हॉलीवुड के लेखक सोमवार से हड़ताल पर चले गए हैं। उनकी माँग है कि फ़िल्म और टीवी व्यापार के बदलते स्वरूप के तहत डीवीडी और नेट के ज़रिये हुए मुनाफ़े में उनका भी ख्याल किया जाय। मगर इन्डस्ट्री इस बात से सहमत नहीं। मुनाफ़े में शिरकत की बात मुझ जैसे मुम्बई के एक मामूली लेखक को बड़ी क्रांतिकारी लग रही है।
हमारे यहाँ हाल बड़े बुरे हैं। पहले तो कोई अनुबन्ध होता नहीं। यदि होता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्माता के हित की रक्षा करने के ही उपनियम लिखे जाते हैं। लेखक से उम्मीद की जाती है कि वह चुपचाप उस पर हस्ताक्षर करे दे। अधिकतर कर भी देते हैं मगर आजकल कुछ जागरूक लेखक अपने हितों की शर्तें भी अनुबंध में शामिल करवाने के लिए बहस करने लगे हैं। पर सच्चाई यह है कि सलीम-जावेद की जोड़ी के सलीम खान जैसे दबंग और तेज़तर्रार लेखक लाखों में एक ही कोई होता है। जो अपने मूल्य को समझते हों और उसकी समुचित पहचान के लिए बराबर लड़ने के लिए तैयार रहते हों। खुद जावेद साब का मानना है कि यदि सलीम साब उनके साथ न होते तो वे कभी वैसा नाम और दबदबा न पैदा कर पाते कि जैसा कि फ़िल्म इतिहास में सलीम-जावेद के नाम से दर्ज है।
बहुसंख्यक तो दीन-हीन, लुटे-पिटे ही बने रहते हैं और रसोई चलाने के लिए जो थोड़ा-मोड़ा मिल जाय उसी पर संतुष्ट हो जाते हैं। निर्माता/निर्देशक हर लेखक को काम देते वक़्त ऐसा जताते हैं कि वह यह काम देकर उस बहुत बड़ा ब्रेक दे रहे हों और बहुसंख्यक लेखक अपनी दलित मानसिकता में बने रहते हुए किए गए काम को सचमुच निर्माता/निर्देशक का एहसान मानते हैं। पर नहीं भी मानते हैं और एक मानसिक दबाव और अस्तित्व की घुटन में जीते हैं।
मेरे एक मित्र हैं वे फ़िल्म इंडस्ट्री का एक दिलचस्प जाति विभाजन करते हैं। उनका कहना है कि अभिनेता क्षत्रिय है.. या तो वो स्टार बनकर राज करता है या सैनिक बनकर धक्के खाता है। निर्माता वैश्य है असली माल वह बटोरता है। लाइटमैन, मेकपमैन आदि शूद्र हैं और लेखक ब्राह्मण है। और ब्राह्मण तो दरिद्र ही अच्छा लगता है।
सही है.. कहावत भी है कि लक्ष्मी और सरस्वती साथ-साथ नहीं रहती। और यह बात भारत ही नहीं दुनिया भर में लागू होती है। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो लेखक, वैज्ञानिक, अध्यापक दरिद्रता के दामन में पलते आए हैं। आज तो स्थिति और भी बदतर है- आज न वे सिर्फ़ दरिद्र है बल्कि अपने आदर-सम्मान से भी वंचित हो कर एक लतखोर मजदूर में बदले जा चुके हैं जो चन्द सिक्के फेंक कर खरीदा जा सकता है।
अगर भारतीय संस्कृति की आपत्तिजनक शब्दावलि का प्रयोग करें तो 'ब्राह्मण' अब धीरे-धीरे 'शूद्र' में बदल रहा है। उन्ही शब्दों को और खींचते हुए सभी 'वैश्य' की तानाशाही में पिस रहे हैं। 'क्षत्रिय' का मज़दूरीकरण तभी आरम्भ हो गया था जब उन्होने पैसे लेकर पक्ष चुनना शुरु कर दिया था- मध्यकाल से ही। और स्वजाति भक्षण के रूप में छोटे व्यापारी को निगलने के लिए क़ानून लागू होने शुरु हो गए हैं- दिल्ली में सीलिंग, चाट आदि की दुकानों पर पर प्रतिबन्ध इसी कड़ी में हैं।
इस आपत्तिजनक शब्दावलि को छोड़ भी दें तो एक बात तो साफ़ है कि पूरे समाज का मजदूरीकरण चालू है.. किसी को ये शब्द अच्छा लगे या बुरा उस से कोई फ़रक नहीं पड़ता। बुद्दि, सम्पत्ति, शक्ति, और सत्ता के केन्द्रीकरण की दमनकारी प्रक्रिया चालू है.. आगे-पीछे सभी उसकी चपेट में आयेंगे। सावधान!!
11 टिप्पणियां:
हम भी किसी बड़े वैश्य के वहाँ मजदूर हैं पर मजबूर नहीं है.
बहुत बढ़िया विश्लेषण किया है!
आप लोगों का पक्ष आज के नज़रिये में तो ठीक ही है। जब सभी जगह बौद्धिक सम्पदा पर अधिकार की बात हो तो लेखक क्यों पीछे रहें। कोई लेखक यदि जी. पी. एल. के तहत भी लेखन करे ;) तब भी उनके हितों की बात होनी ही चाहिये
। कथा-वस्तु और फिर संवाद ही तो आधार है किसी श्रेष्ठ चलचित्र के तब फिर लेखकों के हितों की अनदेखी क्यों? यह तो अवश्य है ही कि अपने हित / अधिकारों की बात करने के लिये कष्ट उठाना पड़ सकता है और साहस तो चाहिये ही किसी भी परम्परा का बंधन तोड़ने के लिये।
दिलचस्प जाति विभाजन --बहुत दूर की बात कह गये आज तो आप. सुन्दर विश्लेषण और सुन्दर निष्कर्ष, तथ्य विचारणीय है.
aapke mitra ne kamaal ka jaati vishleshan kiya hai, aur aapne ek achha vichar purn lekh
aapka chitho ki grouping karna aur aapki sifarish ka tareeka dono pasand aaye.
उत्तर प्रदेश में मायावती के नए समीकरण का आधार असल में यही है कि ज्यादातर ब्राह्मण अब दलितों की स्थिति को प्राप्त हो गए हैं। आकर्षक विश्लेषण है।
कितना ही सावधान कर दो
मजदूर बनने की मजबूरी कायम रहेगी
मजे के लिए कोई मजबूर नहीं होता
मजे से हर मजदूर दूर होता है
कितना ही भाजन कर लो
विभाजन कर लो
जन जन भा ...रत का मजदूर है
मजदूर ही रहेगा
सदा मजबूर ही सहेगा।
बहुत ही बेबाक विश्लेषण किया है!बधाई\
काफी दिलचस्प है. विशेषकर :
सही है.. कहावत भी है कि लक्ष्मी और सरस्वती साथ-साथ नहीं रहती।
अभय जी, आज पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ और बहुत अच्छा लगा आ कर। आपकी लेखन शैली काफी दिलचस्प है, बात को बहुत थोङे में मजेदार ढंग से कह दिया जाता है। हिंदी सिनेमा में एक बात बहुत कम से कम मुझे तो समझ नहीं आती कि एक तरफ तो फिल्मकार अच्छे लेखकों की कमी का रोना रोते हैं दूसरी ओर लेखकों की शिकायत है कि फिल्मकारों को अच्छे लेखन की कद्र नहीं हैं ..... ये माजरा क्या है?
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