गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

दाता

इतवार का दिन था। कई दिनों के कोहरे के बाद कुनमुनी धूप निकल कर आई थी। साढ़े-दस ग्यारह बजे की मुतमईन घड़ियों में बच्चे और नौजवान जहाँ जगह मिले खेल रहे थे। प्रौढ़ और वृद्ध घरों के बाहर कुर्सियां डाल के पड़े हुए थे या बेवजह ही छायाओं की अवहेलना करते हुए धूप के आगे   चहलकदमी कर रहे थे। मगर शांति धूप की अवहेलना करते हुए एक बंद कमरे की घुटी हुई हवा में पुराने सामान को उलट-पुलट रही थी। एक तरफ़ बड़ी सी अलमारी की छोटी-छोटी दराज़ों में पुराने फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी रेकार्डस और ऑडियो कैसेट्स थे। दूसरी दीवार के सहारे लगी रैक्स में रीडर्स डाइजेस्ट, सारिका और माधुरी जैसी पुरानी पत्रिकाओं के अंको के ढेर लगे हुए थे। तीसरी और चौथी दीवार के सहारे अलग-अलग चट्टों में इब्ने सफ़ी, ओमप्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत के उपन्यास बेतरतीब अन्दाज़ में उपेक्षित से पड़े हुए थे। हालांकि जिस मोटाई की धूल हर साज़ों- सामान पर पसरी हुई थी, वो किसी को भी उपेक्षित का दर्ज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त थी।

'कैसा लग रहा है आप को?' शांति से यह सवाल पूछा आत्माराम जी ने। शांति ने दराज़ में क़ैद कैसेट्स में फंसी अपनी नज़र निकालकर आत्माराम जी को देखा। वो अपनी लहराती सफ़ेद दाढ़ी और मुस्कराती आँखों के वेश में किसी प्राचीन ऋषि जैसे लग रहे थे। उस कमरे और उसमें मौजूद हर असबाब के स्वामी आत्माराम जी ही थे। जिन्होने अपरिग्रह या वैराग्य जैसी किसी भावना से  प्रेरित होकर अपने उस प्रिय और प्राचीन संग्रह को दान करने का इरादा कर डाला था। और उस  इरादे को एक रंगीन कागज़ की शकल में सोसायटी की हर इमारत की नोटिस बोर्ड में चिपका दिया था। शांति आत्माराम जी को पहले से नहीं जानती थी- वही नोटिस पढ़कर आई थी। और अब उस से आत्माराम जी ने पूछा था कि कैसा लग रहा है उसे। 'उनके संग्रह को देखकर' का वाक्यांश उन्होने कहा नहीं था पर वो सवाल में अन्तर्निहित था।
'अच्छा लग रहा है..' शांति ने कहा। पर वो और कह भी क्या सकती थी।
'पर आप ये सब दे क्यों रहे हैं..?' शांति ने पूछा।
'अब क्या होगा इस सब कबाड़ का.. पड़ा-पड़ा धूल खाता रहता है बस', आत्माराम जी को पत्नी सुमित्रा देवी कमरे में चली आईं थीं। और उनके हाथों में एक ट्रे ही जिसमें ग़ज़क, चिक्की और तिल के लड्डू थे।
'लो खाओ!', उन्होने ट्रे शांति के आगे कर दी।
'नहीं-नहीं.. मैंने अभी नाश्ता किया है।'
'तो क्या हुआ.. ये तो नाश्ते के बाद खाने की चीज़ है..लो खाओ!', सुमित्रा देवी के स्नेहिल आग्रह के आगे शांति को झुकना ही पड़ा।
'मुझे जो पढ़ना था, पढ़ चुका.. सुनना था, सुन चुका.. अब दूसरे लोग इसका सुख लें.. इसी कारण मैंने  इन्हे दान करने का फ़ैसला किया..'
दान करने का भी सुख होता है.. आप को कैसा लग रहा है' शांति ने पूछा।
'अच्छा लग रहा है..', आत्माराम जी अपने सुख की गहराई से मुसकराए।

जब तक यह बात हो रही थी, सुमित्रादेवी ने गुड़ की ग़ज़क की पूरी पट्टी अचरज के मुँह में ठूँस दी। अचरज भी आया था शांति के साथ। आया क्या था, घसीटकर लाया गया था, वो तो धूप में अपने दोस्तों के साथ खेलना चाहता था पर शांति ही उसे किताबों और संगीत की दुनिया से एक क़रीबी रिश्ता बनाने की नीयत से खींच लाई। आया गया था तो वो भी कुछ अलट-पटल कर देख रहा था, हालांकि उसके मतलब की चीज़ें थी नहीं वहाँ पर। शांति को भी अपने मतलब की चीज़ें कम ही दिखीं। रेकार्डप्लेयर न होने के कारण रेकार्डस तो किसी काम के थे नहीं और कैसेट्स भी अधिकतर उसकी पसन्द के नहीं थे। पर फिर भी बचपन में सुने गानों को फिर से सुनने के चाव से उसने कुछ कैसेट्स अलग कर लिए।

'एक व्यक्ति के लिए पाँच आईटम से ज़्यादा नहीं..' आत्माराम जी ने स्थिर स्वर में कहा।
'जी?!', शांति थोड़ा हड़क गई।
'मैं चाहता हूँ कि मेरा संग्रह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे..'
'अच्छा ख़याल है.. पर मुझे बस यही दो चाहिये..'
कैसेट्स के कवर पर पंकज मलिक और सी एच आत्मा को देखकर आत्माराम जी के चेहरे की लकीरों में विछोह के दर्द की तस्वीर बन गई।
'तो ये दोनों जायेंगे..! ?'
उनकी आवाज़ को सुनकर शांति को लगा कि शायद वो उन्हे देना नहीं चाहते..
'अगर आप इन्हे रखना चाहें तो..'
'नहीं-नहीं.. आप लेके जाइये.. बस इस रजिस्टर में अपना नाम-पता लिख दीजिये..'
'जी?' शांति को समझ नहीं आया..
'अगर कभी मुझे इन्हे सुनने का मन किया तो मुझे पता रहेगा कि ये कहाँ हैं..'
'..ओके..' शांति अटपटा के बोली।

शांति जब अपना नाम दर्ज़ कर रही थी, आत्माराम जी ने कैसेट्स के भीतर एक मोहर मार दी- जिस में उनके नाम व नम्बर के अलावा सप्रेम भेंट भी छपा हुआ था। शांति को लगा कि वो किसी लेण्डिंग लाइब्रेरी में चली आई है।
'मैं यह ले लूँ अंकल?' अचरज एक पुराना ध्वस्त सा एलबम हाथ में लेके खड़ा था।
'अरे ये.. ये तो मेरा स्टैम्प कलेक्शन है..' आत्माराम जी ने विकलता से कहा।
'ले लो बेटा ले लो.. इनके किसी काम का नहीं.. ले जाओ!', सुमित्रा जी ने साधिकार कहा तो अचरज की बाँछे खिल गई। लगभग अनमने से आत्माराम जी ने अपने रजिस्टर में उस एलबम के आगे अचरज का नाम दर्ज़ कर लिया। उनके घर से निकल कर अचरज काफ़ी प्रसन्न था। वो एलबम लेके सीधे घर जाने के बजाय घास में खेल रहे अपने दोस्तों के बीच दौड़ गया और उत्साह से उन्हे अपनी नई निधि दिखाने लगा।
**
तीन दिन बाद। शाम को जब शांति घर से लौटकर साँस ले रही थी तो अचानक आत्माराम जी चले आए.. कहने लगे- 'पंकज मलिक सुनने का मन कर रहा था..'
शांति और कर ही क्या सकती थी.. उनका कैसेट था.. उन्होने दिया था.. वही माँग रहे हैं.. कोई कैसे ना कर सकता है.. देना ही पड़ेगा। शांति ने चुपचाप ला के दोनों कैसेट उन्हे थमा दिए। शांति को उम्मीद थी कि वे सी एच आत्मा के कैसेट को लौटा देंगे.. पर वे कुछ नहीं बोले। हाथ में दोनों कैसेट थामे-थामे उन्होने पूछा- 'अचरज नहीं दिख रहा.. ?'
'वो अपने एक दोस्त को आपका एलबम दिखाने गया..',  शांति की उम्मीद फिर ग़लत साबित हुई- उसने सोचा था कि वे ख़ुश होंगे पर वे तो विकल हो गए।
'दोस्तों को.. ? वो स्टैम्प्स बाँट तो नहीं रहा न.. '
'पता नहीं.. मैंने पूछा नहीं.. '
'नहीं.. उसमें कुछ स्टैम्प्स हैं जो मैं अपने पोते को देना चाहता हूँ.. बहुत दुर्लभ स्टैम्प्स हैं.. '
उनके बेचैनी देखकर शांति को कहना ही पड़ा कि अचरज के आते ही वो उसे एलबम के साथ उनके घर भेज देगी। इस आश्वासन के बाद आत्माराम जी अपनी बूढ़ी काया को लिए-लिए सीढ़ियाँ उतर गए।

लौटकर आने पर अचरज ने बहुत हाथ-पैर फेंके कि एक बार दे दिए जाने के बाद वो एलबम उसका हो चुका है पर शांति ने उसे डाँटकर चुप करा दिया। अगले दिन अचरज को भारी मन से उस सप्रेम भेंट को भी उनके घर पहुँचाना पड़ा। उसके नन्हे हाथों के मुक़ाबले एलबम पर आत्माराम जी की पकड़ अधिक बलवती थी।

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(इस इतवार को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 


गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

यमदूत



गाँधी जी ख़ुद एक वकील थे पर वो वकालत के पेशे को बड़ा बुरा समझते थे। उनका मानना था कि वकील झगड़ा निबटाने के बदले झगड़ा बढ़ाने का काम करते हैं, लोगों को चाहिये कि अदालत न जायें और अपना झगड़ा आपस में ही निबटा लें। शांति ने उनकी किताब हिन्द स्वराज पढ़ रखी थी। शांति को ठीक-ठीक याद नहीं पर मोटे तौर पर उसमें गाँधी जी वकीलों से भी ज़्यादा बुरा पेशा डॉक्टरी का लिखते हैं और अस्पतालों में पाप की जड़ होने की बात करते हैं। उन दिनों शांति नौजवान थी और दुनिया के हर पहलू को आदर्श नज़रों से देखने की कोशिश करती थी। बचपन में एक दौर ऐसा भी था जबकि वह ख़ुद भी डॉक्टर बनकर बीमार-बेचारों की सेवा करना चाहती थी। इसीलिए गाँधी जी की ऐसी बातों को उसने, गाँधी जी के प्रति तमाम आदर व सम्मान के बावजूद, एक अतार्किक अनर्गल प्रलाप ही माना। बहुत समय बीत गया। धीरे-धीरे कई कड़वे-कसैले अनुभवों के संशोधनों का शिकार होके के शांति की आदर्शवादी दृष्टि आदर्शों के डेरे से बेघरबार होके दुनियादार हो गई। जीवन के बहुत से पहलुओं के प्रति उसका नज़रिया बदला। वो डॉक्टरों और हस्पतालों के बारे में अब क्या सोचती है वो बाद में बतायेंगे पर पहले वो घटना जिस से गाँधी जी दुबारा प्रंसग में आ गए।

इरफ़ान का छोटा भाई फ़रहान कई दिनों से हस्पताल मे भर्ती था। शांति मिलने गई। शबनम हस्पताल के बाहर ही मिल गई। शांति को देखकर शबनम मुसकराई ज़रूर पर आँखें उदास ही बनी रहीं। आँखों के नीचे झाईंयां पड़ी हुई थीं, शायद थकान और नींद न पूरी होने के चलते। शांति ने फ़रहान का हाल पूछा तो पता चला कि उसके पैंन्क्रियस में कुछ भयंकर संक्रमण हो गया है। एक के बाद एक कई ऑपरेशन हो रहे हैं पर डॉक्टर कुछ भी साफ़-साफ़ कहते नहीं। घरवाले उनकी इस चुप्पी से अपनी उम्मीद की डोर जोड़े हुए हैं।

शबनम ने हौले से उसे बताया कि उसके अपने अनुमान से बचने की उम्मीद बहुत कम है पर अगर वो कुछ बोलती है तो बुरी बनती है.. इसलिए चुपचाप जो हो रहा है होने दे रही है। बीस दिन से आईसीयू में पड़ा हुआ है। ऑक्सीजन की मशीन से लेके न जाने कितने तरह की मशीन के तार और ड्रिप जिस्म से जोड़ रखे हैं। सुबह-शाम टैस्ट हो रहे हैं। हर तीसरे-चौथे रोज़ कोई नई जटिलता पैदा हो जा रही है और नतीजे में एक और ऑपरेशन। ऐसे करते-करते चार ऑपरेशन हो चुके हैं। शबनम ने धीरे से बताया कि डॉक्टर्स ने फ़रहान के पेट को काटकर खुला छोड़ रखा है.. बार-बार चीरने और फिर सीने से बचने के लिए।

ग़लती से एक रोज़ फ़रहान के जिसम को उसी हाल में उसकी माँ ने देख लिया- पछाड़ खा के गिर पड़ीं। रो तो वो पहले भी रही थीं मगर तब से उनकी आँखों की गंगा-जमना बरसाती मिज़ाज की हो गई है। उनको हस्पताल लाने की मनाही कर दी गई है फिर भी वो ज़िद करके चली आती हैं और उन्हे सम्हालना एक अलग काम बना रहता है। और इरफ़ान के अब्बू तो एकदम ही चुप हो गए हैं- न तो कुछ बोलते हैं और न ही हस्पताल आते हैं बस घर पर बैठकर दीवारों को ताका करते हैं। अपने जवान बेटे की इस बीमारी ने उनके चेहरे पर कई सिकुड़नें बढ़ा दी हैं।

पूरा परिवार ग़मज़दा है और फ़रहान की जान के लिए पैसे की कुछ परवाह नहीं कर रहा। वैसे भी हस्पतालों में कोई मोल-भाव नहीं होता। जो रेट बोला जाय, भरना पड़ता है। आदमी अपने दिल के हाथों मजबूर होता है। कितने ही परिवार जो सालों तक पैसा काट-काट कर बचत करते हैं- इसी हस्पताल के चक्कर में सब कुछ न्योछावर करके नंगे हो जाते हैं। और जो बचत नहीं करते वो तरह-तरह के कर्ज़ों के जाल में पड़ जाते हैं। हस्पताल में किसी को रियायत नहीं मिलती। इरफ़ान और उसके परिवार वाले भी फ़रहान की जान के मोह में रोज़ाना पंद्रह से बीस हज़ार स्वाहा कर रहे थे।

शबनम ने कहा नहीं पर एक सच्ची सहेली होने के नाते शांति ने समझ लिया कि शबनम अपने देवर की बीमारी का सोग तो मना ही रही है पर उसके अलावा लगातार की भाग-दौड़ से बेहद थकी और परेशान भी हो चुकी है। परिवार वाले लगभग तीन हफ़्ते से अलग-अलग शहरों से आकर वहीं डेरा डाले पड़े हैं। दिन-रात घर और हस्पताल के बीच चक्कर मार रहे हैं। कुछ लोग तो हस्पताल के आस-पास ही कुछ भी खा-पी के काम चला रहे थे, फिर भी दस-बारह जनों के लिए शबनम सुबह-शाम खाना बना रही है। और उनके कपड़े भी धो रही है। क्योंकि इतने सारे अतिरिक्त काम को करने से शबनम की बाई ने करने से इंकार कर दिया। काम का बोझ उतना भारी नहीं था मगर पूरे परिवार में छायी मुर्दनगी का बोझ उठाना कहीं दुश्वार था।

और हुआ वही जिसे न तो डॉक्टर बता रहे थे और न घरवाले तस्लीम करने को राज़ी थे। तेईस दिन के हस्पताल वास के बाद हस्पताल वालों ने उनका बिल तैयार कर दिया। फ़रहान का लाइफ़सपोर्ट हटा लिया गया। संयोग से शांति उस वक़्त उनके साथ ही मौजूद थी जब मनहूस ख़बर आई और घरवालों में रोना-पीटना मच गया। शांति ने सबसे संयत होने के नाते काग़ज़-पत्तर का काम सम्हाल लिया। हस्पताल के काग़ज़ात पर फ़रहान की रूह ठीक उसी पल इस आलम से आज़ाद हुई थी। लेकिन अगर लाइफ़सपोर्ट को हटाते के बाद फ़रहान के फेफड़ों ने एक भी साँस नहीं भरी तो साफ़ है कि फ़रहान नहीं उसके बेजान जिस्म में ऑक्सीज़न फूँककर दिन-रात काटे जा रहे थे। ये कसरत घरवालों की 'हर कोशिश कर लिए जाने की तसल्ली' के लिए की गई थी या शुद्ध रूप से हस्पताल का मीटर चलाते रखने के लिए- उस ग़मगीन मौक़े पर यह सवाल पूछने का मन किसी घरवाले का नहीं था। शांति का मन ज़रूर था पर वो भी मौक़े की नज़ाकत को देखकर चुप रह गई। और सोचती रही कि उसी नज़ाकत का नाजायज़ फ़ायदा उठाते रहे हैं हस्पताल वाले।

शांति ने देखा कि फ़रहान का जिस्म आईसीयू से निकलने के साथ ही एक दूसरा बेहोश जिस्म उस कमरे में दाख़िल कर दिया गया। शांति को लगा जैसे कि फ़रहान की मौत का ऐलान करने के लिए वो उस कमरे के अगले किराएदार का इंतज़ार भर कर रहे थे। फ़रहान तो बहुत पहले ही मर चुका था। शांति को अचानक लगा कि वो हस्पताल, बीमारों के चंगा करके दुनिया में वापस भेजने से ज़्यादा उन्हे यमराज के पास भेजने का टोलनाका है। और डॉक्टर्स एक तरह के यमदूत हैं जो इन्सान को इस पार से उस पार भेजने का शुल्क वसूल करने का व्यापार करते हैं।

ये वो पल था जब शांति को बरसों पहले पढ़ी हिंद स्वराज की याद हो आई। और नौजवानी में जिस बात पर वो गाँधी जी से सहमत नहीं हो पाई थी, उस पल में उसे एक बार फिर गाँधी बाबा पर श्रद्धा हो आई कि उन्होने सौ बरस पहले ही इन यमदूतों के असली किरदार को पहचान लिया था।


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


सोमवार, 12 दिसंबर 2011

जय भीम !


सरला के आने का समय सवा आठ का तय था। लेट होती तो आठ पचीस नहीं तो आठ तीस तक ज़रूर सरला की चाभी दरवाज़े के लैच में घूमने की आवाज़ आ जाती। सरला कभी घंटी बजाकर घर में नहीं आती थी। उसे पता था कि सुबह के वक़्त सब लोग समय के विरुद्ध एक विषम संघर्ष कर रहे होते हैं। और घर के सभी लोगों के घर में रहते हुए भी शांति द्वारा दी हुई चाभी का इस्तेमाल असल में घरवालों के उस हड़बड़ाए हुए संघर्ष के प्रति सरला की हमदर्दी और रहमदिली है। सवा आठ के बाद, आठ पचीस. आठ तीस बज गए - दरवाज़े के लैच में सरला की चाभी घूमने की सुकूनसाज़ आवाज़ नहीं आई। समय की अबाध चाल में पौने नौ, नौ, साढ़े नौ सभी बजते रहे पर सरला नहीं आई। एक फ़ोन भी लिया था सरला ने पर वो बिल समय पर न जमा न करने के कारण उन दिनों पूरी तरह स्थगित था।

शांति ने सरला को हिदायत दे रखी थी कि नागा करना तो हफ़्ते के किसी भी दिन कर ले पर छुट्टी वाले दिन मत कर। हफ़्ते भर दफ़्तर में घिसने के बाद छुट्टी के दिन घर में घिसना मंज़ूर नहीं था शांति को। उस दिन वो पूरा आराम चाहती थी। उस दिन मंगल था पर वो छुट्टी का ही दिन था। बच्चों के स्कूल की तो छुट्टी थी ही, अजय और शांति का दफ़्तर भी बंद था। लेकिन सरला के नागा कर जाने से शांति की छुट्टी बेकार हो गई।

सरला की अनुपस्थिति से घर पूरी तरह श्रीहीन सा हो गया था। शांति ने कोशिश की। घर ठीक किया, बरतन मांजे, नाश्ता बनाया, पर सरला वाली बात नहीं बनी। नाश्ता करते ही पाखी इमारत के दूसरे बच्चों के साथ क्रिकेट खेलने नीचे भाग गई और अचरज सामने वाले घर में अपनी हमउम्र सहेली टिप्पा के घर चला गया। अजय अपना लैपटॉप गोद में रखकर घर में ही दफ़्तर खोलकर बैठ गया। और चैन की दो साँस लेने के लिए बैठी शांति को एकेक करके घर के वो सारे छूटे हुए काम याद आने लगे जो हफ़्तों से वो टालती रही थी। परदे पुराने हो गए थे-वो नए खरीदने थे; अजय ने अपनी चाभी खो दी थी तो उसके लिए एक डुप्लीकेट बनवानी थी;  फ़िल्टर कॉफ़ी का पाउडर ख़रीदना था जो पूरे शहर में सिर्फ़ हबीबगंज नगर की एकमात्र दुकान पर मिलता था; और अपने लिए एक आरामदायक सैण्डल ख़रीदना था- छुपकर। क्योंकि अजय को हमेशा लगता है कि वो कुछ ज़्यादा ही सैण्डल खरीदती है।

निकलते-निकलते ढाई बज गया। दोपहर की वो दुर्लभ मीठी नींद छोड़कर निकलना आसान नहीं था पर निकली। उसकी सूची में जो-जो काम दर्ज़ थे उन्हे निबटाने के लिए उसे शहा के तीन छोरों पर जाने की ज़रूरत थी। शहर के उत्तरी छोर पर स्थित दुकान से उसे पर्दे खरीदने थे- उस राह पर चलते हुए उसे इमाम हुसैन की शहादत की याद में इमामबाड़े की ओर जाता हुआ ताजियों का समूह और साथ चलते मातमियों का जुलूस मिला। शांति ने मन ही मन करबला की करुण कहानी को याद किया और इमाम को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर के आगे बढ़ी। फ़िल्टर कॉफ़ी खरीदने के लिए शहर पश्चिमी जाते हुए जब वो हबीबगंज से गुज़र रही थी तो रास्ते में उसे एक अलग दल झण्डे-बैनरों के साथ मार्च करता हुआ मिला। और तब शांति को याद आया कि मंगल को पड़ने वाली उस मुहर्रम की तारीख़ ६ दिसम्बर थी। वो काला दिन जिसके बाद से शहर के दो समुदायों के बीच तनाव की दीवार कई फ़ुट और ऊँची हो गई थी। ज़ेहन में उन दिनों की वीभत्स यादें आते ही शांति सिहर गई। और तेज़ी से स्कूटर चलाकर उन यादों से दूर भाग चली।

सैण्डल ख़रीदने के लिए उसका स्कूटर शहर पूर्वी की तरफ़ मुड़ गया। शोरूम पहुँचने के पहले ही  रास्ते में कुछ जाम मिला। शांति ने देखा कि चौराहे पर आकर मिलने वाली आड़ी सड़क से एक और जुलूस गु़ज़र रहा था। इस जुलूस में न तो ताजिए थे और न ही काला दिवस मनाने वाले काले झण्डे। जुलूस का मुँह शांति से आड़ा होने के कारण शांति बैनरों पर लिखी इबारत ठीक से पढ़ नहीं पा रही थी। सिर्फ़ एक बैनर पर उसे जय भीम लिखा हुआ दिखाई दिया। शांति घबरा गई.. क्योंकि भीम नाम से वो एक ही महाभारत वाले महाबली भीम को जानती थी। उसे अंदेशा हुआ कि वो जुलूस काला दिवस मनाने वाले जुलूस के विरोधियों का जुलूस तो नहीं। पर जुलूस में शामिल लोगों के हाव-भाव में भीम वाली कोई आक्रामकता नहीं थी। बल्कि वे बड़े विनीत भाव से धीरे-धीरे नारा लगाते हुए चले जा रहे थे। नारे में भी भीम का ही नाम ले रहे थे- जय भीम बोलो! आगे बढ़ो! जुलूस निकल गया और शांति भीम वाली बात को भूल गई।

अगली सुबह ठीक सवा आठ बजे दरवाज़े के लैच में चाभी घूमने की आवाज़ आई। शांति शिकायती मुद्रा धारण करके रसोई तक पहुँची पर मुसकराती हुई सरला ने पहल की- दीदी कल मैंने आपको देखा था।
'मुझे? कहाँ?'
'आर्यनगर चौराहे पर.. '
'हाँ मैं कल गई थी उधर .. पर तू आर्य नगर चौराहे पर क्या कर रही थी.. ?'
'मैं तो जुलूस में थी!'
जुलूस में?
शांति की आँखों के आगे जय भीम वाला विनीत जुलूस घूम गया।
'वो भीम वाला जुलूस..?
'..हाँ-हाँ दीदी.. वो ही!'
कल के नागे की बात किनारे हो गई.. शांति के कौतूहल ने बाग़ हाथ में ली।
'ये भीम कौन है.. ?'
'भीम.. ? बाबा साहेब!और कौन?!'
बाबा साहेब?'
'हाँ उनका पूरा नाम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर है ना..! कल परिनिर्वाण दिवस था न उनका!'
शांति एकदम सिटपिटा गई और उसकी हालत किसी स्कूली लड़की की तरह हो गई जिसका सही समझे जाना वाला सवाल ग़लत साबित हो गया हो। वो जानती थी डा० अम्बेडकर का काम और पूरा नाम भी जानती थी पर न जाने क्यों वो समझ ही नहीं सकी कि जय भीम में किसकी जय की बात हो रही है।

 सरला ने आगे बताया कि किस तरह बाबा साहेब उसके लिए भगवान से भी बढ़कर हैं। क्योंकि कितने अवतार हुए पर एक ने भी दलितों के उद्धार के लिए कुछ भी नहीं किया। सरला ने ये भी बताया कि उसके घर में भगवान की कोई तस्वीर, कोई मूर्ति नहीं। भगवान के कोने में उसने बाबासाहेब की ही फ़ोटो लगा रखी है।  

शांति को शर्म सी आने लगी अपने आप पर कि वो अपने आपको बड़ा सजग और सचेत समझती है पर उस भीम के बारे में वो न सजग निकली न सचेत, जिसे समाज का सताया हुआ तबक़ा भगवान के समकक्ष या उससे भी आगे रखता है!? और यह सोचकर वह और भी शर्मसार होती रही कि सरला जो उसके घर की दूसरी घरैतिन है उसी के मन में बैठी श्रद्धा का पता भी न पा सकी!? शायद उनके दिलों के बीच कुछ हज़ारों बरस की दूरी है जिसे पाटने में बड़ी मेहनत और कसरत करनी होगी।  

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

मैं नशे में हूँ..



मनीष कुमार जी बोतल साथ लेके शांति के घर आए थे। और आने के पहले से पी के आए थे। दरवाज़ा पाखी ने खोला था। पाखी ने अन्दर आकर अजय को उनके आने की सूचना दी और शांति को उनके मुँह से गंदी बदबू के आने की सूचना दी। मनीष जी बड़े दिनों बाद आए थे। अजय के बचपन के दोस्त थे। शांति दो-तीन बार उनसे बाहर भी मिली थी। बाहर की दुनिया में अजय जी निहायत शरीफ़ आदमी थे। साधारण बातचीत में वो इतना धीरे बोलते थे कि अक्सर उनके कहे हुए शब्द सुनने वाले तक पहुँचने के पहले ही हवा में विलीन हो जाते। भीड़ में इस क़दर मिलकर चलते कि साथ चलते-चलते दृश्य में ही कहीं खो जाते- और अलग से दिखना ही बंद हो जाते। फिर आवाज़ देकर उन्हे बुलाना पड़ता। तो कहीं पास से ही दुर्बल स्वर से वे अपने अस्तित्व का समर्थन करते।

मगर शांति के घर जो मनीष कुमार आते वो कोई दूसरे ही मनीष कुमार होते। उस दिन भी जो मनीष कुमार आए थे वो किसी से दब-दब कर चलने वाले निरीह मनीष कुमार नहीं थे। उनके शरीर की ऊर्जा, गति, संवेग सब अलग था। उनका स्वर भी शेष प्रकृति और संस्कृति से ऊपर, सबसे ऊपर गरज रहा था। कोई चाहकर भी उसे अनसुना नहीं कर सकता। वो अजय के साथ बैठक में थे लेकिन शांति, पाखी और अचरज, सासूमाँ, घर के अलग-अलग कोनों में कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो चुके थे। वे अपने ही घर में मनीष कुमार की विविध अभिव्यक्तियों के श्रोता भर बनकर रह गए थे।

शांति ने सोचा कि विदा करके उनसे मुक्ति पाने का यही एक तरीक़ा होगा कि उन्हे खाना खिला दिया जाय। जब शांति बैठक में पहुँची तो वो भयानक रोष में थे। अजय के सामने इस तरह से खड़े होकर अपने हाथ-पैर हवा में फेंक रहे थे जैसे अजय पर कोई हिंसक हमला करने वाले हों। हालांकि अजय चुपचाप हाथ बाँधे बैठा उन्हे सुन रहा था। फिर शांति को समझ आया कि वो किसी और को ही गाली दे रहे थे- बार-बार.. 'मुझे मारेगा साला!? ..मैं उसकी गरदन तोड़ दूँगा.. कपड़े फाड़ दूँगा.. बड़ा गांधीवादी बन फिरता है.. अपने को संत समझता है.. मारूंगा साले को..संटी से मार-मार कर चूतड़ लाल कर दूंगा!!' न जाने वो कोई प्रेत था या अदृश्य आत्मा। इतना निश्चित था कि वो जो भी था उसने मनीष कुमार जी पर या उनके किसी सम्बल पर बड़ी गहरी चोट करने का दुस्साहस किया था।

फिर मनीष कुमार ने जब शांति को देखा तो चेहरे के भाव बदल गए। लड़खड़ाते हुए हाथ जोड़ लिए और माफ़ी माँगते हुए बखानने लगे कि वो शांति की कितनी इज़्ज़त करते हैं। उस तथाकथित इज़्ज़त की मात्रा को परिभाषित करने के लिए उन्होने अलग-अलग सुरों में कई बार 'बहुत' उच्चारित किया। हालांकि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद वो शांति को कनविन्स कर पाने में असफल रहे। और शांति निश्चल भाव से उन्हे खाने के लिए बुलाती रही। मगर उनकी 'बहुत' इज़्ज़त का कोई अल्पांश भी शांति के आग्रह पर ग़ौर करने के काम न आया। शांति लौट कर भीतर चली आई। वो पीते रहे, बहकते रहे, भड़कते रहे। और तभी उठे जब बोतल में बहकने के लिए सारा ईन्धन शेष हो गया।

शांति ने ईश्वर का धन्यवाद किया और अजय से कहा कि वो उन्हे घर तक छोड़ आए। अजय अपनी गाड़ी की चाभी लेकर नीचे उतरा तो उम्मीद थी कि उनकी यातना समाप्त हो जाएगी मगर और लगभग आधे-पौने घंटे तक कभी ज़ोर-ज़ोर से बेहूदे सुर में गाने की और कभी चिल्ला-चिल्लाकर बहस करने की आवाज़े आती रहीं। कुछ अड़ोस-पड़ोस के लोग भी अपनी बालकनी में खड़े होकर तमाशा देखने व सुनने लगे। फिर जब अजय की कार के बदले एक बाईक की घरघराहट आई और सारी आवाज़े शांत हो गईं तो शांति समझ गई कि अजय उन्हे समझाने में विफल रहा।

जब लौटा तो शांति ने पूछा- 'और तुमने अकेले जाने दिया उन्हे..? एक्सीडेंट हो गया तो?'
'इतनी देर से यही तो समझा रहा था.. पर वो माना नहीं.. कहता रहा कि वो दुनिया का सबसे अच्छा ड्राईवर है..'
'हे भगवान!.. कैसा आदमी है..?'
'बेचारा बहुत दुखी है..'
'बेचारा?.. दुखी?.. वो एक नम्बर का स्वार्थी है..अपने अलावा किसी की नहीं सोचता..'
'क्या कह रही हो तुम.. बहुत भावुक और संवेदनशील आदमी है.. '
'होगा.. पर सिर्फ़ अपनी भावनाओं के लिए संवेदनशील है.. अगर सचमुच संवेदनशील होता तो समझ नहीं जाता कि उसके यहाँ आकर ड्रामा करने से हम सब को कितनी तकलीफ़ होती है?'
'अरे.. बेचारा.. पीने के बाद..'
'किसने कहा है पीने को.. क्यों पीता है? क्या पीकर अधिक बुद्धिमान हो जाता है? अधिक बलवान हो जाता है? पीकर के बस अपनी ओछी भावनाओं में लिथड़ता रहता है.. सोचता है कि दुनिया बड़ी पत्थरदिल हैं और वो सोने के दिलवाला है?'
'हम्म.. ये तो है.. इसकी बीवी ने भी शायद इन्ही सब बातों से तंग आकर आग लगा ली थी.. '
'और देखो..फिर भी नहीं सुधरा!?.. मेरी तो समझ में नहीं आता कि सरकार शराब पर बैन क्यों नहीं लगा देती.. '
'अरे.. ये कैसी बात कर रही हो..? डेमोक्रेसी है.. लोग पीना चाहते हैं तो कैसे बैन लगा देंगे? और अगर सही मात्रा में पी जाय तो सेहत के लिए अच्छी है..'
'अच्छा?? .. ज़रा पता कर लो कितने पीनेवाले मरते हैं लिवर के सिरोसिस से.. और एक बार पीना शुरु कर दिया तो मात्रा का होश रहता है क्या किसी को? .. और लोग तो चरस-गांजा-स्मैक भी पीना चाहते हैं.. उस पर क्यों बैन लगाते हैं?.. स्मोकिंग को बुरा क्यों मानते हैं..? वो भी तो लोग पीना चाहते हैं?'
'अरे उन नशे से तो ज़िन्दगी बरबाद हो जाती है.. '
'और शराब से.. ज़िन्दगी संवर जाती है? कभी उन औरतों से पूछो जो रोज़ अपने शराबी पतियों से पिटती हैं.. अगर कभी सर्वे कराओ तो हर औरत शराब बैन करने के पक्ष में वोट देगी.. '
'हर औरत?'
'सौ में से पन्चानबे तो देंगी..पक्का देगी!' शांति बहुत आन्दोलित थी। और उसकी इस अवस्था को भाँपकर अजय ने हथियार डाल दिये- 'अच्छा जाने दो.. वो गया अपने घर..उसके चक्कर में हम क्यों लड़ें? मैं तो नहीं पीता उसकी तरह शराब.. और न ही तुम्हें पीटता हूँ..? पीटता हूँ क्या..?.. चलो सो जाते हैं.. बहुत रात हो गई..'

अजय के मनुहार से शांति सो तो गई। पर जब सुबह उठी तो भी यही बात उसके सर में चकरा रही थी। और जब सरला काम करने आई तो शांति ने उससे पूछा- 'क्यों सरला, तुम्हारा पति भी तो शराब पीता है न..?
'बहुत! ..रो़ज़ पीता है.. मेरे पैसे छीन के पीता है.. '
'तो फिर क्या करती हो तुम? '
'क्या करुँ.. मेरा बस चले तो मैं उसे खम्बे से बांधकर संटियों से पीटूँ!! पर वो तो मुझे ही पीटता है!!'

***


(इसी इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


चित्र: मार्क शगाल


सोमवार, 21 नवंबर 2011

ये रिक्षेवाले


हुआ ये था कि बीच राह में टंकी का गला सूख गया और स्कूटर की आवाज़ बंद हो गई। किसी तरह धकेलकर शांति ने स्कूटर एक परिचित की इमारत में खड़ा किया और घर लौटने के लिए स्कूटर खोजने लगी। जब दूर-दूर तक तीन पहियों वाली कोई पहचानी आकृति नहीं दिखी तब पता चला कि शहर में तो हड़ताल है रिक्षेवालों की। वो अपने किराए में बढ़ोत्तरी माँग रहे हैं। कहते हैं कि माँ भी बच्चे को रोने पर ही दूध पिलाती है। और रिक्षेवाले जानते हैं कि सरकार माईबाप होती है।

शांति की तरह बाक़ी शहरियों की रिक्षेवाली की समस्या में कोई रुचि नहीं थी वो सिर्फ़ घर लौटना चाहते थे मगर स्वार्थी, खुदगर्ज़ रिक्षेवाले अपनी ज़रूरतों का राग अलाप रहे थे। सारे रिक्षेवाले शहर की सतह से ग़ायब हो गए थे, ऐसा नहीं था। वो वहीं थे पर कहीं भी जाने से मुन्किर थे। कुछ गद्दार भी थे जो मोटे किराए के लालच में इस मौक़े का फ़ाएदा उठा रहे थे। घर जाने को बेचैन सभी नागरिक ऐसे गद्दारों की तलाश में थे और उन्हे मीटर से अलग मोटे भाड़े के लालच से लुभा रहे थे। फिर उनके राज़ी न होने पर उन्हे गलिया भी रहे थे। शांति ने इस तमाशे को थोड़ी देर देखा, सहा, ग़ुस्से से लाल-पीली होके दो-तीन रिक्षेवालों को बुरा-भला भी कहा। कुछ देर में अजय आ गया। अजय अपनी गाड़ी से कुछ पेट्रोल निकालकर शांति के स्कूटर में डाल सकता था मगर शांति जिस मूड में थी उसे देखकर वो सीधे शांति को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर आ गया।

अगले दिन भी हड़ताल थी। दो दिन की हड़ताल से पूरे शहर के नागरिक आजिज़ आ गए और तन-मन-धन से रिक्षेवालों के विरोधी हो गए। अख़बारों में रिक्षेवालों की जनविरोधी व्यवहार के विरुद्ध बड़े-बड़े लेख लिए गए। शहर के एक लोकप्रिय रेडियो स्टेशन ने रिक्षेवालों के विरुद्ध मीटर डाउन आन्दोलन चलाया -जिसमें वो हर ऐसे रिक्षेवाले का नम्बर पुलिस में शिकायत करते जो उन्हे मनचाही जगह ले जाने से मना करता है। शहर में गुण्डागर्दी के बल पर अपनी साख बनाने वाली प्रगतिशील सेना ने शहर में कई रिक्षेवालों की पिटाई कर दी और तीन रिक्षों को आग लगा दी। शहर के पुलिस कमिश्नर ने जनता की सहायता के लिए पूरे शहर में सादे कपड़ों में सिपाहियों को तैनात कर देने का ऐलान किया जो बदतमीज़ और अक्खड़ रिक्षेवालों को क़ानून के दायरे में लाएंगे।

शांति ने तीसरे दिन सुबह जब यह बातें अख़बार में पढ़ी तो उसे थोड़ी अटपटी लगीं- ख़ासकर ये अक्खड़ शब्द।
'ये तो अजीब बात है.. ! '
'क्या.. ?' अजय ने चाय पीते-पीते पूछा।
'ये रिक्षेवालों को अक्खड़ क्यों कह रहे हैं..? '
'क्यों अक्खड़ नहीं वो लोग.. ? मैं तो कहता हूँ मक्कार भी है.. जब हमारी ज़रूरत होती है.. तो कितना भी पुकारो सुनते ही नहीं.. देखते ही नहीं.. और दोपहर के वक़्त जब कोई भाड़ा न मिल रहा हो तो धीरे-धीरे हार्न बजाते हुए पीछे-पीछे चलते हैं.. पालतू कुत्ते की तरह.. दुम हिलाते हुए.. '
'ठीक है.. मैं मानती हूँ.. वो करते हैं ऐसा.. पर हर रिक्षेवाला अक्खड़ होता है.. ये मैं नहीं मानती.. ये तो पूर्वाग्रह है.. ये तो वैसे ही है जैसे कोई कहे कि हर पोस्टमैन डरपोक होता है.. ? अक्खड़पन या डरपोकपन किसी एक व्यक्ति का गुण हो सकता है किसी समूह का नहीं.. '
'तो तुम्ही बताओ कि क्यों करते हैं वो ये सब.. ? '
'ये ठीक बात है कि मैं कल बहुत पक गई थी उनके व्यवहार से.. पर अगर वो कहीं नहीं जाना चाहते तो मैं कौन होती हूँ उनको मजबूर करने वाली..? आज़ाद देश है.. कोई ज़बरदस्ती तो नहीं.. '
'अरे ये क्या बात हुई? कल को स्कूल का मास्टर भी कह दे कि मैं इस बच्चे को पढ़ाऊँगा और इसे नहीं.. '
'मास्टर भले न कहते हों पर स्कूल तो कहते हैं.. और हम कुछ भी नहीं कर सकते? '
'अच्छा तो दुकान वाला कहे कि मैं इसे माल दूँगा और उसे नहीं.. दुकान खोली है तो सबको माल देना पडे़गा.. '
'ऐसा कोई नियम नहीं है.. दुकान वाला अगर चाहे तो आप को माल न बेचे.. आप उसे मजबूर नहीं कर सकते! '
'अच्छा छोड़ों उन्हे.. अगर बैंकवाला अपने मन से लोगों के साथ से व्यवहार करे.. एक को पैसे निकालने दे.. और दूसरे को मना कर दे.. तो? '
'बैंकवाला बैंक का नौकर है.. उसे निश्चित तारीख़ पर निश्चित वेतन मिलता है.. रिक्षेवाला हमारा नौकर नहीं है.. वो हर रोज़ कितना कमाएगा उसकी कोई गारन्टी नहीं है.. अगर उसे किसी जगह नहीं जाना है तो वो क्यों जाए? '
'मगर यही नियम है! .. सवारी जहाँ बोले.. रिक्षेवाले को जाना ही पड़ेगा.. '
'तो ये नियम ही ग़लत है.. सरकार ऐसे नियम बनाती ही क्यों है जिसका पालन नहीं किया जा सके.. अगर मैं नियम बना दूं कि मैं जो बनाऊं आप सब को खाना पड़ेगा.. मुझे करेला पसन्द है और टिण्डा भी.. खायेंगे आप लोग रोज़..?'
अजय को बहुत परेशानी हो रही थी कि उसकी अपनी बीवी कैसे और क्यों रिक्षेवालों का पक्ष ले रही है?
'तुम्हे हो क्या गया है? भूल गई अभी कल कितना झेला है तुमने..? '
'नहीं भूली नहीं.. बल्कि मैंने तो सोचा कि बात क्या है आख़िर..? मुझे तो ये लगता है कि अगर रूट तय हो, उनके काम करने की शिफ़्ट तय हो.. और उसके बाद रिक्षेवाले इन्कार करें तो उन्हे दण्डित करें तो समझ आता है.. लेकिन आज की तारीख़ में शहर के एक छोर से दूसरे छोर की दूरी तीस से पैंतीस किलोमीटर है। अगर रिक्षेवाले एक्दम उत्तरी कोने में अपने घर लौटना चाहता है और सवारी दक्षिणी कोने में अपने घर? ..तो आप रिक्षेवाले से उम्मीद करते हैं कि वो फिर भी आप के साथ जाए.. क्यों? क्योंकि नियम है!! और वहाँ जाने के बाद उसे जो भी सवारी मिलें वो सब आस-पास की तो वो क्या करे?? अपने घर लौटने की बात भूलकर हर सवारी को उसके घर छोड़ता रहे..? ये कैसा बेहूदा नियम है? किसने बनाया है ये? इसमें सिर्फ़ सवारी की सहूलियत है रिक्षेवाली की नहीं।'

'पर शांति.. ', अजय ने कुछ कहना चाहा। पर शांति की बात खत्म नहीं हुई थी।

'सरकार रेल और बस जैसे पब्लिक ट्रान्सपोर्ट को अच्छी तरह विकसित नहीं करती और जनता को हो रही तकलीफ़ की सारी ज़िम्मेवारी गंदी खोलियों में गुज़ारा कर रहे रिक्षेवालों के सर पर फोड़ी जा रही है कि वो जनता को लूट रहे हैं और अपना अक्खड़पन दिखाकर सता रहे हैं?! ये ठीक है कि वो मीटर में गड़बड़ियां करते हैं पर क्या उन्होने मीटर में छेड़छाड़कर के अपने महल बना लिए हैं? महल कौन बना रहा है, ज़रा सोचिये तो?!'

'लो! तेल के दाम फिर बढ़ गए!?', अचानक अजय अख़बार की सुर्खी देखकर चौंका।

'अब तुम ही बताओ अजय.. एक तरफ़ पेट्रोल कम्पनियां तो जब चाहे अपने नफ़े-नुक़्सान को ध्यान में रखकर दाम बढ़ा सकती हैं। लेकिन रिक्षेवालों और किसानों के रेट्स तय करने की ज़िम्मेवारी अभी भी सरकार ने अपने हाथ ले रखी है? मुक्त बाज़ार की आज़ादी की बयार रिक्षेवालों के नसीब में नहीं है? वो सिर्फ़ बड़ी पूँजी के लिए है? ज़रा सोचिये तो!'

अजय सोचने लगा था!


***

(छपी इस इतवार दैनिक भास्कर में)

बुधवार, 16 नवंबर 2011

कांटा


 सीढ़ी उतरते हुए पैर में पड़ी सैण्डल की उतरती बद्धी को चढ़ाने की मुश्किल कसरत को करते हुए शांति इमारत के नीचे से आती हुई उत्तेजित आवाज़े भी सुन रही थी। नवम्बर की हल्की ठण्डी हवा में भी निरन्तर गरम होती जाती आवाज़ों का ताप कानों को अच्छा नहीं लग रहा था। शांति ने बैग को कंधे के पीछे धकेलते हुए एक नज़र कलाई की घड़ी पर डाली- नौ सत्रह हो रहे थे। टाइम बड़ा कट टू कट था फिर भी दो मिनट रुककर गरमागरमी का जाएज़ा लेने का मोहसंवरण न कर सकी शांति।

जो मजमा लगा था उसके बीच में बी-नाइन वाले जैन महाशय और शांति के ऊपर की मंज़िल पर क़याम करने वाली मिसेज़ घोषाल, अपने त्वरित अंग संचालन के चलते सबसे अधिक चमक रहे थे। समूह के बीच में से मछली, ठेला, बदबू और नाक जैसे शब्द सबसे स्वरित होकर गूँज रहे थे। शांति की इमारत के काम्प्लेक्स की दीवार से लगकर जो बंगाली एक ठेले पर मछली तलता है - है तो वो असल में जैन महाशय की नाक से कम से कम तीन सौ फ़ीट दूर मगर सच्चाई यही है कि वो ठेला जैन महाशय की नाक की परिधि में आता है उनकी नाक पर किसी मक्खी की तरह भिनभिनाता है। क्योंकि जैन महाशय की नाक शाकाहारी है मछली की तली हुई गंध उस की शुचिता और नैतिकता का उल्लंघन करती है।

उनकी नैतिक नाक का अतिक्रमण करने के अपराध पर जैन महाशय ने अकेले ही बंगाली को अरदब में लेकर उसे किसी मक्खी की तरह चपेटना चाहा। पर बंगाली मच्छी वाला जैन महाशय के रहमोकरम पर नहीं जी रहा था। वो भी समाज का शरीफ़ सदस्य था जो उस सड़क से सम्बन्धित सरकार के हर विभाग को बराबर हफ़्ते का प्रसाद अर्पित करता था। कुछ विभाग ऐसे भी थे- जैसे कि पुलिस विभाग- जिन्हे रोज़ और कभी-कभी तो दिन में दो-बार भी हफ़्ता देना पड़ता था। इतने सारे आक़ाओं के संरक्षण में हो जाने पर वो किसी इमारत की लम्बी शाकाहारी नाक और तरेरती हुई आँख से दबने वाला नहीं था। एक मामूली ठेले वाली की ऐसी हिमाकत से भड़ककर ही जैन महाशय के गले ने नाक की पीड़ा का गान गा-गाकर अपनी सोसायटी में उस मजमे का आयोजन किया था।

उनकी इस मुहिम से पूरी सोसायटी दोफांक होकर दो विरोधी मगर ग़ैर-बराबर खेमों में विभाजित हो गई थी। सोसायटी में शाकाहारी बहुमत में थे और मांसाहारी अल्पमत में। शुरुआत में तो मांसाहारियों ने बराबर का मोर्चा खोला पर जैसे-जैसे मजमे में शाकाहारियों की संख्यावृद्धि होती गई , उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटते-घटते इस बेक़दरी तक पहुँची कि जब शांति ने मजमे में प्रवेश किया तो मिसेज़ महामाया घोषाल शाकाहारियों के दल में बल बनकर शामिल थीं- मत्स्यलोभी बंगाली होने पर भी। इस मौक़े पर मिसेज़ महामाया घोषाल के संक्षिप्त इतिहास को जान लेना भी अनुचित न होगा।

जीवन के पचास बसन्त देख चुकीं मिसेज़ महामाया घोषाल अकेले रहती थीं। दो बरस पहले मिस्टर घोषाल का देहान्त हो गया था। संसार रूपी इस माया और उनकी महामाया से विदा लेने के पूर्व वे अपनी दुनियावी दायित्व से मोक्ष पा चुके थे। दोनों बेटियों का विवाह शास्त्रीय पद्धति से सम्पन्न होता देखने के बाद ही उन्होने प्राण त्यागे। दो बरस पहले का वो मनहूस दिन था और ये मनहूस दिन था- किसी ने मिसेज़ घोषाल को किसी भी तरह की विलासी गतिविधि में संलिप्त नहीं देखा। शास्त्रीय रीति से उन्होने रंगीन कपड़े त्याग दिए थे। उत्सव-समारोह पर अपनी शोकपूर्ण छाया वो कभी नहीं पड़ने देतीं। अपनी पतली किनारी वाली सुफ़ैद साड़ी में वो कटी पतंग की आशा पारेख की तरह शोक और उदासी से आच्छादित रहतीं। उनका माछ-त्याग भी इसी शोक की अभिव्यक्ति थी। और जैन महाशय की मच्छीविरोधी मुहिम का अप्रत्याशित समर्थन भी शायद इसी शोक का विस्तार था।

मांसाहारी दल की पारम्परिक शक्ति में हुई इस भितरघात से उनकी आवाज़ दुर्बल होकर दब ही जाती अगर शांति परोक्ष रूप से अल्पमत के पक्ष में न खड़ी हो जाती। शांति की दलील थी कि ठेला सोसायटी की दीवार के बाहर है। और सोसायटी की दीवार के बाहर कौन क्या ठेला लगा सकता है या नहीं इसका फ़ैसला नगरपालिका को करने दिया जाय। यह बात शांति ने अपने चरित्रगत तेवर और बाबुलन्द आवाज़ कही मगर मजमा नक्क़ारखाना बन चुका था और शांति को तूती होना कभी क़ुबूल नहीं था। उसने घड़ी पर एक और नज़र फेंकी- नौ इक्कीस हो रहा था। शांति ने मजमे को उसके हाल पर छोड़ा और स्कूटर को लात मारी। स्कूटर गुर्रा कर चल पड़ा।

उस शाम को जब शांति सोसायटी में वापस आई तो उसी जगह पर फिर से मजमा लगा हुआ था। पर इस बार मजमे का चाल, चेहरा और चरित्र दूसरा था। उस में अतिक्रमण, आक्रोश, और अभियान के बदले रंज, रहस्य और रोमांच का भाव संचारित हो रक्खा था। मज्मे के केन्द्र में एक एम्बुलेंस थी। और उसके भी केन्द्र में मिसेज़ महामाया घोषाल जिन्हे शांति की ऊपरी मंज़िल से कंधे का सहारा देकर उतारा गया और एम्बुलेंस में बिठाकर किसी अज्ञात हस्पताल की ओर ले जाया गया। कानाफ़ूसी और बतकुच्चन के ज़रिये शांति ने जाना कि बात यह थी कि उसके पहुँचने के पहले ही मिसेज़ महामाया घोषाल के गले में एक कांटा फंस गया था। किसी एक मछली का कांटा। वो कांटा बंगाली के ठेले पर तली गई मछली का ही था, ये मामला ज़ेरे बहस था और इस पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। वो कांटा मिसेज़ घोषाल के अपने हाथों से खाई और रस लेकर चबाई हुई किसी मछली का था या किसी मत्स्यद्वेषी शत्रु ने उनके गले में जबरन उतार दिया था- यह बात भी ज़ेरे बहस थी और इस पर भी कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। जैन महाशय सकते में थे। उनकी पार्टी का एक मज़बूत पाया खिसक कर ढह गया था। लोग खुले तौर पर नहीं कह रहे थे पर मिसेज़ घोषाल की शोक की सुफ़ैदी में काफ़ी दाग़ लग गए थे। और ये दाग़ अच्छे नहीं थे।

शांति की समझ में मिसेज़ घोषाल को कोई ज़रूरत नहीं थी कि वे सुफ़ैद साड़ी पहने या मत्स्यभक्षण छोड़ने का पाखण्ड करें पर उनकी नैतिकता उनके पेट, उनकी ज़ुबान और उनकी नाक से नहीं, पड़ोसियों की ज़ुबान और नाक से तय हो रही थी। अब नाक का ऐसा है कि किसी की नाक छोटी और निरीह होती है। और कुछ की तो इतनी निकृष्ट कि शूकर की तरह सर्वभक्षी होकर भी जुगुप्सा के हर भाव से मुक्त बनी रहती है। और कोई जैन महाशय की तरह इतनी लम्बी नाक रखता है कि सामने वाला कितना भी बचकर निकले बचकर निकल ही नहीं पाता, लड़खड़ा गिर ही जाता है। फिर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरे की नाकों से इतना आतंकित रहते हैं कि अपनी नाक अपने हाथों से काट लेते हैं।

***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)



मंगलवार, 15 नवंबर 2011

दबे पाँव



शेरजंग की शानदार किताब 'मैं घुमक्कड़ वनों का' पढ़ने के बाद उनकी दूसरी किताबों को पढ़ने की भूख लिए-लिए जब मैं मित्र बोधि के घर पहुँचा तो मेरी नज़र उनके ख़ज़ाने के एक कोने में दबी और दूसरी किताबों के बोझ से कराह रही 'दबे पाँव' पर पड़ी। ये ऐतिहासिक लेखक वृन्दावनलाल वर्मा के शिकार संस्मरणों को मुअज्जमा है। बोधि ने उदारता से किताब कवर चढ़ाकर मेरे हवाले कर दी और मैंने तो किताब पाई गाँठ गठियाई। 

किताब में वर्मा जी ने बुन्देलखण्ड के झांसी, ग्वालियर, ओर्छा आदि इलाक़ों के जंगलों में उनके शिकार के शग़ल की टीपें लिखी हैं। इन टीपों में स्यार, खरहे-खरगोश, मोर, नीलकंठ, तीतर, भटतीतर, वनमुर्गी, हरियल, चण्डूल, लालमुनियाँ, सारस, पनडुब्बियाँ, पतोखियां, टिटहरी, मगर, और जलकुत्ता जैसे जीवों के बारे में तो बात होती ही चलती है। लेकिन मुख्य तौर पर इस किताब में जंगल के बड़े जानवर चिंकारा, हिरन, चीतल, तेंदुआ, काला तेंदुआ, चीता, लकड़भग्गा, खीसदार सुअर, रीछ, साँभर, नीलगाय, नाहर या बाघ या शेर, सिंह, जंगली कुत्ते(सुना कुत्ते) और भेड़िये के व्यक्तित्व, आपसी अन्तर और व्यवहार की तमाम अनमोल जानकारियां हैं- जैसे भालू निरा बहरा होता है और नज़र का कमज़ोर होता है उसका एकमात्र सहारा उसकी नाक होती है। जब कभी किसी आदमी रूपी ख़तरे को अचानक वो अपने पास पा जाता है तो घबराकर उस पर हमला कर बैठता है। स्वभाव से वो बन्दरों की ही तरह मूलतः शाकाहारी है। या फिर लकड़भग्गा मौक़ा मिलने पर अपने ही भाई-बन्धुओं का भक्षण कर डालते हैं। हिंस्र पशुओं में तेंदुआ सबसे अधिक ढीठ होता है जबकि संसार का सबसे रफ़्तार वाला प्राणी चीता, बिल्ली की तरह पालतू बनाया जा सकता है। हालांकि चीता अब हमारे देश से लुप्त हो चुका है। इस तरह की जानकारियों के अलावा किताब में वर्मा जी के शिकार के दिलचस्प अनुभव हैं।

इस किताब को पढ़ने से जो तस्वीर ज़ेहन में खिंचती है उससे समझ आता है कि आज की तारीख़ में वन्यजीवन की हानि की इस भायनक त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार दो बाते हैं

) मनुष्य की बढ़ती आबादी के कारण कृषि भूमि का होने वाला लगातार विस्तार। जिसके चलते जंगल के जानवर और मनुष्य सीधे संघर्ष में फंस गए। किताब में बार-बार यह बात आती है कि चीतल, चिंकारा, सुअर, हिरन जैसे जानवर किसानों खेत में घुसकर फ़सल का सम्पूर्ण विनाश कर देते हैं। जिसके चलते किसान या तो स्वयं मौक़ा मिलने पर इन जीवों की लाठी-डण्डों से पीट-पीटकर हत्या कर डालते हैं या फिर किसी बन्दूकधारी शिकारी के शिकार यज्ञ में भरपूर सहायता करके इन जानवरों के समूल नाश में अपनी योगदान करते हैं। और दूसरी वजह है.. 

) बन्दूक के रूप में एक ऐसा भयानक आविष्कार जिसने आदमी और शेष प्राणियों के बीच के समीकरण को पूरी तरह से एकतरफ़ा बना दिया है। तीर की मार और गति से जानवर फिर भी मुक़ाबला कर सकता था पर गोली की मार और गति के आगे जंगल का हर पशु निरीह और बेबस है। परिणाम आप देख ही रहे हैं- नंगे व सपाट मैदान जिसमें आदमी के सिवा दूसरा जानवर खोजना मुश्किल।

किताब का एक और दिलचस्प पहलू है: क्योंकि किताब ६४ साल पहले १९५७ में छपी और उसके भी काफ़ी पहले टुकड़ों-टुकड़ों में लिखी हुई है, इसलिए उसकी भाषा थोड़ी अलग है और उसमें कुछ ऐसे शब्द और प्रयोग मिलते हैं जो आजकल पूरी तरह से चलन से बाहर हो गए हैं। मसलन-
कलोल (किलोल)
परहा (पगहा?)
लगान (लगाम?)
टेहुनी (केहुनी)
परमा (प्रथमा तिथि)
ठिया
खीस (दांत)
ढी (ढीह)
/आगोट (आगे की ओट)
भरका (गड्ढा)
डाँग (पहाड़ का किनारा)
झोर( झौंर, झाड़ी)
बगर (पशु समूह)
ढुंकाई / ढूँका (छिपकर घात लगाना)
ठपदार (ठप की आवाज़ करने वाला)
मुरकना (लचक कर मुड़ जाना)
ढबुआ (खेतों के ऊपर मचान का छप्पर)
दह( नदी का सबसे गहरा बिन्दु)
टौरिया (छोटा टीला)
फुरेरू (शरीर को थरथराना, कंपकंपी लेना)

और कई शब्द ऐसे भी मिलते हैं जो शब्दकोषों में भी नहीं मिलते- इनके एक सूची मैं यहाँ दे रहा हूँ-:

तिफंसा/तिफंसी (घड़ा रखने की तिपाई)
झिद्दे (झटके, धक्के)
खुरखुन्द
छरेरी
गायरा (शेर आदि का किसी जानवर को मारकर बाद में खाने के लिए छोड़ कर चले जाना)
टोहटाप
छौंह (खरी छौहों वाला शेर)
रांझ (एक नाले में राँझ के नीचे)
झांस (झांस के नीचे छोटे नाले में)
टकारे (एड़ी से घुटने तक पहनने का जूता)
चुल (वहाँ तेंदुए की चुल थी)
बिरोरी (शिकार का एक प्रकार, जब बेर फलते हों)


***

[किताब में एक और बड़ा दिलचस्प वाक़्या है जब वर्मा जी अपने साथियों के साथ जंगल में दाल-चावल की खिचड़ी बनाते हैं और जला बैठते हैं। जो आदिवासी इन शहरी शिकारियों की सहायता के लिए उनके साथ मौजूद था वो अपनी खिचड़ी अलग बना कर मजे से खाता है क्योंकि वो आदिवासियों में पुरोहित (बेगा कहलाने वाला) का काम करने वाला है और किसी का छुआ नहीं खाता। :) ]


* एक तीसरी किताब 'नेगल' भी पढ़ रहा हूँ। बाबा आम्टे के पुत्र प्रकाश आम्टे द्वारा अनाथ हो गए जंगली जानवरों के पालने के अनुभव पर आधारित ये भी बड़ी प्यारी और न्यारी किताब है। उनके सहयोगी विलास मनोहर ने लिखी है और नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है। 

रविवार, 6 नवंबर 2011

स्वैटर


जब दरवाज़े की घंटी बजी तो शांति दूध लेने के बाद वापस बिस्तर पर लेटकर चादर में गुड़ी-मुड़ी हो रही थी। उस बेवक़्त के मेहमान को लगभग कोसते हुए सी शांति ने दरवाज़ा खोला। सामने बुआ खड़ी थीं। बिन्नी बुआ। पर बुआ इतनी पतली? ये कैसे हो सकता है? शांति ने आँखें मल के देखा.. बुआ ही थीं जो उसकी हैरानी का मज़ा लेते हुए मंद-मंद मुसका रही थीं।
बुआ आप?.. इतनी पतली कैसे.. ?
बस हो गई..
मुझे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि ये आप ही हैं..
कर लो यक़ीन.. और फिर न कहना कि बिन्नी बुआ तो बस खाती हैं और मुटाती हैं..
इतना कहके बुआ ने शांति को बाहों में भर के कस के भींच लिया। उनके प्यार की गर्मी में शांति की सारी कुनमुनाहट जाती रही।

रसोई में खड़ी हो के चाय बनाते हुए शांति बार-बार अपनी प्यारी बुआ के चमकदार नए अवतार को निहारती रही। उस नज़र का पात्र होने में बुआ को भी मज़ा आ रहा था। अपनी विजय गाथा के हर महीन विवरण को वो पूरे हाव-भाव के साथ बयान करती जा रही थीं। बुआ के चेहरे के दिलचस्प उतार-चढ़ाव के बावजूद शांति की नज़रें बार-बार बुआ के चेहरे से उतरकर उनके स्वैटर पर फ़िसलती जा रही थीं। शांति को वो स्वैटर बड़ा जाना-पहचाना लग रहा था..
'बुआ ये स्वैटर..? '
'पहचाना इसे.. ? '
'ऐसा एक स्वैटर अम्मा के पास भी था.. '
'भौजी का ही तो है..!! '
'अम्मा ने दिया था आपको!?!?'
'भौजी अपना स्वैटर मुझे देंगी..?? तुम तो जानती हो भौजी में अपने सामान को लेकर कैसी माया थी.. पहले तो किसी को अपना सामान देती न थीं और जिस किसी को दे दिया इसका मतलब उस पर उनकी मेहर हो गई.. '
'वही तो.. आप जैसी लापरवाह को कुछ देने का तो सवाल ही नहीं उठता..'
'यही भौजी ने भी कहा था जब मैंने माँगा..'
'देखा.. !!'
'काफ़ी पुरानी बात है.. मैं स्कूल में थी.. जब भौजी यही स्वैटर पहने के भैया के साथ ससुराल आई थीं.. मुझे स्वैटर पसन्द आ गया था.. मैंने बिन्दास माँग लिया.. '
'और अम्मा ने मना कर दिया.. आपको तो बहुत बुरा लगा होगा.. '
'इतना कि उनके चलने के पहले मैंने ये स्वैटर छिपा दिया.. भौजी ने घर भर में ढूँढा पर नहीं मिला.. '
'ऐसी किस जगह छिपा दिया था कि अम्मा भी नहीं खोज सकीं.. '
'छत की भंडरिया में.. '
'बाप रे.. बड़ी शातिर थीं आप.. '
'अम्मा को शक नहीं हुआ आप पर? '
'हुआ.. बार-बार कहा कि वापस कर दो.. '
'पर मैंने माना ही नहीं कि मैंने छिपाया है.. '
'अम्मा का तो कलेजा कट गया होगा.. '
'कट ही गया था.. उनका अपनी चीज़ों से कितना प्यार था तुम जानती ही हो.. '
'हम्म.. कभी-कभी तो हमें लगता कि उन्हे हम से ज़्यादा चीज़ों से प्यार है.. '
'ऐसा भी नहीं था.. भौजी प्यार बहुत करती थीं तुम से.. और मुझसे भी.. बस हर चीज़ को सलीके से रखने की आदत थी उनकी.. और मैं ज़रा लापरवाह थी इसलिए.. '
'ज़रा?'
'अच्छा ठीक है..बहुत!'
यह कहकर दोनों हँस पड़ी।
'ये स्वैटर मैंने चिढ़कर दबा तो लिया पर भौजी और बाक़ी सबके डर के मारे कभी पहन नहीं सकी.. अभी दुबले होने के बाद जब मेरे तो सारे स्वैटर झोला हो गए.. एक भी पहनने लायक़ नहीं रहा.. तो एक बक्से की तली से ये निकला.. तब तो पहन नहीं सकी.. अब पहन रही हूँ..'

इतना कहकर बुआ ने अपने स्वैटर को हौले से सहलाया। शांति की अम्मा के प्रति बुआ के मन में जो भी भावना कभी रही हो.. उस स्पर्श में सिर्फ़ प्यार और आभार था जिसे शायद वो अपनी भौजी के रहते नहीं जतला सकीं।

अम्मा का प्यार उनकी लताड़ के नीचे दबा रहता। ख़ुद शांति लम्बे समय तक तो यही मानती रही कि अम्मा के लिए जो है, सब भैया ही है। भैया के लिए तो जैसे उनकी ज़बान में ना नाम का शब्द ही नहीं था। और जब शांति कुछ माँगे तो हज़ार किनिआतें। ये बात शांति को बाद में समझ आई कि भैया अम्मा की ही तरह कृपण वृत्ति का था जबकि शांति बिन्नी बुआ की ही तरह लापरवाह। और शांति को चाहिये होती थीं सब अम्मा की चीज़ें जबकि भैया को उनसे कोई मतलब ही न था।

बिन्नी बुआ जब तक रहीं, लौट-लौट के शांति की अम्मा की बातें होती रहीं। उनके चलते समय शांति के मन में एक बार आया कि अपनी अम्मा का स्वैटर माँग ले। फिर लगा कि ये तो अम्मा जैसी ही बात हो जाएगी- मेरी अम्मा का स्वैटर मुझे दे दो! शांति का बहुत मन था कि अम्मा का स्वैटर वो अपने पास रख ले पर मारे संकोच के शांति की ज़बान ही नहीं खुली। बिन्नी बुआ वही स्वैटर पहने चली गईं। ऐसा नहीं था कि अम्मा ने शांति को कभी कुछ दिया नहीं.. जब शांति पहली बार अम्मा से अलग होके हॉस्टल में रहने गई तो बहुत उम्मीद न होने पर भी शांति ने अम्मा का लाल कार्डिगन उनसे माँग लिया। बेटी से जुदाई के उस क्षण में अम्मा अचानक शांति पर मेहरबान हो गईं और वो कार्डिगन दे डाला। शायद यह सोचकर कि बेटी बड़ी हो गई है और इतनी ज़िम्मेदार भी कि उनके कार्डिगन को सहेज सके। पर वो अम्मा की बदगुमानी थी। शांति ने पहला मौक़ा मिलते ही अम्मा का कार्डिगन अपनी एक नई सहेली को दे डाला जो पहाड़ों पर स्टडी टूर के लिए जा रही थी। और संयोग ऐसा हुआ कि उस सहेली से जब भी मिलना हुआ तो ऐसी परिस्थिति में जब कि वो स्वैटर वापस माँगना बड़ी अभद्रता होता। सहेली गई, स्वैटर गया, और अम्मा भी चली गईं। अम्मा के जाने के बाद जब भैया के घर जाना हुआ तो वो सारा सामान जो अम्मा ने बरसों सहेज कर रखा, उसे कभी घर में न दिखा। बाद में पता चला कि सब शांति की सफ़ाई पसन्द भाभी ने उसे कूड़ा-कबाड़ मानकर बेच डाला। एक स्वैटर भी नहीं मिला उसे।

शांति के पास अम्मा की कोई ठोस स्मृति नहीं.. सिर्फ़ यादें हैं बस। जब बैठे-बैठे अम्मा की बहुत याद सताने लगी तो शांति उठकर सासूमाँ के पास जा कर बैठ गई। सासूमाँ हमेशा की तरह बिस्तर पर लेटे-लेटे टीवी देख रही थीं। अपने अवसाद में शांति ने सासूमाँ के होने को और पास से महसूस करने के लिए उनके पैर का स्पर्श किया। सासूमाँ ने एक बार शांति की ओर मुड़कर देखा। उनकी आँखों में एक लम्बे सफ़र की थकान थी, कोई गहरी उदासी थी और बड़ा बेगाना सा भाव था। शांति को वहाँ कुछ भी उसकी अम्मा जैसा मिलता उसके पहले ही सासूमाँ मुड़कर वापस टीवी देखने लगीं।

***

(छपी दैनिक भास्कर में आज ही)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

नाम


बूढ़ी नहीं हुई थी शांति पर उमर के एक ऐसे मक़ाम पर ज़रूर पहुँच गई थी जहाँ से शरीर के नश्वर होने का आभास मिलने लगता है। एक वक़्त जवानी की लापरवाहियों वाले उन दिनों का भी था जब उसे शरीर की स्वतंत्र उपस्थिति का कोई एहसास तक नहीं होता था। पर वो दिन अब नहीं रहे। अब एक नई चेतना जागी है उसके भीतर कि उससे अलग एक शरीर भी है। जिसके ठीक न रहने से उसके भीतर दर्द और रोग रहने लगता है। और उस रोग का एक इलाज योग है। इसलिए शांति ने तय किया कि वह भी योग सीखेगी। योग की कक्षाएं शांति की एक सहेली मीरा ने अपने घर पर ही आयोजित की थीं।

कुछ बरस पहले शांति मीरा के ही मुहल्ले में रहा करती थी। वहाँ जाते हुए शांति को उम्मीद थी कि दूसरे दोस्तों और पुराने पड़ोसियों से मुलाक़ात होगी। पर सबसे पहले शांति की मुलाक़ात एक बड़ी जानी-पहचानी आवाज़ से हुई। शांति ने जैसे ही स्कूटर खड़ा कर के हैलमेट उतारा, साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट उसके कानों में गूँज गई और उसी के साथ ही ज़ेहन में कुछ पुरानी यादें भी। शांति ने देखा कि एक नौजवान साइकिल पर कुछ बड़े-बड़े झोले लादे हुए उसी की तरफ़ चला आ रहा था। वो शांति को देखकर मुस्कराया और हलके से अभिवादन में सर भी हिलाया। शांति उसे तुरंत पहचान गई। जब वो इस मुहल्ले में रहती थी तो भी वो लड़का इसी तरह घंटी बजाते हुए, ब्रैड, बिस्कुट और अंडे बेचा करता था। बस उस समय इतना छोटा था कि दाढ़ी- मूँछ भी ठीक से नहीं उगी थी।

अरे तुम.. कैसे हो..
अच्छा हूँ जी..
काम कैसा चल रहा है..
अच्छा है..
वो मुस्कराने लगा। शांति ने ग़ौर किया कि वो बड़ा ज़रूर हो गया था पर उसकी मुस्कान में वही किशोरों वाला भोलापन था।
आप इधर नहीं रहते अभी.. कहीं और चले गए?
हाँ..
शांति उसे देख रही थी और उसका जवाब दे रही थी पर उसका मन उसके नाम में अटका हुआ था जिसे वो बहुत सोचने पर भी याद नहीं कर पा रही थी। और इस तरह स्मृति के अटक जाने से उसे बहुत उलझन होने लगी तो उसने पूछ ही लिया..
तुम्हारा नाम...
सोनू..
सोनू! शांति ने भी उसके पीछे उसका नाम बोला। पर स्मृति का जो कांटा कहीं भीतर अटका हुआ था वो इस ध्वनि से आज़ाद नहीं हुआ। शांति को उसका कुछ और ही नाम याद था जो सोनू नहीं था। पर उस भूले हुए नाम भर के लिए वो वहाँ खड़ी नहीं रह सकती थी। सोनू से विदा लेके मीरा के घर के भीतर चली आई।

योग कक्षा में कुछ लोग पहले के पहचाने हुए थे और कुछ नए लोग भी थे, वहीं आस-पड़ोस की इमारतों के। शांति की पुरानी दोस्त जूही भी वहीं मिल गई और उसके दफ़्तर का सहकर्मी विपिन भी। बाक़ी लोग ऐसे थे जिन्हे शांति नहीं जानती थी और जो शायद मीरा के नए पड़ोसी थे। बारह-पन्द्रह लोगों के छोटे से समूह में उसका एक नन्हा समूह बन गया जो एक साथ बैठकर आसन और प्राणायाम की कठिनाईयों पर सलाहों और सुझावों का लेन-देन कर के एक-दूसरे की मदद करता। हालांकि दूर बैठे गुरुजी यही चाहते कि सारी मुश्किलों के हल का रास्ता उन्ही से होकर गुजरे। मगर दोस्त अपनी दोस्ती निभाने से बाज न आते और योगासनों के पहले, बाद में, और कभी-कभी बीच में भी अपनी गुपचुप गपशप भी जारी रखते।

पहले दिन तो शांति समेत सभी लोगों को आसनों के करने में स्वयं उनका शरीर आड़े आता रहा। शांति तो फिर भी ठीक थी। अधिकतर लोगों की संख्या ऐसी थी जो चालीस पार कर गए थे और किसी न किसी बड़ी बीमारी के आरम्भिक अवस्था का सामना कर रहे थे। और उसी बीमारी के भयंकर वाले स्वरूप से बचने के लिए योग की शरण में आए थे। कुछ तो मोटापे और कसरत के अभाव में इस क़दर जंग खाए हुए थे कि हाथ-पैर हिलाने भर में बेदम हुए जा रहे थे। पर दो-तीन बाद थोड़ी-थोड़ी लोच सबके शरीर में पैदा होने लगी, पर समान रूप से नहीं। इंश्योरेंस का काम करने वाले पटेल साहब तीन दिन बाद भी अपने पैर नहीं छू पा रहे थे। बैंक के काउन्टर पर बैठने वाले आकाश वर्मा तो सुखासन में भी नहीं बैठ पा रहे थे। जूही और विपिन को कोई बड़ी दिक़्कत नहीं थी पर मेज़बान मीरा की गरदन अकड़ी पड़ी थी। हाँ एक बस मोईडू जी थे तो हर आसन कमाल के कौशल से कर ले जा रहे थे। पेट ज़रूर उनका थोड़ा निकला हुआ था मगर शरीर एकदम फ़िट था। योग गुरु जी बार-बार सभी से मोईडू जी से प्रेरणा लेने की बात करते। उनके बारे में अगर कोई अजीब बात थी तो वो थी उनका नाम- मोईडू। किसी ने कहा नहीं मगर यह माना जा रहा था कि वे दक्षिण भारतीय हैं, हालांकि उनके बोलने के लहज़े में ऐसा कोई संकेत नहीं था। सब लोग की तरह शांति भी उन्हे दक्षिण भारतीय मूल का ही मानती रहती, पर एक घटना से उसकी मान्यता बदल गई।

चौथे रोज़ शांति को योग कक्षा के लिए थोड़ी देर हो गई। जब वो पहुँची तो कक्षा शुरु हो गई थी। शांति हड़बड़ी में स्कूटर लगाकर अन्दर जाने के लिए लपक ही रही थी कि एक महिला ने उसे रोक लिया।
मीरा माथुर का घर यही है..?
हाँ यही है..
अन्दर से आप ज़रा मोहिउद्दीन साहब को बुला देंगी..
किसको?
मोहिउद्दीन! उनके बेटे के सर में चोट लग गई है.. और उसकी माँ उसे लेके अस्पताल गई हैं..
अरे.. पर मोहिउद्दीन तो यहाँ कोई नहीं है..!?
ऐसा कैसे हो सकता है..? नुसरत न तो मुझे..!!? ये मीरा माथुर का ही घर है ना..? योग क्लासेज़ होती हैं यहाँ पर.. ?
हाँ.. होती तो हैं.. आप ऐसा कीजिये, अन्दर आ के देख लीजिये.. !

और अन्दर आकर उस महिला ने जिस व्यक्ति को मोहिउद्दीन के रूप में पहचाना उसे चार दिन से सभी लोग मोईडू के नाम से पुकार रहे थे। मोहिउद्दीन उर्फ़ मोईडू अपने बच्चे की चोट की ख़बर सुनकर सरपट वहाँ से भागे। पर शांति बहुत उलझन में पड़ गई। मोहिउद्दीन ने लोगों से ये क्यों कहा कि उसका नाम मोईडू है? क्या उसने ख़ुद अपना नाम मोईडू बताया या फिर किसी ग़लतफ़हमी में ऐसा हो गया? और अगर भूलवश ऐसा हो भी गया तो वो क्या मजबूरी थी कि चार दिन तक उसने किसी को सुधारने की कोशिश नहीं की?

यही सब सोच रही थी शांति जब उसके कानों में साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट गूँजने लगी। उसकी गूँज से स्मृति का एक ढकना खुला और एक नाम बाहर आ गया- मुख़्तार। ये बिस्कुट बेचने वाले उस लड़के का नाम था जिस नाम से वो उसे पहले जानती रही थी। 

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

गेम




देखो तो ये क्या हुआ है.. !
क्या.. ?
देखो तो..!
..एक मिनट..
इतना कहकर भी अजय अपने लैपटॉप में नज़रें गड़ाकर कुछ टाइप करता रहा। शांति ने उसकी नज़रें अपनी तरफ़ उठने का कुछ पल इन्तज़ार किया। पर अजय का एक मिनट शांति के एक मिनट से कहीं ज़्यादा लम्बा होता गया...
क्या कर रहे हो.. ?
शांति के सवाल के बदले अजय की तरफ़ से उसके गले से एक ऐसी आवाज़ निकली जिसका शांति के सवाल, उसकी उपस्थिति, समय, माहौल, मौसम, साल- किसी भी चीज़ से कोई सम्बंध नहीं था-
.. ह्म्म.. ?
हम्म की वह ध्वनि पूरी तरह स्वतंत्र थी। उसका कुछ भी अर्थ किया जा सकता था जबकि उसका कुछ भी अर्थ नहीं था। कई बार हम्म की यह ध्वनि रेलगाड़ी के इंजन की तरह होती है, इंजन निकल जाने के थोड़ी देर बाद पीछे के किसी डब्बे से एक जवाब उतरता है। शांति ने फिर से उस सम्भावी पुछल्ले जवाब के उतरने का इंतज़ार किया पर व्यर्थ.. उसे नहीं आना था.. नहीं आया। काम करते हुए अजय का ऐसा ही हाल रहता है।

दोपहर से शांति की गरदन में एक अजीब सी जलन सी हो रही थी। घर लौटने के बाद उसने आईने में देखने की कोशिश की, पर जलन की जगह गरदन में थोड़ी पीछे की तरफ़ थी, जिसे बहुत गरदन घुमाने पर भी शांति देख नहीं सकी। गरदन की वो ही जगह अजय को दिखाने के लिये उसकी तवज्जो चाह रही थी, जो मिली नहीं। एक बार फिर से आईने के आगे खड़े होकर एक कोशिश की। फिर नाकामी के बाद दराज़ में से एक छोटा हाथ का आरसी निकाल कर उसे गरदन के पीछे रख कर और अपने आप को दो आईनों के बीच में रखकर, एक मुश्किल कसरत के बाद उसे नज़र आया कि छोटे हलके लाल दानों का एक चकत्ता सा है जहाँ से बार-बार जलन और खुजलाने की अकुलाहट उठ रही है। शांति ने अकुलाहट को ज़ब्त किया और रात के खाने का इंतज़ाम करने रसोई में चली गई।

कुछ देर बाद जब शांति कमरे में लौटी तो अजय वहाँ नहीं था। लैपटॉप के मुखड़े पर स्क्रीनसेवर झलक रहा था। और बाहर के कमरे से टीवी की आवाज़ आ रही थी। अचरज, पाखी और अजय तीनों मैच देख रहे थे। अजय के सामने जाकर शांति ने अपने बालों को एक हाथ से गरदन से हटाकर गरदन दूसरी तरफ़ घुमा का अपना प्रस्ताव रखना ही चाहती थी कि उसके कुछ बोलने के पहले ही अजय और बच्चे चिल्लाने लगे- आउट- आउट!! पीटरसन आउट हो गया था। शांति भी एक पल के लिये अपनी उलझन भूलकर, भारत की सम्भावित विजय की कल्पना में सुख पाने लगी। मायूस पीटरसन ने पैविलयन की तरफ़ चलना शुरु किया और ब्रेक हो गया। साथ ही अचरज को मम्मी को देखकर अपनी भूख की याद आ गई। किसी भी माँ की तरह शांति के लिए भी बच्चे की भूख के आगे अपनी तकलीफ़ कोई मायने नहीं रखती थी। माता जी फ़ौरन रसोई में लौटकर अपने लाल के लिए पौष्टिक भोजन का इन्तज़ाम करने लगीं। गरदन की जलन का मसला एक बार फिर से टल गया।

देर रात खाने का सारा पसारा समेटने के बाद शांति जब कमरे में लौटी तो इण्डिया मैच जीत चुका था। बच्चे अपने कमरे में बचे हुए होमवर्क को निबटा रहे थे और अजय बिस्तर पर बैठकर अपने फोन के साथ मसरूफ़ था। अजय को अकेला पाकर शांति को फिर से अपनी गरदन की जलन की याद हो आई। उस का ध्यान बँटाने से पहले शांति ने एक बार पूछ ही लिया..
क्या कर रहे हो..?
अजय की तरफ़ से फिर वही अव्यक्त की अभिव्यक्ति हुई - हम्म..
बिज़ी हो.. ?
इसका जवाब फिर एक दूसरे ऐसे शब्द से हुआ जो देश-काल की परिधियों से पार अव्यक्त के संसार का वासी है - एक मिनट।
शांति को लगा कि अजय फिर से किसी दफ़्तरी मुश्किल में उलझा हुआ है और किसी मेसेज का जवाब देने में मसरूफ़ है। शांति ने झांक कर देखा- अजय अपने फ़ोन पर एक मोबाईल गेम खेल रहा था।
तुम गेम खेल रहे हो..? शांति के बदन का सारा ख़ून उसकी सर की तरफ़ दौड़ने लगा।
हाँ..
और इसीलिये तुम्हें मेरी तरफ़ देखने की फ़ुरसत नहीं है..?
शांति के गरम सुर ने अजय को अचानक सावधान कर दिया। वो अधलेटा से सीधा हो गया।
नहीं.. गेम तो मैं अभी..
कभी काम कर रहे हो.. कभी मैच देख रहे हो.. कभी गेम खेल रहे हो.. सब कर रहे हो .. बस एक मेरी तरफ़ ही नहीं देख रहे हो..?
देख तो रहा हूँ.. तुम्हारी तरफ़.. क्या बात है.. ?
नहीं! तुम नहीं देख रहे हो मेरी तरफ़.. !!
शांति.. बताओ तो बात क्या है..
कुछ बात नहीं है..!
जिस से सबसे अधिक अपेक्षा रहती है उसी से उपेक्षा मिलने से उसका जी एकदम खिन्न हो गया। एकाएक उसे अपना पति जिसे वो अपनी सबसे क़रीबी और प्रियतम दोस्त मानती रही है, किसी अजनबी सा लगने लगा। अजय ने मौक़े की नज़ाकत को भाँपते हुए फिर से पूछा- क्या हुआ बताओ न.. !?
शांति ने कोई जवाब नहीं दिया। बाथरूम में गई और भाड़ से दरवाज़ा बंद कर लिया। आईने में अपनी शकल देखी और न चाहते हुए और बहुत रोकते-रोकते भी गला रुंध गया और आँसू बह निकले।

अजय कुछ देर तक शांति का इंतज़ार करता रहा। जब बहुत देर के बाद भी शांति बाहर नहीं आई तो अजय का हाथ वापस अपने मोबाईल पर चला गया। शांति जब बाथरूम से बाहर निकली तो अजय सर झुकाए कीपैड पर उंगलियों की कसरत कर रहा था। आँसुओं के साथ जितना कोप बाहर निकला था, कुछ उतना ही सा कोप वापस उस के मन में जा बसा। उसे देखते ही अजय का चेहरा उस चोर जैसा हो गया जो चोरी करते पकड़ा गया हो।

तमककर शांति ने लैम्प बुझा दिया और दूसरी ओर मुँहकर के लेट गई। कुछ देर की चुप्पी के बाद अजय की आवाज़ आई- आई एम सॉरी शांति। पर इतना काफ़ी नहीं था। शांति के बदन में कोई हरकत नहीं हुई। बहुत देर तक शांति न जाने क्या-क्या सोचती रही और दूसरी ओर मुँह फेरकर बहुत देर तक अपनी उदासी में उतराती रही। फिर किसी एक पल में अजय का बायां हाथ शांति के बायें हाथ के ऊपर आ कर रख गया। शांति ने हाथ को झटक दिया। कुछ देर बाद बहुत हौले से उसकी आवाज़ आई- सॉरी। और कुछ क्षण बाद एक बार फिर आया उसका हाथ। इस बार शांति ने झटका नहीं। अजय का हाथ धीरे-धीरे अनायास ही उसकी गरदन तक पहुँचा। और फिर अजय ने पूछा.. ये तुम्हारी गरदन पर क्या हुआ है?


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 
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