ऐतिहासिक उत्पीड़न की स्मृति अपने कलेजे में छुपाए था। मगर आज जब समाज के दलितीकरण की बात होने लगी है तो अच्छा हो कि हम एक नया शब्द ईजाद करें जो एक सकारात्मक भाव जगाता हो।

मित्रगण मुझे माफ़ करेंगे कि मैं ऐलय्या जी की किताब के नकारात्मक पहलुओं की ही चर्चा कर रहा हूँ जबकि किताब पढ़ते हुए तमाम मौकों पर मैं अपने पुरखों पर शर्मसार भी होता रहा और अपनी संस्कृति के उन पहलुओं पर विक्षुब्ध भी होता रहा जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती रही। इस विषय में रुचि रखने वाले मित्रो से निवेदन है कि वे किताब हासिल कर के खुद पाठ करें.. और अपनी राय क़ायम करें। किताब कलकत्ता के साम्य प्रकाशन (१६ सदर्न एवेन्यू, कोलकाता) ने छापी है और मूल्य है मात्र १२० रुपये, हिन्दी अनुवाद किया है ओमप्रकाश वाल्मीकि ने।

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

पुलिस किस की रक्षा के लिए है?

दो दिन पहले प्रतिशोध के ताप में बौखलाए हुए पटना के राहुल राज का पहले मुम्बई पुलिस ने किसी आतंकवादी की तरह एनकाउन्टर कर दिया, फिर राज्य के उप-मुख्यमंत्री आर आर पाटिल जी ने कड़े शब्दों में बताते हुए लगभग धमकाया कि गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा और आगे किसी ने ऐसी कोशिश की तो यही हाल किया जाएगा। उनके बयान से ऐसा मालूम दिया कि वे पुलिस को क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की संस्था नहीं न्याय वितरण करने वाली संस्था भी मानते हैं।

हम्मूराबी के आँख के बदले आँख की न्याय व्यवस्था में यक़ीन रखने वाले पाटिल साब का न्याय बोध तब कहाँ नदारद हो जाता है जब एक निर्दोष 'भैय्ये' को पीट-पीट कर ट्रेन में मार डाला जाता है। लालू जी की रेल में बिना किसी राजनीतिक दल का नाम लिये यह कारनामा अंजाम दिया जाना एक सोची समझी रणनीति की ओर इशारा करता है। मगर उस मामले में मंत्री जी का कहना है कि यह हेट-क्राइम नहीं है।

आज पूरे दिन सहारा समय पर मृतक धर्म देव के साथ पिटने वाले 'भैय्ये' बताते रहे कि मारने वालों की मार खाने वालों से मुख्य शिकायत उनका उत्तर-भारतीय होना ही थी; वो भैय्यों को सबक सिखा रहे थे। लेकिन मंत्री जी उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते.. सम्भवतः वे उत्तर-भारतीयों के बयान को उतना वज़नी नहीं मानते। और उप मुख्य मंत्री जी ने जाँच होने के पहले ही फ़ैसला सुना दिया है कि यह हेट-क्राइम नहीं है।

समझ में नहीं आता कि क्या करूँ.. क्या उनका एहसान मानूँ कि कम से कम वे इसे क्राइम मान रहे हैं?

मैं जिस गहरे क्षोभ को महसूस कर रहा हूँ उसका अनुभव मेरे साथ-साथ उत्तर भारत का बहुसंख्यक हिस्सा भी कर रहा है। दुविधा अब यह है कि मैं मनसे, शिव सेना, कांग्रेस और शरद पवार जी की राष्ट्रवादी कांग्रेस के बीच चल रही इस घिनौनी राजनीति का जवाब किस के नेतृत्व में गोलबंद हो कर दूँ? लालू जी के या मुलायम जी के? राजनीति के अपराधीकरण में इन लोगों की भूमिका कम उल्लेखनीय नहीं है.. ये वही लालू जी हैं जो कामरेड चन्द्रशेखर के हत्या के आरोपी, सिवान के सांसद शहाबुद्दीन के गले में हाथ डालकर संसद में घूमते थे जबकि पुलिस उसके नाम का वारंट लेके देश भर में भटक रही होती थी। मुलायम जी के राज में उत्तर प्रदेश में अपराधी सीन फुला के लाल बत्ती की गाड़ियों में घूमते रहे हैं.. आज भी घूम रहे हैं।

कौन दूध का धुला है? क्या भाजपा और क्या कांग्रेस.. सभी इस हमाम में नंगे हैं। सब ने अपने छुद्र चुनावी स्वार्थों के लिए क़ानून तोड़ने वालों को क़ानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था में घुसा कर उसे प्रदूषित करने का काम किया है। सब से बड़ी अपराधी तो जनता है जो इन हत्यारों को अपना नेता स्वीकार करती है.. इन अपराधियों की सफलता के पीछे सिर्फ़ बूथ-कैपचरिंग का मामला नहीं है। हमारा समाज गहरे तौर पर बीमार समाज है। हमारे समाज के सबसे बड़े नायक कौन हैं? सचिन तेंदुलकर और शाहरुख खान? समाज में इनका क्या रचनात्मक योगदान है?

आज अगर तथाकथित ‘मराठी मानूस’ राज ठाकरे को अपना नेता मान रहा है; उसकी गिरफ़्तारी पर सड़क पर आके दंगा करने और पुलिस के हाथों पिटने में अपना हित देखता है, तो दोष सिर्फ़ राज ठाकरे को ही क्यों दिया जाय? वे सभी लोग जो इस तरह की लुम्पेन राजनीति के पीछे चलने में अपनी मनुष्यता की सार्थकता समझते हैं.. वे या तो स्वयं असफल अपराधी हैं या नैतिक रूप से बीमार।

मैं ये सोच कर खीझ उठता हूँ कि मासूम विद्यार्थियों को सामूहिक रूप से पीटे जाने को अपनी राजनीति की मुख्य धुरी बनाने वाले राजनीतिज्ञ की सुरक्षा में बाइस पुलिस वाले तैनात रहते हैं क्योंकि उसे डर है कि पीटे जाने वालों में से कोई या उनका सगा-सम्बन्धी उस पर क़ातिलाना हमला कर सकता है। और जब उन सम्भावित हमलावरों की जमात वालों में से किसी को जब सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डाला जाता है तो राज्य व्यवस्था उस वक़्त राज ठाकरे की सुरक्षा में सजगता बरत रही होती है।

मन भीतर से बहुत क्षुब्ध है.. आप सब भी क्षुब्ध है मैं जानता हूँ.. पार आप में से तमाम मित्र ऐसे भी हैं जो कश्मीर में भीड़ पर गोली चलाने वाली पुलिस का समर्थन करते हैं, बाटला हाउस जैसे एनकाउन्टर को जाइज़ ठहराते हैं, निरीह किसानों के हित के लिए लड़ रहे नक्सलियों के क्रूर दमन की पैरवी करते हैं।

आप को लगता होगा कि यह मामला नितान्त स्वतंत्र मामला है.. पर ऐसा है नहीं दोस्तों.. ये राज्य सत्ता अपने को बरक़रार रखने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है.. उस के लिए लोग महत्वपूर्ण नहीं है.. सत्ता महत्वपूर्ण है.. जिसे पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए वो देश, राष्ट्र, समाज, धर्म सब कुछ तोड़ सकती है.. दो चार सौ लोगों की जान को तो वो कीड़ों-मकोड़ों जैसी अहमियत भी नहीं देती।

हम सहज विश्वासी लोग.. सुन्दर चेहरों औए मीठी बातों से बरग़लाये जाते हैं और बार-बार वही ग़लतियाँ दोहराए जाते हैं। ये सिर्फ़ महाराष्ट्र और उत्तर-भारतीयों की समस्या तक सीमित मामला नहीं है। ये क्रूर खेल अलग-अलग रूप में हर जगह देखा जा सकता है।

अभी कल की ही बात है मेरी मित्र विनीता कोयल्हो जो गोवा में अन्धाधुन्ध माइनीकरण और एसईज़ेडीकरण के खिलाफ़ गोवा बचाओ अभियान के तहत संघर्ष करती रही हैं, उन्हे एक अखबार में अपनी स्वतंत्र राय रखने के विरोध में भरी ग्राम सभा में गुंडो ने अपमानित किया, धमकाया, और दबाने का हर सम्भव प्रयास किया।

जिसके जवाब में पुलिस ने क्या किया.. उलटा उन्हे गिरफ़्तार करके थाने ले गए.. ग़नीमत यह रही कि कोई केस नहीं लगाया और तीन घन्टे बाद छोड़ दिया.. मगर सोचिये.. अब भी.. कि ये राज्य किसका है? सरकार किस की है..? और पुलिस किस की रक्षा के लिए है?

आखिर में एक सवाल अपने प्रगतिशील मित्रों से जो एक साध्वी की गिरफ़्तारी को अपनी उन आशंकाओ की पुष्टि मान रहे हैं जिसके अनुसार देश में एक हिन्दू आतंकवाद काफ़ी पहले से पनप रहा है। मैं उस आशंका और सम्भावना से इन्कार नहीं करता.. मगर इल्ज़ाम और जुर्म, मुल्ज़म और मुज्रिम का फ़र्क बनाए रखा जाय। जिस पुलिस की मुस्लिम युवकों की गिरफ़्तारियों पर हम सभी लगातार प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहे हैं, उसी पुलिस की हिन्दू साध्वी की गिरफ़्तारी को इस नज़रिये से देखा जाना कहाँ तक उचित है जैसे कि जुर्म सिद्ध ही हो गया हो?

राज्य सत्ता अपनी सहूलियत बनाए रखने के लिए जैसे पहले मुसलमानों की गिरफ़तारियाँ करती थी.. वैसे ही (चुनावी)समय की नज़ाकत को देखते हुए ये हिन्दू साध्वी की गिरफ़्तारी का खेल भी खेला जा रहा है। भाजपा, सबको पता है, नागनाथ है मगर कांग्रेस छिपा हुआ साँपनाथ है.. पर ज़हरीला कौन अधिक है.. कहना मुश्किल है।

हमारे हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला मंच अभी नहीं है.. जो हैं वो या तो भ्रूणावस्था में हैं या समाज की उन्ही बीमारियों से ग्रस्त हैं जिन से हम मुक्ति पाना चाहते हैं। जब तक हमें अपना मंच नहीं मिलता.. जागते रहिये.. सवाल करते रहिये.. और जवाब खोजते रहिये।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

आरे पर गिद्ध-दृष्टि

मुम्बई में साँस लेने के लिए वैसे ही हवा कम पड़ती है और अब शरद पवार साहब के बयान से ऐसा मालूम देता है कि मु्म्बई के फेफड़ों में जो बची-खुची हवा है वो भी निकल जाएगी। पिछले महीने महानन्दा डेअरी के एक समारोह में बोलते हुए पवार साहब ने इशारा किया कि यदि आरे डेअरी मुनाफ़ा नहीं बना पा रही है तो क्यों न महानन्दा ही उसे सम्हाल ले।

उनके इस बयान में निहित खतरों को भाँप कर आरे मिल्क कॉलोनी में काम करने वाले और रहने वाले लोगों ने भारिप बहुजन महासंघ के अन्तर्गत २३ अक्तूबर को एक विरोध प्रदर्शन किया। इस मोर्चे का नेतृत्व डॉ आम्बेडकर के नाती आनन्दराज आम्बेडकर ने किया और आरे के प्रबन्धन को अपनी माँगो का एक ज्ञापन भी दिया। उनकी मुख्य माँग डेअरी के किसी भी प्रकार के निजीकरण पर रोक लगाना है। भारिप बहुजन महासंघ के नेताओं ने अपने-अपने भाषणों में शरद पवार पर ये आरोप लगाया कि वे डेअरी के निजीकरण की आड़ में आरे मिल्क कॉलोनी के विशाल भू-भाग को लैंड माफ़िया के हवाले कर देना चाहते हैं।

आरे मिल्क कॉलोनी के स्थापना आज़ादी के ठीक बाद १९४९ में हुई थी और आज भी इसे देश की सबसे अत्याधुनिक डेअरी में गिना जाता है। लगभग ४००० एकड़ की ज़मीन में फैली इस डेअरी के अन्दर बत्तीस तबेले हैं। डेअरी से जुड़े इन तबेलों के अलावा आरे मिल्क कॉलोनी के प्रांगण में डेअरी, एनीमल हज़बैण्डरी, पोल्ट्री और कृषि से जुड़े तमाम शोध और शिक्षण संस्थान भी मौजूद हैं। यानी ये समझा जा सकता है कि इस संस्था की स्थापना आज़ादी के समय मौजूद राष्ट्र-निर्माण के आदर्श दृष्टिकोण से की गई थी। मगर धीरे-धीरे एक अपराधिक उदासीनता, आलस्य और भ्रष्टाचार के एक दौर ने डेअरी को एक बीमारु अवस्था में धकेल दिया और अब उसे शुद्ध मुनाफ़ाखोरों के हवाले कर देने की बात की जा रही है।

आरे डेअरी को पहले सम्भवतः किसी ऐसी व्यवस्था के तहत चलाया जाता था जिसमें कॉलोनी के भीतर दुहा गया सारा दूध डेअरी को देने की बाध्यता थी। मगर बसन्तदादा पाटिल के मुख्यमंत्रित्व काल में तबेले के प्रबन्धकों को ये छूट दे दी गई कि वे अपने दूध को बाहर भी बेच सकें। जिसके कारण डेअरी घाटे के दलदल में धँसते हुए तबेलों से किराया वसूल करने वाली एक संस्था भर बन कर रह गई है। ये छूट मुक्त बाज़ार के दौर के पहले किस नैतिकता के तहत दी गई, इसके लिए बहुत सोचने की ज़रूरत नहीं है। हमारे देश में चीज़ें भ्रष्टता के जिस तरल रसायन से चलायमान होती हैं वो किसी से छिपा नहीं है।

इस देश में कम ही संस्थाएं ऐसी हैं जो अंग्रेज़ो की बनाई हुई नहीं है, आरे मिल्क कॉलोनी उन में से एक है। लेकिन शरद पवार जैसे लोग पर उसकी जड़ों में माठा डाल चुकने के बाद अब निजीकरण के नाम पर उसे उखाड़ फेंकने का काम कर रहे हैं। किस लिए? ताकि ज़मीन की खरीद-फ़रोख्त के ज़रिये कुछ नोट पैदा किए जा सकें? पर ये धन-पशु सम्पत्ति के लोभ में ऐसे अंधे हुए हैं कि सामने दिख रहे माल के ज़रा आगे गहरी खाई भी उन्हे नहीं दिखती। मीठी नदी का प्रकोप और २००५ की मुम्बई की बाढ़ के बावजूद ये लोग बिना किसी योजना के अन्धाधुन्ध निर्माण को ही विकास का पर्याय मान कर चल रहे हैं और देश को भी ऐसा ही मनवाने पर तुले हुए हैं।

समय-समय पर आरे मिल्क कॉलेनी की ज़मीन को देश के दूसरे ‘विकास-कार्यों’ के लिए दिया जाता रहा है जैसे कि कमालिस्तान फ़िल्म स्टूडियो, फ़ैन्टेसीलैण्ड एन्टरटेनमेंट पार्क, मरोल इन्डस्ट्रियल डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन (एम आई डी सी) और हाल के वर्षों में रॉयल पाल्म्स (गोल्फ़ क्लब, होटॅल और रिहाईशी बिल्डिंग्स)। रॉयल पाल्म्स के बारे में उल्लेखनीय यह है कि पहले शिव सेना ने इस का प्रचण्ड विरोध किया और फिर बाद में स्वयं बाल ठाकरे ने इस का अपने करकमलों से उदघाटन किया।

इन सब के अलावा आरे के केन्द्रीय डेअरी से सटा हुआ एक आरे गार्डेन रेस्टॉरन्ट भी इस कृपा का भागीदार हुआ है जहाँ आठ सौ ‘पार्टी-पशु’ एक साथ आनन्द ले सकते हैं। क्या ये विडम्बनापूर्ण नहीं है कि एक मिल्क डेअरी पहले तो अपने ही तबेलों को दूध बाहर बेचने की आज़ादी देकर घाटा सहन करती है और फिर घाटे को पूरा करने के लिए अपने केन्द्रीय दफ़्तर की नाक के नीचे से शराब बेचने का व्यापार शुरु कर देती है?

आरे मिल्क कॉलोनी के भीतर लगभग आठ-नौ हज़ार परिवारों की रिहाईश है। जिस में से कुछ तो प्राचीनकाल से रहने वाले आदिवासी हैं जिनका अधिकार क्षेत्र उत्तरोत्तर सिमटता ही जा रहा है। उन के अलावा आरे में काम करने वाले कर्मचारियों के परिवार तथा अन्य दूसरे लोग जो अलग-अलग समय पर झोपड़ पट्टियों में बस गए, आरे के अन्दर रहते हैं।

अब इसे चाहे हमारे देश का सह-अस्तित्व का गहरा बोध कह लीजिये या विशेष चारित्रिक भ्रष्ट उदासीनता कि जब तक पानी सर के ऊपर न हो जाय हम एडज़स्ट करते रहते हैं। इसी मानसिकता के तहत हर जगह अवैध रूप से झोपड़े बनाने वालों के प्रति एक उदासीन उपेक्षा का भाव साधा जाता है। और जब वे बरसों की मेहनत के बाद अपने घर और रोज़गार में सहूलियत की स्थिति में आने लगते हैं, उन्हे उखाड़ फेंकने के निहित स्वार्थ उठ खड़े होते हैं।

विदर्भ के हज़ारों किसानों की आत्महत्या की उपेक्षा कर के देश में आई पी एल के उत्सव में अपनी ऊर्जा देने वाले कृषि मंत्री शरद पवार का आरे सम्बन्धित बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिये जिसके जवाब में भारिप बहुजन महासंघ ने विरोध प्रदर्शन करके अपने अस्तित्व के रक्षा करने की अग्रिम कार्रवाई की है।

इस देश के विकास पुरुषों की अपनी जनता के विकास की कितनी चिन्ता है वो आप इस बात से समझिये कि आरे की इन झोपड़पट्टियों में १९९३ तक पानी की व्यवस्था और १९९८ तक बिजली की व्यवस्था नहीं थी। और ये सुविधा भी तभी सम्भव हो सकी जब शहर पर बढ़ता हुआ आबादी का दबाव के चलते गोरेगाँव में अचानक त्वरित निर्माण में फलीभूत हुआ।

इसके लिए कुछ लोग बाज़ार के शुक्रगुज़ार होंगे और गलत भी नहीं होंगे मगर ऐसे लोग स्वतंत्र बाज़ार के दूसरे पक्ष पर नज़र डालना या तो भूल जाते हैं या उसे जानबूझ कर अनदेखा कर जाते हैं। गोरेगाँव के इस भयानक विकास का नतीजा ये हुआ कि १९९३ के पहले बस्ती वाले पानी की अपनी ज़रूरत के लिए जिस पहाड़ी नदी का इस्तेमाल करते थे वो आज भी गोरेगाँव और आरे के भीतर से होकर समुद्र की ओर बहती है मगर एक बेहद दुर्गन्धपूर्ण गन्दे नाले के रूप में। और मुम्बई की सबसे ऊँची ‘पहाड़ी’ नाम की पहाड़ी धीरे-धीरे काट-काट कर खतम की जा रही है।

भारिप बहुजन महासंघ की एक माँग ये भी है कि उनके पुनर्वास की किसी सूरत में उन्हे आरे के भीतर ही बसाया जाय। जो लोग पिछले पचास बरस से इस जगह के आस-पास से ही अपना रोज़गार करते हों, उनकी तरफ़ से ये माँग बहुत जायज़ है। और बहुत सम्भव है कि डेअरी का निजीकरण हो जाय और धीरे-धीरे आरे कॉलोनी की ज़मीन स्क्वायर मीटर की दर से बिकने के लिए उपलब्ध भी हो जाय। ऐसी सूरत में आरे के निवासियों को भीतर के किसी एक कोने में बसा देना घाटे का सौदा नहीं होगा।


मगर आरे सिर्फ़ एक मानवीय मामला नहीं है। एक बार अगर आप मुम्बई के नक्शे पर नज़र डालें तो आप को आरे का महत्व अपने आप समझ आ जाएगा। सजंय गाँधी नेशनल पार्क, फ़िल्म सिटी और आरे मिलकर एक ग्रीन ज़ोन का निर्माण करते हैं। वैसे ये अलग-अलग नाम भले हों पर ये उस विशाल जंगल के विभाजित क्षेत्र हैं जिसके भीतर मुम्बई को जल आपूर्ति करने वाली तीन झीलें-तुलसी,विहार और पवई- भी आती हैं। ये विभाजन आदमी ने किए हैं और इनके बीच कोई वास्तविक विभाजन नहीं है।

मनुष्य की आर्थिक गतिविधि से अलग आरे के इस विशाल कॉलोनी के प्रांगण में हज़ारों वृक्ष, बरसाती पौधे, जंगली पेड़ और लताएं भी आश्रय पाती हैं और एक ऐसे आकर्षक पर्यावरण का निर्माण करते हैं जिसमें तमाम अनोखे पंछी पूर्णकालिक या शीतकालिक निवास पाते हैं। इन पंछियों में से कुछ पीलक (गोल्डेन ओरियल) और दूधराज (एशियन पैराडाइज़ बर्ड, देखें चित्र) जैसे बेहद अद्भुत और अनूठे भी हैं। जिन्हे हाल के दिनों में अपने इतने पास पाकर चकित सा होता रहा हूँ।


मगर विकास के अंधाधुंध कंक्रीटीकरण के खतरे की ज़द में सिर्फ़ पंछी नहीं आएंगे, मानव समाज भी उसकी चपेट में आएगा। प्रकृति के नियम माफ़िया संसार से कुछ अलग नहीं होते। सत्या का एक डायलाग याद कीजिये.. एक गया तो सब जाएंगे। पर्यावरण में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है.. एक पत्थर हटायेंगे तो पूरी इमारत धराशायी हो जाएगी... हो रही है।


वैसे आरे मिल्क कॉलोनी को लेकर पिछले दिनों एक और योजना की चर्चा उठी थी- आरे के भीतर एक ज़ूलॉजिकल पार्क(ज़ू) बनाने की योजना। आरे को लैण्ड माफ़िया के हवाले करने से निश्चित ही ये एक बेहतर योजना है मगर मेरा डर है कि ये योजना सिर्फ़ पर्यावरण लॉबी का मुँह बन्द करने के लिए लटकाई जा रही है। क्योंकि इसका प्रस्तावित क्षेत्र सिर्फ़ ४०० एकड़ है.. यानी कि बाकी का ३६०० एकड़ नोचने के लिए मुक्त रहेगा। वैसे आप ही बताइये कि आप पंछियों को पिंजड़े में बन्द देखना पसन्द करते हैं या मुक्त फुदकते हुए?

मेरे लेखन में निराशा का खेदपूर्ण पुट है.. फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आरे का भविष्य मेरे डरों से बेहतर होगा। तथास्तु!

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

क्यों दिए जाते हैं पुरस्कार?

अरविन्द अडिगा की पहले उपन्यास दि व्हाईट टाइगर को मैन बुकर प्राईज़ मिल गया है। उनके नामाकंन पर मैं इतना हैरान नहीं हुआ था, मगर उनकी इस जीत के बाद मैं वाक़ई हतप्रभ रह गया। दुनिया भर में पुरस्कार एक निश्चित राजनीति के तहत दिए जाते हैं, इस तथ्य से मैं अनजान नहीं रहा हूँ मगर आप सब की तरह कहीं न कहीं मेरे भीतर भी एक सहज-विश्वासी मानुस जीवित है जो चीज़ों की सतही सच्चाई पर यकी़न करके ज़िन्दगी से गुज़रते हैं।

अरविन्द अडिगा के साथ अमिताव घोष के साथ की किताब सी ऑफ़ पॉपीज़ भी नामांकित थी, मैंने वो किताब नहीं पढ़ी है, पर अमिताव घोष की पिछली किताबों के आधार पर यह मेरा आकलन है कि सी ऑफ़ पॉपीज़ कितनी भी बुरी हो दि व्हाईट टाइगर से बेहतर होगी। पर मुद्दा यहाँ दो किताबों की तुलना नहीं है, मुद्दा दि व्हाईट टाईगर की अपनी गुणवत्ता है।

लगभग तीन-चार मास पहले एच टी में एक रिव्यू पढ़ने के बाद मैं इस किताब को दो दुकानों में खोजने और तीसरे में पाने के बाद हासिल किया और पढ़ने लगा। कहानी की ज़मीन बेहद आकर्षक है; बलराम नाम का एक भारतीय चीन के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्रों में अपने जीवन और उसके निचोड़ों की कथा कह रहा है। बलराम की खासियत यह है कि वो एक रिक्शेवाले का बेटा है और एक बड़े ज़मीन्दार के बेटे का ड्राईवर है जिसे मारकर वो अपने सफल जीवन की नीँव रखता है।

अडिगा तहलका में लिखे अपने लेख में बताते हैं कि कैसे कलकत्ता के रिक्शेवालो से कुछ दिन बात-चीत कर के उन्हे अपने फँसे हुए उपन्यास का उद्धार करने की प्रेरणा मिली। यह पूरा डिज़ाइन पश्चिम में बैठे उन उपभोक्ताओं के लिए ज़रूर कारगर और आकर्षक होगा जो भारत की साँपों, राजपूतों और राज वाली छवि से ऊब चुके हैं और भारत में अमीर और ग़रीब के बीच फैलते हुए अन्तराल में रुचि दिखा रहे हैं।


मगर मेरे लिए इस किताब को पढ़ना इतना उबाऊ अनुभव रहा कि पचासेक पन्ने के बाद मैं अपने आप से सवाल करने लगा कि मैं ऐसे वाहियात किताब पर क्यों अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, जिसे कु़छ वैसे ही चालाकी से लिखा गया है जैसे मैं कभी टीवी सीरियल लिखा करता था। जो मुझे मेरे भारत के बारे में जो कुछ बताती है वो मुझे उस विवरण से कहीं बेहतर मालूम है। और जिन चरित्रों के जरिये बताती है वो न तो सहानुभूति करने योग्य बनाए गए हैं और न ही किसी मानवीय तरलता में डूब के बनाए गए हैं। मुझे अफ़सोस है कि मैं एक उपन्यास से कहीं अधिक उम्मीद करता हूँ।

मैं नहीं जानता कि अडिगा को बुकर पुरस्कार दिए जाने के पीछे क्या मानक रहे होंगे? मैं जान भी कैसे सकता हूँ.. पश्चिम के नज़रिये से भारतीय सच्चाई को देखने की तरकीब कुछ और ही होती है? तभी तो ग्यारह बार नामांकित होने के बाद भी नेहरू को कभी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला; गाँधी जी की तो बात छोड़ ही दीजिये। लेकिन कलकत्ता के पेगन नरक में बीमारों की सुश्रूषा करने वाली एक नन, मदर टेरेसा को शांति पुरस्कार के योग्य माना गया।



(ओड़िसा में पिछले दिनों हुई बर्बरता के लिए बजरंग दल और अन्य हिन्दू संगठनो की जितनी निन्दा की जाय कम है। उन पर सरकार प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती, उसके पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण हैं। मगर धर्म परिवर्तन में संलग्न चर्च की संस्थाएं, बजरंग दल की तरह आपराधिक सोच के भले न हों पर निहायत निर्दोष मानसिकता से अपना कार्य-व्यापार चला रहे हैं , ऐसा सोचना भी बचकाना होगा।)

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

नए शग़ल


एक लम्बे समय तक ब्लॉग से दूर रहने के बाद लौटना हो रहा है। मेरी पिछली पोस्ट अगस्त में लिखी गई थी। इन चालीस दिन के के दौरान मैं छुट्टी पर रहा। जो लोग मेरे जीवन को जानते हैं वे कह सकते हैं कि मैं छुट्टियों की गतिविधियों से छुट्टी पर चला गया। और उनका ये कहना ग़लत नहीं होगा।
कभी-कभी मन में एक अपराध-भावना जागती है कि जब कि शेष संसार धंधे पर लगा हुआ है, पैसे कमाने की जुगत में दिन-रात एक कर के फ़ुरसत को तरस रहा है; उस लिहाज़ से मेरा ऐसा जीवन कितना उचित और नैतिक है? मगर विवेक निर्णय देता है कि मुक्ति सबसे मूल्यवान है और छुट्टी दरअसल मुक्ति का ही लोकप्रिय रूप है। सो सब सही है.. !

तो साहब.. लगभग महीने भर के लिए मुम्बई से निकला था, साथ में कुछ काम भी था। सोचा था कि लिखना ही तो है.. लैपटॉप साथ लिए था, जैसे यहाँ तैसे शेष जहाँ। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक वाक्य तक नहीं लिखा गया। दिल्ली के मुग़लिया इमारतों का दर्शन किया गया। ल्यूटन की बनाई नई दिल्ली को आह भर-भर के फेफड़ो में भरा गया और मेरे बड़े भाई संजय तिवारी (विस्फोट ब्लॉग वाले नहीं) के ज़रिये दो नए शग़ल में शिष्यत्व लिया गया।
भाईसाहब पुराने चिड़ीनिहार (बर्ड-वाचर) हैं, और जब से उन्हे रक्तचाप की शिकायत हुई और ऐलोपैथी के दवातंत्र ने अपने शिकंजे उन पर कसने शुरु किए, उन्होने दवाओं का जुआ शरीर से उतार फेंकने के लिए टहलने का एक भयानक कार्यक्रम अपना लिया जिसमें वो रोज़ाना आठ-दस किलोमीटर टहलने लगे। दवाएं फेंक दी, रक्तचाप क़ाबू में आ गया और उन्होने अपने निहारने के शौक़ में चिड़ियों के साथ-साथ पेड़ों को भी शामिल कर लिया।
भाईसाहब के साथ रोज़ाना दिल्ली के मुख्तलिफ़ बाग़-बगीचों में टहलते हुए मुझे भी इस गतिविधि में आनन्द मिलने लगा। और दिल्ली के बाद कानपुर और इलाहाबाद के भी बगीचों और गंगा किनारों के तमाम पेड़ों और चिड़ियों को पहचानने का ये उत्साह मुम्बई भी ले कर चला आया हूँ।
मुम्बई इस मामले में थोड़ा अभागा है। यहाँ पर अंग्रेज़ों ने कोई भी कम्पनी बाग़ नहीं बनाया। जी! ये लिखते हुए मुझे दुःख हो रहा है कि आज के हिन्दोस्तान में प्रकृति के नाम पर शहरों के भीतर जो कुछ भी है वो अंग्रेज़ो की विरासत है। चाहे वो ल्यूटन की बनाई दिल्ली के बाग़-बगीचे और सड़को के किनारे लगाए गए पेड़ों की व्यवस्था हो या कानपुर और इलाहाबाद जैसे शहरों के कम्पनी बाग़- उन्ही की सोच का नतीजा हैं।
हम हिन्दुस्तानियों ने उनके जाने के साठ साल के बाद कुछ भी नहीं बनाया- शहरों में एक क़ायदे का बाग़ नहीं और जो कुदरती जंगल हैं उन्हे लगातार नष्ट करते आ रहे हैं। मुम्बई के फेफड़े कहे जाने वाले संजय गाँधी नेशनल पार्क और आरे कॉलोनी को भी चारों तरफ़ से कुतरा जा रहा है। आने वाले दिनों की स्थिति, अगर सम्हला न गई तो, भयानक होगी।
खैर! इस बीच किताबें तो खरीदता भी रहा और पढ़ता ही रहा। मगर दो किताबें जो सबसे अधिक पलटी गईं वे रहीं- डॉ सालिम अली की ‘द बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स’ और प्रदीप क्रिशन की ‘ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही’। सालिम अली की प्रतिभा से तो सभी परिचित हैं मगर फ़िल्म डाइरेक्टर प्रदीप क्रिशन की किताब बेहद शानदार है। किताब का शीर्षक दिल्ली के पेड़ो तक अपने को सीमित करने का आभास ज़रूर देता है, मगर इसके अन्दर भारत के मुख्य पेड़ो के बारे में जानकारी बेहद क़रीने से दी गई है।
मज़े की बात यह है कि प्रदीप क्रिशन कोई वनस्पति-विज्ञान के विशेषज्ञ न थे मगर उन्होने अपने से ही अध्ययन करके स्वयं को इतना शिक्षित कर लिया कि समाज को एक कमाल की किताब का योगदान कर सके। इस प्रयास में उन्हे सात-आठ साल लगे, घूम-घूम कर के पेड़-दर्शन किए और जम कर आनन्द लिया होगा इस में मुझे कोई शक़ नहीं है। एक पेड़ को पहचानना, प्रकृति के साथ आप के एक खूबसूरत रिश्ते की शुरुआत बन सकता है और गहरे निर्मल-आनन्द का स्रोत भी।

किताब में २५२ पेड़ों का विवरण दिया है मैंने अस्सी के आसपास पहचान लिए हैं, जिसे लेकर मैं खूब प्रसन्न हूँ। इस किताब को शुरु करने के पहले शायद में आठ-दस को पहचानता रहा होऊँगा। चिड़ियों को भी पहचान रहा हूँ पर उस गति से नहीं; चिड़िया पेड़ की तरह एक जगह स्थिर तो रहती नहीं ना।
कमाल की बात ये है कि उसी पुराने दृश्य में अब नई दिलचस्प चीज़ें दिखने लगी हैं।

रविवार, 31 अगस्त 2008

वाल-ई में हॉलीवुडीय कचड़ा

पृथ्वी एक कबाड़खाने में तब्दील हो चुकी है। जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं है, सिवाय एक तिलचट्टे के जो वाल-ई नाम के एक रोबोट का पालतू है। न कोई इन्सान है, न जानवर, और न पेड़-पौधे। सोलर बैटरीज़ से चलने वाला वाल-ई हर जगह छितरे पड़े कबाड़ को छोटे-छोटे घन में बदलने की बुद्धिमान मशीन है। उस के भीतर इतनी मनुष्यता है कि आप ये महसूस करने लग सकते हैं कि सम्भव है कि मनुष्य भी एक अति-विकसित मशीन है जो अपना पुनरुत्पादन कर सकता है।

स्टार वार्स के आर टू डी टू की याद दिलाने वाला वाल-ई एक रोज़ पाता है कि एक स्पेस-शिप एक अन्य रोबोट को उसकी विध्वंस दुनिया में छोड़ गया है। वाल-ई से कहीं अधिक विकसित ये रोबोट अपनी प्रकृति में बेहद विनाशकारी है और थोड़ी सी आहट पर ही मिसाइल छोड़ देता है/देती है।

थोड़े ही घटना क्रम के बाद ये स्थापित हो जाता है कि उसका नाम ईवा है और वह सम्भवतः स्त्रीलिंग है (नाम है ईवा)। आगे की कहानी इन दोनों रोबोट के बीच एक रूमानी सम्बन्ध पर टिकी है जिस पर आगे चलकर डिज़्नी हमें साइंस फ़िक्शन और फ़ेयरी टेल रोमांस का चाशनी में लथेड़ने लगता है। (कभी-कभी सोचता हूँ कि हम रोमांस के कितने भूखे हैं? हॉलीवुड तो तब भी दूसरी कि़स्म की फ़िल्में बनाता है पर हम...?)

ईवा विनष्ट और ज़हरीली हो चुकी पृथ्वी पर जीवन की दुबारा खोज करने आई है। जैसे ही उसे एक पौधे की भेंट वाल-ई द्वारा प्राप्त होती है, उसका सिस्टम शट डाउन हो जाता है। और वह अपने मिशन की सफलता का सिगनल अन्तरिक्ष में भेजने लगती है। वाल-ई उसकी इस चुप्पी से परेशान हो जाता है और अपना सारा क्रिया कलाप भूलकर उसी का दीवाना हो जाता है। यहाँ तक कि ईवा को लेने आए स्पेस-शिप पर लटक कर स्पेस स्टेशन एक्सिऑम तक पहुँच जाता है।

एक्सिऑम पर मनुष्य हैं जो पृथ्वी के नष्ट हो जाने के बाद से हज़ारों साल से किसी ऐसे ग्रह की तलाश में हैं जिस पर रहा जा सके। इस यात्रा का उनकी बोन डेन्सिटी पर इतना अधिक दुष्प्रभाव पड़ा है कि वे खड़े तक नहीं हो सकते और अपने सभी कामों के लिए रोबोट पर निर्भर हैं। अमरीकी जीवन(और धीरे-धीरे शेष दुनिया) जिस बीमारी की चपेट में फूलता जा रहा है उस मैक्डॉनाल्ड संस्कृति की एक भयावह तस्वीर दिखती है यहाँ.. जो मशीनीकरण और बाज़ारीकरण पर एक अच्छी टीप है।

पर बहुत जल्दी फ़िल्म एक ऐसे बेहूदे कथानक की बैसाखियाँ पकड़ लेती है जिस के सहारे डिज़्नी आज तक अपनी हर फ़िल्म बेचता आया है जिस में हीरो-हीरोइन का प्यार और शेष जनता का जयजयकार करना मूल कथ्य बन जाता है। लायन किंग और फ़ाइन्डिंग नीमो तक तो भी तब ठीक था अब वे उन्ही मूर्खताओं को मशीनों पर भी आरोपित कर रहे हैं।

मुझे हैरानी होती है कि क्या वे सचमुच सोचते हैं कि वाल-ई का कथ्य कुछ कमज़ोर रह जाता अगर एक्सिऑम के सारे रोबोट्स और सारे मनुष्य वाल-ई और ईवा की हीरो वरशिप न करते?

वाल-ई का ये पर्यावरण सम्बन्धी सन्देश डिज़्नी ने जापानी एनीमेशन फ़िल्म्स के धुरन्धर हयाओ मियाज़ाकी से सीखा है मगर उस में वो अपनी हॉलीवुडीय खुड़पेंच करने से बाज़ नहीं आए और एक अच्छी खासी फ़िल्म को ज़बरदस्ती के मसालों से सस्ता बना गए। मैं मियाज़ाकी का भक्त हूँ क्योंकि वे अपने सन्देश में मूर्खताओं का मिश्रण किए बिना ही उन्हे इतना सफल बनाना जानते हैं कि डिज़्नी भी उनसे ईर्ष्या करता है।

मियाज़ाकी तो, आप थियेटर तो क्या शायद डीवीडी लाइब्रेरी में भी न पा सकें.. वाल-ई तो देख ही लें.. तमाम सीमाओं के बावज़ूद बेहतर फ़िल्म है।

आप के देखने के लिए मियाज़ाकी की तमाम फ़िल्मों के टुकड़ों को लेकर बनाया गया एक वीडियो यहाँ चिपका रहा हूँ.. आनन्द लीजिये..

रविवार, 24 अगस्त 2008

हमारे नाकामयाब पड़ोसी

सन २००५ से यूनाईटेड स्टेट्स थिंक टैंक, फ़ण्ड फ़ॉर पीस और फ़ॉरेन पॉलिसी पत्रिका एक सालाना मानक जारी करते हैं जिसे वे फ़ेल्ड स्टेट्स इन्डेक्स कहते हैं। आम तौर पर फ़ेल्ड स्टेट्स की परिभाषा में वे राज्य गिने जाते हैं जिनकी केन्द्रीय सत्ता इतनी कमज़ोर है कि वे अपने भूभाग की सुरक्षा नहीं कर सकते। दार्शनिक मैक्स वेबर के अनुसार जो राज्य बलप्रयोग के वैध इस्तेमाल पर इजारेदारी क़ायम रख सकता है वो राज्य एक सफल राज्य है अन्यथा असफल।

मूलतः इसी आधार पर इस सूची को तय करने के बारह मानक तय किए गए हैं-

सामाजिक मानक
१) आबादी के दबाव
२) शरणार्थियों या विस्थापितों की गतिविधि
३) आपस में प्रतिशोधी हिंसा में संलग्न गुट
४) लोगों का लगातार पलायन

आर्थिक मानक
५) सामूहिक आधार पर गैर-बराबरियाँ
६) विकट आर्थिक मन्दी

राजनैतिक मानक
७) राज्य का आपराधीकरण या वैधता का अभाव
८) सार्वजनिक सेवाओं का ह्रास
९) मानवाधिकारों का हनन
१०) राज्यसत्ता के भीतर अन्य सत्ताओं का जन्म
११) शासक वर्ग के बीच गहरी गुटबाज़ी
१२) बाहरी राज्य या बाहरी सत्ताओं की दखलन्दाज़ी


इन मानको के आधार पर हर साल तक वे फ़ेल्ड स्टेट्स की सूची निकालते रहे हैं। राहत की बात है कि भारत फ़ेल्ड स्टेट नहीं है। मगर अफ़सोस की बात है कि लगभग हर साल ही हमारे कई पड़ोसी देश, २० सबसे नाकामयाब राज्यों की सूची में जगह पाते रहे हैं।

इन पड़ोसियों के नाम हैं- पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान, नेपाल, बांगलादेश, बर्मा और श्रीलंका। मैं जानता हूँ कि ये मानक अन्तिम सत्य नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि ये सूची नितान्त सत्यविहीन है। समझ में नहीं आता कि खुश हुआ जाय या दुखी ही बने रहा जाय।

भारत कामयाब राज्य है क्योंकि इस परिभाषा के तमाम अन्य मानको पर वो अपेक्षाकृत खरा उतरता है और साथ ही साथ अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग पर उसकी इजारेदारी को कोई वैध चुनौती भी नहीं दे सका है। सताने वाली दुविधा यह है कि यदि भारत कश्मीरियों को उनकी जनतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुसार आज़ादी दे देता है तो ये जनतांत्रिक मानकों पर तो नैतिक क़दम होगा मगर अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग की इजारेदारी का समर्पण कर के क्या वह एक नाकामयाब राज्य बनने की ओर तो नहीं खिसक जाएगा?

शनिवार, 16 अगस्त 2008

कश्मीर: पत्थर पर दूब

कश्मीर में हिंसा का दौर एक बार फिर से शुरु हो गया है। ऐसा लगता है कि हालात काफ़ी अच्छे हो चले थे मगर प्रशासन की कुछ बेवक़ूफ़ियों के चलते बद से बदतर हो गए हैं। बेशक़ प्रशासन से ग़लतियाँ हुई हैं मगर पत्थर पर से दूब नहीं उगा करती। एक गहरा असंतोष कश्मीरियों के अन्दर भीतर ही भीतर ही सुलग रहा था जो अवसर पाते ही ज़ाहिर हो गया।

श्राइन बोर्ड से समस्या क्यों?
अमरनाथ श्राइन को दी गई ९९ एकड़ ज़मीन के बारे में कई बाते कही जा रही हैं। पहले तो ये कि ये पूर्व राज्यपाल सिन्हा की घाटी के अन्दर की जा रही ‘एक साज़िश का हिस्सा’ है। दूसरे यह कि किसी बाहिरी व्यक्ति को ज़मीन देना राज्य के क़ानून के खिलाफ़ है। तीसरे यह कि श्राइन बोर्ड में ग़ैर कश्मीरी लोग भरे हुए थे। चौथे यह कि इसके ज़रिये घाटी में हिन्दुओं को बसाने की कोशिश की जा रही है।

बयानों में ये सारी बातें अधिक शालीन भाषा में कही जा रही थीं और तक़रीरों में यही बातें एक भड़काऊ भाषा में। ज़ाहिर है कि दो महीने के लिए अस्थायी शौचालय में किस तरह हिन्दू बसाये जायेंगे इस पर ध्यान देने की किसी ज़रूरत नहीं समझी। क्योंकि मुद्दा श्राइन बोर्ड नहीं था, मुद्दा भीतर बैठा एक अलगाव का भाव था/ है जो किसी रूप में ज़ाहिर होने के लिए मचल रहा था।

उल्लेखनीय है कि मुद्दे और आन्तरिक भाव के बीच यही दूरी जम्मू के आन्दोलन में भी बनी रही। श्राइन बोर्ड के रहने न रहने से बाबा अमरनाथ की गुफ़ा, यात्रा, यात्रियों पर कोई अन्तर नहीं पड़ रहा। और ये बात सच है कि कश्मीरियों ने अपने सारे विरोध के बावजूद यात्रियों और यात्रा को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया। लेकिन जम्मू वाले भी एक गहरे दुराव की भावना का जवाब दुराव की ज़बान से दे रहे थे। जिस के चलते हालात यहाँ तक पहुँचे कि कश्मीर घाटी को जाने वाले राजमार्ग पर ट्रकों की नाकाबंदी हो गई और घाटी की आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो गई।

क्या कश्मीर घाटी का इकोनॉमिक ब्लॉकेड हुआ?
इस से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैंतालिस पचास दिन लम्बे चले आन्दोलन में घाटी में रोज़मर्रा की चीज़ों की आपूर्ति पर, ज़रूरी दवाईयों आदि पर निश्चित फ़र्क पड़ा होगा। मगर दूसरी तरफ़ आवश्यक वस्तुएं न होने के कारण घाटी में कोई अकाल फैल गया हो ऐसा कम से कम दिखता तो नहीं। क्या आप ने कोई खबर देखी सुनी कि सब्ज़ी आदि के लिए दंगे हुए, या अनाज के लिए लूट हुई, या दवाई उपलब्ध न होने से किसी की जान पर बन आई?

और ऐसा भी नहीं कि घाटी में प्रेस की आज़ादी पर कोई रोक हो? सभी चैनल्स के रिपोर्टर्स स्थानीय कश्मीरी हैं जो इकोनॉमिक ब्लॉकेड की बात बराबर दोहराते हैं; यदि ऐसा होता तो क्या वे उसकी खबर नहीं करते? फिर लोग सब्ज़ी, दवाई आदि की माँग करने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद जाने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं। खाने-पीने की इतनी व्यवस्था है कि उत्तेजना में नारे लगा रहे हैं, और सी आर पी एफ़ की चौकियों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं।

वे कह रहे हैं कि कमी हुई तो मान लिया जाय कि अकाल भले न हो पर कमी है। मगर उस कमी ने उन्हे जम्मू के लोगों की माँगों/ भावनाओं को समझने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद से होकर पाकिस्तान जाने वाले दूसरे रास्ते को खोलने की ओर उन्मुख किया। तो क्या वे जम्मू से अधिक जुड़ाव मुज़फ़्फ़राबाद से महसूस करते हैं?

असल मामला क्या है?
दो तीन दिन से हुर्रियत के नेता कहने लगे हैं कि मुद्दा इकोनॉमिक ब्लॉकेड नहीं है, मुद्दा श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन नहीं है, मुद्दा कश्मीर की हुर्रियत का है.. कश्मीरी भारत के साथ नहीं रहना चाहते। वे आज़ादी चाहते हैं.. स्वतंत्र होने की या पाकिस्तान में मिल जाने की। तो बात साफ़ है कि ये मुद्दे सिर्फ़ अवाम की भावनाओं को भड़काने के लिए थे। मुख्य बात भारत के विरुद्ध एक ग़दर करना है और इस ग़दर में लगभग तीस लोग शहीद हो गए।

वे भारतीय राज्य से क्या उम्मीद कर रहे थे कि वह हज़ारों कश्मीरियों को यूँ ही मुज़फ़्फ़राबाद में चले जाने देगा? अति-संवेदन शील नियंत्रण रेखा जहाँ से लगातार आतंकवादियों को घुसाने की कोशिश होती रही और पिछले दो महीने से बार-बार युद्ध-विराम का उल्लंघन किया जा रहा है। उस नियंत्रण रेखा के पार आम जनता को आने-जाने का हक़ उन्हे कोई सामान्य सुरक्षाकर्मी दे देगा? क्या उन्हे गोली चलने का अन्देशा नहीं था? या वे जानते थे कि इसका क्या खतरनाक अंजाम हो सकता है मगर जनता के भीतर एक ग़ुस्सा भड़काने के लिए उन्होने जानबूझ कर ये क़दम उठाया?

शर्तिया वे जानते थे कि उनके इस क़दम से राज्य की तरफ़ से कुछ हिंसा होगी और जिसका इस्तेमाल वो अपने हित में करना चाहते थे। कश्मीरी नेतागण एक स्वर से अपने इस पूरे आन्दोलन को एक बेचारी, सताई हुई मगर फिर भी सेक्यूलर छवि देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

मेरे एक कश्मीरी मित्र का आकलन है कि कश्मीरियों को पैथेटिक प्ले (दयनीय बनने का नाटक करना) करने की बीमारी होती है, और इस वक़्त भी वे यही कर रहे हैं बल्कि पिछले साठ साल से करते आ रहे हैं। वो पैथेटिक प्ले कर रहे हों या नहीं हालात सचमुच पैथेटिक हैं।

कश्मीरी अलगाववाद क्या एक साम्प्रदायिक आन्दोलन है?
कश्मीरियों नेताओं, अवाम और बुद्धिजीवियों का मानना है कि उनका आन्दोलन सेक्यूलर है और पूरी तरह से कश्मीरियत की भावना से ओत-प्रोत है। कश्मीरियत क्या है वो मैं नहीं जानता, और उस पर टिप्पणी भी नहीं करना चाहता। और मैं ये मानता हूँ कि जिस तरह से जम्मू का हर आन्दोलनकारी भाजपाई और संघी नहीं है वैसे ही हर कश्मीरी मुसलमान पाकिस्तान का झण्डा लहराने और हिन्दुस्तान का जलाने में यक़ीन नहीं रखता।

मैं ये भी समझता हूँ कि घाटी से पंडितों को खदेड़ने में चन्द उग्रवादियों की ही भूमिका थी लेकिन किसी भी साम्प्रदायिक दंगे में हिंसा करने वाले चन्द गुण्डे ही होते हैं चाहे वो अहमदाबाद में हो या श्रीनगर में। लेकिन मूक दर्शकों की असहमति किसी तरह से तो दर्ज होनी चाहिये..? जैसे गुजरात के हिन्दू २००२ के दंगो के लिए किसी बड़े पश्चाताप विहीन हैं वैसे ही पण्डितों को भगाने के खिलाफ़ किसी प्रकार की असहमति दर्ज कराने कश्मीरी सड़क पर नहीं उतरे हैं। इसलिए घाटी से अल्पसंख्यकों का सफ़ाया हो जाने पर सेक्यूलरिज़्म का दम्भ करना शायद उनके लिए आसान होगा पर मेरे लिए उसे स्वीकार कर पाना कठिन है।

कश्मीरियों के साम्प्रदायिक न होने के तर्क में एक ही बिन्दु है कि हाल के तमाम प्रदर्शनों के बीच भी अमरनाथ यात्रियों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा। क्या सिर्फ़ अपने से इतर धर्मावलम्बी पर हमला करना ही साम्प्रदायिकता है? मेरे मत से वो दंगाई मानसिकता है मगर साम्प्रदायिकता इस से गहरी चीज़ है, वह तमाम रूप में अभिव्यक्त होती है।

नेट पर उपलब्ध डिक्शनरी डॉट कॉम पर कम्युनलिज़्म का अर्थ यह मिलता है.. strong allegiance to one's own ethnic group rather than to society as a whole यानी समूचे समाज से अधिक अपने जातीय समुदाय के प्रति प्रबल निष्ठा।

अगर यहाँ समूचा समाज पूरा हिन्दुस्तान न भी समझा जाय तो कम से कम जम्मू व कश्मीर राज्य ही माना जाय। एक समस्या है जिसके दो पहलू हैं- कश्मीर और जम्मू। इस में दोनों ही पक्ष के लोग दूसरे को साम्प्रदायिक और खुद को सेक्यूलर बता रहे हैं। जम्मू वालों में प्रबल साम्प्रदायिक तत्व हैं ये सभी मानने को तैयार हैं मगर कश्मीर वाले आन्दोलनकारी सब सेक्यूलर हैं ये मानने में मुझे तक़लीफ़ हो रही है।

न तो वे धर्म-निरपेक्षता के अर्थ में सेक्यूलर हैं और न ही सर्व धर्म सम भाव के अर्थ में। और ग़ैर-साम्प्रदायिक के अर्थ में यदि वे सेक्यूलर हैं तो उनकी निष्ठा के दायरे में जम्मू के हिन्दू भी तो आने चाहिये? मगर घाटी के सभी नेता, जी सभी नेता सिर्फ़ कश्मीर घाटी की संवेदनशीलता को समझते हैं और उसके दर्द, उसके आक्रोश और उसके नाइंसाफ़ियों के लिए दिल रखते हैं, जम्मू के दर्द और आक्रोश के लिए उनके दिल में जगह क्यों नहीं जबकि पाकिस्तान और फ़िलीस्तीन के लिए है? क्या महज़ अपने जातीय समुदाय के प्रति निष्ठा यानी साम्प्रदायिकता नहीं है?

लेकिन आप कश्मीरियों को सीना ठोंक-ठोंक कर खुद को सेक्यूलर और जम्मू वालों को हिन्दू हूलिगन्स कहने से नहीं रोक सकते। ये उनका अधिकार है कि किसी शब्द का वो कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं। शब्दों में उनके सही अर्थ बने रहने की उम्मीद करना आज की तारीख में बचकाना चिंतन है।

कश्मीर क्या एक और फ़िलीस्तीन है?
कश्मीरी लोग अकसर अपनी तुलना फ़िलीस्तीन से करते हैं। ये ठीक बात है कि कश्मीर घाटी में सेना की बड़ी मौजूदगी है और उनके द्वारा अक्सर मानव अधिकारों का हनन भी होता है। पर ये कोई अनोखी स्थिति नहीं है। दुनिया के किसी भी भाग में आप सेना से मानवीय व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते, उसका चरित्र ही अमानवीय है। वो चाहे बुश का इराक़ या सद्दाम का, मुशर्रफ़ का पाकिस्तान हो या भारत के उत्तर पूर्वीय राज्य; सेना का चरित्र दमनकारी ही रहता है।

कश्मीर के लोगों का दूसरी बड़ी शिकायत उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर है। सत्तासी-अट्ठासी के चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई और जीते हुए उम्मीदवारों को हरा दिया गया। इन में से एक सैय्यद सलाहुद्दीन भी थे जो पाकिस्तान स्थित कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन के मुखिया हैं। चुनावी धांधलियाँ भी भारत और दुनिया भर में आम हैं। इन असंतुष्ट कश्मीरियों का चहेता पाकिस्तान तो उल्लेख योग्य भी नहीं जबकि अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश खुद एक धांधली के बाद ही अमरीकी राष्ट्र के मुखिया की गद्दी पर क़ाबिज़ हुए।

कश्मीरियों पर अत्याचार के ये दो मुख्य आधार जायज़ ज़रूर हैं पर उन्हे किस नज़र से फ़िलीस्तीन के समकक्ष रखते हैं मेरी समझ के बाहर है। कैसे कोई कश्मीर और फ़िलीस्तीन को एक ही वाक्य में कह सकता है?

कश्मीर के मुसलमानों को बेघर किया गया .. नहीं।
उनके घरों को ढहाया गया.. नहीं।
उनकी ज़मीन छीनी गई.. नहीं।
बाहर से लाकर विधर्मियों को बसाया गया.. नहीं।
ये किस तरह का फ़िलीस्तीन है?

उलटे खुद कश्मीरियों ने घाटी के अल्पसंख्यकों को खदेड़ कर बाहर कर दिया और फिर भी वे खुद की तुलना फ़िलीस्तीनियों से करने का मंशा रखते हैं। आखिर फ़िलीस्तीनियों और कश्मीरियों में क्या समानता है, सिवाय इसके कि दोनों मुसलमान हैं? और यदि यही उनके साथ (और पाकिस्तान के साथ) एकता और जुड़ाव महसूस करने का एकमात्र बिन्दु है तो ये साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है?

क्या उन्हे अलग होने का हक़ है?
हिन्दुस्तान ने कश्मीर पर हमला कर के क़ब्ज़ा नहीं किया। कश्मीर के राजा हरि सिंह ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से स्वतंत्र एक लग राज्य के रूप में कश्मीर के अस्तित्व को रखने का फ़ैसला किया था। मगर जब पाकिस्तानी कबाईलियों ने हमला किया तो हरि सिंह घबरा गए। क्योंकि पाकिस्तान के साथ जाने से कश्मीर के मुसलमानों का तो कोई नुक़्सान न होता मगर घाटी के पण्डितों, जम्मू के डोगरों और लद्दाख के बौद्धों का जीवन संकट में पड़ जाता।

इसलिए उन्होने पाकिस्तान के साथ न मिल कर धर्म निरपेक्ष हिन्दुस्तान के साथ मिलने का फ़ैसला किया, लेकिन अपनी स्वायत्तता की शर्त के साथ जो धारा ३७० के रूप में भारतीय संविधान में ससम्मान शामिल की गई। कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल करने के बाद ही भारतीय सेना उनकी मदद के लिए गईं। और तब की नियंत्रण रेखा आज तक क़ायम है।

पाकिस्तान बार-बार जिस संयुक्त राज्य के प्रस्ताव की बात करता है उस के अनुसार पहले पाकिस्तानी सेना को उसके द्वारा अधिकृत कश्मीर को खाली करना होगा उसके बाद ही किसी जनमतसंग्रह किया जा सकता है। (और कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने वाले नेहरू थे, जिन्ना नहीं।) पाकिस्तान जनमत संग्रह की बात तो करता है मगर खुद के क़ब्ज़ियाए हुए कश्मीर को खाली करने की नहीं। पाकिस्तान सिर्फ़ भारत अधिकृत कश्मीर में यह जनमत संग्रह कराना चाहता है कि वे भारत में रहेंगे, पाकिस्तान में, या एक स्वतंत्र राज्य में?

मेरी निजी राय है कि कश्मीरी आन्दोलन साम्प्रदायिक है। मगर उस के साम्प्रदायिक आन्दोलन होने से वे कोई कम मनुष्य नहीं हो जाते और मानवीय अधिकार उतने ही बने रहते जितने कि किसी और के। यदि वे अलग होना चाहते हैं तो उन्हे अलग होने देना चाहिये। किसी जाति, किसी समूह को आप बन्धक बना कर अपने साथ नहीं रख सकते और न रखना चाहिये। इस में न उन का लाभ है न हमारा उलटे दोनों का नुक़्सान है।

कश्मीरियों को पाकिस्तान से मिलना है, मिल जायँ। मेरे अनुसार तो उन्हे यह हक़ बहुत पहले दे देना चाहिये था। अगर आज कश्मीरी पाकिस्तान के साथ होते तो हो सकता था कि वे हिन्दुस्तान के क़रीब होते और पाकिस्तान के खिलाफ़ अत्याचार का आरोप लगा रहे होते। पर भारत सरकार ने न तो उन्हे अपने यूनियन में मिलाया और न ही अलग होने दिया। भारत सरकार के लिए साँप-छ्छूँदर की स्थिति बनाए रखी और कश्मीरियों के भीतर एक ऊहापोह की।

सवाल बस एक रह जाता है कश्मीरियों को यदि अलग होने/ पाकिस्तान से मिलने का हक़ दिया जाता है तो कश्मीरी पण्डितों के उस ज़मीन पर हक़ का क्या होगा? वो तो फ़िलीस्तीनियों की तरह बहुसंख्यक भी नहीं है और न ही उनको निकालने वाले मुसलमान कहीं बाहर से आए हैं। उन्हे अलग से कोई पानुन कश्मीर तो देने से रहा। और जब भारत के अधिकार में होते हुए वापस कश्मीर लौटने का साहस जब उन पण्डितों में नहीं तो एक बार कश्मीर के पाकिस्तान में मिल जाने के बाद ऐसी कोई सम्भावना बनेगी इस में तगड़ा शक़ है।

रविवार, 10 अगस्त 2008

कोई उम्मीद बर नहीं आती

फ़िलीस्तीन एक तरह से दुनिया का केंद्र है; तीन महाद्वीप की नाड़ियाँ वहाँ से गुज़रती हैं। धर्म, संस्कृति और सभ्यता के प्राचीनतम सूत्र इस जगह से जुड़े हैं और मगर आज वही स्थान विश्व के सबसे घिनौने साम्प्रदायिक संघर्ष की ज़मीन में तब्दील हो गया है।


इस में जो दो पक्ष दिखाए दे रहे हैं उनके अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जो गंगा-यमुना के संगम में सरस्वती की तरह विलुप्त है। मेरा आशय उस योरोपीय कट्टर ईसाई मानस से है जिसकी प्रताड़ना से दग्ध हो कर यहूदी, मुसलमान अरबों के साथ आज इस संघर्ष में लथपथ हुए पड़े हैं। संगम की महिमा पापमोचन में हैं पर ये संगम पाप और प्रतिशोध का दलदल बन चुका है।


अभी तक आप ने इस श्रंखला की तीन कड़िया पढ़ी.. आज अन्तिम कड़ी..


अराफ़ात एक महानायक

1948 में इज़राईल की स्थापना के बाद बिखर आठ लाख शरणार्थियों में जो तमाम तरह की छोटी-छोटी राजनैतिक प्रतिक्रियाएं और अभिव्यक्तियाँ हुई उनमें से एक फ़तह नाम का संगठन भी था जो कुवैत में पढ़ने वाले फ़िलीस्तीनी विद्यार्थियों के बीच १९५९-६० में अस्तित्व में आया। फ़तह का उद्देश्य इज़राईल का विनाश और फ़िलीस्तीन की आज़ादी था। इसकी अगुआई कर रहे थे यासिर अराफ़त, जो वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे। अराफ़ात पहले ऐसा नेता थे जिन्होने फ़तह को अन्य फ़िलीस्तीनी गुटों/संगठनो की तरह किसी भी अरब देश का पिछलग्गू बनने से इंकार कर दिया और फ़िलीस्तीन की मुक्ति को खास फ़िलीस्तीनी संदर्भ में देखा, आम अरब संदर्भ में नहीं। उनसे ही फ़िलीस्तीनी राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है और फ़िलीस्तीनी राष्ट्र निर्माण की भी। यहाँ तक कि आरम्भ में उन्होने इन देशों से आर्थिक सहयोग तक लेने से इंकार कर दिया ताकि उन पर किसी तरह का दबाव न रहे। कुवैत के बाद अराफ़ात ने पहले सीरिया और फिर जोर्डन को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।


१९६४ में फ़िलीस्तीन मुक्ति संगठन (पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन) पी एल ओ की स्थापना हुई और १९६७ में इज़राईल के साथ अरब देशों की छै दिन की जंग। इस जंग के नतीज से लाखों फ़िलीस्तीनी एक बार फिर से शरणार्थी हुए और जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर इज़राईल का क़ब्ज़ा हो जाने से पूर्वी किनारे पर जोर्डन देश में बड़ी संख्या में तम्बुओ में आबाद हुए। इन्ही शरणार्थी कैम्पो में से एक करामह की लड़ाई लड़ी गई जिसने यासिर अराफ़ात को एक महानायक का दरजा दे दिया।


करामह की लड़ाई

फ़तह के लड़ाके इज़राईली सीमा पार कर के उनके ठिकानों पर हमला करने की नीति अपना कर एक छोटे स्तर का गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए थे, जिसमें कभी कदार एक-दो सैनिकों की क्षति हो जाती, मगर इज़राईल अपने रौद्र रूप और कठोर छवि को ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहता था। १९६८ में करामह कैम्प से किए गए एक फ़िदायीन हमले के जवाब में इज़राईल की सेना पूरे दल-बल के साथ जोर्डन की सीमा में गुस आई और कैम्प पर हमला कर दिया। अराफ़ात ने एक नीति के तहत फ़िलीस्तीनियों को पीछे नहीं हटने दिया। आखिरकार मामले के बहुत अधिक विराट रूप ले लेने से डरकर इज़राईल की सेना स्वयं पीछे हट गई।


हालांकि इस लड़ाई में १५० फ़िलीस्तीनी व २५ जोर्डनी सैनिक मारे गए और दूसरी तरफ़ कुल २८ इज़राईली। मगर इज़राईल की सेना का पीछे हटना अरब जन में एक अद्भुत जीत की तरह देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अरब ने इज़राईल की सेना का डट कर मुक़ाबला किया था और उसे मुँहतोड़ जवाब दिया था। करामह की लड़ाई के बाद अराफ़ात का क़द अरबों के बीच बहुत ऊँचा हो गया इसी जीत के प्रभाव का नतीजा था कि अराफ़ात को पीएल का अध्यक्ष चुन लिया गया।


जोर्डन में संघर्ष

अराफ़ात की इस अप्रत्याशित लोकप्रियता से जोर्डन देश के भीतर सत्ता के दो केन्द्र हो गए। किंग हुसेन मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार से थे और वैधानिक रूप से देश के राजा थे मगर अरबों के बीच लोकप्रिय समर्थन अराफ़ात और पी एल के लिए बढ़ता ही जा रहा था। जैसा कि आप को मैंने पहले बताया था कि जोर्डन भी पूरी तरह से एक कृत्रिम देश जो पहले विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया क्योंकि अंग्रेज़ हाशमी परिवार की वफ़ादारी का ईनाम देना चाहते थे। वादा तो एक पूरे अरब राष्ट्र का था पर भागते भूत की लंगोटी भली जानकर, किंग हुसेन के दादा अब्दुल्ला ने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।


तो किंग हुसेन अरबों के बीच फ़िलीस्तीन को लेकर जो लोकप्रिय जज़्बात थे उनको समझते थे इसीलिए किंग हुसेन ने बहुत कोशिश की मामला सुलझ जाए; यहाँ तक कि उन्होने अराफ़ात के सामने जोर्डन के प्रधान मंत्री पद को सम्हालने का भी प्रस्ताव रखा मगर अराफ़ात फ़िलीस्तीनी मक़्सद के लिए प्रतिबद्ध थे; वे तैयार नहीं हुए।

१९७१ में आखिरकार दोनों पक्षों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अन्य अरब देशों ने किसी तरह बीच-बचाव करके युद्ध विराम कराया गया पर तब तक ३५०० फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके थे। फिर भी छिट-पुट घटनाएं होती रहीं। और हालात तब बिगड़ गए जब एक रोज़ अराफ़ात ने हुसेन के सत्ता पलट का इरादा कर लिया और किंग हुसेन पर हमला हो गया। अब समझौता नामुमकिन था और अराफ़ात और उनके लड़ाकों को जोर्डन छोड़ना पड़ा। पचीस साल पहले विस्थापित लोग फिर एक बार अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर लेबनान की शरण में चले गए।


लेबनान

लेबनान आकर अराफ़ात को अपने गतिविधियों के लिए वो आज़ादी मिल गई जो जोर्डन में उपलब्ध नहीं हो पा रही थी क्योंकि लेबनान की सरकार की सत्ता कमज़ोर थी और वहाँ पर पी एल एक स्वतंत्र राज्य की हैसियत से काम करने लगा। इज़राईल के भीतर और बाहर यहूदी सत्ता और यहूदी जनता पर हमले कर के उस पर दबाव बनाना उसकी नीति के अन्तर्गत था। पी एल में अराफ़त के फ़तह के अलावा भी कई दल शामिल थे। उनके नरम से लेकर चरम तक के सब रंग थे और सब पर अराफ़ात का नियंत्रण था भी नहीं।


१९७० से १९८० के बीच लेबनान को केन्द्र बनाकर पीएल के वृहद छाते के नीचे से तमाम तरह की हिंसक गतिविधियाँ की गई जैसे प्लेन हाईजैक, फ़िदायीन हमले, बंधक बनाना आदि हथगोले, फ़्रिज बम, कार बम आदि का इस्तेमाल करके इज़राईलियों के खिलाफ़ आतंकवादी घटनाएं होती रही। कुछ ऐसी भी थीं जिसमें मासूम बच्चों को निशाना बनाया गया। इन सब में सब से कुख्यात और दुखद घटना रही म्यूनिक ओलम्पिक में की गई इज़राईली खिलाड़ियों की हत्या। जिसका बदला लेने के लिए इज़राईल ने भी एक ग़ैर क़ानूनी पेशेवर हत्यारे का तरीक़ा अपनाया (देखिये स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म म्यूनिक)। इज़राईली कमान्डोज़ ने म्यूनिक हत्याकाण्ड के लिए जितने भी लोग ज़िम्मेदार थे, उन सब को चुन-चुन कर मारा।


इज़राईल का जवाब

१९७८ में एक १८ बरस की फ़िलीस्तीनी लड़की के अगुआई में ११ अन्य फ़तह के सद्स्यों द्वारा अंजाम दिए गए एक कोस्टल रोड मैसेकर में ३७ इज़राइली मारे गए। इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए इज़राईल ने फ़िलीस्तीनी गुरिल्लो को लेबनान की अन्दर बहने वाली लिटानी नदी के उत्तर तक धकेलने के इरादे से हमला कर दिया। एक हफ़्ते तक चली इस कार्रवाई में २००० ग़ैर फ़ौजी लेबनीज़ मारे गए और २,८५,००० अपने घरों से उजड़ गए। फ़िलीस्तीनी लड़ाकों का कुछ ज़्यादा नुक़्सान नहीं हुआ।

बड़ी संख्या में फ़िलीस्तीनियों के आ जाने से लेबनान की आन्तरिक राजनीति में उथल-पुथल मच गई थी। लेबनान के ईसाई समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच फ़िलीस्तीनियों को लेकर एक गहरा मतभेद घर कर गया था। जिसके चलते पी एल ओ, लेबनीज़ ईसाई संगठन और इज़राईल के बीच हिंसक झड़पे आम हो चली थीं। सीरिया का भी इस खेल में दखल बराबर बना रहा।


१९८२ में अपने एक राजदूत के हत्या के प्रयास के बदले में इज़राईल ने लेबनान पर हमला कर दिया और उसे नाम दिया ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली। लेबनान में भी तमाम समुदायों के बीच संघर्ष ने एक गृह-युद्ध का रूप ले लिया और इज़राईल ने भी मौके का फ़ायदा उठाकर हमला कर दिया। ये हमला मुख्य रूप से पी एल ओ और फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ने के मक़सद से किया गया था जिसमें वो कामयाब भी हो गए। इस लड़ाई के अन्तिम चरण में जब फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ दिया गया था तब इज़राईल के सरंक्षण में लेबनीज़ ईसाई संगठन फ़लन्जिस्ट ने निहत्थे फ़िलीस्तीनियों के शरणार्थी कैम्प पर एक हमला किया जिसमें मरने वालों की संख्या एक हज़ार से चार हज़ार तक अनुमानित की जाती है। इस ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली में निहत्थे फ़िलीस्तीनियों का जनसंहार प्रच्छन्न था।


फ़िलीस्तीनियों और पी एल ओ के पाँव लेबनान से भी उखड़ गए और अधिकतर फ़िलीस्तीनियों ने इस बार सीरिया में शरण ली और अराफ़ात को अपना पी एल ओ का दफ़्तर दूर ट्यूनिशाई शहर ट्यूनिस ले जाना पड़ा। अराफ़ात का फिर कभी लेबनान लौटना नहीं हुआ।


ओस्लो क़रार

फ़िलीस्तीन से इतना दूर जाकर अराफ़ात की हिम्मत जैसे टूटने लगी और जवानी के वो उत्साही दिन भी नहीं रहे। इज़राईल को नक़्शे से मिटाना हर आने वाले दिन और भी अधिक असम्भव दिखता जा रहा था। और दूसरी इज़राईल भी अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी के बदले कुछ रियायत देने को तैयार होने का मन बनाने लगा था। अराफ़ात का इस नए बदलाव से कोई सम्पर्क नहीं था। उनकी अपनी हालत युधिष्ठिर जैसी होती जा रही थी जो पूरे राज्य की जगह अपने लोगों के लिए पाँच गाँवों पर भी समझौता करने को तैयार हो सकते थे। शायद ऐसी ही किसी हताशा या विकसित चिन्तन के तहत उन्होने समझौते का रास्ता अख्तियार किया।


नवम्बर १९८८ में उन्होने एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन राज्य की स्थापना की उद्घोषणा की और दूसरी तरफ़ अगले ही महीन संयुक्त राज्य में लगातार बढ़ते अन्तराष्ट्रीय दबाव में आकर आतंकवाद की भर्त्सना की। इस भर्त्सना के चलते दबाव अब अराफ़ात से हटकर इज़राईल पर आ गया जिसने पी एल ओ से कभी बात न करने का रुख हमेशा से ही बना कर रखा हुआ था। इसलिए एक स्थायी हल और शांति बहाल करने के लिए पी एल ओ के साथ बैक चैनल संवाद शुरु हुआ, ओस्लो में।


तीन साल तक चले इसी संवाद की बुनियाद पर १९९३ में इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच ऐतिहासिक समझौता, वाशिंगटन में हो गया। फ़िलीस्तीन ने अपनी तरफ़ इज़राईल के विनाश का मक़सद अपने चार्टर से हटा दिया और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। बदले में इज़राईल गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ भाग का प्रशासन व प्रबन्धन फ़िलस्तीनियों को सौंपने को तैयार हो गया। यह प्रक्रिया पाँच बरस में पूरी होनी थी लेकिन इज़राईल ने सारे अधिकारों को निर्दयता से भींचे रखा और बराबर नियंत्रण अपनी मुट्ठी में क़ैद किए रहा। १९९४ में यासिर अराफ़ात और इज़राईली प्रधान मंत्री यित्ज़ाक राबिन और विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ को नोबेल शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया पर शांति कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रही आज तक। और आज भी इज़राईल की दमनकारी नीति और नियंत्रण जारी है।

इस समझौते के दो बरस बाद ही यित्ज़ाक राबिन की यहूदी दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके पहले सुलह का रास्ता अपनाने मिस्र के राष्ट्र्पति अनवर सादात की हत्या मुस्लिम दक्षिणपंथियों द्वारा कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि उन्हे भी नोबेल शांति पुरुस्कार मिला था।


सेटलर्स

१९४८ के नकबे के दौरान फ़िलीस्तीनी अरबों दसे खाली कराए गए गाँवों, क़स्बों और शहरों में योरोप और दुनिया के अन्य देशों से आए यहूदियों को बसा दिया गया। इन्हे सेटलर(settler) कहा गया। १९६७ की छै दिन की जंग के बाद जब इज़राईल के के हाथ काफ़ी बड़ा भू-भाग आ गया तो उस ने गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और सिनाई क्षेत्र पर और भी सेटलर्स को बसाना शुरु कर दिया। ये सारे क्षेत्र सयुंक्त राष्ट्र के बँटवारे के मुताबिक भी उसके लिए अवैध थे, मगर उस की धृष्टता देखिये कि १९७८ में मिस्र के हुए समझौते के बाद सिनाई तो उसे लौटा दिया मगर गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक को इज़राईल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया।


गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे रह गए फ़िलीस्तीनी अरबों का सीधा संघर्ष इन सेटलर्स के साथ होता। इज़राईल नए आए यहूदियों को अपने सीमांत पर बसा कर दो मक़सद पूरे करता रहा। एक वो नए ज़मीन पर यहूदियों को बसा कर उन्हे फ़िलीस्तीनियों को वापसी की उम्मीद और क्षीण करता है और दूसरे फ़िलीस्तीनियों को दबाने का काम इन नए आए हथियारबन्द यहूदियों को सौंप कर अपना काम आसान करता है। नए लोग फ़िलीस्तीनियों को दमन एक पाशविक वृत्ति के तहत करते हैं क्योंकि उन के अस्तित्व के लिए यही उनसे अपेक्षित होता है। उस ज़मीन पर या तो सेटलर रह सकते हैं या फ़िलीस्तीनी।


आज भी फ़िलीस्तीनियों और इज़राईलियों के बीच लड़ाई का बड़ा मसला ये सेटलर्स हैं। सेटलर्स और फ़िलीस्तीनी नागरिकों के बीच होने वाले इस संघर्ष में सेटलर्स खुद पुलिस और प्रशासन की भूमिका में रहते हैं।


फ़िलीस्तीनियों अपने रोज़गार-व्यापार के लिए भी पूरी तरह से इज़राईल पर ही निर्भर हैं। रोज़गार के अवसर कम और सीमित हैं, और व्यापार पर अनेको बन्दिशें। वास्तव में इज़राईली शासन में फ़िलीस्तीनी एक प्रकार के विशाल कारागार में ही बन्द कर के रखे गए हैं। जगह-जगह चेक पोस्ट खड़ी कर के लोगों के भीतर लगातार एक अंकुश बनाए रखना, आधी रात को घर में घुसकर तलाशी लेना, अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ करके बिना मुक़दमे लम्बे समय तक क़ैद में रखना, फ़र्जी एनकाउन्टर करना, छोटी सी बुनियाद पर लोगों के घरों का गिरा देना आदि इज़राईली प्रशासन का फ़िलीस्तीनियों के प्रति किया जाने वाला आम रवैया है। आज कल सेटलर्स ने फ़िलीस्तीनियों को परेशान करने की एक नई नीति निकाली है- फ़िलीस्तीनियों के घरों में बड़े-बड़े चूहो के झुण्ड छोड़ देना।


इन्तिफ़ादा

१९८८ में जब अराफ़ात आतंकवाद से तौबा करने की सोच रहे थे। उधर फ़िलीस्तीन में लम्बी निराशा और असहायता के लम्बे दौर की अभिव्यक्ति एक अजब बेचैनी में हो रही थी। नई पीढ़ी एक अजब दुस्साहस लेकर पैदा हो रही थी। गाज़ा में १९८७ में इज़राईली सेना के एक ट्रक से कुचलकर चार फ़िलीस्तीनियों की मौत हो गई। इस की प्रतिक्रिया में फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने पत्थर हाथ में उठा लिए और उसे अपने आक्रोश का हथियार बना कर इज़राईली सेना की तरफ़ फेंकने लगे।


छोटे-छोटे बच्चे जो न गोली से डरते और न टैंक से, कुछ तो पाँच बरस की उमर के। अपमान और दमन की ज़िन्दगी की मजबूरी को परे कर लड़ कर जीने की जज़बा पैदा कर लिया उन्होने। फ़िलीस्तीनी नौजवान के प्रतिरोध को इन्तिफ़ादा के नाम से जाना गया। इन्तिफ़ादा यानी डाँवाडोल के दौरान सिर्फ़ पत्थर ही नहीं चले। फ़िलीस्तीनी लड़के खुदकुश बमबाज़ भी बने, हथियारबन्द दस्तों से कार्रवाईयाँ भी की गईं, और इज़राईली इलाक़ों की तरफ़ रॉकेट भी दाग़े गए।


ये डाँवाडोल छै साल तक चलता रहा। हमास की निन्दा तो हुई मगर उस से अधिक दुनिया भर में इज़राईल के लिए निहायत शर्म का मसला बना। पहले इन्तिफ़ादा के दौरान ४२२ इज़राईली मारे गए और ११०० फ़िलीस्तीनी इज़राईलियों के हाथों मारे गए, जिसमें १५० के लगभग की उमर १६ बरस से भी कम थी। साथ-साथ लगभग १००० फ़िलीस्तीनी अपने ही लोगों के हाथों मारे गए। इनके बारे में शक़ था कि ये गद्दार हैं और इज़रालियों ले किए जासूसी करते हैं।


२००० में वेस्ट बैंक में अल अक़्सा मस्जिद को लेकर दूसरा इन्तिफ़ादा शुरु हुआ और फिर वही हिंसा चालू हो गई।


हमास

१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगत व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।


हमास के नेता अहमद यासीन बचपन से ही एक ऐसी अस्वस्थता के शिकार थे जिसने उनके अस्तित्व को व्हीलचेयर के साथ बाँध दिया थ। पर इस शारीरिक सीमा ने उनकी मानसिक क्षमताओं को सीमित नहीं किया। उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे खतरनाक प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी। इसके पहले इज़राईल ने फ़तह के नेता और अराफ़ात के सहयोगी अबू जिहाद को भी ऐसे ही एक हमले में मार डाला था।


आज की तारीख में फ़िलीस्तीन में अराफ़ात के संगठन फ़तह से कहीं अधिक लोकप्रियता हमास की है। २००६ के चुनावों में फ़िलीस्तीनी संसद की १३२ सीटों मे जहाँ फ़तह को ४३ सीटें मिलीं वहीं हमास ने ७६ सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज फिर हमास को फ़िलीस्तीनियों का प्रतिनिधि मानने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि वे खुले तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं।

फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?

हिंसा जारी है

आज भी फ़िलीस्तीन और इज़राईल के बीच आपसी नफ़रत के अलावा तमाम सारे अनसुलझे मुद्दे बने हुए हैं। उनके बीच भू-भाग का बँटवारे का सवाल वैसे ही उलझा हुआ है। इज़राईल अपना आधिकारिक मानचित्र आज भी जारी नहीं करने को तैयार है। सेटलर्स फ़िलीस्तीन के नियंत्रण में घोषित कर दिये भागों में अभी भी बने हुए हैं। इज़राईल की सेना और पुलिस आज भी फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में घुसकर जिसको जी चाहे गिरफ़्तार कर लेती है। और थोड़ी सी हिंसा होते ही इज़राईल फ़िलीस्तीनी इलाक़ो पर बम और मिसाइल वर्षा करने लगता है। ये मामले सुलझ सकते हैं अगर उनके बीच विश्वास का कोई पुल बने मगर जब नफ़रत और प्रतिशोध की खाईयाँ खुद चुकी हों तो कैसे कोई मामला हल हो सकता है।


लेबनान के शिया संगठन हिज़्बोल्ला के साथ भी इज़राईल का ऐसा ही उग्र सम्बन्ध क़ायम है जिसके चलते २००६ में एक महीने लम्बी खूनी लड़ाई लड़ी गई जिसमें हज़ारों जाने गईं और बेरुत जैसा खूबसूरत शहर एक बार फ़िर नष्ट हुआ।


चूँकि ये लेख उन लोगों को समर्पित रहा जो समझते हैं कि इज़राईल जैसी कठोर दमन की नीति अपनाने से आतंकवाद काबू में आ जाएगा.. (याद रखा जाय कि आतंकवादी हमारे देश में हैं फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहना उनका अपमान और उनके ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा जमाए बैठे अपराधी देश इज़राईल का अनुमोदन है, हाँ हिंसावादी निश्चित हैं).. तो अपने उन बन्धुओं को लिए आखिर में एक आँकड़ा रखता चलता हूँ..


१९८७ से २००० तक के बीच चौदह साल में १८७३ फ़िलीस्तीनी और ४५९ इज़राईली मारे गए.. जबकि २००१ से २००७ के सात साल में ४२०७ फ़िलीस्तीनी और ९९१ इज़राईली अपनी जान से गए। यानी कि आधी ही अवधि में मरने वालों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई।


भविष्य के प्रति निराश हूँ

हमारे हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम के बीच का दुराव के पीछे राजनैतिक संघर्ष, धार्मिक पूर्वाग्रह, और आपसी हिंसा के कुछ अध्याय ज़रूर हैं मगर सैकड़ों साल तक एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे को धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक स्तरों पर गहरे तौर पर प्रभावित भी किया और एक साझा जीवन जिया है।


जो लोग साझी संस्कृति की सच्चाई को नकारते हैं वे भी मानेंगे कि पिछले हज़ार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग ज़रूर रहीं पर एक लम्बे सफ़र में कभी-पास कभी दूर रहकर भी एक दूसरे को प्रभावित करती रहीं।

अपने देश के प्रति मैं आशावान हूँ पर फ़िलीस्तीन के लिए मैं नाउम्मीद हूँ क्योंकि वहाँ ऐसे साझेपन की किसी भी सम्भावना को शुरु से ही पनपने ही नहीं दिया गया, पहले ही बँटवारा कर दिया।


१९४८ के नकबा के बाद एक दूसरे के एकदम खिलाफ़ हो गए ये दो समुदाय कभी आपस में सहज हो पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। एक फ़िलीस्तीनी, एक इज़राईली को देखकर क्या कभी भूल पाएगा कि ये उसी क़ौम की सन्तति है जिसने हम पर अनेको अत्याचार किए और हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया?


सम्भव है कि हिंसा का ताप मद्धिम पड़ जाय पर वो एक शोले की तरह हमेशा उन के दिलों में दब के रहेगी और कभी भी भड़कने के लिए बेक़रार बनी रहेगी। किसी बहुत बड़ी महाविपत्ति के भार के नीचे ही यह आपसी नफ़रत दफ़न होकर, उन्हे वापस जोड़ सकती है, शेष कुछ नहीं; ऐसा मुझे लगता है। भगवान करे मैं ग़लत होऊँ।




इस श्रंखला की पहले की कड़ियाँ-


जो वादा किया..

रचना एक नए देश की

एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश


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