..असाधारण लोगों के लिए यह लाजिमी नहीं है कि वे, जिसे आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों का पालन करें.. असाधारण आदमी को इस बात का अधिकार होता है, सरकारी तौर पर नहीं, अंदरूनी अधिकार होता है कि वह अपने अंतः करण में इस बात का फ़ैसला कर सके कि वह कुछ बाधाओं को .. पार कर के आगे जा सकता है, और वह भी उस हालत में जब ऐसा करना उसके विचार को व्यवहार में पूरा करना ज़रूरी हो (शायद कभी-कभी पूरी मानवता के हित में)।
.. मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दरज़न, एक सौ या उस से भी ज़्यादा लोगों की जान की क़ुर्बानी दिये बिना केपलर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछिये तो यह उनका कर्तव्य होता .. कि वह अपनी खोजों की जानकारी पूरी दुनिया तक पहुँचाने के लिए .. उन दर्ज़न भर या सौ आदमियों का सफ़ाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करते रहें और रोज़ बाज़ार में जाके चीज़ें चुराएं।
इसका नतीजा मैं यह निकालता हूँ कि सभी महापुरुषों को.. .. स्वभाव से ही अपराधी होना पड़ता है..
दरअसल कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करने वालों इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज़्यादात्र भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इसका नतीजा मैं यह निकालता हूँ कि सभी महापुरुषों को.. .. स्वभाव से ही अपराधी होना पड़ता है.. .. वरना उनके लिए घिसी पिटी लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाय...
प्रकृति का एक नियम लोगों को आम तौर पर दो तरह के लोगों में बाँट देता है: एक घटिया (साधारण), यानी कहने का मतलब यह कि वह सामग्री बार-बार पैदा करते रहने के लिए होती है, और दूसरे वे जिनमें कोई नई बात कहने का गुण या प्रतिभा होती है।.. .. आम तौर पर पहली क़िस्म के लोग स्वभाव से ही दकि़यानूसी और क़ानून को मानने वाले होते हैं, वे आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसन्द करते हैं। मेरी राय में उन्हे आज्ञाकारी ही होना चाहिये, क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती।
अगली पीढ़ी में पहुँच कर यही आम लोग इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं
आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं; वे ऐसे लोगों को या तो मौत की सजा सुना देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं (कमोबेश), और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी फ़र्ज को पूरा करते हैं, जो बिलकुल ठीक भी है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर यही आम लोग इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं (कमोबेश)। पहली क़िस्म के लोगों का अधिकार सिर्फ़ वर्तमान पर रहता है और दूसरी क़िस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। पहली तरह के लोग दुनिया को ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं और उनकी बदौलत दुनिया बसी रहती है; दूसरी तरह के लोग दुनिया को आगे बढ़ाते हैं और उसे उसकी मंज़िल की ओर ले जाते हैं।
इन विचारों के लिखने के लगभग बीस सालों बाद नीत्शे ने भी इस से मिलती जुलती बातें अपने महामानव (superman) के विचार के सन्दर्भ में कहीं, जिसमें असाधारण के 'अपराध' कर सकने के अधिकार की क्रूरता अपने चरम पर पहुँच गई थी।
5 टिप्पणियां:
कई पश्चिमी विचारक दुनिया के असाधारण लोगों के युग-परिवर्तनकारी उग्र विचारों और घोर कर्मों के पीछे के दार्शनिक पहलुओं पर चिंतन करते रहे हैं।
लेकिन, बुद्ध और गांधी जैसे भारतीय उदाहरणों ने दिखाया कि शांति और सहजता के साथ भी बड़े-बड़े परिवर्तन कर पाना संभव है। पुराने क़ानूनों, परंपराओं और मान्यताओं को तोड़ते हुए भी संयम और सौहार्द को बनाए रखा जा सकता है। बगैर अपराध किए भी असाधारण बना जा सकता है।
भविष्य के असाधारण महापुरुषों / महान नारियों के लिए यह चुनौती है कि वे अपने मस्तिष्क को असीम शांति और अपने हृदय को असीम धैर्य से भरकर असाधारण परिवर्तन करके दिखाए और दुनिया को वर्तमान बुरे हालातों से निकाल कर आगे बढ़ाए।
आपकी यह पोस्ट मुझे बहुत पसंद आई। महान पुस्तकों में वाकई अत्यंत प्रेरक ऊर्जा होती है।
आपकी बात विचारणीय है.
'अपराध और दंड' में अपने नायक रस्कोलनिकोव के मार्फत दोस्तोयेव्स्की की यह विचारणा इन्सानी दिमाग की एक बंद कुंडी को खोलने का प्रयास करती है। यह सचाई है कि समाज में दंड की व्यवस्था छोटे अपराधों के लिए ही है। ज्यादा बड़े अपराध या तो अपने साथ कोई ज्यादा बड़ा सम्मोहन लेकर आते हैं, या कोई न कोई बहाना बनाकर खुद समाज ही उनकी अनदेखी कर देता है। दोस्तोएव्स्की ने यहां कुछ ऐसे लोगों के नाम गिनाए हैं, जो अपने कामों के पक्ष में किसी बड़े स्वप्न या दैवी आदेश का हवाला देते थे लेकिन मौजूदा भारतीय समाज में हम ऐसे किसी हवाले के बगैर भी तमाम डकैतों और बड़े अपराधियों के किसी न किसी समुदाय का नेता बन जाने की प्रक्रिया घटित होते देख रहे हैं। दोनों ही स्थितियों में इस प्रक्रिया के पीछे कोई वैसा तर्क, वैसा रेशनेल नहीं होता, जैसा एक अकेले आदमी की नैतिक तर्क-प्रक्रिया के तहत बनता है। इन्सानी दिमाग में ज्यादा बड़े अपराधों की अनदेखी की इस सहज वृत्ति की सांकलें हम दोस्तोएव्स्की के इस उपन्यास में और एक-दो जगह 'ईडियट' में भी खुलते देखते हैं। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है, जितने बड़े सवाल उनके यहां उठाए जाते हैं, उतने बड़े जवाबों की खोज वहां नजर नहीं आती। कभी-कभी शक होता है कि कहीं अस्तित्ववादी 'प्रताड़ित नियति' भी ग्रीक या भारतीय महाकाव्यों में मौजूद 'दैवी नियति' जैसा ही (हालांकि कहीं ज्यादा रोचक) फार्मूला तो नहीं है? मेरे इस शक की पुष्टि के लिए आप चाहें तो चेखव के खुलेपन को एक कसौटी मान सकते हैं-उपन्यास पढ़ लेने के बाद राय अपेक्षित है।
कई साल पहले, जब स्कूल पास ही किया था, गर्मियों की छुटिटयों में मैंने 'अपराध और दंड' पढ़ा था। बहुत-सी छवियां और विचार दिमाग में ठहर गए और लंबे समय तक जीवित रहे।
लेख अच्छा लगा । मेरे पसन्दीदा लेखक की एक पुस्तक के विषय में लिखने के लिए धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
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