शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

अगर अल्ला है ही नहीं तो ग़रीबों की बेहाली का सबब क्या है?

प्रमोद भाई सालों से मेरे पीछे पड़े थे कि पामुक को पढ़ो-पामुक को पढ़ो। ये वे तब से कह रहे हैं जब पामुक और नोबल एक वाक्य में सोचे भी नहीं जा सकते थे। मैं भी किसी तरह हाँ-हूँ कर के टालता था उन्हे। प्रमोद भाई की डाँट मशहूर है। राउरकेला, पटना, राँची से लेकर इलाहाबाद, दिल्ली और मुम्बई तक लोग उनकी फटकार से घबराते हैं। कच्ची ज़मीन वाले लोग उनके आगे आने से कतराते हैं। बन्दे ने इतने दिनों तक उनकी डाँट खा-खा कर भी पामुक को नहीं पढ़ा, कुछ तो बात है मुझ में।

मगर कुछ बात नहीं भी है क्योंकि आखिरकार पिछले महीने के दिल्ली-कानपुर प्रवास के दौरान अंग्रेज़ी भाषा, छोटे प्रिंट, चश्मे का बदलता नम्बर.. सब पर झींकते-झाँकते निबटा ही दिया। और एक राहत की गहरी साँस ली। पामुक एक ऐसा ऊँचा पहाड़ था जिसे पार न करता तो प्रमोद भाई का सत्संग मिलना बंद हो जाता। वो तो नहीं भगाते उलटे दौड़ा-दौड़ा कर गरियाते- कि पामुक को पढ़-पामुक को पढ़। अनपढ़ा मैं घबड़ा कर दूर भाग जाता और सत्संग से वंचित हो जाता। लेकिन ये सब तो अब प्रस्थापनाऎं-विस्थापनाऎं हैं क्योंकि स्नो का अध्ययन कर लिया गया है।

स्नो की दुनिया तुर्की के एक सीमान्त कस्बे कार्स में बसी हुई है। ‘का’ नाम का एक कवि जो अपने वामपंथी राजनीतिक झुकाव के चलते सालो से जर्मनी में रह रहा है, तीन दिन के लिए कार्स में आता है, जहाँ हाल में रूमाल से सर ढकने वाली लड़कियों की खुदकुशी की एक लहर सी आई हुई है। इस पूरे घटनाक्रम और शहर में बढ़ते मज़हबी राजनीति के असर पर एक रपट लिखने का इरादा है का का। साथ ही कॉलेज के ज़माने से जिस हसीना पर वो दिलो-जान से फ़िदा था वो भी इसी शहर में है और अपने पहले शौहर से तलाक़ लेकर आज़ाद भी है। कविवर का साहब इस शौक़ में तीन दिन जलते रहते हैं कुछ यूँ कि पिछले चार साल तो उनके बिना किसी कवितागिरी के गुज़ारे थे, अचानक तीन दिनों में गुलज़ार हो कर अठारह कविताऎं लिख डालते हैं। नहीं, मन में कोई दुर्विचार मत लाइये, पामुक उन अठारह में से एक भी हमारे सामने नहीं परोसते।

तो ऐसी सियासी, मज़हबी और आशिक़ाना दुनिया है स्नो की। आम तौर पर मैं उपन्यास पढ़ने से घबड़ाता हूँ मगर इसी दुनिया के चलते स्नो की दुनिया में पैठने में मुझे अधिक दिक़्क़त नहीं हुई। उपन्यास काफ़ी दूर तक दिलचस्प बना रहता है.. अपने अंजाम के क़रीब जा कर थोड़ा सा लड़खड़ाता है और फिर सम्हल जाता है।

जो लोग मेरी सलाह पर इसे पढ़ेंगें वे निराश नहीं होंगे.. यहाँ पर एक छोटा सा टुकड़ा एक अध्याय से अनूदित कर रहा हूँ। अध्याय का नाम है-

‘अगर अल्ला है ही नहीं तो ग़रीबों की बेहाली का सबब क्या है?’

तो फिर, मैं आप से सिर्फ़ एक सवाल करूँगा, एक आखिरी सवाल’, नेसिप ने कहा। ‘मैं अपने दोस्तों की तरह नहीं हूँ। मैं आपको बेइज़्ज़त करने की कोशिश नहीं कर रहा। बस मेरे अन्दर ये जानने की कुलबुलाहट हो रही है।'

पूछो?


बोलने से पहले नेसिप ने काँपते हाथों से अपनी सिगरेट सुलगाई। ‘अगर अल्ला का वुजुद नहीं है तो इसका मतलब कि जन्नत का भी वुजुद नहीं है। और उसका मतलब कि दुनिया के ग़रीब-गु़रबा, वो करोड़ो-करोड़ लोग जो बदहाली में रहते हुए ज़ुल्म सहते हैं, वे कभी जन्नत नहीं जायेंगे। और अगर वाक़ई ऐसा है तो आप बतायें कि ये जो सारी तक़्लीफ़ें सहनी पड़ती है ग़रीब को- आखिर क्या सबब है उसका? हम हैं क्यों यहाँ, और क्यों इतना दुख-दर्द झेलते हैं, अगर ये सब बेमतलब है तो?’


‘अल्ला है और जन्नत भी है।’

‘नहीं, आप महज़ मुझे दिलासा देने के लिए कह रहे हैं, क्योंकि आप को हम पर रहम आ रहा है। ज्यों ही आप जर्मनी वापस पहुँचेंगे, आप दोबारा वापस मानना शुरु कर देंगे कि अल्ला का वुजुद नहीं है- जैसा कि आप पहले मानते थे।’

‘सालों में पहली दफ़े मैं खुश हूँ, बहुत खुश’, का ने कहा। ‘और मैं क्यों न उसी बात पर यक़ीन करूँ जिस पर तुम करते हो?’

‘क्योंकि आप हाई सोसायटी से आते हैं’, नेसिप ने कहा। ‘हाई सोसायटी के लोग कभी अल्ला को नहीं मानते। वो वही मानते हैं जो यूरोप वाले मानते हैं, और इसलिए सोचते हैं कि वे आम जनता से बढ़कर हैं।’

‘हो सकता है मैं हाई सोसायटी से हूँ’, का ने कहा। ‘मगर जर्मनी में मैं कोई नहीं- मेरी कोई वकत नहीं। मेरा वहाँ बुरा हाल था।’

नेसिप की खूबसूरत आँखें घुमड़ने लगीं, और का को दिख रहा था कि सामने बैठा नौजवान अपने को का की जगह रखकर उसकी बात को तौल रहा था। ‘तो फिर आप अपने मुल्क से खफ़ा होकर जर्मनी क्यों भाग गए?’ उसने पूछा। फिर का के उतरे हुए चेहरे को देखकर वो नर्म पड़ गया, ‘जाने दीजिये! वैसे अगर मैं अमीर होता तो मैं अपने हालात पर इस क़दर शर्मिन्दा होता कि मैं अल्ला पर और भी ज़्यादा यक़ीन रखता।’

8 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

बढिया है। ये प्रमोदजी आपको हड़काते हैं और आप बताये नहीं कानपुर में। उनके कौन से काम अभी बाकी हैं जो दिल्ली में टिके हैं। बंबई आयें तो बतायें उनसे हिसाब बराबर करते हैं कि हड़काया काहे? पामुक पढ़ लिये। अनुवाद बता दिये। कितने अच्छे हैं आप! अब आप 'अभय' को प्राप्त हो गये। बधाई!

Yunus Khan ने कहा…

देख लीजिए । ऐसे हड़काने लोग मिल जाएं तो लोग पामुक जैसे किन किन पहाड़ों को पार कर जाए । प्रमोद भाई को प्रोत्‍साहन दीजिए और कहिए कि हड़काने का शिकार बनाना जारी रहे । हम 'स्‍नो' को पढ़ने का धीरज तलाश रहे हैं । अभी तक तो नहीं मिला ।

Pratyaksha ने कहा…

स्नो जब पढ़ी थी तब एक छोटा हिस्सा अंत का बाकी रह गया था । फिर कुछ और शुरु किया था और स्नो वहीं रह गई । आपके पोस्ट ने पामुक का मज़ा याद दिला दिया । फिर उठाते हैं ।

काकेश ने कहा…

ऎसे ही कलाकदों का पता पूछ रहा था कल प्रमोद जी से.चलिये आपने बता दिया. धन्यवाद.

अनामदास ने कहा…

मैंने बातोंबातों में प्रमोद जी को बताया कि माइ नेम इज़ रेड पढ़ रहा हूँ, उन्होंने कहा कि बहुत अच्छे, फिर तुरंत पूछा, इस्तांबूल पढ़ी कि नहीं, संयोगवश दोनों किताबें घर में एक साथ आई थीं, पढ़ ली गई थीं. अगर उन्हें पता चल गया कि मैंने स्नो नहीं पढ़ी है तो मेरा क्या होगा?

Anita kumar ने कहा…

्हम तो ब्लोग जगत में नये है अब पता लगाते है कि ये प्रमोद जी है कौन्…॥:) सॉरी प्रमोद जी

Udan Tashtari ने कहा…

सोचा था दिल्ली में मिलूँगा प्रमोद जी से मगर अब आपको पढ़कर हिम्मत जबाब दे गई. चिट्ठी पत्री में काम चलायेंगे. :) अच्छा किया आगाह कर दिया. आप अच्छे मित्र का धर्म निभा रहे हैं, साधुवाद.

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

चलिए. प्रमोद जी ने अगर आपको हड़काया तो अच्छा ही किया.

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