मैं लगातार अपने आप से यही सवाल करता रहता था कि मैं इतना बड़ा बेवकूफ़ क्यों हूँ और अगर दूसरे लोग भी बेवकूफ़ हैं, और मैं पक्की तौर पर जानता हूँ कि वे बेवकूफ़ हैं तो मैं ज़्यादा समझदार बनने की कोशिश क्यों नहीं करता? और तब मेरी समझ में आया कि अगर मैंने सब लोगों के समझदार बन जाने का इंतज़ार किया तो मुझे बहुत समय तक इंतज़ार करना पड़ेगा.. और उसके भी बाद मेरी समझ में यह आया कि ऐसा कभी नहीं हो सकेगा, कि लोग कभी नहीं बदलेंगे, कि कोई भी उन्हे कभी नहीं बदल पाएगा, और यह कि उसकी कोशिश करना भी बेकार है। हाँ ऐसी ही बात है! यह उनके अस्तित्व का नियम है.. यह एक नियम है! यही बात है!
..और अब मैं जानता हूँ कि जिसका मन और मस्तिष्क दृढ़ और मजबूत होगा वही उन पर राज करेगा। जो बहुत हिम्मत करता है वही सही होता है। जिस चीज़ को लोग पवित्र मानते हैं, उसे जो तिरस्कार से ठुकरा देता है उसी को वे विधाता मानते हैं, और जो सबसे बढ़कर साहस करता है उसे वे सबसे बढ़कर सही मानते हैं । अब तक ऐसा ही होता आया है और हमेशा ऐसा ही होता रहेगा! सिर्फ़ जो अंधे हैं वे ही इस बात को नहीं देख पाते!
ये निराशापूर्ण विचार मेरे नहीं अपराध और दण्ड के नायक रस्कोलनिकोव के हैं.. मैं तो मानता हूँ कि मनुष्य हर पल बदल रहा है.. यदि आप के प्रति उसने अपने आपको बंद नहीं कर लिया है तो आप भी उसके भीतर होने वाले बदलाव के उत्प्रेरक बन सकते हैं।
सामाजिक व्यवहार के बारे में अभी पिछले दिनों किसी ने अपने चिट्ठे पर ही एक शानदार बात लिखी थी .. विचार के प्रति निर्मम रहें और व्यक्ति के प्रति सजल! मुश्किल यह है कि लोग विचार के प्रति निर्मम होते-होते व्यक्ति के प्रति भी निर्मम हो जाते हैं। इसी बीमारी के चलते नक्सल आंदोलन के अठहत्तर फाँके हो गईं। किसी ने ज़रा असहमति की बात की नहीं कि तत्काल उसे मनचाये बिल्लों से दाग कर अपने से विलगति कर दिया। उसे नीच-पतित कह कर स्वयं को महिमामण्डित कर डाला। आज भी यह रोग बदस्तूर जारी है और ये सिर्फ़ हास्यास्पद है।
15 टिप्पणियां:
बेहतर होता कि अविनाश के पोस्ट पर की गयी आपकी टिप्पणी से पहले आपने अपना लिखा ये पढ़ लिया होता - उस पर वार करने के बहाने का इस्तेमाल करने से आप बच जाते।
बेनाम भाई आप की टिप्पणी भी उसी हास्यास्पद परम्परा का हिस्सा है.. अविनाश पर मैंने वार किया है?!! चलिये मान भी लिया.. पर आप क्यों मुँह छिपा रहे हैं?
मेरे ख़्याल से तो विचार के प्रति निर्ममता ही व्यक्ति के प्रति निर्ममता का मूल है।
मनुष्य हर पल बदल रहा है -बड़ा तेज चैनेल है ये आदमी भी। :) विचार के प्रति निर्मम रहें और व्यक्ति के प्रति सजल! बड़ी धांसू बात दुबारा पढ़ा दी जी। हम सजल हुये जा रहे हैं। जलप्रलय का खतरा है।अपराध और दंड के उद्दरण दिये अच्छा लगा। कैसे ये सब याद रख पाते हैं भाई आप भी। बहु-अस्तरीय हैं आप भी। :)
आपसे सहमत हूँ.
माननीय अभय तिवारी जी,
नक्सल पर आपके विचार पढ़ा । उम्मीद के मुताबिक रहा। लेकिन ये आपकी यादास्त को क्या हो गया । कुछ कमजोर-कमजोर सी लग रही है। बहरहाल मैं आपको बताता हुं सजल और निर्मल की ये बात आपको जनमत की ओर से भेजी गई थी जिसमें आपने कहा था कि अपने लोगों का मुहतोड़ जवाब क्यों दिया जा रहा है? आपने तो बात ही पलट दी है..
उसमें कहा गया था कि
जो लोग अपने प्रति निर्मम होते हैं वही दुनिया के प्रति सजल होते हैं। और जो लोग केवल अपने ही प्रति केवल सजल होते हैं वो दुनिया के प्रति बड़े निर्मम होते हैं।
अब अपना लिखा पढ़िए...और अपने बिल्लों से कहिए कि यादास्ता ताजा रखें क्योंकि ये आपकी राजनितिक बयानबाजी है यूंही कोई नही जाने देगा...धन्यवाद
प्रिय प्रसून, मेरी स्मृति को कुछ नहीं हुआ वह हमेशा से कमज़ोर ही रही है..और आप समकालीन जनमत की जिस बात का हवाला दे रहे हैं वह मैंने पढ़ी थी। पर ये वो बात नहीं है जिसका मैंने ज़िक्र किया है.. आप को सजल और निर्मम शब्दों के इस्तेमाल के कारण धोखा हो रहा है। दोनों एकदम अलग बाते हैं विरोधी भी नहीं..
और जहाँ तक मुझे याद है जनमत में इस बात में 'अपने' प्रति निर्मम होना नहीं.. 'अपनों' के प्रति निर्मम होना था!
आप मेरे राजनीतिक विचारों को पढ़ते हैं.. मेहरबानी!
माननीय अभय जी,
चलिए माना कि आपकी मौलिक खोज है यह लेकिन अगर बताते कि किसने लिखा है तो अच्छा रहता...लेकिन क्या आपको पता होता है कि जो चीज आप लिख रहे हैं उसे लोगों को सही विश्लेषण का पता चले जैसे नक्सलवाद के 78 फांक की वजह। आप लिख रहे हैं कि
"मुश्किल यह है कि लोग विचार के प्रति निर्मम होते-होते व्यक्ति के प्रति भी निर्मम हो जाते हैं। इसी बीमारी के चलते नक्सल आंदोलन के अठहत्तर फाँके हो गईं।"
ये कुछ लिखना है इसलिए लिखा गया है जैला लगता है क्या इससे नक्सल आंदोलन को समझने में किसी भी सिरे से कोई सहायता मिलेगी ?
ऐसा नहीं लगता कि आप जल्दी-जल्दी बेमतलब में कोई इतिहास जाने यू ही लिख देते हैं। कोई स्वस्थ बहस को जन्म दीजिए। तो बेहतर है। अब बिल्ला फिर जवाब में पिल्ला । इन सबसे बेहतर है कि क्या कह रहा है इस पर बात हो, धन्यवाद
प्रिय प्रसून शुक्रिया। अगर याद आया तो ज़रूर बताऊँगा। या तो आप अपना मेल छोड़ दीजिये.. या फिर मैं यहीं पर नीचे जोड़ दूँगा।
आप की बात सही है.. टिप्पणी नक्सलवाद पर कोई समझ नहीं प्रदान करती, महज़ नक्सल आंदोलन का एक मिसाल के बतौर इस्तेमाल करती है। वैसे नक्सल आंदोलन पर मेरी कोई गहरी समझ नहीं है। पहलू वाले चन्दू भाई और एक हिन्दुस्तानी वाले अनिल भाई को इस आंदोलन का जीवंत अनुभव है। अनिल भाई तो लिख ही रहे थे पिछले दिनों और चन्दू भाई से भी मैं लिखने के लिए निवेदन कर चुका हूँ।
मैं अपनी सीमाओं में लिखता रहता हूँ.. जो समझ आए। अगर कभी कुछ गलत लिखूँ तो आप प्रतिवाद करें। गलती समझ आएगी तो मान लूँगा। वैसे आप मेरी पिछली पोस्टें पढ़ें.. मैं तमाम मुद्दों पर लिखता हूँ। अब किस पर बहस जन्म लेती है, किस पर नहीं- ये मेरे बस में नहीं।
वैसे नक्सल आंदोलन पर मेरी कोई गहरी समझ नहीं है। पहलू वाले चन्दू भाई और एक हिन्दुस्तानी वाले अनिल भाई को इस आंदोलन का जीवंत अनुभव है।
नक्सलवाद को समझने के क्या स्रोत हैं आपके जनाब, मान गये! आप जैसे लोग दरअसल बेईमान होते हैं - अपने पक्ष में अगर कूड़ा स्रोतों से भी कोई दलील मिलती है, तो लपक लेते हैं। कोई भी लड़ाई अंतत: जनमुक्ति के स्वप्न के साथ शुरू होती है। अगर किसी संगठन में विसंगति आती है और लोग अलग होते हैं तो इसी स्वप्न की पगडंडी पकड़ कर कोई दूसरा मोर्चा खोलें न! ये होगा नहीं, सब अपना अपना मकान बनाएंगे और अतीत के आंदोलनकारी संदर्भों को गाली देंगे! थोड़ी शर्म कीजिए आपलोग। नंदीग्राम पर मोहल्ले में बहस चल रही थी, तो चद्दर में मुंह गोड़े हुए थे और जैसे ही एक आपत्तिजनक हमले में मोहल्लाधीश ने कुछ तथ्य रख दिये - आप टूट पड़े। आप सब कॉकस बना रहे हैं, जिसके संरक्षक अनूप शुक्ला होंगे, अध्यक्ष ज्ञानदत्त पांडे होंगे और आप संपादक और अज़दक सलाहकार। और आप सबका टार्गेट मोहल्ला है - जो बीच-बीच में कुछ काम की बहस छेड़ने की कोशिश करता है। आप लोगों की तरह प्रवचन शैली की राह नहीं पकड़ता। कुछ शर्म कीजिए अभय तिवारी।
राघव आलोक, कानपुर
राघव कौन हैं आप.. जीमेल आपका वेबसाइट है? क्या खेल खेल रहे हैं? जो हैं..साहस कर के सामने आइये! डरते किस बात से हैं? या सिर्फ़ गाली देने के लिए छद्म नाम है?
मोहल्ले पर नन्दिग्राम पर बहस हो रही थी.. अच्छी बात है..मगर मेरा वहाँ होना ज़रूरी था, ऐसा क्यों सोचते हैं आप? किसी भी विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए मेरे पास निर्मल-आनन्द है। आप आर्काइव देखें इस पर आप को नन्दिग्राम पर मेरे विचार पढ़ने को मिल जायेंगे। या फिर आप का मानना है कि मेरा कुछ भी सोचना तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक कि मैं मोहल्ले की सदस्यता न ले लूँ?मोहल्ले के प्रति आप की चिंता चिंताजनक है.. अविनाश स्वयं भी मोहल्ले को लेकर इतना पैरानॉयड होगा, मुझे शक़ है.. और अगर है तो उसे सच में इलाज की आवश्यकता है। सच में!
और हां, मुझे भी कई बार लगता है कि अविनाश जी अतिरंजना के शिकार हो जाते हैं - लेकिन उनकी अतिरंजना आपकी भड़ास से अधिक सृजनात्मक मुझे लगती है।
राघवजी, आगे टिप्पणी मत भेजियेगा क्योंकि आप झूठ बोल रहे हैं..और इसलिए मैं आप की टिप्पणी नहीं छापूँगा। न तो मेरे स्टैटकाउंटर में कानपुर से कोई विज़िटर है और न आप की इस दलील में कोई दम है कि आप के पास जीमेल एकाउंट नहीं है। आप के पास मेरे साथ टिप्पणी कीर्तन करने का भरपूर समय, कम्प्यूटर की सुविधा और हिन्दी लिखने के औजार भी हैं। मगर अपनी एक पहचान नहीं है.. बकवास..!! साफ़ है आप अपने असली नाम से टिप्पणी नहीं करना चाहते इसलिए राघव और कानपुर का नाम लेकर ये नाटक खेल रहे हैं।
भाई अभय आपने राघव आलोक को इस तरह झिडक क्यों दिया. अब टिप्पणीकार भी हैं कितने से? उसमें से जो अहा..अहा..न कह कर कुछ कहने का समय और धैर्य निकालते हैं उन्हें चुप करवाकर हम सहमतियों का कोरस ही तो बढाएंगे...नहीं?
उनकी असहमति यहाँ दर्ज है इरफ़ान.. आप देख रहे हैं..
और उन्हे 'झिड़क' दिया गया क्योंकि जब आप को पता चल जाये कि सामने वाला सिर्फ़ अपनी कुंठाओं में आप को खींच कर आप का वक्त और ऊर्जा बरबाद कर रहा है तो फिर भी उस से संवाद जारी रखना मूर्खता है.. मैं भोला हो सकता हूँ.. पर मूर्ख नहीं होना चाहता।
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