शनिवार, 30 जनवरी 2010

दायें या बायें

यह उस फ़िल्म का नाम है जो मेरी समझ में हिन्दी फ़िल्म की एकाश्मी परम्परा से बहुत आगे, और बहुत ऊपर की संरचना में बुनी हुई है। जीवन का इतना गाढ़ा स्वाद और इतने महीन विवरण उपन्यासों में भी तो फिर भी मिलते हैं, मगर फ़िल्मों में विरलता से दिखते हैं। हिन्दी उपन्यास और हिन्दी फ़िल्म के संसार में मैंने कभी नहीं देखे। बावजूद जीवन की गाढ़ी जटिलता के ‘बायें या दायें’ एक बेहद हलकी-फुलकी और गुदगुदाने वाली फ़िल्म बनी रहती हैं, यह एक दुर्लभ गुण है। यह बड़ी उपलब्धि है और मुझे लगता है कि एफ़ टी आई आई, पुणे की स्नातक बेला नेगी की यह पहली फ़िल्म निश्चित ही मील का पत्थर साबित होगी।

फ़िल्म एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से क़स्बे या मझोले गाँव से जाकर शहर में अपना गुज़ारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पा कर और वहाँ के जीवन से पक कर वह एक रोज़ गाँव वापस चला आता है। गाँव में उसकी बीवी है, आठ-नौ बरस का बच्चा है, साली है, पड़ोसी हैं, और गाँववाले हैं, स्कूल के अध्यापक हैं; सभी उस के मुरीद हैं क्योंकि वो शहर से आया है। लेकिन सब चौंकते हैं जब वो कहता है कि वह लौटेगा नहीं बल्कि गाँव के स्कूल में बच्चो को पढ़ाएगा और गाँव के विकास के लिए वहाँ कला केन्द्र खोलेगा। लोग उसकी आदर्शवादी बातों पर हँसते हैं; गाँव की पथरीली सच्चाई दीपक के सपनों पर रगड़ने लगती है। लेकिन यह सब कुछ बहुत हलके-फुलके अन्दाज़ में चलता रहता है।

एक रोज़ जब वह अपनी कोई कविता यूँ ही बुदबुदा रहा होता है तो उसके फ़ैन उसे लिखकर एक कॉन्टेस्ट में भेज देते हैं और भाई जीत जाते हैं, ईनाम में मिलती हैं एक लाल रंग की ऐसी लुभावनी कार जैसी गाँव तो क्या आस-पास के ज़िले में भी नहीं है। यह कार दीपक का रुत्बे में क्रांतिकारी परिवर्तन लाती है और उसके जीवन दृष्टि में भी, अचानक वह एक अलग ही आदमी के रूप में पनपने लगता है। अपने रुत्बे को बनाए रखने के लिए लोग उसे आसानी से कर्ज़ा देते भी हैं और वो लेता भी है। लेकिन नई हैसियत को बनाए रखने के लिए उसे कार को तमाम तरह के कामों के लिए किराए पर देना शुरु करना पड़ता है, जैसे शादी में ले जाना और जैसे दूध वितरण।

यह जो मैं बयान कर रहा हूँ यह एक बहुत मोटा घटनाक्रम है। अच्छी से अच्छी फ़िल्मों को भी बहुत ही मरियल कथाक्रम के गिर्द गुज़ारा करते पाया जाता हैं। लेकिन दायें या बायें के कथ्य इतना सघन है कि उस को कागज़ पर लिखना लगभग नामुमकिन है। उसमें हर चरित्र की एक गहरी समझ, एक गहरी चोट एक स्वतंत्र अध्याय की तलब रखती है। हर घटना हमारे सामाजिक जीवन की एक अदेखी खिड़की खोलती है।

छोटी-बड़ी तमाम घटनाओं के बाद दीपक के सामने कई दुविधाएं आती हैं, जीवन में कई संकट आते हैं, मगर सबसे बड़ी कचोट उस की ये होती है कि उसने अपने बेटे के आँखों में इज़्ज़त खो दी है। तो कार चोरी हो जाने, और साली के गाँव के लफ़ंगे के साथ भाग जाने के बाद, वह बरस्ते अपने बेटे की नज़रों में खोया सम्मान हासिल करने के, वापस अपने आप को हासिल करने में कामयाब सा होता है।

दायें या बायें नैनीताल के नज़दीक एक गाँव में ४८ दिनों में शूट की गई। इस फ़िल्म की तमाम दूसरी उपलब्धियों के बीच एक यह भी है सिवाय तीन अभिनेताओं के शेष सभी स्थानीय लोगों ने कहानी के किरदार निभाए। फ़िल्म का निर्माण संयोजन और ध्वनि संयोजन बहुत रचनात्मक है, और कैमरा दिलकश।

मेरी उम्मीद है और कामना है कि बेला नेगी और उनकी यह फ़िल्म उनकी यात्रा का, उनकी धैर्यशीलता का इम्तिहान लेता सा, पहला क़दम होगा और इसके आगे वो तमाम सारी फ़िल्में जो भी बनायेंगी वो अपने कलात्मक आयामों में ‘दायें या बायें’ के और पार होंगी।


लेखक, सम्पादक, निर्देशक: बेला नेगी
निर्माता: सुनील दोशी
कैमरा: अम्लान दत्ता
ध्वनि: जिसी माइकेल
मुख्य कलाकार:
दीपक डोबरियाल,
मानव कौल,
बद्रुल इस्लाम,
भारती भट्ट




फ़िल्म रिलीज़ होने के इन्तज़ार में है, जब भी परदे पर आए ज़रूर देखियेगा, एक अप्रतिम अनुभव आप की प्रतीक्षा कर रहा है। मैंने यह समीक्षा एक ट्रायल शो देखने के बाद लिखी है।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

घर बैठे किताबें

कवि कवितायें पढ़ते हैं। पत्रकार अख़बार पढ़ते हैं। ब्लॉग वाले ब्लॉग पढ़ते हैं। कुछ लोग कथा-कहानी भी पढ़ते हैं। कहानी- कविता–अख़बार से बा़की दुनिया में इल्म की जो किताबें हैं वो कौन पढ़ता है?

अगर कोई है तो उन से गुज़ारिश है कि किताब की दुकान में जाने की ज़हमत न उठायें। घर बैठे फ़्लिपकार्ट से किताब मँगायें और डिस्काउन्ट भी पायें। किताबों से यहाँ मेरा मतलब अंग्रेज़ी की किताबों से ही है। हिन्दी की किताबों की दुकाने हैं ही कहाँ? ऐसा माना जाता है कि हिन्दी किताबों के पाठक ही नहीं हैं और अगर हैं भी तो प्रकाशकों को उनकी फ़िक्र नहीं उनके लिए तो सरकारी अधिकारियों की सिफ़ारिश ही काफ़ी है किताब के धंधे में बने रहने के लिए और मोटा मुनाफ़ा बनाते रहने के लिए। सुना तो ये भी जाता है कि हिन्दी के प्रकाशक लेखकों को पैसे देते नहीं बल्कि लेते हैं: किताब छापने का एहसान करने के लिए। ख़ैर।

मैंने पिछले दिनों कुछ किताबों की ज़रूरत पड़ने पर उनको बुकशॉप्स में खोजा; कहीं न पाया तो फिर नेट पर खोजा। अमेज़न में थी लेकिन डॉलर्स में और किताब की क़ीमत से ज़्यादा उनके शिपिंग चारजेज़। उसी खोज में फ़्लिपकार्ट भी नज़र आया। जो किताब चाहिये थी वो थी, उसके अलावा दूसरी कई किताबें और भी दिखीं जो दिलचस्प थीं और मेरी जानकारी में नहीं थीं। किताब का मूल्य रुपये में, कोई शिपिंग शुल्क नहीं क्योंकि इसका संचालन बेंगालूरु से ही होता है, और उलटे डिसकाउंट!! चार-पाँच किताबे मँगवाई। तीन तो तीसरे दिन आ गई। और शेष भी जल्दी। पेमेन्ट बस आप को नेटबैंकिंग से या क्रेडिटकार्ड से या डेबिट कार्ड से करना होगा। सुरक्षित है।

फ़्लिपकार्ट चलाने वाले हैं सचिन बंसल और बिन्नी बंसल जो २००५ बैच के आई आई टी दिल्ली के कम्प्यूटर साइंस के स्नातक हैं। अमेज़न इंडिया में आठ मास नौकरी करने के बाद उन्होने अक्तूबर २००७ में यह काम वेबसाइट शुरु की। होनहार बच्चे आगे बढ़ेंगे ऐसी उम्मीद है!

देसी-विदेसी सभी तरह की किताबें उनके पास उपलब्ध हैं। कुछ हिन्दी के भी टाइटिल्स हैं मगर उस प्रकार के नहीं जो आम तौर पर हिन्दी साहित्य के नाम से जाने जाते हैं। देखिये दूसरे प्रकार की हिन्दी किताबों तक वो पहुँच गए लेकिन हिन्दी साहित्य (कविता-कहानी जी, और क्या?) को न जाने कौन सा संक्रामक रोग है, कोई छूना ही नहीं चाहता। आह.. रोगी चंगा हो जाय ऐसी कामना है।

पश्चलेख: बेंगालूरु से पूजा उपाध्याय ने बताया है कि फ़्लिपकार्ट पर हिन्दी की किताबें भी उपलब्ध हैं। मैं ने फिर से खोज के देखा; पहले देवनागरी में, तो कोई परिणाम नहीं आए, लेकिन रोमन में खोज करने से सुखद नतीजे दिख रहे हैं। हिन्दी किताबें भी उपलब्ध है। शायद मैंने पहले भी रोमन में कोशिश नहीं की होगी। ख़ैर, इस मसले में लिपि महत्वपूर्ण नहीं है, महत्व इस बात का है कि हिन्दी किताबें भी घर बैठे मँगाई जा सकती हैं। पूजा जी को धन्यवाद!

और रोगी का हाल इतना भी बुरा नहीं है। शायद बुरा लगता इसलिए है कि लेखक को किताब लिखने के लिए पैसे मिलते नहीं देने पड़ते हैं।

सोमवार, 11 जनवरी 2010

बँटा हुआ सत्य

बहुत-बहुत पहले सोचा हुआ होता था सत्य
फिर बोला हुआ हो जाता था सत्य
अभी हाल तक लिखा हुआ तो निश्चित होता था सत्य
अब समय ये है
कि सोचा हुआ सत्य नहीं
कहा हुआ सत्य नहीं
लिखा हुआ भी सत्य नहीं
तो क्या है सत्य?
मेधा के नए प्रवीण कहते हैं कि सत्य बँटा हुआ है
सब में सब जगह थोड़ा-थोड़ा
...
क्या सत्य भी बँट सकता है?

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

आल इज नाट वेल: वी आर पैथेटिक

आज थ्री इडियट्स देख ली। अच्छा हुआ कि सुबह के शो में नब्बे रुपये दे के ही देख ली। शाम के शो में देखता तो १३५ रुपये और मेरी जेब से निकलकर विनोद चोपड़ा की जेब में पहुँच जाते। पहले ही कामयाबी के सारे रिकाड तोड़ती फ़िल्म १३५ रुपये और कामयाबतर हो जाती।

वैसे तो थ्री इडियट्स बहुत ही कामयाब फ़िल्म है। कैसे है जी कामयाब? फ़िल्म पैसे बटोर रही है और शुहरत भी बटोर रही है। इतनी कि चेतन भगत जी को शिकायत है कि जो शुहरत उनके हिस्से की थी वो भी हीरानी जी, चोपड़ा जी और जोशी जो बटोर रहे हैं। और फ़िल्म ने इसी की कामना की थी जो उन्हे प्राप्त हो गया, सो हैं वो कामयाब (कामना-प्राप्ति)।

जैसे की आम हिट फ़िल्में होती हैं वैसे ही हिट फ़िल्म हैं। लेकिन कुछ यार लोग गदगद हैं और अभिभूत हुए जा रहे हैं कि बड़ी साहसी फ़िल्म है और न जाने क्या-क्या। मेरी समझ में तो ये एक बेईमान और नक़ली फ़िल्म है। क्यों? फ़िल्म उपदेश तो ये देती है हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि छात्र ए़क्सेलेन्स को पर्स्यू करे सक्सेज़ को नहीं। सक्सेज़ से यहाँ माएने पैसा और गाड़ी है, जो चतुर नाम के चरित्र के ज़रिये बार-बार हैमर किया जाता है। लेकिन ख़ुद फ़िल्म एक्सेलेन्स को नहीं सक्सेज़ के (मुन्नाभाई) समीकरण को लागू करती है। ये उस तरह के नक़ली बाबाओं के चरित्र जैसे है जो प्रवचन तो वैराग्य और त्याग का देते हैं, लेकिन खुद लोभ, और लालच के वासनाई दलदल में लसे रहते हैं।

जिस तरह के मोटे चरित्र बनाए गए हैं, जिस तरह की सड़कछाप बैकग्राउन्ड स्कोर तैयार किया गया है, जिस तरह की छिछोरी, चवन्नीछाप, सैक्रीन स्वीट सिचुएशन फ़िल्म में हर दस मिनट बाद टांकी गई है, जिस तरह से ‘आल इज वेल’ के अश्लील इस्तेमाल में एक बच्चे तक का शोषण किया गया है, वो सब इसी ओर इशारा करते हैं। मैं ये नहीं मान सकता कि एफ़ टी आई आई में तीन साल तक वर्ल्ड सिनेमा का आस्वादन करने और उसके बाद लगातार करते रहने के बाद राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा का मानसिक स्तर इसी फ़िल्म का है। निश्चित ही यह फ़िल्म उन्होने एक दर्शकवर्ग को खयाल में रखकर बनाई है। ये है बेईमानी नम्बर वन। यानी आप श्रेष्ठता के अपने पैमाने से इसलिए नीचे उतर आएं क्योंकि आप के पैमाने पर बनी एक्सेलेन्ट फ़िल्म को देखने और समझने वाले की संख्या बहुत सीमित होगी।

इसके जवाब में यह दलील आएगी कि जी नहीं हमने तो यह फ़िल्म दर्शक तक एक नोबेल मैसेज ले जाने के लिए बनाई है। सचमुच? अगर ऐसा है तो वो दर्शक आप की बात सुनते ही उसको लोक कैसे ले रहा है? यानी जिस बात को आप कम्यूनिकेट करने की कोशिश कर रहे हैं, उस बात से देखने वाले पहले से सहमत है; वो अपनी ही बात परदे पर देखकर ताली बजा रहा है। इसे राजनीति में पॉपुलिस्ट पॉलिटिक्स कहा जाता है, और लोकभाषा में ठकुर सुहाती। अगर कोई ये समझता है कि ये किसी की मानसिकता बदलने की कोई कोशिश है तो ग़लत समझता है, यह स्थापित मानसिकता को समर्पित फ़िल्म है, जिसे कॅनफ़ॉर्मिस्ट कहा जा सकता है।

जिस सच्चाई को फ़िल्म में दिखलाया गया है अगर वो आज से बीस साल पहले दिखाई गई होती तो मैं फिर भी मान लेता कि फ़िल्म में कुछ वास्तविकता है, और कुछ ईमानदारी भी है। ये तब होता था कि पेशे के नाम पर दो ही पेशों का ख़्याल आता था, इंजीनियर और डॉक्टर। ये सच्चाई तो कब की बदल चुकी। वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफ़र कितने पैसे कमा सकते हैं, वो एक इंजीनियर कभी नहीं कमा सकता। मुझे लगता कि ईमानदारी की बात हो रही है अगर आज कल के कॉल सेन्टर कल्चर में पैसा कमाने वाले बच्चों में ज्ञानार्जन को लेकर जो उदासीनता है उस की बात की जाती।
लेकिन वो करने की हिम्मत फ़िल्ममेकर में नहीं थी क्योंकि अपने दर्शक को संशय में डालना मतलब बहुत बड़ा ख़तरा मोल लेना। और ये वैसी फ़िल्म है जिसने एक जगह भी ख़तरा नहीं उठाया। मुन्नाभाई फ़ार्मूले को जमकर इस्तेमाल किया। मेरे ज़ेहन में इस फ़िल्म को डिफ़ाइन करने के लिए जो सबसे उपयुक्त शब्द आता है वो है पैथेटिक।

मेरी अपनी राय में यह फ़िल्म न सिर्फ़ फूहड़ और बेईमान है बल्कि शर्मनाक भी है मेरे लिए। राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा तो धंधे वाले लोग है, और कामयाब धंधेवाले हैं; मेरे धंधे वाले लोग हैं, उनको मेरी बधाईयां हैं। अफ़सोस और शर्म तो अपनी पीढ़ी और नौजवान पीढ़ी के लोगों से है जो अभी तक इस तरह के नौटंकीछाप सिनेमा को एक्सेलेंस समझ लेने की बकलोली कर सकते हैं।

हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं उस से आप किसी तरह की नई ऊँचाईयों को छूने की उम्मीद नहीं कर सकते। पन्द्रह बीस प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग हैं, उसमें से अधिकतर लोग नौकरी मिलते ही किताब को रद्दी में बेच कर नमक खरीद लेते हैं। जो चुटकी भर नमक जितने रह जाते हैं वे भी अगर समवेत स्वर से आल इज वेल गाने लगें तो समझ लीजिये कि अभी देश सुसुप्तावस्था में ही है, नेहरू जी को धोखा हुआ था कि इन्डिया विल अवेक टु लाइफ़ एन्ड फ़्रीडम, एट दि स्ट्रोक ऑफ़ मिडनाईट आवर, व्हेन दि वर्ल्ड स्लीप्स। मैं उम्मीद करता हूँ कि इस चुटकी के एक अच्छे हिस्से को फ़िल्म नहीं जंची है लेकिन वो चुप है।

अगर हम इसी तरह की लैयापट्टी में कला की नफ़ासत खोजते रहे तो भारतीय महापुरुष के लिए काल्सेन्टर से अधिक उम्मीद नहीं है। जो दक्षिणभारतीय चतुर और रामलिंगम जो अमरीकादि में सफल हो गए हैं वही अपनी हद है और ये बांगडू और चाचड एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं। जब मैं ने जामिया के एम सी आर सी में (हिन्दी फ़िल्मों) पर पेपर तैयार किया था तो उसकी आख़िरी लाइन थी, "हिन्दी फ़िल्में उसके दर्शक को अपनी आंकाक्षाओं के साथ हस्तमैथुन का खुला आमंत्रण है। तब से अब तक कुछ भी नहीं बदला है|"

फ़िल्म के आख़िर में माधवन की आवाज़ आती है – काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये धोखा देने वाला बयान है। इसी तरह का धोखा ‘तारे ज़मीन पर’ में भी दिया गया था। जो बच्चा सब से अलग, अनोखा है, उसे अपने अनोखेपन में ही स्वीकार किया जाना चाहिये, मगर उस फ़िल्म में अनोखे बच्चे को पेंटिग प्रतिस्पर्धा में जितवाया जाता है, उसे मुख्यधारा में कामयाबी दिलाई जाती है।

यानी मुख्यधारा में कामयाबी ही असली पैमाना है। इस फ़िल्म में भी चतुर नाम का चरित आमिर के आग चूतिया सिद्ध हो जाता है क्योंकि आमिर को दुनियावी कामयाबी भी मिल जाती है। तो माधवन का संवाद आता है - काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये भुलावा है, धोखा है। असली एक्सेलेन्स खोजने वाले के लिए काबिलियत ही कामयाबी है।

हालांकि फ़िल्म तमाम सिनेमैटिक पैमानो से बेहद घटिया है फिर भी अगर उसे तमाम फ़िल्मी अवार्ड्स में कई सारे अवार्ड्स मिल जायं तो मुझे कोई हैरत नहीं होगी- पैसा पीटने वाली फ़िल्म ही कामयाबी और एक्सलेंस का असली पैमाना है।

रविवार, 3 जनवरी 2010

चेतन भगत शुड बी थैंकफ़ुल

पिछले दिनों ख़बर थी कि सरकार कॉपीराइट क़ानून में बदलाव का मन बना रही है ताकि कलाकारों के अधिकारों की रक्षा हो सके, दुनिया भर में सिनेमा और संगीत आदि के तैयार हो जाने के बाद भी कॉपीराइट के मूल अधिकार लेखक/ कलाकार के पास सुरक्षित रहते हैं मगर भारत में निर्माता ही सब का मालिक है। एक बार पैसा देकर वह सब कुछ ख़रीद लेता है। पिछले दिनों इस सम्भावित बदलाव के आने की ख़ुशी में जावेद अख़्तर, शुभा मुद्गल, रवि शंकर और शंकर महादेवन के खिले हुए चेहरे अख़बारों में देखने को मिले।

आज ख़बर है कि 'थ्री ईडियट्स' के निर्माता विनोद चोपड़ा ने एक पत्रकार को चिल्ला कर और आँखें तरेर कर कहा कि 'शट अप!' वे पूरी फ़िल्म की कास्ट और क्रू के साथ एक पत्रकार सम्मेलन में थे। लोग उनसे 'फ़ाइव प्वायंट समवन' उपन्यास के लेखक चेतन भगत के आरोपों का जवाब चाह रहे थे, जिन्होने कहा है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है। उनका नाम आया ज़रूर है मगर फ़िल्म के अन्त में रोलिंग क्रेडिट्स में। जबकि फ़िल्म की शुरुआत में कहानी लेखक के रूप में अभिजात जोशी और राजकुमार हीरानी का नाम आया है। उन्हे इस पर ऐतराज़ है, मुझे भी है थोड़ा-थोड़ा। उनका मानना है कि मूल कहानी उनकी है और शेष उसका रूपान्तरण है।

एच टी में वीर संघवी लिखते हैं कि इट्स ऑल एबाउट ग्रेस; 'स्लमडॉग मिलयनेर' भी विकास स्वरूप के नॉवेल 'क्यू एन्ड ए'से काफ़ी जुदा थी, मगर उनके भीतर इतनी गरिमा थी कि उनका नाम फ़िल्म क्रेडिट्स में निर्देशक के नाम के ठीक बाद आता है, और निर्देशक डैनी बॉयल उन्हे अपनी सफलता में शामिल करने के लिए आस्कर लेते वक़्त उनको मंच तक साथ ले जाते हैं।

फ़िल्मी दुनिया में लेखक सबसे निरीह जानवर रहा है। सबसे पहले डाका उसके पैसों और नाम पर ही पड़ता है। यहाँ हर निर्देशक को अपने नाम के पहले 'रिटेन एन्ड डाइरेक्टेड बाइ' देखने का शौक़ है। इस दुनिया ने तो बड़े-बड़े फ़िल्मों, बड़ी-बड़ी किताबों पर डाके डाले और किसी को कोई आभार तक नहीं दिया, छोटे-मोटे लेखक तो रोज़ ही मारे जाते हैं। चोपड़ा जी ने कम से कम किताब के अधिकार खरीदे, पैसे भी दिये, और भले आख़िर में, पर नाम दे तो दिया। चेतन भगत को उन के पैर छू कर धन्यवाद देना चाहिये, उन्होने धन्यवाद नहीं दिया इसीलिए चोपड़ा जी को क्रोध आ गया, नहीं तो वो देवता आदमी हैं।
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