शनिवार, 17 नवंबर 2007

क्या जवाब दूँगा शाहरुख को?

कल सबेरे उठा तो कुछ रंग-बिरंगी प्रतिक्रियाएं इनबॉक्स में मेरा इंतज़ार कर रही थीं। तरुण ने मुझे भी अपनी तरह निठल्ला मानते हुए चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी नारियों के चित्र पेश किये जाने की माँग रख दी और साथ ही उनकी व्याख्या पूछने की भी धमकी दे दी। सच बात तो यह कि मैं इस धमकी से वाक़ई में डर गया। भाई पद्मिनी नारी के विचार की ऐतिहासिकता तलाशना एक मामला है और उस पूरे नारी वर्गीकरण की सचित्र चर्चा करना नितान्त दूसरा। पहले में तो सिर्फ़ प्रतिगामी होने के खतरे थे.. यह तो बेशक़ प्रतिगामी है। कल कोई पोस्ट न चढ़ा पाने के पीछे यह ऊहापोह सिर्फ़ एक कारण रहा। (यह पोस्ट लिखने के बाद देखा कि वरिष्ठ और सम्मानित साथी, जो टिप्पणीकार नाम का ब्लॉग चलाते हैं, ने मुझे पुराना मर्दवादी घोषित कर ही डाला। देखिये.. लागा चुनरी में दाग़..)

दूसरा कारण भी दो प्रतिक्रियाएं ही रहीं भाई संजीत ने कहा कि आपका शिष्यत्व ग्रहण करना है, निर्धारित योग्यताएं बतलाएं मान्यवर!! .. और प्रियंकर भाई पहले ही कह चुके थे कि यार अभय! गज़ब का शोध और संयोजन है . जगह हो और भर्ती चालू हो तो मुझे चेला मूंड़ लो .

किसी भी नश्वर से ऐसी बाते कहीं जाएंगी तो गर्व से माथा बिगड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में तत्काल झुक कर सामने वाले की वन्दना कर लेने से बीमारी से बचाव हो जाता है पर मैं वो करने से चूक गया। उलटा पता नहीं किस तरंग में घर पर पड़ी हुई जलेबियों पर दिल ललचा गया। जबकि पिछले एक साल से मैदे और दही की बनी चीज़ों से परहेज़ कर रहा हूँ। जलेबी में मैदा भी है और खट्टा दही भी और सल्फ़रयुक्त शक्कर का शीरा भी। परिणामतः ऐसी भयंकर नींद आई कि सोच रहा था कि क्लब जाकर बैडमिन्टन खेल आऊँ.. उस लायक तो क्या घर पर बैठ कर एक ब्लॉग पोस्ट लिखने लायक भी नहीं रहा। और यह पोस्ट न लिख पाने का तीसरा कारण बन गया। एक अजब सी तन्द्रा से आक्रान्त रहा। जाने यह तन्द्रा जलेबी जनित थी यह दो महानुभावों के शिष्यत्व स्वीकरण प्रस्ताव जनित?

मेरा पूरा दिन इसी में चला गया और दोपहर होते-होते गर्व की रेसिपी में एक पाव और आ मिला जब मनोज कुमार ने शाहरुख से अपना अपमान करने की शिकायत की। मन में लोगों को यह कहने के लिए भाव पेंगें मारने लगा कि लो मैंने तो कल ही लिखा है कि यह दोनों खान मिलकर पूरी इंडस्ट्री को नीचा दिखाकर अपने को श्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए हैं। देखो.. कह दिया मनोज कुमार ने.. सही न कहता था मैं!.. और बाकी लोग जो चुप हैं वो इसलिए क्योंकि वे किंग खान से पंगा नहीं लेना चाहते। ये धंदा है भाई सब से बना कर रहना पड़ता है।

शाम होते-होते ही शाहरुख और फ़रहा ने प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके अपनी माफ़ी पेश कर दी। पूरे देश के आगे मनोज कुमार एक गुड-ह्यूमर्ड मासूम मज़ाक को न समझने वाले 'रोअंटे' और शाहरुख एक 'विशाल हृदय लीजेंड' साबित हो गए जो अपने पूर्वगामी से चांटा भी खाने को तैयार थे। उनकी यह सदाशयता देख कर मुझे भी ग्लानि होने लगी कि हाय-हाय यह क्या लिख डाला मैने एक सुपरस्टार के खिलाफ़। कल को अगर उसके साथ काम करना पड़ गया तो क्या मुँह दिखाऊँगा उसे.. यह सोचता हूँ मैं आप के बारे में-आने वाली पीढ़ियाँ पूछने वाली हैं कि देखते क्या थे आप लोग उस आदमी में?

मेरे पास कोई जवाब नहीं है कि मैं क्या जवाब दूँगा शाहरुख को जो एम सी आर सी में मेरा दो साल का सीनियर भी रह चुका है और मेरा गुरु भाई भी है.. लेख टण्डन को वो भी एक वक़्त गुरु मानकर पैर छूता रहा है और मैं भी। मगर मेरे और उसके बीच अरबों रुपये का फ़ासला है। और सिर्फ़ यह फ़ासला ही वो अकेली वज़ह नहीं है कि मैं शाहरुख के बारे में जो सच में महसूस करता हूँ लिखना चाहता हूँ।

शाहरुख खान के नेतृत्व में इस पूरे मीडिया तंत्र को मेरे घर के टीवी में से चीख-चीख अपने माल और अपने मूल्यों का प्रचार करने का पूरा हक़ है.. खुद शाहरुख को तमाम चीज़ों के बारे में एक झूठ बोलकर मेरे समय, मेरे मानस पर कब्ज़ा कर मुझे अपने हाथों की कठपुतली बनाने का पूरा हक़ है.. तो मानवता की प्रगतिशील कदमों ने इन्टरनेट और ब्लॉग के ज़रिये मेरे हाथों में जो अभिव्यक्ति के मार्फ़त मुक्ति का जो रास्ता बख्शा है उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार होने का मुझे हक़ क्यों नहीं है? मुझे वह कहने का हक़ क्यों नहीं है जो मैं सच में सोच रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ? मुझे हक़ है.. और अगर मैं अपने जीवन के दबावों और आशंकाओं के चलते उस के प्रति बेईमानी करता हूँ तो यह बेईमानी मैं उसके साथ नहीं अपनी ही मुक्ति के साथ कर रहा हूँ।

पुनश्च: तन्द्रा और गर्व को सर से उतार कर धरती पर आ गया हूँ.. भाई प्रियंकर, भाई संजीत आगे आप लोग मुझे ऐसी मुश्किल से बचाए रखेंगे इस उम्मीद के साथ!

इतना सब कहने के बाद भी सवाल रह ही जाता है कभी शाहरुख मिल गया तो क्या बोलूँगा उस से? उस के मुँह पर उसकी तारीफ़ कर दूँगा और यह मान कर चलूँगा कि उसे मेरे ब्लॉग के बारे में पता चलने की कोई महीन सम्भावना भी नहीं है..
या उसे पता चल भी गया तो उसे उसके ही अंदाज़ में सॉरी बोलकर कह दूँगा ब्रदर इट वाज़ ऑल इन गुड ह्यूमर! चाहो तो चाँटा मार लो! वैसे भी उमर में भी बड़ा है मुझसे!
या फिर उस से मिलने की सम्भावना के उपस्थित होते ही अपनी आपत्तिजनक पोस्ट को डिलीट कर दूँगा..
या फिर.. उस से मिलने को ही लात मार दूँगा.. उसे लात मार कर भी दाल रोटी मिल ही जाएगी..

8 टिप्‍पणियां:

काकेश ने कहा…

आपकी उहापोह मनभावन है.

सुजाता ने कहा…

उसे लात मार कर भी दाल रोटी मिल ही जाएगी..
***
bahut sahee kahaa ! apane naam ke anuroop !

Batangad ने कहा…

अभय जी
हमारे इलाहाबाद में कोई आदमी जब शाहरुख की तरह हरकतें करने लगे तो, उसे हम कहते हैं कि ये महीन का बाप रेशम हो गया है। यानी कहीं से भी सरक जाता है। कोई ईमान-धर्म नहीं है। कमीना है लेकिन, डायबिटीज देने वाली मिठाई जैसा है। जो, किसी को बुरी नहीं लगती सिवाय उसके जो ताजा-ताजा डायबिटीज का डायग्नोसिस कराकर लौटा हो।

आपके विकल्प के बारे में इतना ही कि उसे लात मारकर भी रोजी-रोटी तो चल ही जाएगी।

संजय बेंगाणी ने कहा…

हम भी आपके अन्दाज में पी एम की कूर्सी को लात मारते है. :)


शाहरूख "सेंस ऑफ युमर" कमाल का है. एक्टिंग जैसी भी हो.

मनीषा पांडे ने कहा…

अभय, एक राज की बात। राज की भी और ईमानदारी की भी। शाहरुख खान मुझे अच्‍छा लगता है। उसकी एक्टिंग में दम नहीं, मैं सहमत हूं इस बात से, फिर भी जाने क्‍यूं अच्‍छा लगता है। ये हिंदी प्रदेश की भईया छाप साइकोलॉजी भी हो सकती है, लेकिन है तो। बाकी आपकी बातों से सहमति है।
दूसरा ये कि इस खाने-पीने के मामले में इस कदर नियम-अनुशासन कैसे संभव हो सकता है। मैं तो चाहकर भी नहीं कर पाती। इस विषय पर मार्गदर्शन करेंगे तो आभारी होऊंगी।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

भैया ऐसे सफ़ाई देने वाले आदमी तो आप हो नही कि क्या सफ़ाई दूंगा सोचना पड़े!

Tarun ने कहा…

वाह अभयजी, हस्तिनी की जगह हाथ से बनी जलेबी दिखा दी कोई बात नही चलो इसी को देखकर चटखारे ले लेते हैं, जलेबी का रस तो रह रहकर टपक रहा है। रहा सवाल शाहरूख का तो उसे एक्टिंग भले ही ठीक से ना आती हो लेकिन मार्क-एक्टिंग (मार्केटिंग) में शाहरूख का कोई सानी नही है।

Madhukar Panday ने कहा…

अभय जी आपकी बात स्रे पूरी तरह से सहमत भी हूं. वॆसे मॆं इस फ़िल्म को देखने का जघन्य अपराध भी कर चुका हूं किसी दबाव में. इन्होने लगभग सभी पुराने अभिनेताऒं का मजाक बनाया हॆ यहां तक कि देव आनन्द जी का भी पर मन सह्सा यह पूछ्ने का ज़रूर करता हॆ कि अभिनय सम्राट दिलीप कुमार साहेब को क्यों बख्श दिया? यह निहायत ही घटिया फ़िल्म का निहायत ही बेहतरीन प्रचार हॆ जिसे निहायत ही बेशर्मी से बेस्ट फ़िल्म होने का दावा भी किया जा रहा हॆ ऒर इसकी पराकाष्टा त्तो तब देखियेगा जब सारे फ़िल्म फ़ेयर एवार्ड भी उतनी ही बेशर्मी से इसी को नवाजे जायेंगे. फ़िल्म ही देखनी हॆ तॊ जब वी मेट देख लो भाई.........

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