हमारी हिन्दी भाषा में प्यार करने वालों के लिए अच्छा शब्द नहीं है। सम्बन्ध से स्वतंत्र, प्रेम करने वालों को हिन्दी में प्रेमी और प्रेमिका कहते हैं। इन दोनों शब्दों में लिंग भेद स्पष्ट है। पुरुष कभी भी प्रेमिका नहीं हो सकता। फ़ारसी-उर्दू में प्रेमी-प्रेमिका का समानंतर शब्द आशिक़-माशूक़ है। परिपाटी है कि स्त्री जाति हुस्न का स्वरूप हैं और पुरुष जीता-जागता इश्क़ है। लिहाज़ा, परम्परा से, आशिक़ कहने से मर्द का ही बोध होगा फिर भी आप इस सीमा को तोड़ने की मिसालें पा सकते हैं। अंग्रेज़ी में ये शब्द किसी भी प्रकार के लिंग-बोध से मुक्त हैं- लवर और बिलवेड। प्यार करने वाला लवर है और जिसे प्यार किया जाय वो बिलवेड है।
मुश्किल यह है कि यह समस्या का अंत नहीं बल्कि उस की शुरुआत है। हम जिसे प्यार करते हैं अकसर वह हमें प्यार नहीं करता.. यह शिकायत आम है! जिन्हे यह शिकायत नहीं है उनमें भी दो तरह के लोग हैं एक वो जो सिर्फ़ इसी में संतुष्ट रहते हैं कि उनका प्रेम स्वीकार कर लिया गया- इसे लोकाचार में सम्बन्ध स्थापित हो जाना कहते हैं। और दूसरी तरह के लोग वो जिन्हे अपने प्यार करने वालों से वापस प्यार मिलता तो है मगर उसी मात्रा में नहीं। या तो ज़्यादा देते हैं और कम पाते हैं और या वे कम देते हैं और बहुत ज़्यादा मिलता है।
जीवन के और किसी क्षेत्र में इंसान संतुलन को लेकर इतना व्यथित नहीं होता जितना स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में। कभी किसी बाप ने शिकायत नहीं की कि मेरी बेटी मुझ से उतना प्यार नहीं करती जितना मैं उसे चाहता हूँ। ज्योतिष में स्त्री-पुरुष का यह विभाग तुला राशि के पास है- समझ रहे हैं तुला.. तराज़ू! आदिकाल से प्यार में इस कमीबेशी को लेकर लोग व्यथित रहे हैं। लोग अपनी तरफ़ से जितना दें उतना अलग-अलग स्रोतों से मिलने से भी संतुष्ट नहीं होते; उन्हे उसी व्यक्ति से ही वापस उतना प्यार चाहिये जितना दिया गया। सोचिये क्या मुश्किल है। कुछ लोग तो इस समीकरण को उस स्थिति तक खींच कर ले जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति सिर्फ़ प्यार देता है और दूसरा व्यक्ति सिर्फ़ प्यार पाता है।
राजा भृर्तहरि का क़िस्सा मशहूर है। उन्हे एक साधु ने अमरत्व पाने के लिए एक अमरफल दिया। राजा ने प्रेम से अभिभूत होकर अपनी रानी को दे दिया। रानी को भी अगर राजा से उतना ही प्यार होता तो वो उनसे खाने की ज़िद करती। हार कर दोनों आधा-आधा खा लेते, क़िस्सा खत्म हो जाता। मगर रानी तो सेनापति पर मरती थी, उसे दे दिया, सेनापति नगरवधू का दीवाना था, उसके दरबार में जा उस के चरणों में अर्पित कर आया। नगरवधू ने अमरफल एक मूर्तिकार को सौंप दिया जो उस की आँखों में बसा हुआ था। मूर्तिकार ने सोचा कि मेरा जीवन तो व्यर्थ है, राष्ट्र का हित इसी में है कि राजा भृर्तहरि सदा बने रहें। जब अमरफल लौट कर वापस राजा के पास आया तो उन्हे अपने प्रेम की विफलता का एहसास हुआ।
क्रोध में वे रानी को मृत्युदण्ड दे सकते थे, उसे बन्धनों में रख कर प्रताड़ित-अपमानित कर सकते थे, उसे डरा-धमका कर चरणों पर गिर कर क्षमा याचना करने पर मजबूर कर सकते थे.. मगर सब व्यर्थ था.. ये सब कुछ करके भी वे रानी का प्यार नहीं पा सकते थे। इस विषम दुष्चक्र के आगे उन्हे अपनी असहायता का बोध हुआ और उन्हे वैराग्य हो गया, राज-पाट विक्रम को सौंप वे वन को पलायन कर गए।
कुछ लोग इस कहानी में व्यभिचार देख सकते हैं कि रानी व्यभिचारी थी, सेनापति व्यभिचारी था आदि आदि.. मगर भृर्तहरि ने भी इसे व्यभिचार की तरह देखा होगा, मुझे शक़ है। क्योंकि अगर व्यभिचार माना होता तो वो पलायन क्यों करते, रुकते और व्यभिचार को हटाकर सदाचार स्थापित करने की कोशिश करते। मेरा विचार है कि भृर्तहरि ने इस चक्र को दुनिया का असली मर्म जाना, यही सत्य है संसार का। यही माया है जिसके पार जाना हो तो एक ही रास्ता है जो भृर्तहरि ने पकड़ा- वैराग्य! संसार में बने रहना है तो इस दुःख से बचा नहीं जा सकता।
मार्क्स के यूटोपिया- साम्यवाद में जब कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे अन्तरविरोध खत्म हो जाएंगे; मनुष्य अपनी पूरी ऊर्जा से प्रकृति के साथ अपने अन्तरविरोध पर लग सकेगा। उस आदर्श अवस्था में भी यह अन्तर्विरोध बना ही रहेगा.. यह दुःख बना ही रहेगा।
दोनों चित्र: एदुवर्द मुंच
10 टिप्पणियां:
दुखी मत हो वत्स! जिंदगी में प्यार भी है। वैराग्य की तरफ़ आंख मत उठा। :)
याद आया जो ...
हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू,
हाँथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो।
सिर्फ अहसास है ये, रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो।
अभय, इसका बात का एक पहलू और भी है। आपने जो हुस्न और इश्क वाली बात कही कि स्त्री हुस्न है और पुरुष इश्क। मैं जो कह रही हूं, संभव है, वह शतश: सत्य न हो, लेकिन एक पितृसत्तात्मक समाज में एक बहुत बड़े तबके का सत्य जरूर है। प्रेम प्राय: पुरुष ही करते हैं, और स्त्रियां प्रेम को स्वीकार करती हैं। प्रेम की समूची प्रक्रिया में पुरुष सक्रिय और स्त्रियां निष्क्रिय की भूमिका में होती हैं। मैं जब से इन बातों को समझने लायक हुई, मेरे आसपास की सभी लड़कियों-स्त्रियों ने मुझे समझाया, शादी उससे करो, जो तुमसे प्यार करता है, उससे नहीं कि जिसे तुम प्यार करती हो।
स्पष्ट है कि प्रेम और फिर विवाह में सक्रिय भूमिका पुरुष की ही होगी, सो उसका प्रेम, उसका निर्णय, उसका आधिपत्य ही सर्वोपरि होना चाहिए। हमारे समाज में स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम खाद्य और खादक जैसा ही समीकरण है, जिसमें खादक ही मुख्य निर्णायक भूमिका निभा रहा होता है। स्त्रियां प्रेम करती नहीं, वो प्रेम करने वाला चाहती हैं। जो उन्हें ऐसे प्यार करे, वैसे प्यार करे। इस पर कभी विस्तार से लिखूंगी। अभी तो आपका लेख पढ़कर एक उड़ता-उड़ता-सा ख्याल आया।
यह जवाब काकेश को प्रेषित है:
ओह, काकेश..
मैं बन-बन डोलूं रे? मुझको सैंया न धकेलो रे?
अलग लेवेल्स पर प्यार फ्लो करता है तभी शायद जीवंत बना रहता है , नहीं तो शायद ठहरे पोखर के पानी सा डल और मोनोटॉनस हो जाये । आपने जितना दिया उतना मिला , हिसाब किताब बराबर ? स्ट्राईव करते रहने के लिये इम्बैलेंस ज़रूरी है ।
मुंच की दोनों पेंटिंग्स का अच्छा उपयोग , खासकर पहला वाला ।
काकेश जी आपने तो हमारे मन की बात कह दी.
मनीषा मेरे विचार में प्रेम प्राय: स्त्री ही करती हैं, और पुरुष ... अभी तक उत्तर पाने की तलाश ज़ारी है :)
मार्क्स के यूटोपिया- साम्यवाद में जब कि मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे अन्तरविरोध खत्म हो जाएंगे।
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बस वह यूटोपिया ही रहेगा।
प्यार लेन-देन का रिश्ता है, बराबर-बराबर लेकिन मुसीबत है, करेंसी को लेकर. आप बिल्ली से प्यार करेंगे तो उसे दूध पिलाएँगे, सहलाएँगे, बिल्ली भी आपको प्यार करेगी तो चूहा मारकर आपके सामने धर देगी. बिल्ली से उतना ही, वैसा ही प्यार कैसे पा सकते हैं, जितना और जैसा आप उसे देते हैं लेकिन इंसानी दिमाग़ के पेंच बहुत गहरे हैं. लिखा बहुत अच्छा है आपने.
बहुत अच्छा लेख लिखा है । समस्या यह है कि प्यार कुछ ऐसी वस्तु है जिसे नापने तोलने का अभी तक कोई तराजू नहीं बना । यह बस महसूस किया जा सकता है और शायद बहुत लम्बे समय तक यह जानते हुए भी कि जितना किया उतना मिला नहीं , मनुष्य करता ही जाता है, शायद और अधिक करने कि चेष्टा करता है , यह सोच कि मेरे प्यार में कुछ कमी होगी जो मुझे जितना चाहा या किया उतना नहीं मिला । फिर एक दिन अचानक यह आभास होता है कि जिस प्रेम के झरने से मैं पानी पी रहा / रही हूँ वह तो या तो सूखा है या बहुत ही उथला है । बस उस दिन के बाद अनकन्डिशनल प्यार नहीं हो पाता, चाहो भी तब भी ।
घुघूती बासूती
dear abhay
i have been going thru ur blog off and on .must appreciate what u have been writing.
feel like chiping in abt what u wrote on love and brithhari's vairagya.
firstly if ur urself feeling like bhrthari then it is a good sign but vairagya never means running away from something.it is a state when one reaches beyond raag and dvesha,an uncontaminated state of mind,immersed in divine love.
too difficult to attain.
what i feel the realization that man woman love is futile is a sign of maturity and a fresh beginning where one wants to be less and less dependant,emotionally on the other.
pyaar jab tak par -nirbhar hai tab tak dukh ya vyatha rahegi.jab sva-nirbharta shuru hone lagti hai dukh ki matra bhi dhire dhire kam hone lagti hai.
vaise bhi khanda ke prati aasakti kaam hai aur akhanda ke prati aasakti prema hai.
yeh shubha hai ki stri purush ka prem safal nahi hua aaj tak.hath lagi nirasha ya vedna hi majbur karti hai ki kise prem karen,kahan se prem payen,kaun hai mera apna?
tab khoj shuru hoti hai uski jo prem ka khazana hai,jo premsvarup hai,,aur vo hamare hi bheetar hai
kintu aasaan nahi hai ...mushkilen hain..kintu sambhavna bhi hai
sansarik prem mein koi sambhavna nahi hai . vahan to haarna hi padega ..
hare ko harinaam hai
haar jao puree tarah se haar jao dost ...haree milenge...
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