अगर आप से पूछा जाय कि पिछले इराक़ युद्ध की कौन सी छवि सबसे मज़बूती से आप के मानस में अंकित है तो आप क्या जवाब देंगे? बग़दाद के ऊपर आतिशबाजियों की तरह बरसते स्मार्ट बमों के उत्तेजक दृश्यों के अलावा मुझे जो छवि याद रह गई वह है- बग़दाद के मुख्य चौक पर लगी सद्दाम हुसेन की विशाल मूर्ति को रस्सियों से खींच कर ज़मीन में गिराती इराक़ी जनता। आप भी शायद भूले नहीं होंगे यह छवि। अगर आप ग़लती से टीवी पर देखने से चूक भी गए तो उसकी भरपाई के लिए दुनिया की लगभग हर पत्र-पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भी सुशोभित हुई यह छवि।
एक बड़ा सीधा संदेश छुपा था इस छवि में- इराक़ के हत्यारे तानाशाह को अमरीकी सेना ने अन्ततः उखाड़ फेंका और इराक़ी जनता अपनी मुक्ति का उत्सव मना रही है। यदि मैं आप से कहूँ कि न इस सन्देश का सच से कोई लेना देना था और न इस छवि का.. तो क्या आप मेरा यक़ीन करेंगे। शायद नहीं- अपनी आँखों देखी बात को आप मेरे कहने भर से क्यों झूठ मानने लगे!
कल मैंने कन्ट्रोल रूम नाम की एक डॉक्यूमेन्टरी देखी, जो इराक़ युद्ध के दौरान मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित है। अल-जज़ीरा नाम के चैनल को लोग भूले नहीं होंगे। युद्ध के दौरान एक ओर तो वह अमरीकी प्रशासन की आँख की किरकिरी बना हुआ था और दूसरी ओर सद्दाम प्रशासन का भी आरोप था कि अल-जज़ीरा अमरीकी कुत्ता है। फ़िल्म मुख्य रूप से इस चैनल और अमरीकी मीडिया मैनेजमेंट और इराक़ युद्ध के रिश्तों की पड़ताल करती चलती है।
अमरीकी सेना के बग़दाद अधिग्रहण के पहले आप को याद होगा कि अमरीकी सेना ने बग़दाद के भीतर एक हमले के दौरान तीन मीडिया सेन्टर को निशाना बनाया था। यह घटना हमें फ़िल्म के भीतर विस्तार से देखने को मिलती है जिसमें दोहा टीवी सहित दो अन्य मीडिया सेन्टर्स पर हमले के साथ-साथ अल-जज़ीरा के बग़दाद कार्यालय पर हमला किया गया –सीधा डाइरेक्ट रॉकेट हमला। जिसमें अल-जज़ीरा के मुख्य रिपोर्टर की मौत हो गई। इस बर्बर हमले का कारण पूछे जाने पर अमरीकी वक्तव्य था कि इन ठिकानों से उनके जहाजों के ऊपर हमले किये जा रहे थे इसलिए उन्होने सिर्फ़ जवाबी कार्रवाई की। क्या बात है जवाबी कार्रवाई की। पूरी दुनिया जानती है कि पूरे का पूरा इराक़ युद्ध एक जवाबी कार्रवाई था- अगर अमरीका ने हमला ना किया होता तो सद्दाम ने अपने वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्र्कशन्स के सहारे अमरीका जनता को धुआँ कर दिया होता। खैर..
दुनिया भर के मीडिया को हिला देने वाले इस हमले का नतीजा ये हुआ कि जितने भी मीडियाकर्मी स्वतंत्र रूप से यहाँ-वहाँ टहल कर युद्ध का हाल बयान करने की कोशिश कर रहे थे, वे सब डर कर अमरीकी सेना के साथ लटक लिए.. युद्ध देखना है और दुनिया को दिखाना है तो वैसे देखो-दिखाओ जैसे हम बता रहे हैं। अल जज़ीरा ने फिर भी चाहा कि वह स्वतंत्र ही रहे पर किसी भी इराक़ी इमारत में उन्हे जगह नहीं मिली.. हर जगह लोग डरे हुए थे कि अमरीकी सेना उन्हे निशाना बना रही है.. वे जहाँ जायेंगे.. बम वहीं मारा जायेगा।
मीडिया ने थोड़ी निंदा ज़रूर की पर अमरीकी सेना ने एक बड़ी लड़ाई जीत ली थी अब वे सच को स्टेज-मैनेज कर सकते थे.. एक एक घटना को वैसे बना-बना कर पेश कर सकते थे जैसा कि वे चाहते थे.. फ़िक्शन की तरह.. पहले सीन लिखा.. एक्टर तैयार किए.. सेटिंग तैयार की.. और सबसे आखिर में कैमरामैन को बुलाकर शूटिंग कर ली.. ये जो इराक़ युद्ध का अविस्मरणीय दृश्य मेरे/ आप के मानस में अंकित है वह इसी तरह से तैयार किया गया था।
इराक़ में बम मारे जा रहे थे.. बेगुनाह आदमी, बूढ़े, बच्चे, औरतें मर रहे थे.. लोगों डर के मारे अपने घरों में बंद थे। मगर अमरीकी टैंको के आते ही ये कौन और कैसे नौजवान थे जो अचानक सड़कों पर निकल आए और बेधड़क हो कर विदेशी कैमरों के आगे उत्पात मचाने लगे.. सद्दाम को ऊँची पत्थर की मूर्ति को पूरे साजो सामान के साथ गिराने लगे.. क्या यह सब स्वतःस्फूर्त था? फ़िल्म के अन्दर एक अरब चरित्र बताता है कि वह इराक़ी है और वह पहचानता है इराक़ी लहज़े को.. उत्पात मचाने वे लोग बग़दादी तो क्या इराक़ी भी नहीं थे! इस पूरे घटना क्रम के दौरान बाकी शहर में क्या हो रहा था लोग क्या महसूस कर रहे थे.. ये बताने वाला कोई रिपोर्टर नहीं था। उन्हे बम खा कर मरना नहीं था.. वे सब अमरीकी सेना के इशारे पर आ-जा रहे थे.. वही दिखा रहे थे जो उन्हे सेना दिखा रही थी।
तो साहब वह छवि झूठी थी और दोनों ही बातें झूठी थी उस छवि के संदेश में। न तो वहाँ की जनता सद्दाम से मुक्ति पा कर कोई उत्सव मना रही थी- बल्कि अमरीकियों से मुक्ति पाने के लिए लड़ रही है आज भी - और न ही उस घटना के साथ इराक़ युद्ध समाप्त हो गया था। इराक़ में क़त्लो-ग़ारत आज भी जारी है।
चलते चलते एक बात और यदि अमरीकी प्रशासन एक छवि का निर्माण करने के लिए इतना कुछ कर सकता है तो वह ११ सितम्बर के हमले की योजना खुद बनाकर, खुद अमल में लाकर दोष ओसामा सहित मुस्लिम आतंकवादियों पर क्यों नहीं मढ़ सकता? आखिर तेल पर कब्ज़े और दुनिया पर अमरीकी आधिपत्य की इस पूरी लड़ाई के बीज तो उसी घटना में दबाए गए हैं। और यह आरोप किसी अल-जज़ीरा नाम के अरब चैनल का नहीं है.. खुद अमरीकी जनता के एक बड़े प्रबुद्ध और जागरूक हिस्से का है।
10 टिप्पणियां:
एकदम नीर-क्षीर कर दिया। यही हकीकत है। हमें झूठ की घुट्टी पिलाकर भ्रमित किया जाता है। जबरदस्त जानकारी...
वैसे 9/11 के स्वांग पर मैंने भी एक पोस्ट डाली जो महज कयासबाजी थी लेकिन आपने तो ठोस सच पेश किया है।
http://diaryofanindian.blogspot.com/2007/09/911.html
धन्यवाद.
सद्दाम ने कुवैत पर हमला कर के एक ऐसी गलती कर दी थी जिसकी कीमत उसे अपनी जान से चुकानी पड़ी .उस समय हम रियाद में थे और कुछ स्कड मिसाइल्ज़ वहाँ पर भी गिराई गई थी और अफवाह ऐसी फैली थी कि जिस तरह से खुर्दियों को मारने के लिए ज़हरीली गैसे छोड़ी गई थी उसी तरह हम पर भी हमला हो सकता है.
बड़ा जबरदस्त रहस्योद्घाटन है। यह डॉक्यूमेंट्री कहाँ से मिली, यदि इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध हो तो बताएँ। देखने की इच्छा है। - आनंद
तानाशाह कौन निकला, ये बात छुपी नहीं है अब...
सत्तर के दशक तक युद्ध हथियारों से लड़े गए... बाद में टीवी चैनल को भी हथियार बना लिया गया.
एक नये नजरिये से जानकारी, आभार.
कंट्रोल रूम देखने लायक लगती है, लेकिन जो भी है इस स्टेज प्रोग्राम की जितनी भी तैयारी की गयी वो इंटरवल के बाद धरी की धरी रह गयी। देखिये ना इंटरवल के बाद के सीन खिंचते चले जा रहे हैं और डायरेक्टर से संभाले नही संभल रहे।
भाई आनन्द.. मुझे अपनी डीवीडी लाइब्रेरी के ज़रिये प्राप्त हुई.. इन्टरनेट पर मिलने की सम्भावना के बारे में बस इतना कह सकता हूँ कि टोरेन्ट या लाइमवायर जैसे सॉफ़्टवेयर के ज़रिये देखिये शायद मिल जाय..
ये फ़िल्म यहाँ यू ट्यूब पर दिख रही है।
http://www.youtube.com/watch?v=FXBLIfo3YWA
शुक्रिया अभय बाबू, शुक्रिया रजनीश मंगला जी
एक अभिशप्त आत्मा-अजित वडनेरकर
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