सोमवार, 24 अगस्त 2009

कूद जाऊँ क्या?

मैं बनारस की ट्रेन बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में सवार था। खिड़की के बगल वाली सीट थी। ट्रेन लगभग खाली थी। आराम से सामने की सीट पर पैर टिकाकर अधलेटे होने में मन अवचेतन में विचरने लगा। बाहर के खेत-मेंड़, पेड़-पंछी देखते-देखते अचानक मन में विचार आया कि चश्मा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। फिर सोचा कि बैग से कैमरा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। जेब से मोबाइल निकाल कर उसे भी खिड़की के बाहर उछाल दूँ।

ऐसे विचारों के पीछे मेरे पास कोई कारण कोई तर्क नहीं था। मैं न तो क्षुब्ध, न क्रुद्ध और न अवसादग्रस्त। न किसी से झगड़ा न कोई मेरे ऊपर कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती। फिर भी मन अजीब दिशा में ठेल रहा था। मैं मनमानी करने वाला आदमी नहीं हूँ। इच्छाओं का दास तो बिलकुल नहीं। मन पर, विचारों पर तक कठोर नियंत्रण रखने वाला आदमी हूँ। मगर मन अभी स्वतन्त्र था। मेरी उस पर कोई रोक न थी। वो कह रहा था- चश्मा, मोबाइल, और कैमरा खिड़की के बाहर फेंक दूँ। न जाने क्यों?

कुछ दिन बाद बनारस में दरभंगा घाट के एक ऊँचे चबूतरे पर बैठ कर मन में आने लगा कि वहाँ से सीधे नीचे गंगा में कूद जाऊँ। बनारस आकर मैं आनन्द में हूँ। जीवन का अन्त करने का मेरा कोई विचार नहीं है। ऐसी प्रेरणा मुझे पहले भी हुई है। गंगटोक में एक बार सीधी घाटी में झाँकते एक मकान के छोर पर खड़े होकर जब मैंने अपने तलवों से लेकर घुटनों तक एक भयावह झुरझुरी और मस्तक तक दौड़ते खून को महसूस किया तो मैंने जाना कि मेरा शरीर ऊपर से नीचे तक अज्ञात में कूदने की भौतिक तैयारी कर चुका है।

इस अन्तः प्रेरणा के सम्बन्ध में मेरा एक विचार है। मेरा सोचना है कि यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हर किसी को ऊँचाई पर जाकर डर लगता है। क्योंकि हर एक के भीतर ऊँचाई पर जाकर नीचे छलांग लगाने की प्रेरणा जागती है। सिर्फ़ उसे डर नहीं लगता जो या तो छलांग लगा-लगा कर अज्ञात के डर के पार हो गया है या फिर उसे जो अपनी प्रवृत्तियों के पार हो गया है।

मल्लाहों के बच्चे इस प्रेरणा को सुनते हैं और छलांग लगा कर नदी को अपना दोस्त बना लेते हैं। हम जो छलांग नहीं लगाते, सारी उमर किनारे बैठकर इस अन्तः प्रेरणा को सुनते हैं और सुन-सुन कर डरते हैं। डर कर किनारे से थोड़ा और दूर हो जाते हैं।

अज्ञात में छलांग की प्रेरणा उठना हमारी स्वाभाविक वृत्ति है- यह सोचकर मैं घाट के चबूतरे से उठ गया। पास ही एक कुत्ता सो रहा था। मन में आया कि उसे एक लात लगाऊँ। पर मैंने अपने को रोक लिया। क्या आप जानते हैं कि मेरे भीतर कुत्तों का कितना डर है?

शनिवार, 8 अगस्त 2009

हमरे ऊ पी के बासी

कानपुर की गाड़ी में बैठते ही कानपुर का स्वाद मिल गया। दूसरे दर्जे के कूपे में चार के बजाय पाँच सहयात्री दिखाई दिये। मैं और तनु साईड की बर्थ पर थे। पाँचवे शख्स के पास आरक्षण नहीं था। वे इस विश्वास से चढ़ बैठे कि टी टी के साथ जुगाड़ बैठा लेंगे। जुगाड़ यह इस प्रदेश के मानस का बेहद प्रिय शब्द है। तमाम जुगाड़ कथाओं के बीच दल के नेता ने अपने मित्रो को यह भी एक कथा-मर्म समझाया कि सरकारी हस्पताल प्रायवेट नर्सिंग होम से कहीं अधिक बेहतर पड़ता है। जितना खर्चा प्रायवेट में करोगे उसका चार आने का भोग सिस्टर आदि को चढ़ा दो फिर देखो कैसी सेवा होती है। दिन में चार बार चादर बदलेगी, सब तरह की दवा मिल जाएगी। भोग और प्रसाद का यह चलन जुगाड़ की परिभाषा के भीतर ही समाहित है।

टी टी ने एक बार घुड़की ज़रूर दी मगर फिर चार्ज वगैरा लगा के मान गया और एक बर्थ एलॉट भी कर दी। सारे रास्ते ठेकेदारों की यह टोली अपने हमसफ़रों की अमनपसन्दगी, और सामान्य शालीनता के प्रति एक बेलौस बेपरवाही बरतते हुए मादरचो बहन्चो करते आए। ये इस प्रदेश की ही विशेषता हो ऐसा नहीं है। क्योंकि पढ़े लिखे सभ्य लोगों को को वेल एडुकेटेड सोसायटी में फ़क्देम-फ़क्यू इत्यादि का जाप करते सुना जा सकता है। इस अर्थ में हम्रे ऊपी के बासियों में एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी है।

***

कानपुर में गाड़ी चलाना एक अनुभव है। यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है कि जिसने कानपुर में गाड़ी चला ली, वो दुनिया के किसी भी इलाक़े में गाड़ी चला सकता है- लाइसेन्स हो या न हो। मेरा तजुरबा ये है कि लोग इस शहर में गाड़ी चलाते कम हैं सड़क पर मौजूद तमाम गाड़ियों के बीच खाली जगहों में अपना वाहन पेलते अधिक हैं।

लेकिन अगर आप को सचमुच कानपुर में गाड़ी चलाने का अनुभव प्राप्त करना है तो कभी सूरज ढलने के बाद चक्का घुमाइय़े। रात में कई सूरज आप को अंधा बनाने के लिए तैयार नज़र आयेंगे। या तो कानपुर में कोई नहीं जानता कि कार में हेड लाईट की एक सेटिंग का नाम लो बीम भी होता है या वो गहरे तौर पर विश्वास करते हैं कि ड्राईविंग एक युद्ध है और सड़क उनकी रणभूमि। सामने वाले को किसी तरह भी मात करना उनकी युद्ध-नीति का अंग है। जिसकी गाड़ी में जितनी तेज़ लाईट होगी वो सामने वाले को अंधा करके गाड़ी धीमी करने पर मजबूर कर सकेगा और बची हुई जगह में अपनी गाड़ी पेलने में सफल हो सकेगा।

आप सोचेंगे कि ये जुझारू चालक रात में तो हेडलाईट के हथियार से युद्ध करते हैं मगर दिन में? दिन में तो उनका यह अस्त्र बेकार सिद्ध हो जाएगा। बात माकूल है। मगर दिन में वे आँखों की जगह कानों पर हमला करते हैं। दूर से ही कानफोड़ू क़िस्म के भोंपू बजाते हुए वाहन दौड़ाते आते हैं। अपने शहर की रवायतों से अजनबी हो चुका मेरे जैसा आदमी घबरा के किनारे हो जाता है। मगर घिसा हुआ कनपुरिया अंगद की तरह डटा रहता है। इंच भर भी जगह नहीं छोड़ता। जनता का यह उदासीन व्यवहार और चिकना घड़त्व चालक को हतोत्साहित नहीं करता। वह लगा रहता है। उसे आदत पड़ चुकी है। उसे डर है कि हॉर्न न बजाने पर लोग उसे रास्ते का पत्थर मानकर सड़क के परे न धकेल दें। वो अपनी अंगुली हॉर्न से हटाता ही नहीं है।

आम नागरिक इस व्यवहार का वह इतना अभ्यस्त हो चुका है कि सुबह छै बजे चन्दशेखर आज़ाद विश्वविद्यालय में सुबह की टहल का आचमन करके स्वास्थ्य वृद्धि के उद्देश्य से आए मगर गलचौरे में व्यस्त निरीह, निरस्त्र लोगों पर भी वह इस हथियार का अबाध इस्तेमाल करने से बाज नहीं आता। और जड़ानुभूति हो चुके पक्के कानपुरिया कभी उस का कॉलर पकड़ कर सवाल करने का सोचते भी नहीं कि अबे भूतनी के! सुबह-सुबह खाली सड़्क पर काहे कान फोड़ रहा हैं.. हैं?

***

एक अन्य अनुभव में यह पाया गया कि बड़े चौराहे पर नवनिर्मित पैदल पार पथ का इस्तेमाल करने में किसी पथिक की श्रद्धा नहीं है। परेड, शिवाले और मेस्टन रोड के आने जाने वाले बड़े चौराहे के हरे लाल सिगनल और चौराहे के केन्द्र में स्थापित ट्रैफ़िक हवलदार की किसी भी चेष्टा को पूरी तरह नगण्य़ मानते हुए इधर से उधर, और उधर से इधर होते रहते हैं। अनुभूति जड़ हो चुके पक्के कानपुरिया जानते हैं कि अगर वे अपने वाहन पर आसीन नहीं होते तो वे स्वयं भी अपने इस गऊवत व्यवहार के सामने बाक़ी दुनिया को झुकाए रखते। और गऊ हमारा श्रद्धेय प्राणी है जिसे क़तई भी कोई पुरातन कालीन न समझे.. आज कल गऊ पट्टी के ह्र्दय प्रदेस ऊपी में गऊ प्लास्टिक खाती है, इस से अधिक आधुनिकता का प्रमाण आप को और क्या चाहिये?

***

यहाँ नवाबगंज में तमाम तरह के पेड़ लगे हैं नए-पुराने। बरगद, पीपल, आम, इमली, पकड़िया, और नीम जैसे सर्वव्याप्त वृक्षों के अलावा सहजन, अमलतास, गुलमोहर, गूलर, जंगलजलेबी, बालमखीरा, सुबबूल आदि भी लगे हैं। नए रोपे गए वृक्षों में कदम्ब कई जगह लगा है चूंकि वह जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। कदम्ब से पुराने वृक्षों में कसोड नाम का एक वृक्ष भी बहुतायत में लगा हुआ है। कई गलियों के तो पूरे के पूरे किनारे इसी कसोड के द्वारा आच्छादित हैं।

मुझे जिज्ञासा हुई कि कसोड नाम तो प्रदीप क्रिशन ने अपनी किताब ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही में दिया है। न जाने किस इलाक़े में यह नाम चलता हो। अपने कानपुर का क्या नाम है यह सोचते हुए मैं एक प्लास्टिक के पैकेट में आठ रुपये का पचास ग्राम धनिया झुलाते हुए चला जा रहा था। एक बंगले के सामने लगे कसोड के नीचे एक प्रौढ़ सज्जन एक ऐसी बेपरवाही और सहजता से पूरे चित्र में मौजूद थे जैसे कि कोई सिर्फ़ अपने घर के आगे ही हो सकता है। यह जानकर कि महाशय और इस पेड़ का साथ कई बरसों का लगता है, मैंने उन से पूछ डाला तपाक से – इस पेड़ का नाम क्या है। वो पहले तो अचकचाए फिर पेड़ की तरफ़ एक औचक दृष्टि उछाली और सर हिला दिया। इस का नाम तो नहीं मालूम। अपनी अज्ञानता में वो असहज न हो जायं मैंने कहा कि पीले फूल आते हैं न इसमें?

हाँ- पीले। बहुत पुराना पेड़ है। यहाँ जगह-जगह लगा है। तमाम लोगों ने कटवा दिया है। हमारा वैसेई बना है।

मैंने सर हिलाया कि जी यहाँ बहुत लगा है। और चलने लगा।

सड़क के पार उनके पड़ोसी बाहर खाट डाले पड़े थे। मेरे वाले महाशय ने उनसे पूछा कि नाम क्या है इस का। अधलेटे पड़ोसी ने सर प्रश्नवाचक मुद्रा में सर उचकाया।

रुकिये उनको पता है शायद।

मैं उनके पीछे-पीछे सड़क के पार गया। सवाल के जवाब में उन्होने सर नकारात्मक हिला दिया। और मेरी तरफ़ एक निगाह फेंकी जिस से मुझे समझ आया कि वो मेरे सवाल से ज़्यादा इस बात से दिलचस्पी रखते थे कि मैं कौन चीज़ हूँ जो ऐसे सड़क चलते पेड़ो का नाम-धाम पूछ रहा हूँ? इस के पहले कि वो मेरी कोई इन्क्वारी करते मैंने खिसक लेने में अपनी भलाई समझी क्योंकि उन्हे ये समझाना कि मैं इतना खलिहर हूँ कि मेरी दिलचस्पी काम धन्धे की दुनियादारी में नहीं.. बेफ़ालतू की ऐसी जानकारी इकट्ठी करने में है जो उन निम्न वर्ग के लोगों के पास ही बची है जो प्रकृति के साथ रहने के लिए अभी भी मजबूर हैं। बंगले में बन्द लोगों को अपने सामने खड़े पेड़ का नाम भी नहीं मालूम रहता और न वे मालूम करने की कोई कोशिश करते हैं। वैसे मेरे वाले महाशय ने ये ज़रूर वादा किया कि वन विभाग के लोग आते-जाते रहते हैं उन से पूछ कर वो हमें बतायेंगे। अब वो हमें कैसे बतायेंगे इस सवाल में आप अपनी मूँड़ी मत घुसाइये। हम ऊ पी के बासियों की ये एक और निर्मल निराली अदा है। कहीं तो मिलोगे कभी तो मिलोगे तो बता देंगे नाम।

आगे मेरी थेरम को इति सिद्धम करते हुए सासेज ट्री के नीचे मौसम्मी का ठेला लगाए बालक ने दूसरी ओर देखते हुए कहा- बालम खीरा। मेरा सवाल वही था कि इस पेड़ का नाम क्या है। मैं उस के ज़रिये एक पीछे की दुनिया में झांकना चाह रहा था और वो मुझ से पार एक आगे की दुनिया में कुछ तलाश रहा था।

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

अथ संयम व्यथा

दोस्तों,

बचपन और जवानी में कविता करने और कविकर्म में जीवन का अर्थ खोजने की कल्पना हम ने भी की थी, मगर कहानी कभी नहीं लिखी। कहानी की विधा को समझने में हमें एक उम्र लग गई। जीवन की सतत धारा को एक सार्थक टुकड़े में पकड़ पाने की कला के साथ हम बरसों से दो-चार होते रहे हैं। बावजूद इसके कि हमने टीवी सीरियल के लिए भी माल पैदा किया और फ़िल्म की कहानी भी बनाई। मगर जैसा कि वाक्य विन्यास से स्पष्ट है कि यह दोनों कर्म मेरे भीतर कहानी की कला नाम के कोने में जो अंधेरा था उसे उजाला करने में असमर्थ रहे।

इसी कारण मैंने कभी अपना विज़िटिंग कार्ड नहीं बनवाया। कार्ड तो बनवा लेंगे मगर उस पर लिखेंगे क्या? कहानीकार? लेखक? फ़िल्मकार? किसी भी परिभाषा के सामने खरे उतरने लायक कोई कर्म तो किया नहीं आप ने? तो कार्ड बनाने का काम तब तक मुल्तवी होता रहा जब तक कि केरल के शार्ट फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'सरपत' को ले जाने के लिए यह निहायत ज़रूरी नहीं हो गया। उस पर भी सिर्फ़ नाम लिखकर ही काम चला लिया गया। एक शार्ट फ़िल्म बनाई ज़रूर है मगर क्या वह आप को फ़िल्मकार साबित करने के लिए पर्याप्त है? और दूसरा इस से बड़ा सवाल- क्या फ़िल्मकार अकेले भर ही अभय तिवारी का समूचा परिचय है? खैर!

तो कहानी के मारे हम ने तय किया कि कहानी लिखे बिना तो नहीं बनेगी बात। रुक-रुक कर, श्रम साध्य विधि से हम ने स्मृति और कल्पना का एक जाल बुनने में अपने को लगा दिया। पन्द्र बीस रोज़ गुज़र गए बात आठ- नौ पन्ने पर एक जगह जा कर अटक गई। फिर एक रोज़ इस कहानी को पगुराते-पगुराते एक दूसरा विचार मस्तक में चमका। और पहले प्रयास के अधूरेपन को हास्यास्पद बनाते हुए कुल जमा दो घंटो में ही कागज़ पर भी आ गया। प्रमोद भाई को पढ़ाया। उन्होने हिम्मत बढाई और कहा कि इसे गीत चतुर्वेदी को भेजो- वो आजकल भास्कर में साहित्य का पन्ना सम्हाल रहे हैं।

गीत ने पढ़ा, पसन्द किया और पिछले रविवार को दैनिक भास्कर की मैगज़ीन रसरंग में जगह दी। कुछ अनजान पाठकों के उत्साह वर्धक मेल भी आए पर ब्लॉग के दोस्तों ने लगता है अभी तक नहीं देखा। पहली कहानी है, उदारता की उम्मीद के साथ यहाँ छाप रहा हूँ।


अथ संयम व्यथा

ससुरा बैजनवा रस्सी छोड़ै नहीं रहा था। पण्डितजी के सीने पे दबाव बढ़ता ही जा रहा था। बैजनवा ने एक झटका दिया। पण्डितजी चरपैय्या से नीचे आ पड़े। अचानक सारा दबाव सीने से उनके अधो भाग पर आ पड़ा। लगा कि यहीं पैखाना हो जाएगा। रुक जा बैजनवा मादर.. पण्डितजी ने अपनी तरफ़ की रस्सी के तनाव को अपना बल बनाने की कोशिश करते हुए कहा। मगर बैजनवा ने उधर से एक झटका दिया। अब पण्डितजी घिसटने लगे थे। और अधोभाग पर दबाव और बढ़ गया था। लगता था कि लेटे-लेटे ही पैखाना हो जाएगा। पण्डित जी ने करवट बदली। गला सूख रहा था। मगर अभी उठने का का मन नहीं था। अधोभाग पर दबाव बना हुआ था। पण्डितजी को सुध हुई कि वे बिस्तर पर हैं और बैजनवा स्वप्न में। इस राहतेजान से उनके मन में ऐसी शांति छायी कि फिर से नींद आने लगी। इच्छा हुई कि अधोभाग पर बने वेग को पाद मारकर बाहर कर दिया जाय। परन्तु अधोभाग से जवाब आया कि महज़ पाद नहीं हूँ मैं।

पण्डितजी को स्वप्न में बैजनवा में वापस मिल जाने का डर था वरना वे बिस्तर ना छोड़ते। गला अभी भी सूख रहा था। धोती सम्हालते हुए पण्डितजी बैठक में चले आए। सुशीला और बिट्टी दोनों बैठकर ड्रम में से पुराने चावल निकाल कर उसमें से घुन बीन रहीं थीं।

चा बना दूँ दद्दा? सुशीला ने पूछा।

पण्डितजी सोचने लगे कि पहले चा पी लूँ या निबट लूँ? पण्डितजी ने बाहर झांका। मई की धूप में अभी कमी नहीं आई थी। चार बज रहे होंगे। इस लू में लोटा लेकर मैदान जाने की इच्छा नहीं हुई पण्डितजी की। क्या घर की टट्टी में निबट लूँ। इतना सोचते-सोचते वे सुशीला के सवाल को भूल गए। वेग ऐसा है कि किसी को पता भी नहीं लगेगा कि लघुकाल में दीर्घकाल की शंका का समाधान हो जाएगा। पण्डितजी गलियारा पार के टट्टी में जा बैठ गए।

धोती और लंगोट का छोर कंधे पर लपेट कर शरीर के वेगों को आज़ाद किया ही था कि अधोभाग से एक आरोही स्वर बजने लगा। पण्डितजी चौंके फिर घबराए। और वापस वेगों को गिरफ़्तार कर लिया। सुशीला और बिट्टी की बैठक में उपस्थिति ने पण्डितजी को लज्जित कर दिया था। वे क्या सोचेंगी- दद्दा इस वेला में निबट रहे हैं। उनकी ख्याति इन्द्रियजित योगी और आयुर्वेद के ऐसे अनुशासित सिपाही की है जो हवा भी तौल के पीता है। कितनी बार उन्होने सुशीला और बिट्टी को संयमित आहार के लिए घुट्टी पिलाई थी कि दिन में शौच से बचने के लिए कैसा आचरण रखा जाय। आज स्वयं पण्डितजी... हा!.. इस वेला में निबटान और वो भी ऐसी सुरीले पाद के साथ।

पण्डितजी शारीरिक वेग और मानसिक उद्वेग में फंस गए थे। शंका का समाधान करने टट्टी पर बैठे कितनी दूसरी शंकाओं की टट्टियों में अपने व्यक्तित्व को छिपाने में उलझ गए थे। पण्डितजी की राय थी कि शारीरिक वेगों को कभी न रोका जाय मगर आज अपनी राय के विरुद्ध उन्होने मस्तक को देह पर तरजीह दी। किसी तरह रोक-रोक कर शरीर का धर्म निभाया और बाहर आए। जितना समय पण्डितजी ने टट्टी की खुड्डी पर बैठकर बिताया था किसी को संशय तो नहीं होगा कि भीतर ले जानी वाली शंका लघु थी क्या? नज़र बचा कर पण्डितजी ने सुशीला और बिट्टी को देखा- दोनों निर्विकार भाव से घुन बीनने में लगीं थी। बिट्टी ने पण्डितजी की काया को गलियारे से गुज़रते देखा और उठ खड़ी हुई। पण्डितजी पानी के ड्राम के सामने खड़े सोच रहे थे कि कैसे बिना संकरा किए हस्त प्रक्षालन सम्पन्न कर लिया जाय।

बिट्टी ने पीछे से पुकारा- दद्दा!

हुँह?? उन्होने गले से ऐसे उच्चारा जैसे खदेड़ रहे हों।

पर बिट्टी भी दद्दा की सहायता के लिए पूरी तरह प्रतिज्ञा कर के उठी थी जैसे।

हाथ धुला दूँ?

पण्डितजी की आदत थी कि लघुशंका के भी उपरान्त हस्त-प्रक्षालन करते थे। तो हाथ धोने भर से राज़ ज़ाहिर नहीं होता था। तो किसी तरह गले के थूक को भीतर उतारा और हाथ आगे बढ़ा दिए। हाथ धोते हुए पण्डितजी ने सोचा कि उचित तो यह होगा कि नहा लूँ मगर पण्डितजी ऐसी किसी भी सूरत से बचना चाह रहे थे जिसमें यह सिद्द हो कि वे दीर्घशंका के अपराधी हैं। और नहा लेने से तो यह पक्का हो जाएगा कि .. नहीं-नहीं.. पाँच बजने को है। बिट्टी रस्तोगी की बिटिया को लाने जाएगी और सुशीला भी भाजी लाने साथ निकलेगी। उनके जाते ही.. पण्डितजी ने महसूस किया के वात का प्रकोप पेट में अभी भी ज़ोर मार रहा है.. पहले शरीर को अपान के वेग से मुक्त करूँगा फिर स्नान। यह सोचते हुए उन्हे पवनमुक्तासन की याद भी हो आई- सवेरे सवेरे कर लेने से शायद ऐसी स्थिति से बच जायं।

पण्डितजी यही सोचते हुए कमरे की ओर निकल पड़े। रसोई में सुशीला और बिट्टी की मद्धम सुर में कुछ वार्ता चल रही थी। साथ में भगोने की खटर-पटर भी उन्हे सुनाई दी- यानी चाय का प्रकरण पूरा होने को है। पण्डितजी ने घड़ियाल की ओर दीठ उछाली; बड़का हाथ पाँच के पास और छोटका ग्यारह के नजदीक पहुँच रहा था। एक बार चाय बन गई तो ये दोनों रवाना हो जाएंगी। पाँच मिनट की बात है। ये सोचकर पण्डितजी बिस्तर पर टिकने को ही थे कि वापस सीधे हो गए- अभी तो देह अशुद्ध है। कान वापस रसोई की दिशा में उन्मुख हो गए। गिलास में तरल द्रव गिरने का शब्द आ रहा था। चाय छन गई है, बस कुछ देर की और बात है- अधोवायु के दबाव को जैसे दिलासा देते हुए पण्डितजी ने सोचा।

नहाते के साथ ही धोती भी फ़रिया के डाल दूँगा। लेकिन निरमा की बट्टी तो कल ही शेष हो गई थी। बिट्टी को लाने को बोल देता हूँ.. नहीं-नहीं.. उस से कहूँगा तो बेकार के सवाल करेगी। ऐसे ही फरिया दूँगा। ह्म्म यही ठीक रहेगा। पण्डितजी ने अपनी योजना को मन में पक्का कर लिया। फिर ध्यान रसोई की ओर गया। चाय लेके क्यों नहीं आई अब तक सुशीला। कान लगा कर सुना तो सुशीला और बिट्टी के वार्तालाप के खुसफुस के साथ तरल द्रव में चम्मच हिलाने का शब्द आ रहा था। जब जब धातु का चम्मच धातु के गिलास से टकराता तो ऊँचे सुर की रचना हो रही थी। एक तरफ़ पण्डितजी का अधोभाग गुदा पर बनते दबाव से आक्रांत हो रहा था वहीं मानसिक तरंगे मस्तक के उस भाग में आलोड़न पैदा कर रही थीं जहाँ शब्द की व्युत्पत्ति सम्बन्धी सूचनाएं जमा थीं। वहाँ से विचार उठ रहा था कि चम्मच शब्द, सोमरस पीने के पात्र वैदिक चमस का बिगड़ा हुआ रूप है।

शरीर और मस्तक के द्वन्द्व से पण्डितजी विचलित होते जा रहे थे। अब यह दशा उनकी सहन शक्ति के परे होती जा रही थी। इसके पहले कि उनका शरीर उनके नियंत्रण से बाहर जा कर उनके लिए कोई अपमान जनक स्थिति पैदा करता, पण्डितजी ने हालात पर हस्तक्षेप करने क फ़ैसला किया। उनका इरादा तो बहुत वेग से रसोई में दाखिल होने का था मगर दो क़दम चलने के बाद ही उन्हे एहसास हो गया कि अधिक वेग नीचे के वेग को उच्च स्वर में मुक्त कर सकता है। इसलिए वे सम्हल कर पैर रखते हुए रसोई के द्वार तक पहुँचे। सुशीला चाय के गिलास में चम्मच डालकर बिट्टी से खुसफ़ुस बतियाये जा रही थी। खुसफुस इसलिए क्योंकि ऊँचे सुर में बात करने से पण्डितजी की साधना में बाधा होती है। पण्डितजी को देखकर दोनों शांत हो गईं। सुशीला किसी आदेश की आशा में उनकी ओर देखने लगी। पण्डितजी चिड़चिड़ाए हुए थे।

हो गया?

क्या?

चाय?

हाँ?

तो क्या करना है उसका?

कुछ नहीं?

मुझे दोगी या किसी और को?

.. आप ही के लिए तो..

तो दो.. कब से अगोर रहा हूँ। दिन भर तुम लोगों का खुसुर-फुसुर चलता ही रहता है। और कोई काम नहीं है।

सुशीला ने आंचल से गिलास को नीचे से पकड़ कर पण्डितजी की ओर बढ़ा दिया ताकि वो गिलास को ऊपर से पकड़ सकें जहाँ पर गिलास अपेक्षाकृत ठण्डा होगा। पण्डितजी ने गिलास पकड़ा और मुड़कर वापस कमरे में लौट गए। अब उन्हे इन्तज़ार था कि दोनों घर से बाहर निकलें तो वे अपनी क़ैद से आज़ाद हों। चाय पीने की उनकी ज़रा भी इच्छा नहीं हो रही थी। इच्छा तो ये हो रही थी कि चाय का गिलास दीवार पर दे मारें। मगर उन्होने इस इच्छा को भी शरीर के भीतर ही दबा लिया। शरीर की दशा और बुरी हो गई। किसी भी वक़्त विस्फोट हो सकता था। पण्डितजी ने सोचा कि मन को किसी ओर दिशा में लगाने से कदाचित राहत मिले। वे मन में ही गिनती गिनने लगे। गिनती तेरह तक पहुँची थी कि उन्हे सुशीला और बिट्टी गलियारे में जाते दिखे। अब कुछ ही पलों में उनकी मुक्ति हो जाएगी। निर्वाण हो जाएगा। पण्डितजी की नज़र दोनों के क़दमों पर जम गई एक-एक क़दम उनके मोक्ष की ओर बढ़ रहा था।

सुशीला और बिट्टी दरवाजे पर पहुँची। सुशीला ने कुण्डी उतारी। पहले बिट्टी बाहर निकली। सुशीला ने एक पैर बाहर निकाला और बिट्टी से कहा- सुन, आज दद्दा का जी अच्छा नहीं लग रहा। दोनों चले जायें और उनको कुछ जरूरत पड़े तो?

तो तुम रुको न जिज्जी। मैं भाजी ले के रस्तोगी की बिटिया को स्कूल से ले लूँगी।

ठीक है?

ये ले पैसे। सुशीला ने भाजी के पैसे बिट्टी को थमा दिए।

भीतर पण्डितजी की श्रवणग्रन्थियां दरवाजे की कुण्डी के शब्द पर लगी थीं। बाहर सुशीला ने सांकल कुण्डी में जमाई और इधर पण्डितजी ने देह पर से सारे बंधन खोल दिए। पूरा घर एक फड़फाड़ते पंछी के जैसे आरोही स्वर से भर गया।
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