गुरुवार, 15 नवंबर 2007

आप देखते क्या थे उस आदमी में?

आप लोगों ने कभी न कभी एम टी वी पर आने वाला एक छोटा सा फ़िलर देखा होगा –फ़ुल्ली फ़ालतू। फ़रहा खान और शाहरुख खान के इस ओम शांति ओम नाम के शाहकार का नाम इस से बेहतर और नहीं हो सकता था। क्योंकि कथ्य और शिल्प दोनों में ही यह फ़ुल्ली फ़ालतू से बुरी तरह प्रभावित है। ये आत्मिक रूप से फ़ुल्ली फ़ालतू है। पूरी फ़िल्म फ़ुसफ़ुसे मखौलों, और घटिया मज़ाकों की ऐसी लड़ी है जिसे आप सिर्फ़ इसलिए बरदाश्त करते रहते हैं क्योंकि आप ने उसके बारे में इतना सुना और देखा है और दोनों खान इतनी बेशर्मी से उसे अपनी श्रेष्ठता का नमूना बनाकर आप की आँख में उँगली डालकर दिखा रहे हैं।

फ़िल्म में कहानी बुरी है, उसका छायांकन बुरा है, गाने लिखे बुरे हैं, धुने बुरी हैं, नाच बुरे हैं.. जबकि फ़रहा मूलतः एक नृत्य निर्देशक हैं। शाहरुख तो घटिया अभिनय के बादशाह हैं ही पर इस फ़िल्म में उनसे भी घटिया अभिनय करने वाले अर्जुन रामपाल मौजूद हैं। श्रेयस तलपडे अच्छे हैं लेकिन शाहरुख इतने बुरे हैं कि मुझे बार-बार राजेन्द्र कुमार की याद आती रही जो अपने समय में जुबली कुमार कहे जाते थे मगर बाद के पीढ़ियाँ ६० की पीढ़ी से सवाल करती ही रहीं कि भैया आप लोग देखते क्या थे उस आदमी में। भाइयों आने वाली पीढ़ियाँ ये तोहमत हम पर भी लगाने वाली हैं.. तैयार रहें।

सावरिया से मुझे शिकायते हैं मगर ओम शांति ओम के आगे मैं सावरिया को सिंहासन पर बिठाता हूँ। मैं हूँ ना में फिर भी एक मासूमियत थी, एक हलकापन था.. लेकिन इसमें एक प्रकार का वैमनस्य है.. पूरी इन्डस्ट्री के खिलाफ़। वही वैमनस्य जो अमिताभ बच्चन से उनकी होड़ में झलकता है। शाहरुख और फ़रहा जैसे अपने अलावा सभी को मज़ाक बनाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहते हों। श्रेष्ठता सिद्ध करने के इस हथकण्डों में उन्होने पूरे मीडिया तंत्र को जोता हुआ है। सब जगह सावरिया को हारा हुआ बता कर ओम शांति ओम को विजेता घोषित किया जा रहा है। पहले तीन दिन में ओ शा ओ की कमाई ८४ करोड़ की है और सावरिया की ५८ करोड़ की। किस तर्क से सावारिया फ़्लॉप कही जा सकती है? मगर ये उन मूल्यों के अंतर्गत है जिन्हे शाहरुख खुद भी प्रचारित करते हैं- सबसे ज़रूरी है जीतना.. कैसे भी।

फ़िल्म में इतनी सब बुराइयों के बाद एक अच्छाई भी हैं – दीपिका पादुकोने। उनके अभिनय की परिपक्वता देखकर लगता ही नहीं कि उनकी पहली फ़िल्म है। वे बेहद खूबसूरत लगी हैं और इतनी सब बेहूदगी के बीच आप को उनके भीतर एक निर्दोषता की झलक देख कर आन्तरिक खुशी मिलती है। सिनेमा के दीवाने इसी निर्दोषता को देखने के लिए बार-बार थियेटर के अंधेरों में वापस लौट जाया करते थे.. मैं भी तो।

मध्य काल में स्त्रियों के चार प्रकारों की चर्चा आम थी; हस्तिनी, शंखिनी, चित्रिणी, और पद्मिनी। मलिक मुहम्म्द जायसी ने भी पद्मावत में इसका ज़िक्र किया है। दीपिका निश्चित ही पद्मिनी नारी हैं।

11 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अच्छा रहा ज्ञानवर्धन। विशेषत: तब जब दोनो से अपने को लेना देना न हो!

Tarun ने कहा…

अभय जी हमने भी इन दोनों पर लिखा था, अब आप तो इस तरफ झांकते नही वरना शायद कुछ आयडिया पहले हो जाता, शाहरूख तो बकवास खैर हैं ही उम्मीद करना ही बेकार है।

http://www.readers-cafe.net/nc/2007/11/13/comments-on-film-marketing/

Batangad ने कहा…

अब दोनों फिल्में देखनी पड़ेंगी।

अनिल रघुराज ने कहा…

पद्मिनी को परखना पड़ेगा फिल्म देखकर।

काकेश ने कहा…

चलिये आपके बहाने दोनों के बारे में सही सही जान लिया क्योंकि हम तो आमतौर पर फिलम विलम देखते ही नहीं.

बेनामी ने कहा…

अरे रे रे अब पद्मिनी नारी के लिए देखनी पड़ेगी, वरना शाहरूख की फिल्मे कहाँ देखता हूँ.

चंद्रभूषण ने कहा…

फिल्म देखी है। समीक्षा से असहमत होने का कोई कारण नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री से फरहा-शाहरुख-करन जौहर खेमे के जिस वैमनस्य की बात आप कर रहे हैं, उसमें शायद अतिरेक है क्योंकि ऐसे दोनों सीन्स में नए-पुराने अभिनेताओं की भागीदारी अपनी मर्जी से ही हुई होगी। फिलहाल यही इस फिल्म का सबसे बड़ा यूएसपी माना जा रहा है- दीपिका के अलावा। मर्दों-औरतों के इस सिंह-शशक और पद्मिनी-हस्तिनी वर्गीकरण ने भारतीय इतिहास में बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं- लुक्स से लेकर एनेटॉमी तक को इनका आधार बनाया जाता था और जो भी राजा-रानी इनपर खरा नहीं उतरता था उसकी अपनी तो जिंदगी रद्द होती ही थी, अपने प्रजाजनों का भी वह जीना दूभर कर देता था। पूरब में कोणार्क मंदिर बनवाने वाले राजा नरसिंह से लेकर पश्चिम में चित्तौड़ नाश की वजह बनी रानी पद्मिनी तक इसके अनेक उदाहरण हैं। आपकी पोस्ट से प्रभावित होकर यह सिलसिला कहीं दुबारा न चल पड़े...

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

अच्छा लगा विशेलेषण !

Sanjeet Tripathi ने कहा…

इस पद्मिनी नारी को किसी और फ़िलम में देख लूंगा पन ये दोनो फ़िलम नई देखने वाला!! वैसे भी कम ही देखता हूं फ़िल्में!!

मनीषा पांडे ने कहा…

अच्‍छा हुआ बचा लिया अभय। अब फिल्‍म देखकर टाइम खोटी नहीं करूंगी। वैसे ये पद्मिनी नारी का क्‍या चक्‍कर है। नारीवाद का कीड़ा काटने के लिए बेताब हो रहा है।

Unknown ने कहा…

Abhay ji aapaka lekh mujhe kaafi accha laga... waise to meine yehh Om Shanti Om nahi dekhi hai abhi tak. lekin mujhe purntaya yekin hai ki aapne jo bhi likha hai wohh 100% sach hai.. Kyoki Shahrukh aur Faraha ke liye meri bhi wohi raay hai jo aapaki hai.. Meien abhi tak sochata tha ki meien akela hi hu jise Om Shanti Om pasand nahi aayegi.. lekin meien galat tha... es daud me kaafi log saamil hai.. LEkin un sab se accha laga aap ke Bebaak likhane ki ada... Dhanyawad

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