मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-५

माओवादियों के पक्ष की एक बात यह है कि जिनकी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिनके हितों की रक्षा की बात करते हैं उस जनता के साथ बिलकुल घुले-मिले हुए हैं। जनता और उनके प्रतिनिधियों में कोई बाधा नहीं है। दूसरी तरफ़ पूँजीवाद तंत्र के राज्य और जनता के बीच इतने-इतने संस्थान और उनकी जटिलताओं की इतनी दूरी है कि माओवादी व्यवस्था बड़ी सरल और सुलभ और जनतांत्रिक मालूम देती है। आदेश देने वालों लोगों और पालन करने वालों लोगों के बीच एक सीधा संवाद है, ऐसा आभास होता है। उनका यह गुण वरेण्य लगता है।

***

एक तरफ़ माओवादी हैं जिनके केन्द्रीय नेतृत्व की तलाश पुलिस दिन-रात करती है, और जब वे अपना महाधिवेशन करते हैं जिसमें उनके सारे छोटे-बड़े नेता एक जगह इकट्ठा होते हैं तो किसी को कानो-कान ख़बर नहीं होती। पूरा पुलिस और गुप्तचर तंत्र बेकार है क्योंकि वे एक ऐसा आदमी भी नहीं खोज पाते जो माओवादियों की इस अधिवेशन का पता-ठिकाना उन तक पहुँचा दे। दूसरी तरफ़ हमारे संसदीय लोकतंत्र के राजनेता हैं जो निर्वाचित होने के पहले और बाद में भी जनता से दस हाथ की दूरी पर रहते हैं। एक्स, वाई, ज़ेड सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। पुलिस बल का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ़ इनकी सुरक्षा के लिए तैनात रहता है।

एक तरफ़ नेता और जनता में ज़मीनी, ठोस, गहरा रिश्ता है। दूसरी तरफ़ अब हालात ये पहुँच गए हैं कि संसदीय लोकतंत्र के नेता और जनता सिर्फ़ आभासी तल पर रूबरू हो सकते हैं। क्या पहला सम्बन्ध एक ऐसे गुज़रे ज़माने का अवशेष है जो सिर्फ़ आदिवासी इलाक़ो में ही सम्भव है जहाँ मानवीय प्रगति के चिह्न नहीं पहुँचे हैं? और दूसरा उस नए जीवन की पदचाप, जिस में वास्तविक से अधिक आभासी महत्वपूर्ण हो जाएगा?

ये कुछ माँ और बच्चे के सम्बन्ध जैसा है जिसमें माँ से बच्चा उत्तरोत्तर दूर ही होता जाता है; ये ब्रह्माण्ड की उस अवधारणा जैसा है जिस में सब पहले एक सिंगुलैरिटी में सिमटा हुआ था लेकिन अब सब कुछ, एक-दूसरे से दूर भाग रहा है; ये ईश्वर की उन कल्पनाओं जैसा है जिसमें पहले सब कुछ एक ही तत्व में सयुंक्त रहता है और फिर माया उसे जटिल, और जटिलतर बनाती जाती है।

बावजूद इन आकर्षक उपमाओं के, हमारी गहरी से गहरी कामनाओं की प्रेरणा इसी संयुक्त भाव की सरलता, इसी एकत्व, इसी तौहीद, इसी ज़मीनी, और ठोस रिश्ते की ओर होती है। मगर अजीब बात ये है कि इन आन्तरिक प्रेरणाओं और हमारे संघर्ष के बावजूद, ज़माना है कि विविधता और जटिलता और विलगाव की दिशा में भागा चला जा रहा है।

***

यह पूछने पर कि क्या वे अपना आन्दोलन अहिंसा के साथ नहीं चला सकते, कौमरेड गणपति पलट कर पूछते हैं कि ये आप को राज्य से पूछना चाहिये कि वो प्रतिरोध के शांतिपूर्ण तरीक़ो का हिंसक दमन क्यों करते हैं? शांतिपूर्ण जुलूसों पर लाठीचार्ज और फ़ायरिंग क्यों करते हैं? हड़ताल करने वालों को जेलों में ठूंस कर यंत्रणा क्यों देते हैं? वे पूछते हैं कि वे क्यों पुलिस वालों को क्यों अनुमति देते हैं कि वे औरतों से बलात्कार करें? सही सवाल हैं!

***

मगर दूसरी जगह गणपति साफ़ कहते हैं कि वे एक बड़े भूखण्ड को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं- "The general direction of the Congress is to intensify the people’s war and to take the war to all fronts. Concretely it decided to take the guerrilla war to a higher level of mobile war in the areas where guerrilla war is in an advanced stage and to expand the areas of armed struggle to as many states as possible. The destruction of the enemy forces has come into the immediate agenda in these areas without which it is very difficult to consolidate our gains or to advance further. Likewise, there is an immediate need to transform a vast area into the war zone so that there is enough room for manoeuvrability for our guerrilla forces."

हालांकि इस युद्धघोष का आधार यही समझ है कि बिना लड़े अन्याय से मुक्ति नहीं है। ये एक केन्द्रीय सवाल है जो आम मध्यवर्ग को व्यथित करता है, कि क्या अन्याय से मुक्ति बिना युद्ध के सम्भव नहीं? मार्क्सवादी मानते हैं कि नहीं। मेरे ख़्याल से गाँधी के बाद से इस समझ में विश्वस्तर पर अन्तर आया ज़रूर है। लेकिन यहाँ पर यह भी याद रखना चाहिये कि हिंसा प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य के भी स्वभाव का एक अविभाज्य हिस्सा है। पर मुश्किल तब होती है जब माओवादी राज्य की आलोचना का मुख्य आधार हिंसा को ही बनाते हैं, और उसे ही ख़त्म करने के लिए युद्ध छेड़े हुए हैं। मैं यहाँ जा कर उलझता हूँ कि अगर माओवादी सफल हो भी गए तो क्या नए समाज में हिंसा का कोई स्थान न होगा? हिंसा अपने आप में कोई चीज़ तो नहीं है ना.. वो तो अन्याय करने का एक हथियार है... और अगर माओवादी समेत, कृष्ण व मोहम्मद आदि महापुरुषों को स्मरण किया जाय तो न्याय करने का भी।

***

इन सारे महापुरुषों को नमन है लेकिन ये सच है कि आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता। इस मामले में बुद्ध, ईसा, और गाँधी का मुरीद हूँ; हिंसा से हिंसा का शमन नहीं होता। न तो राज्य हिंसा से माओवाद का नाश कर सकता है और न ही माओवाद हिंसा से अन्याय का अंत कर के न्याय के युग का सूत्रपात कर सकते हैं। हिंसा से बस अल्पकालीन सत्ता का परिवर्तन मुमकिन है, जो हमने होते हुए देखा भी है। अहिंसा वाली डगर लम्बी है लेकिन उम्मीद की जाय कि पक्की है।

***

कौमरेड गणपति अपने देश को साम्राज्यवाद के चंगुल से छुड़ाने के लिए सत्ता को हासिल करने के हिंसक रास्तों की वक़ालत करते हैं। हिंसक रास्तों की बात तो हम जानते हैं लेकिन जब वे देश कहते हैं तो साफ़ नहीं होता कि उनका अर्थ क्या है। क्योंकि वे राष्ट्रीयता के नाम पर चल रहे लगभग हर अलगाववादी आन्दोलन का समर्थन करते हैं। कश्मीरी राष्ट्रीयता के नाम पर कश्मीर में जो चीज़े होती रही हैं लगभग उसी स्वभाव की चीज़ें या उनकी अनुगूंज, शिवसेना और मनसे की नीतियों में देखी जा सकती है। यह जानना दिलचस्प होगा कि मनसे पर कौमरेड के क्या विचार होंगे?

***

अर्ध-सामन्ती परिभाषा के चलते माओवादी सिर्फ़ उन्ही इलाक़ो में सक्रिय हो पाते हैं जहाँ अभी भी सामन्ती तत्व बचे हैं। नहीं तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े इलाक़ो से भी बड़े पैमाने पर शहरों में विस्थापन हो रहा है। बीवियों और पूर्वजों के ज़रिये ही बस गाँवों से रिश्ता बच पा रहा है। लेकिन माओवादी गाँव और आदिवासी क्षेत्रों को ही क्रांति का केन्द्र मान रहे हैं। बहुत मुमकिन है वे कुछ इलाक़े आज़ाद करा भी ले जायं मगर उसके बाद क्या? क्या वे आदिवासी या कृषि समाज में ही एक उत्तम न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने लगेंगे? या पूँजी का विकास करेंगे? कैसे करेंगे अनैतिक पूँजी के बरक्स एक नैतिक पूँजी का विकास? इस पर उनके पास कोई सफ़ाई नहीं है।

***

एक बात और समझने की है। सम्पन्नता बैठे-ठाले किसी समाज में नहीं आती और न किसी दूसरे के आसरे से आती है। उस समाज के लोगों को ही उद्यम करना होता है। हर समय दूसरों पर उंगुली उठा कर इल्ज़ाम लगाना काफ़ी नहीं होता कि तुम ने मेरे विकास के लिए कुछ नहीं किया। बंजर भूमि से आने वाले मारवाड़ी ज़बरदस्त उद्यमशील होते हैं जबकि मुट्ठी भर दाने फेंक कर खाने-पीने के प्रति निश्चिन्त हो जाने वाले गंगा प्रदेश के लोग शायद सबसे क़ाहिल। अगर गंगा प्रदेश में विकास नहीं हुआ है तो इसके लिए सामाजिक बेड़ियों के अलावा इस बात की भी भूमिका है। और इसके लिए उन्हे मारवाड़ियों, गुजरातियों यहाँ तक के तक़्सीम के बाद शरणार्थियों के रूप में आए और अब बेहद सम्पन्न पंजाबियों को दोषी नहीं ठहराना चाहिये; कि वे हमारा शोषण करते हैं। मुश्किल असल में ये है कि गंगा प्रदेश के लोग, या कोई और दूसरे लोग जो इस बीमारी का शिकार हैं, स्वयं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं का ठीक से शोषण नहीं करते। यहाँ शोषण का प्रयोग भूल से नहीं जानबूझ कर किया गया है; उसके सकारात्मक अर्थ में।

भौतिक उन्नति और सांसारिक सम्पदा की आकांक्षाओ की पूर्ति, करुणा व त्याग जैसे आध्यात्मिक मूल्यों के रास्ते न होगी, स्वार्थ सिद्धि से ही होगी। सन्तोष का धन चाहिये, तो मार्क्स का नहीं गाँधी के ग्राम स्वराज का रास्ता देखिये। मगर उसके अलग हाहाकार हैं। बुद्ध की तरह मध्यमार्ग दिखाने वाला कौन है?

***

क्रांतिकारियों की कार्यपद्धति में दो दौर देखने में आते हैं। एक जब कि वे स्थापित सत्ता का विरोध कर रहे होते हैं तो वे धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल से लेकर हिंसक कार्रवाइयों तक में संलग्न होते हैं और समाज में असंतोष को बढ़ावा देते हुए गृह-युद्ध की स्थिति की ओर खींचते जाते हैं। दूसरा दौर तब आता है जब वे, जिन भी कारणों के चलते, सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाते हैं। इस दौर में वे ये मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ़ वे ही, जनता और उसकी आंकाक्षाओं के सच्चे प्रतिनिधि हैं। इसलिए ऐसी किसी भी आवाज़ का वो दमन करने लगते हैं जो उनकी समझ के ख़िलाफ़ हो। धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल जैसी शांतिपूर्ण तरीक़ों का भी हिंसक दमन किया जाता है। इस के अनगितन उदाहरण हमारे इतिहास में मौजूद हैं। इन दोनों दौरों में एक चीज़ अलबत्ता ज़रूर समान रहती है, वो है उनके सही होने, और सब कुछ जानने का एहसास।

***

म़ज़े की बात ये है कि अरुंधति स्वयं इस आशंका के प्रति सजग हैं कि जो पार्टी आज जनता के हितों की पैरोकार बनी हुई है, वही पार्टी सत्ता में आते ही अपना चरित्र बदल देगी। लेकिन वे इस भविष्य के डर को दरकिनार कर आज की लड़ाई लड़ना चाहती है। मुझे फिर लगता है कि यह समस्यामूलक है। ये अनुभव से न सीखने जैसा है। और वो भी तब जबकि माओवादी घोषित रूप से अपना उद्देश्य आदिवासी जीवन और जंगल को अक्ष्क्षुण रखना नहीं बल्कि इस देश में नवजनवादी क्रांति करना बताते हैं।

***

कैसे आएगी ये नवजनवादी क्रांति? मनुष्य के इतिहास का सबसे उन्नत, सबसे न्यायपूर्ण, सबसे सभ्य समाज बनाने के लिए माओवादी किन शक्तियों को गोलबन्द कर रहे हैं? क्या वो शक्तियां आज के समाज के सबसे उन्नत उत्पादन सम्बन्धों से उपजी हैं? नहीं, बिलकुल नहीं! वे तो आज की तारीख़ में जो सबसे पिछड़े, सबसे पुरातन उत्पादन सम्बन्धों वाले समाज से आने वाले आदिवासी लोग हैं, छोटे या भूमिहीन किसान हैं। तो फिर जब उन्हे इस पुरातन अवस्था से सामाजिक परिवर्तन की सबसे आगे की पाँत में ले जा कर खड़ा कर दिया जाएगा तो वो कैसे नेतृत्व करेंगे? क्योंकि आज तो आप उन्हे परिवर्तन के पक्ष में नहीं बल्कि परिवर्तन के विरुद्ध गोलबन्द कर रहे हैं?

इसके बरख़िलाफ़ शहरों में, एक नया सर्वहारा पैदा हो रहा है, जो मज़दूर की किसी भी पहचानी हुई परिभाषा में फ़िट नहीं होता। वो जींस और बेसबौल कैप पहनता है, अंगेज़ी बोलता है। वो धर्म, जाति और देश के बन्धनों से लगभग टूट चुका है। वो बीपीओज़ और मौल्स में काम करता है। अख़्बारों और मीडिया में काम करता है। उसके न तो काम के कोई नियत घण्टे हैं और न ही श्रमिक क़ानून के कोई लाभ उसे मिलते हैं। वो व़कील है, डौक्टर है, अध्यापक है, पत्रकार है, गायक है, चित्रकार है, अभिनेता है, लेखक है। अपने उत्पादन के साधनों पर उसका कोई अधिकार नहीं है, और अपने उत्पाद से वो विलगित है। उसके पास खोने के लिए वो सारी चीज़े हैं जो उस ने कर्ज़ लेकर ख़रीदी हैं। शायद उसी के लिए मियां ग़ालिब ने लिखा था:

कर्ज़ की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।

वो नया मज़दूर है, वो नया सर्वहारा है। लेकिन न वो ये बात जानता है और न ही देश की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी, माओवादी तो बिलकुल नहीं।

*****


*इस लेख में अरुंधति के हवाले आउटलुक में छपे उनके हालिया लेख 'वाकिंग विद कौमरेड्स' से हैं।
*कौमरेड गणपति के हवाले २००७ के उनके एक लम्बे साक्षात्कार से हैं।




(समाप्त)


पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४


अरुंधति मानती हैं कि भारत एक सवर्ण हिन्दू राज्य है क्योंकि यहाँ मुसलमानों, दलितों, ईसाईयों, सिखों, आदिवासियों, कम्यूनिस्टो और प्रतिरोध करने वालों ग़रीबों पर अत्याचार होता है। ठीक है। लेकिन ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है, जिसमें सवर्णों की सत्ता की रक्षा के लिए नहीं दलितों और पिछड़ों को सत्ता में शामिल करने के लिए क़ानून बनते हैं? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश तक सत्ता पर दलित राजनीति का वर्चस्व है और 'सवर्ण हिन्दू राज्य' ब्राह्मणों को दलितों की जीहुज़ुरी और चरणवन्दना तक लगा देखते हुए भी निरपेक्ष बना रहता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य जिसमें देश की अनेक समस्याओं के लिए ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों को निरन्तर न सिर्फ़ दोषी ठहराया जाता है बल्कि गरियाया भी जाता है, और हर समझदार ब्राह्मण अपनी परम्परा और जाति के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त रहता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र के वो विशेष अधिकारों के विपरीत, ब्राह्मण की अवमानना पर कोई विशेष अपराध नहीं बनता जबकि दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? अरुंधति जैसी विद्वान और सचेत महिला भी इस अन्तर को देख पाने और चिह्नित करने में क्यों चूक जाती हैं कि इस राज्य में अब अगर कोई बायस है तो अब दलितों और पिछड़ों के पक्ष में

इस 'सवर्ण हिन्दू राज्य' पर अरुंधति समेत सभी माओवादी एक दूसरे आकलन से आरोप है कि इस देश को साम्राज्यवादी शक्तियां यानी अमरीका आदि और उनके दलाल यानी सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, अज़ीम प्रेम जी, अम्बानी बंधु, टाटा आदि चला रहे हैं। अगर सचमुच ऐसा है तो क्या वे मानते हैं कि इस सवर्ण हिन्दू आग्रह की जड़ अमरीका तक जाती है? और क्या अरुंधति ये मानती हैं कि टाटा, सोनिया और मनमोहन हो सकते हैं पारसी, ईसाई और सिख मगर चिंता सवर्ण हिन्दू हितों की करते हैं? और अगर अरुंधति ये मानती हैं कि अम्बानी अपनी नीतियां तय करते वक़्त हिन्दू हित की चिंता करते हैं तो मैं उन पर सिर्फ़ हँस सकता हूँ, और कुछ नहीं।

असल में ये उनकी समझ का दोष है जो राज्य के चरित्र और समाज के चरित्र में भेद नहीं कर पा रहीं। न तो यहाँ की पूँजी का कोई सवर्ण और हिन्दू चरित्र है और न ही राज्य का। लेकिन राज्य और पूँजी जिस समाज में व्यवहार कर रहे हैं वो एक लम्बे समय तक सवर्णों के प्रभुत्व में रहा है। लेकिन इस अवधि में भी मुस्लिम शासन का वह छै सौ साल का और दो सौ साल का वह काल है जब कि अंग्रेज़ प्रबल रहे। फिर भी यह सच है कि आज भारतीय समाज की मुख्यधारा में एक सवर्ण हिन्दू तबक़े की प्रबल उपस्थिति है। और अगर समाज में सवर्ण हिन्दू प्रबल हैं भी तो उसको लेकर इतना विचलित होने की क्या ज़रूरत है? सवर्ण हिन्दू भी इसी समाज का अंग हैं और उनको भी फलने-फूलने का पूरा हक़ है। हज़ारों सालों से उन्होने अपने प्रभुत्व का जो लाभ लिया उस की ख़ानापूरी एक सकारात्मक भेदभाव (आरक्षण) के ज़रिये की जा रही है जिससे एक दूसरी सूरत पैदा हो रही है। उत्तर प्रदेश के लाखों ब्राह्मण परिवार ऐसे हैं जिनमें जवान बेटी-बेटों के पास न नौकरी है न धंधा। वे अरुंधति के इस आरोप पर मुहँ बा देंगे। उनके अनुसार अगर उनको अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रमाणपत्र मिल जाता तो उनकी समस्या हल हो जाती।

अरुंधति के आरोप का जवाब एक जवाबी आरोप हो सकता है। हो क्या सकता है, है। वो ये कि इस देश को साम्राज्यवादी देशों में बैठी चर्च और चर्च की संस्थाएं, इस देश में उनके दलालों के ज़रिये चला रही हैं। कांग्रेस और बड़े मीडिया घरानो से लेकर बड़े पूँजीपतियों में उनकी पैठ है। सोनिया गाँधी उसकी मुख्य एजेंट हैं, जिन्होने कांग्रेस पार्टी की सभी मुख्य ज़िम्मेदारियां ईसाईयों को सौंप रखी हैं। प्रणय राय और सुज़ाना अरुंधति राय उनके सेनापति हैं जो अपनी रिश्तेदारी ज़ाहिर होने देते हैं न उनकी ईसाईयत कि कहीं उनकी साज़िश खुल न जाय? मार्क्सवादी और ख़ासकर माओवादी भी इस साज़िश में शामिल हैं। ये जहाँ सक्रिय होते हैं, धर्म परिवर्तन होने लगते हैं। चर्च की एक शाखा है जो खुले तौर पर इस तरह के माओवादी आन्दोलनों की वक़ालत करती रही है। अधिकतर माओवादी नेता ईसाई हैं। इन सब तथ्यों की रौशनी में ये सिद्ध होता है कि भारतीय राज्य (और पूँजी भी, उसे भी लपेटने में क्या जाता है) एक कट्टरवादी ईसाई संस्था है। इस का क्या जवाब है? यहाँ आप चाहें तो हँस सकते हैं।

मुसलमानों पर अत्याचार की भी हर दम दुहाई देने वालों को ये समझना चाहिये इस देश के विभाजन के वक़्त मुसलमानों का अभिजात वर्ग, जो ईरान, तूरान आदि से आया था और जिसने इस देश में छै सौ सालों तक शासन किया था। अंग्रेज़ों के जाने के बाद की एक जनतांत्रिक व्यवस्था में एक अल्पसंख्यक की कम महत्व की भूमिका में धकेल दिए जाने को तैयार नहीं था। और इसीलिए उसने अपने लिए एक नए, ख़ास मुसलमानों का राष्ट्र बनाने का रास्ता चुन लिया और पूरे देश से निकल-निकल कर वहाँ चला गया। बच कौन रहा? बचे वे रहे जो किसी बाहरी देश से नहीं आए थे। इसी देश में हज़ारों सालों से रह रहे थे, शायद शूद्र या दलित रूप मे और फिर बौद्धों के रूप में। वे तब भी पिछड़े हुए थे और आज भी पिछड़े हुए हैं। वे राज्य या समाज की किसी साज़िश की तहत पिछाड़े नहीं गए हैं। मुसलमानों के अभिजात वर्ग के जिस हिस्से ने इसी देश में रहने का चुनाव किया, उसके प्रति न तो राज्य कोई भेदभाव करता है और न ही समाज। और वे किस लिहाज़ से किसी से पीछे हैं? क्या एक गहरे तौर पर सवर्ण, हिन्दू, साम्प्रदायिक समाज फ़िल्मों में ख़ानों और क्रिकेट में पठानों को लेकर इतना लड़िया सकता है?

हिन्दू-मुस्लिम तनाव की राजनीति की असफलता ही इसका सबसे बड़ा सबूत है कि तथाकथित हिन्दुत्व न तो बहुसंख्यक लोगों के मानस में है और न राज्य के चरित्र में। अगर ऐसा होता तो मस्जिद तोड़ने के लिए न इतना आन्दोलन करना पड़ता और न एक मन्दिर बनाने के लिए इतना इंतज़ार। उल्लेखनीय है कि तुर्की में पुराने गिरजाघरों को मस्जिदों में बदलने में न कोई आन्दोलन चलाना पड़ा था और न कोई देर लगी थी। यहाँ आन्दोलन करना पड़ा क्योंकि लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, उन्हे उत्तेजक भाषणों से भड़काना पड़ा। और उतने सब के बावजूद भाजपा कभी बहुमत न पा सकी और अब वापस मध्यमार्ग तलाश रही है। दंगो के हालात और परिणाम के आधार पर चरित्र आकलन करना भूल है- दंगे अस्थायी पागलपन होते हैं -टेम्परेरी मैडनेस। अपराधियों को उचित दण्ड मिलने में देर, किसी राज्य के चरित्र का द्योतक नहीं बल्कि तात्कालिक निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार के लक्षण हैं।

समस्याए है; कमज़ोरों, अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय होता रहा है, मगर कोई भी परिवर्तन रातों-रात नहीं होता। बीमार को चंगा करने के लिए बिजली के झटके नहीं, औषधि चाहिये होती है। और पिछड़ापन सिर्फ़ शूद्रों, दलितों की सोच में ही नहीं, सवर्णों की सोच में भी है। समाज में उसकी उपस्थिति और आम जीवन में उसके व्यवहार को राज्य के चरित्र की तरह चिह्नित कर देना, मुझे तो बचकाना चिंतन लगता है। और उस पिछड़ेपन को बदलने की ताक़त किसी क्रांतिकारी पार्टी में नहीं, बल्कि सिर्फ़ पूँजीवाद में है। क्रांतिकारी दलों का हिंसक हस्तक्षेप जातीय नरसंहारों को जन्म देता है। जबकि बिना किसी बहस, किसी जनजागरण अभियान, बिना किसी धरना, जुलूस, प्रदर्शन और बिना किसी नरसंहार के शहर में विस्थापित हो कर दलित ठेकेदारी कर रहे हैं और तमाम सवर्ण उनके नीचे मज़दूरी कर रहे हैं। माओवादियों का बदलाव का रास्ता ज़बरदस्ती का रास्ता है, जबकि पूँजीवाद (भले ही दलाल) सहज रास्ता है।

***

एक समय में मेरा भी ये विचार बना था कि आतंकवादी इस भ्रष्ट संसार में अकेले ऐसे लोग बचे हैं जो ईमा्न और सच्चरित्रता से अपने जीवन को निर्देशित कर रहे हैं, जबकि पूँजी उन सारे तत्वों को पोषित कर रही है जिन्हे इब्राहिमी परम्परा में सेवेन डेडली सिन्स के बतौर पहचाना गया है। हालांकि अब मेरा मानना है कि वे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिगामी शक्तियां है जो ख़ून-ख़राबे के सिवा कुछ नहीं लायेंगी और न ही वे किसी और चीज़ के क़ाबिल हैं क्योंकि सिर्फ़ अपने को ही सही समझने का बोध उनके अन्दर इतना तगड़ा जमा हुआ है कि वे सारे उन लोगों को जो उनके रास्ते पर नहीं चल रहे पथभ्रष्ट और इसीलिए मारे जाने योग्य घोषित कर देते हैं। पाकिस्तान में आजकल जो मुसलमान ही मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं, वह इसी चिन्तन का परिणाम है।

***

सी पी आई, माओइस्ट के महासचिव कौमरेड गणपति भारत के शासक वर्ग को प्रतिक्रियावादी कहते हैं जो प्रगतिशील का विलोम है और जिसका अर्थ होता है आगे बढ़ने के बजाय पीछे की अवस्था में लौटने वाला। मैं समझ नहीं पाता कि किस परिभाषा से माओवादी अपने आप को प्रगतिशील और राज्य को प्रतिक्रियावादी मानते हैं। यहाँ तक कि गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहार के आरोपी मोदी भी अपनी आर्थिक नीतियों में प्रतिक्रियावादी नहीं कहे जा सकते क्योंकि वो उस पूँजीवाद को बढ़ावा दे रही हैं जो जाति, धर्म और राष्ट्रीयता जैसे बनावटी विभाजकों को गला देता है। जबकि इस्लामी आतंकवादी जो शरिया को दुबारा लागू करने के लिए हर जगह संघर्ष कर रहे हैं, उन्हे कौमरेड प्रगतिशील शक्ति मानते हैं?

कौमरेड गणपति आतंकवादियों की पक्षधरता एक अलग नज़रिये से करते हैं.. कौमरेड मानते हैं कि तालिबान, अल क़ाएदा आदि प्रगतिशील शक्तियां हैं क्योंकि वे अमरीकी साम्राज्यवाद से संघर्ष कर रहे हैं और उसके नाश में क्रांतिकारी शक्तियों का सहयोग कर रहे हैं। भूमण्डलीय साम्राज्यवाद के विनाश से इस्लामी जनता अपनी दकियानूसी विचारधारा से जाग उठेगी और वर्गहीन समाज बनाने की ओर बढ़ चलेगी। पता नहीं कौमरेड ये क्यों भूल जाते हैं कि इस्लाम ख़ुद एक वक़्त में साम्राज्यवादी विचारधारा था और तब इस आर्थिक साम्राज्यवाद का नामोनिशां भी नहीं था। ये भूमण्डलीय साम्राज्यवाद, पुराने स्वरूप को नष्ट कर रहा है तो कौमरेड को लग रहा है कि पुराना प्रगतिशील है, क्रांतिकारी है और नया प्रतिक्रियावादी। कैसे सर के बल खड़े हैं कौमरेड?

(जारी)

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३



सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार भारत में आज जो चार प्रकार के जन पाए जाते हैं – निषाद (औस्ट्रिक; कोल, भील, शबर), किरात (मंगोलोइड, पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले चीनी तिब्बती भाषा मूल के), द्रविड़ (दास, द्रविड़, नाग) और आर्य (भारोपीय)- उन में आदिवासी निषाद सब से पुराने हैं। किरात, द्रविड़ और आर्य जनों में लम्बे समय तक हुई वर्ण संकरता के चलते ये तीनों संस्कृतियां और जन आपस में घुल मिल गए हैं। लेकिन निषाद संस्कृति ने जंगल के जीवन में ख़ुद को सीमित कर के अपने आदिम स्वरूप को अब तक बनाए रखा है। मुख्यधारा ने उनके साथ अन्याय और अनदेखा किया है। लेकिन आज के पहले कभी ऐसा मौक़ा नहीं आया कि आदिवासी जीवन, और मुख्यधारा का समाज ‘इतना’ आमने-सामने आ गया हो। ये पूँजीवाद की विराटता के चलते हो रहा है। इतना तो तय है कि वो कटे हुए नहीं रह सकते। बाहर के समाज ने उन्हे बुरी तरह से न सिर्फ़ घेर लिया है बल्कि अपनी लड़ाई में फंसा भी लिया है। इस लड़ाई में पूँजीवाद जीते या माओवादी, आदिवासी जीवन अब पहले वाली स्थिति में बना नहीं रह सकता। वो बदल चुका है। सवाल ये है कि वो अपने पर्यावरण को कितना बचाए रख पाते हैं जिसके साथ वो एकता महसूस करते हैं?

माओवादियों के लिए आदिवासियों को उनका पर्यावरण, उनका जंगल, उनकी ज़मीन दिला देना उनका लक्ष्य नहीं है। वे इस देश में न्यू डेमोक्रेसी क़ायम करना चाहते हैं, क्योंकि यह देश अभी भी अर्ध-सामंती, अर्ध औपनिवेशिक अवस्था में फंसा हुआ है। न्यू डेमोक्रेसी के बाद वो पूँजी का विकास करके समाजवाद के रास्ते पर बढ़ चलेंगे और मार्क्स और माओ के सपने का समाज बनाएंगे। न तो उनके पास न्यू डेमोक्रेसी की बहुत कोई व्यावहारिक धारणा है और न ही पूँजी के विकास को लेकर भी कोई ठोस योजना। न जाने क्यों वे ये भी नही देख पाते कि राज्य के द्वारा पूँजी के विकास का मॉडल बुरी तरह नाकाम हो चुका है और चीन तक ने बिना लोकतंत्र लाए पूँजी के लिए खुला बाज़ार खोल दिया है। मज़े की बात ये सोचने की है अगर माओवादी चीन में होते तो क्या करते? क्योंकि वहाँ तो भारत के पासंग बराबर भी लोकतंत्र नहीं है और पूँजी के विकास के लिए जनता की यथास्थिति का दमन वहाँ जिस तरह होता है उसे जान कर सिंगूर के किसान बुद्धदेब बाबू के प्रति अपने प्रतिरोध को लेकर कुछ अपराधबोध पाल सकते हैं।

***

सर्वहारा वर्ग के पक्ष से विकास करने वाली व्यवस्थाओं का रेकार्ड बहुत रक्तरंजित रहा है। और मज़े की बात ये है कि सत्तर साल तक सोवियत संघ में समाजवाद रहने के बाद जब वहां लोकतंत्र आया तो ऐसा नहीं था कि वहाँ वर्ग विभेद बिला चुके थे? वे समाज में मौजूद बने रहे, भले ही सुप्तावस्था में? ये विचित्र बात कैसे सम्भव हुई? इसका क्या अर्थ है? तो इतना सब प्रपंच किसलिए, जब मनुष्य के मिज़ाज में जब कोई परिवर्तन आना ही नहीं है?

***

सलवा जुडुम को सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार आयोग की एक रपट के आधार पर बन्द करने का आदेश दे दिया जिसमें उसके ऊपर व्यापक स्तर पर मानवाधिकार हनन का आरोप था। लेकिन क्या माओवादी मानवाधिकार हनन के आरोप से मुक्त हो सकते हैं? क्या वे मानवाधिकार में विश्वास करते हैं? क्या है क्या मानवाधिकार? दोषी को सज़ा देने के प्रावधान हर व्यवस्था में है। आरोपी के दोष साबित होने के पहले तक दोषी के अधिकार के इर्द-गिर्द ही मानवाधिकारों का ताना-बाना है। मगर माओवादी तो इसी बात को दोष मानते हैं कि अगर कोई उनको लेवी देने से इन्कार करे या उनकी लड़ाई में उनका साथ न दे।

मज़े की बात ये भी है कि जो लोग देश में लोकतंत्र न होने की दुहाई देते नहीं थकते वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सलवा जुडुम पर बंदिश के आदेश को, राज्य और व्यवस्था के चरित्र का आकलन करते वक़्त उसे शामिल करना बिलकुल गोल कर जाते हैं। वो ये भी नहीं देखते कि माओवादियों से कैसे निबटा जाए इस बात पर भी सरकार एकमत नहीं है। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें, अलग-अलग मंत्री, यहाँ तक कि सेना प्रमुख भी अलग राय रखते हैं और उसे खुले मंच से बोलते हैं। ये स्वप्नदर्शियों के स्वप्नों का जनतंत्र भले न हो पर ये जनतंत्र के लक्षण नहीं है तो और किसके है?

***

लेकिन शायद जब वे कहते हैं कि इस देश में लोकतंत्र नहीं आया तो वे जहाँ हैं, उसको केंद्र में रखकर बोलते हैं और जब हम उसे सुनते हैं तो हम जहाँ है, उस में रहकर सुनते हैं। दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। शहरों में अपेक्षाकृत लोकतंत्र काफ़ी मज़बूत है और गाँव में लोकतंत्र अभी दूर के ढोल हैं, और सुहाने वाली बात तो दीगर ही है।

***

लेकिन हर समाज में हर काल में ऐसे लोग होते हैं जो हर बात का नकारात्मक पहलू ही देखते हैं, उन्हे हमेशा लगता है कि दुनिया से बद से बदतर होती जा रही है। वे बार-बार ये कहते हैं, 'सब कुछ सड़ रहा है, खोखला हो रहा है, मर रहा है'। वो कहते हैं, 'पहले का आम बड़ा मीठा होता था, अब तो आम खाने लायक नहीं रहा, आम में स्वाद ख़त्म हो रहा है'। बिना इस बात को ख़्याल में लाए कि इस देश में जनतंत्र था कब? जो सड़ कर, खोखला हो गया? अगर आदिवासियों के बीच में मैलन्यूट्रीशन है, एबजेक्ट पावर्टी है तो वो क्या अभी दस-बीस साल का परिणाम है? वो तो हज़ारों सालों से है। और इसलिए है कि वहाँ पूँजीवाद कह लीजिये, विकास कह लीजिये, जो नाम भी है उस कल्याणकारी प्रभाव का, वो नहीं पहुँचा है।

लेकिन अगर सरकार रोड बनाने जाये, मिसाल के लिए, और बिना किसानों को उचित प्रतिदान दिए कुछ खेतो को अधिग्रहीत कर ले तो वे इस का प्रतिरोध करते हुए कुछ ऐसा सुर ले लेते हैं कि जिसमें उचित प्रतिदान का आन्दोलन, रोड की मुख़ालफ़त का आन्दोलन बन जाता है। पूँजीवादी प्रगति के तमाम प्रतीक चिह्न क्रिकेट स्टेडियम, शौपिंग मौल्स, एअरपोर्ट, सब के विरुद्ध किसानी जीवन के चिह्नों को, जन संस्कृति के रूप में भिड़ा दिया जाता है। उचित मुआवज़े का आन्दोलन, पूँजीवादी विकास के विरोध का आन्दोलन बन जाता है। फिर शिकायत ये लगातार बनी रहती है कि देखिये कितना पिछड़ापन, कितनी ग़रीबी है, कितना कुपोषण है। चालीस बरस तक तो समाजवादी राह पर चलकर कहीं नहीं पहुँचने के बाद अभी कुछ विकास होना शुरु हुआ है। सब कुछ पलक झपकते सम्भव नहीं क्योंकि ये पूरा विकास ट्रिकल डाउन सिद्धान्त पर धरा हुआ है। विकास की दूसरी अवधारणा, मैं भी चाहता हूँ कि हो, कोई तो विकल्प हो जिसमें कम से कम तक्लीफ़ से अधिक से अधिक लोगों को समृद्ध किया जा सके। ऐसा कोई विकल्प बनना ज़रूर चाहिये लेकिन वो सिर्फ़ विरोध और प्रतिरोध से नहीं बनेगा, हिंसा से तो बिलकुल नहीं।

***

अमरीका और योरोप में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध एक उन्नत स्तर का है। वहाँ पूँजी का विकास हो चुका है। वहाँ का समाज को अगले स्तर में जाने के लिए बेचैन है। लेकिन भारत जैसे देश में पूँजी का विरोध का अर्थ है विकास का विरोध, प्रगति का विरोध। इस प्रस्थापना में एक आधारभूत अड़चन है: पर्यावरण। उसका क्या हल है, मैं नहीं जानता। लेकिन जो इस बात को मुझसे बेहतर समझते हैं या समझने का दावा करते हैं, वो माओवाद के पाले में कैसे जा कर खड़े हो सकते हैं जबकि माओवाद की पर्यावरण के प्रति कोई घोषित नीति नहीं है?

***

माइन का विरोध करने वालों ने पूरे जंगल को लैंडमाइनो से भर दिया है। ये जंगल की, पर्यावरण की रक्षा हो रही है या उसे युद्ध के उन्माद में एक दूसरे अफ़्ग़ानिस्तान में बदला जा रहा है? इस पर मीर तक़ी मीर का एक शेर याद आता है:

अब की जुनूँ में, फ़ासला शायद न कुछ रहे,
दामन के चाक का और गरीबाँ के चाक का।

(दामन का अर्थ कमरे के नीचे पहनने का वस्त्र होता है, आँचल नहीं जैसा कि आम समझ है, और गरीबाँ तो आप जानते ही हैं)

***

अरुंधति की रपट से पता चलता है कि जब आदिवासी गाँव में लोग रेडियो पर सुनते हैं कि नितीश और गुरुजी 'नक्सल तो हमारे भटके हुए बच्चे हैं' जैसी बात कर रहे हैं तो वे हँस पड़ते हैं क्योंकि ‘वे जानते हैं कि उनके नाख़ून और दाँत निकालने के कार्यक्रम से आप घड़ियां मिला सकते हैं’। ये हैरानी की बात नहीं है कि आदिवासी ऐसे किसी नेता पर यक़ीन नहीं करते जो उनके प्रति मुलायमियत बरत रहा हो। मगर ऐसा क्यों है? क्या वे अपने अनुभव से ऐसा जानते हैं जैसे हम गहरे तौर पर जानते हैं कि सारे नेता चोर और हरामी होते हैं, या ये माओवादी की शिक्षा का अंग है जिसमें किसी भी नरमी को छिपी हुई तेज़ी का संकेत समझो ताकि लड़ने का तेवर कभी मद्धम न पड़ने पाए? अगर ऐसा है तो यह दुनिया को सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पूर्वाग्रह से ही देखने की ज़िद है, कि हम ने तो तय कर लिया है कि मुख्यधारा हमारे ख़िलाफ़ है और हमें उनसे आर-पार का युद्ध करना है। अगर आप फ़ौज भेजते हैं तो हमारी बात की पुष्टि होती है, और अगर आप फ़ौज न भेजकर अमन की बातें करते हों तो हम जानते हैं कि ये ढकोसला है और हम आप की बात पर हँसते हुए फ़ौज के आने की तैयारी करते जाते हैं।

***

बहुत सारे अन्याय जो मुख्यधारा के समाज में होते रहे हैं, होते हैं, वो आदिवासी समाज में भी पाए जाते हैं- जैसे स्त्रियों के प्रति भेदभाव या मुखिया द्वारा बाक़ी लोगों के साथ अन्याय। माओवादी इन पुरातन मान्यताओं और रिवाज़ों के खि़लाफ़ भी लड़ते हैं। मज़े की बात ये है कि पूँजीवाद भी उनके ख़िलाफ़ लड़ रहा है, उसके ऊपरी संदेश पर मत जाइये, वो जो जीवन बना रहे है उसे देखिये। वो पुरानी हर चीज़ को कचरे में डाल रहा है। नए मूल्य गढ़ रहा है। पुराने को नष्ट करने के पाप के लिए माओवादी तब उसकी निन्दा करते हैं और अपने स्तर पर वही काम करते हैं। ये बड़ी अजब बात है कि माओवादी, ऐतिहासिक भौतिकवाद में विश्वास रखने के बावजूद आदिवासी-खेतिहर समाज में नए मूल्य के बीज डाल रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि बिना स्थितियां बदले ही मूल्य पक्के पेड़ बन जाएंगे और आगे तक फल देते रहेंगे। जब उत्पादन के मोड में फ़र्क़ नहीं आया है तो इस बात की क्या गारण्टी है कि माओवादी सरबराहों के हटते ही पुराने मूल्य वापस न लौट आयेंगे? सलवा जुडुम वाले माओवादियों का विरोध करते हुए उन पुरानी मान्यताओं की पुनर्स्थापना का भी नारा लगाते हैं जिन्हे माओवादियों ने रोका है, जैसे औरतों को बीज न बोने देना, उन्हे पेड़ पर न चढ़ने देना, और एक से अधिक शादी की आज़ादी लेना। वैसे ही जैसे भाजपा एक उग्र हिन्दुत्व का रूप धर कर आती है।

***

पुलिस वालों द्वारा की जा रही मुठभेड़ों में किए गए फ़र्ज़ी एनकाउन्टर और माओवादियों द्वारा जनअदालत के तुरत-फ़ुरत न्याय में फ़र्क ये है कि जहाँ पुलिसवालों के एन्काउन्टर को क़ानून की मान्यता नहीं मिली हुई है। और राज्य उस नृशंसता की भर्त्सना करता है और उस के लिए मौक़ा पड़ने पर अपराधी पुलिस वालों को दण्डित भी करता है। लेकिन जनता की सामूहिक शिरकत वाली जनअदालतों का न्याय उस नृशंसता को संस्थाबद्ध न्याय को चोला पहना देता है। जिसे अरुंधति इसलिए भारतीय अदालत के न्याय से ऊपर इसलिए मानती हैं क्योंकि उसमें जनता साक्षात उपस्थित है और फ़ैसले की भागीदार है। दूसरी तरफ़ उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, जनसमूह और उसकी आकांक्षाओं से बहुत पहले कट चुके हैं। इस राज्य की घिसटती हुई न्याय व्यवस्था के बारे में तो हम बहुत सुन चुके हैं लेकिन जन अदालतों पर अरुंधति की बात के सन्दर्भ में नीत्शे का एक वचन याद करने योग्य है, 'व्यक्तियों में पागलपन और वहशत एक अपवाद है लेकिन समूह में हमेशा एक नियम'। अकेला आदमी दंगा नहीं करता, दंगा एक सामूहिक व्यवहार है। इस तर्क को खींच कर यहां तक ले जाया सकता है कि सामूहिकता एक पाशविक वृत्ति है और निजता एक मानवीय गुण। यह बात पूरी तरह से भले ठीक न भी हो पर इसमें सच्चाई के अंश ज़रूर हैं।

***

अरुंधति दंतेवाड़ा में माओवादियों द्वारा की गई ७६ सुरक्षाकर्मियों की हत्या की भर्त्सना करने से इंकार करती हैं। उनका तर्क है कि वे सताए हुए लोग हैं और उनके द्वारा बचाव में की गई प्रतिहिंसा की तुलना राज्य की संरचनात्मक हिंसा से नहीं की जा सकती। ये सिर्फ़ एक चतुर तर्क लगता है ताकि इस तुलना को अनैतिक बता कर इस का सामना करने से बचा जा सके क्योंकि अरुंधति के डिसकोर्स का पूरा संसार, हिंसा और अन्याय की अनैतिकता के आधार पर खड़ा किया गया है।

७६ सुरक्षाकर्मियों की ये हत्या आदिवासियों ने नहीं की, माओवादियों ने की। एक सोची-समझी नीति के तहत की। क्या है वह नीति? वो नीति है दुश्मन को एक कठोर सबक सिखाने की नीति, अपने इरादों की अटलता का सीधा संदेश देने की नीति। माओवादी दण्डकारण्य में एक पार्टी की तरह नहीं, एक समान्तर राज्य की तरह काम कर रहे हैं, जैसा कि अरुंधति ने स्वयं अपनी रपट में लिखा है। उनकी जनताना सरकारें सेना, अर्थ्व्यवस्था, कृषि, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सबसे महत्वपूर्ण न्याय, सभी मूलभूत अंगो का संचालन कर रही हैं।

ये कोई बेचारगी की, हताशा की आत्मघाती हिंसा नहीं है जैसे कि फ़िलीस्तीनी ख़ुद्कुश बम करते थे, और कुछ अभी भी करते हैं। ये सजग, सचेत, बचाव की नहीं और अपनी पहलकदमी वाली हमले के चरित्र की हिंसा है। अगर माओवादी चाहते तो उनमें से कुछ को जीवित भी छोड़ देते, गिरफ़्तार करते, मुक़द्दमा चलाते। उस न्याय का परिचय देते जिस की अपेक्षा वो भारत सरकार से करते हैं। लेकिन उन्होने ऐसा कुछ नहीं किया, उन्होने सब की हत्या की। जो बच गए वो ग़फ़लत में बच गए। क्या ये अजीब नहीं है कि अरुंधति के दो मापदण्ड हैं, एक माओवादियों के लिए और दूसरा राज्य के लिए?

(जारी)

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२

 

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स - २


हमारे समाज में पूँजीवाद के सकारात्मक पहलू की समझ ग़ैर-मौजूद है। हम हमेशा पूँजीवाद को पिछले समाज के या वर्तमान समाज के नज़रिये से देखते हैं और हो रही उथल-पुथल के लिए उसे ज़िम्मेदार मानते हैं, और गरियाते हैं। जैसे हम हमेशा ये दुहाई देते हैं कि पूँजीवाद यहाँ पर सामन्ती तत्वों से समझौता कर रहा है, उस से लड़ नहीं रहा। पूँजीवाद किसी से लड़ना नहीं चाहता। वो बाज़ार को, वस्तुओं को, सुविधाओं को दूर-दूर तक फैलाना चाहता है। और इस के लिए वह सबसे सरल रास्ता पकड़ता है। भ्रष्टाचार आसान राह है, ईमानदारी बड़ी कठिन है। ईमानदारी अड़ियल है, बेलोच है, भ्रष्टाचार बड़ा लचीला है। ईमानदार आदमी सिर्फ़ अपने आदर्शों की सोचता है, भ्रष्ट आदमी समझौते का, बीच का रास्ता तलाशता है। पूँजीवाद भ्रष्ट है क्योंकि पूँजीवाद अपनी प्रकृति में ही समझौतापरस्त है।

***

पूँजी क्या है? मार्क्स के ही शब्दों में, पूँजी सरप्लस लेबर है। यानी मज़दूर की उचित मज़दूरी का ना दिया गया हिस्सा, जो पूँजीपति मज़दूर को न देकर अपने पास रख लेता है, वही पूँजी है। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि पूँजीपति पूँजी को अपने पलंग के नीचे ज़मीन में गाड़ कर नहीं रखता, जैसे कि मध्ययुग में सभी लोग रखते थे। वह पूँजी को समाज में वापस निवेश कर देता है। इस निवेश के ज़रिये समाज में नई सम्पदा और नई नौकरियों की सृष्टि होती है। यह सम्पदा कही जाती है कि किसी अम्बानी या टाटा की सम्पत्ति है मगर असल में वो एक पब्लिक प्रापर्टी परोक्ष रूप से बन चुकी है। क्योंकि उसका मालिकाना आज की तारीख़ में प्राइवेट लिमिटेड नहीं बल्कि पब्लिक लिमिटेड है। ये सही है कि उस संस्थान से होने वाले मुनाफ़े का सबसे बड़ा हिस्सा उस अम्बानी की जेब में जा रहा है लेकिन वह अहम नहीं है। अहम है क्रिएशन ऑफ़ वेल्थ। तर्क यह दिया जाता है कि पूँजीवाद, जो प्राकृतिक सम्पदा पहले से मौजूद है उस का कमोडिफ़िकेशन करता है। ठीक है, पानी और ज़मीन जैसी चीज़ों के साथ यही हो रहा है। लेकिन बिजली, सड़क और टेलेकाम, इन्टरनेट जैसी सुविधाओं के बारे में क्या कहा जाएगा? ये सचमुच क्रिएशन ऑफ़ वेल्थ है।

इस पर सवाल यह आता है कि अगर यह है भी तो क्या ऐसा सम्भव नहीं हो सकता कि इस सम्पदा की रचना के काम को सरकार अपने हाथ में ले ले और उसे इस तरह से अंजाम दे जिसमें आदमी का शोषण कम से कम हो। मेरा मानना है कि ये नहीं हो सकता। इसके प्रयोग किए गए और असफल हो गए। इसलिए असफल हो गए क्योंकि सरकार द्वारा उसे अंजाम देने के लिए उसके लिए एक नीति होनी पड़ेगी और एक योजना होनी पड़ेगी और उसका कार्यान्वन होना पड़ेगा। ये सब तभी हो सकता है कि जब आप ठीक-ठीक जानते हो कि पहुँचना कहाँ है? पूँजीवादी व्यवस्था एक विकसित होती हुई हस्ती है। उसके विकास का पूर्वानुमान किया जा सकता है लेकिन उसमें ग़लतियां होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाएगी। किसी पेड़ के विकास का पथ हम जानते हैं लेकिन अगर हम उसके विकास को नियोजित करने लगें तो हमें बजाय उसे मदद करने के उसमें बाधा बन जायेंगे। लेकिन पेड़ सिर्फ़ उपमा है और पूँजीवाद अपनी गति में बहुत तोड़-फोड़ करता है, इसलिए अलग-अलग मौक़ो पर कभी ढीली, कभी कठोर नीति की ज़रूरत होती है।

यहाँ पर यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि पूँजीवाद कोई आसमान से लाई गई और दुनिया पर थोपी गई व्यवस्था नहीं है। वो मनुष्य के हज़ारों साल के स्वाभाविक विकास की एक मंज़िल है। मनुष्य की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। किसी एक आदमी और किसी एक समाज और किसी एक देश की नहीं, पूरी मनुष्यता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति। पूँजीवाद कैसे विकसित होगा इसका निर्धारण करने और उसकी पूर्वयोजना करने की कोशिश सोशलिस्ट सरकारें ही नहीं, दुनिया का हर कारपोरेशन करता है, हर निवेशक करता है। वो अपने निजी मुनाफ़े के लिए शोषण की किसी भी हद तक जाता है, और भ्रष्टाचार के मार्फ़त लोकतांत्रिक सरकारों में बैठे अपने पिट्ठुओं से दमनकारी नीतियां और क़ानून बनवाता है।

लेकिन इन निजी मुनाफ़ों के पार पूँजीवाद की वृहत्तर गति को भी देखना चाहिये। वो कर क्या कर रहा है? वो अधिक से अधिक लोगों तक अधिक से अधिक सुविधाएं और उत्पाद पहुँचाने की तरफ़ उन्मुख है। और ये एक ऐसी शै है जो हर कारपोरेट, हर निवेशक और हर सरकार की खींचतान की हर सम्भव कोशिश के बावजूद, स्वतंत्र है। इसका एक अपनी चाल है, एक अपनी गति है, एक अपना चरित्र है। क्योंकि करोड़ों-करोड़ो लोग जो इस तंत्र का हिस्सा है, इसे प्रभावित कर रहे हैं। जो लोग माल बना रहे हैं, जो ढो रहे हैं, जो प्रचार कर रहे हैं, जो बेच रहे हैं, जो ख़रीद रहे हैं, सब। सब की मिली जुली अभिव्यक्ति है यह पूँजीवाद। उनके रंग-ढंग, पसन्द-नापसन्द, चाहतों और आंकाक्षाओं से बनता है उसका चरित्र, और तय होती है उसकी गति। एक सरकार उसे तय नहीं कर सकती, करेगी तो ग़लती कर बैठेगी, जैसी करती रहीं है। इसी अर्थ में पूँजीवाद लोकतंत्र का जुड़वां भाई है। इस बात को एक उदाहरण से समझें- फ़्रांस में सरकोज़ी ने बुर्क़े पर बैन लगाया लेकिन वहाँ के स्टोर्स डिज़ाइनर बुर्क़ा बना और बेच रहे हैं। आम चुनावों में मुसलमानों की नापसन्दगी का यह मुद्दा एक प्रेशर ग्रुप की तरह पार्टियों के बीच महत्वपूर्ण हो जाएगा और बड़े दलों की हार-जीत में निर्णायक भी हो जाएगा, सम्भवतः।

***

ये समझने की ज़रूरत है कि आदिवासी इलाक़े जो पृथ्वी पर जीवन के तैयार हो रहे उस नए कलेवर की हद के बाहर रह गए सुदूरतम इलाक़े बने हुए थे जिसे पूँजीवाद या औद्योगीकरण कहा जाता है। उन इलाक़ो में इस तरह का संघर्ष उभरना दो तरह के संकेत देता है: एक तो यह कि यह कि विश्वस्तरीय बदलाव हर कोने अंतरे में घुसे कर उसे प्रभावित किए बिना नहीं रहने वाला, दूसरे यह कि मानवाधिकार और पर्यावरण के सवालों से रगड़कर पूँजीवाद का दमनकारी चरित्र सुधर सकता है। पूरी तरह न भी सही तो आम जन के बीच में ये सवाल एक जनमत रचेंगे और फिर उसके प्रत्युत्तर में पूँजीवाद को अपनी नीतियां बदलनी ही पड़ेंगी, क्योंकि जनमत ही पूँजीवाद की वो ईंट है जिस के सहारे से वो अपना पेट भरता है। और ठीक इसी वजह से वह लगातार उसे निंयत्रण करने की कोशिशें करता है। किसी सामन्त या बादशाह को कभी ये परवाह नहीं करनी पड़ी कि लोग क्या सोचते हैं। सच तो ये है कि आज तक अल्पमत ही बहुमत पर राज करता आया है, ये पहली बार है कि बहुमत अल्पमत पर हावी हो रहा है। वो अलग मसला है कि अल्पकालिक मुनाफ़े के लिए पूँजीवाद अल्पमत को भी तोड़-मरोड़ कर बहुमत के चोले में बेचने की तरक़ीबें करता रहता है।

***

राज्य के ख़िलाफ़ मोटे तौर पर एक शिकायत तो ये है कि वो जंगल और ज़मीन को पूँजीवादियों के हवाले कर देना चाहती है जो आदिवासियों को बेदख़ल कर के जंगल को उजाड़ देंगे और पहले से ख़तरे में पड़े पर्यावरण का संकट और गहरायेंगे। इस का एक अलग जवाब बनता है, जो नीतिगत है। लेकिन इसके अलावा जितनी भी शिकायतें हैं वो किसी आदिवासी समाज के विरुद्ध किसी विशेष पूर्वाग्रह से नहीं उपजती हैं, जैसा कि दिखाने की कोशिश की जाती हैं। अत्याचारो की अनदेखी, दमन, बलात्कार और भ्रष्टाचार जैसी घटनाएं सिर्फ़ इसलिए होती हैं क्योंकि उन इलाक़ों में न सिर्फ़ आर्थिक पिछड़ापन है बल्कि सामाजिक पिछड़ापन भी है। लोकतांत्रिक और मानवधिकार की चेतना इस देश में जनमी हुई नहीं है। योरोप जिस नवजागरण की सन्तान है, जिसने मानवाधिकार आदि की चेतना को जन्म दिया, नवजागरणहीन समाज, बुढ़ाए हुए बीमार समाज से उस चेतना की उम्मीद करना कुछ ज़्यादती है। मुझे लगता है हमारी सरकार को थोड़ी कड़ाई और मुस्तैदी और मध्यवर्ग के सचेत तबक़े को थोड़ा धीरज अपनाने की ज़रूरत है।

***

माओवादी आन्दोलन के साथ समस्या ये नहीं है कि वे आदिवासियों के मुद्दे उठा रहे हैं, और पूँजीवाद की मुख़ालफ़त कर रहे हैं। सरकार को सबसे अख़रने वाली बात ये है कि वे राज्य को चुनौती दे रहे हैं। वे एक समान्तर सत्ता बन कर उभर रहे हैं। वे न सिर्फ़ आदिवासियों के राजनीतिक, और सामाजिक जीवन के सभी पहलू सम्हाल रहे हैं बल्कि लोकतांत्रिक/पूँजीवादी राज्य की ही तरह अपने अस्तित्व की राह में आने वाले किसी भी रोड़े को हटाने में उसी क्रूरता का प्रदर्शन कर रहे हैं जिसके लिए परम्परागत राज्य जाना जाता है। चूंकि दोनों एक ही जैसे हैं, एक ही चरित्र के हैं, और एक दूसरे की प्रतिबिम्ब हैं, इसीलिए दोनों एक दूसरे को मिटा देने के लिए इस तरह आमादा हैं। एक जंगल में एक ही सी प्रबल हिंसा वाले दो शेर नहीं रह सकते। एक को दूसरे को मारना होगा या अपने इलाक़े से बाहर करना होगा। इस लिहाज़ से दोनों ही प्रकृति के पुराने क़ानून का पालन कर रहे हैं।

***

सुना गया है कि माओवादी आदिवासी गाँवों में बड़ा अच्छा प्रशासन चला रहे हैं। मगर जो उन की बात न माने उसे गोली मार देते हैं। इस दुनिया का जितना नुक़्सान सच्चे और आदर्शवादी लोगों ने किया है उतना किसी ने नहीं किया। सच्चाई, आदर्श इन सब में एक तरह की शुद्धता है। हिटलर भी एक शुद्धतावादी था वह एक शुद्ध आर्य प्रजाति तैयार करना चाहता था। वह मानता था कि चूंकि वह शुद्ध व सही है इसलिए ग़लत और अशुद्ध लोगों को गोली मार देने का उसे हक़ है। माओवादी कोई काम करने से पहले बहुमत की राय थोड़ी पूछते हैं, जिस को सही-सही ग़लत समझते हैं गोली मार देते हैं।

कुछ लोग, जिनमे सुदर्शिनी और सुतर्किणी अरुंधति भी हैं, वो बार-बार इन्ही लोगों के हवाले से पूछते हैं कि क्या यही मासूम आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं? जब अरुंधति कंधे पर बंदूक लटकाये मासूमों को देखती हैं तो उनका मोहित हो जाना स्वाभाविक है। उनकी जगह मैं होता तो मैं भी मोहित हो गया होता। हिंसा में एक शुद्धता है, एक सरलता है जो शहर के लोगों की भ्रष्ट समझौते की ज़िन्दगी जीने से विरूप हो गए उनके चरित्र और चेहरे में नहीं मिलती। ऐसी सुन्दरता आप को बाघ में भी देख सकते हैं। बाघ जब हिंसा करता है तो अपनी ज़रूरत, अपने अस्तित्व के लिए करता है। जिस का उसे कोई पाप नहीं लगता, बाघ का चेहरा निर्दोष बना रहता है और सम्भवतः आत्मा भी निर्मल बनी रहती होगी। इसी तर्क से अपने अस्तित्व की रक्षा कर रहे आदिवासियों को भी पाप न लगना चाहिये। और इसी वजह से उनके चेहरे और आत्मा में कोई मैल न पा कर अरुंधति सम्मोहित हो चली होंगी।

इस देश में एक बड़ा आन्दोलन 'सेव टाइगर' का भी चल रहा है। अक्सर कुछ लोग अरुंधति पर यह आरोप भी लगाते हैं कि वो टाइगर की ही तरह आदिवासियों को भी, संकट ग्रस्त प्रजाति की तरह, उनके जंगलो में संरक्षित देखना चाहती हैं। मैं उन से सहमत नहीं हूँ, बावजूद उन दोनों – टाइगर और आदिवासी- के बीच आदिम सौन्दर्य की एकरूपता के। मेरे अनुसार अरुंधति आदमी और जानवर में अन्तर करना जानती हैं।

मुश्किल सिर्फ़ इतनी है कि जब आदिवासी सी आर पी एफ़ के ७५ नौजवानों की हत्या करते है, जिन्होने अभी तक उनके गाँवों को नहीं जलाया था और उनकी औरतों का बलात्कार नहीं किया था, और जो बन्दूक लेकर आदिवासियों से लड़ने का काम सिर्फ़ इसलिए कर रहे थे कि उनका अपना अस्तित्व संकट में था और पुलिस की नौकरी उसकी रक्षार्थ ही थी, तो क्या तब चित्रगुप्त के लिए इन हत्याओं को पाप के खाते से दूर रखने में दुविधा का सामना न करना होता होगा?

***

आज कल टीवी पर नक्सली बहसों की अगुवाई करते हुए अर्णब गोस्वामी दलील देते हैं कि उन हमदर्दों को भी ग्रीनहण्ट के दायरे में लाना चाहिये जो इन माओवादियों से मिलते-जुलते और उन के बारे में लेखादि लिखते हैं। निश्चित ही उनका इशारा अरुंधति राय की ओर होता है। मध्यवर्ग में माओवादियों के विरोधियों का एक बड़ा तबक़ा उन से लगभग नफ़रत करने लगा है और शायद इसीलिए कैपीटलिस्ट मीडिया ने अरुंधति का लगभग बॉयकाट कर रखा है। अर्णव गोस्वामी जैसे लोगों में यह नफ़रत सबसे घिनौने तरीक़े से बाहर आती है जो लगभग फ़ासिस्टी सीमा पर है। मैं अरुंधति से सहमत नहीं हूँ लेकिन मैं अरुंधति के बोलने से सहमत हूँ। उन्हे बोलना चाहिये और पूरे ज़ोर से बोलना चाहिये, और हम सब को चाहिये कि उनको सुनें। भले न सहमत हों। हमारा लोकतंत्र उनकी नकार की आवाज़ से मज़बूत होता है। और जो वो बोलती हैं वो एक कड़वी सच्चाई है। आदिवासी इस देश और समाज के मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर पड़े लोग हैं जिनकी आवाज़ को मुख्यधारा में जगह नहीं है; अरुंधति उनकी आवाज़ हैं।

***

अरुंधति कितनी सुन्दर है और कितना अच्छा बोलती हैं! भाषा और भावों पर उनका कैसा एकाधिकार है! उनके चेहरे पर उच्च नैतिक बोध की एक आध्यात्मिक चमक है। अपने मधुर स्वर में वे जो बोलती हैं, लगता है कोई देवी बोल रही है। उन के जैसी कोई दूसरी स्त्री सामाजिक जीवन में नहीं है। मैं लगभग उनसे प्रेम करता हूँ और उनकी हर बात से सहमत होना चाहता हूँ। लेकिन मेरे भीतर प्रेम की, रूमान की नदी सूख चुकी है। काश मैं उन पर आँख मूँद कर भरोसा कर सकता; मेरा शुष्क विवेक, मेरे रुक्ष तर्क मुझे उस देवी से उलझा रहे हैं, मेरा ईश्वर मुझे क्षमा करे!


पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१



आज कल मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म आने लगी है। मेरी राजनीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। पूछा जा रहा है: तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है पार्टनर। मैं उनकी शर्म का समाधान नहीं कर सकता। मैं यह ब्लौग इसलिए नहीं लिखता कि मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म न आए। इसलिए भी नहीं लिखता कि कोई मुझे साम्प्रदायिक, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी आदि न समझ ले। मैं यह ब्लौग इसलिए लिखता हूँ कि मैं इस लिखाई के ज़रिये अपने बारे में, लोगों और दुनिया के बारे में अपनी समझ को साफ़ कर सकूँ। किन्ही बनी-बनाई समझदारियों और सूत्रों का समर्थन और मंज़ूरी देने के लिए नहीं लिखता।

मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि मेरा ये संवाद मेरे प्रगतिशील मित्रों से है, या यूँ समझिये कि मैं अपने आप से ही एक संवाद कर के अपने ही भीतर की पुरानी मान्यताओं का संस्कार, परिष्कार और सुधार कर रहा हूँ। इच्छुक लोग आगे पढ़ें अन्यथा यहीं से विदा हो सकते हैं। क्योंकि ये एक तरह की पोलेमिक है, या कहें कि अपने आप से एक लम्बी बातचीत

***

अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा उत्पादन के लिए तेल पर निर्भरता और उसका विश्व अर्थव्यवस्था का केन्द्रीय धुरी बने होना चिंता का विषय इसलिए है कि तेल एक सीमित संसाधन है। आने वाले समय में उसके कारण पूँजीवाद में बड़े संकट उठ खड़े होने वाले हैं। उसके विकल्प के तौर पर बायोफ़्यूल की जो बात की जा रही है, वह खाद्यान्न की क़ीमतों और सुलभता की समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझा देगा। मगर फिर भी इस मामले में उम्मीद है कि मानव अन्वेषणशीलता संकट आने तक कोई न कोई हल पा ही लेगी। दूसरी समस्या अधिक गहरी और भयंकर है।

योरोप और अमरीका में पूँजीवाद के विकास में जिस तरह से पृथ्वी के संसाधनो का दोहन हुआ है अगर उसी दर से संसाधनो का दोहन भारत और चीन और उसके बाद अफ़्रीका के देशों के भी विकास के लिए हो तो पृथ्वी की वर्तमान सूरत को बचाए रख पाना लगभग असम्भव माना जा रहा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि दोनों देशों को अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए एक-एक स्वतंत्र पृथ्वी चाहिये होगी। मिसाल के लिए अमरीका और योरोप में आदमियों और कारों का जो अनुपात है अगर चीन और भारत में वही सूरत बन जाय तो होने वाले प्रदूषण की कल्पना ही विकट है। अगर इस जहान में विष्णु जैसा कोई ईश्वर है तो ज़रूर ही उनके दरबार में पृथ्वी रूपी गाय अपने अति दोहन और अति शोषण की शिकायत करती, और पूँजीवाद और भूमण्डलीकरण नाम के दो दैत्यों से अपनी रक्षा के लिए प्रभु के आगे गुहार करती होगी।

***

सवाल ये है कि क्या मैं पूँजीवाद के पक्ष में हूँ? क्या मैं उसे एक आदर्श मानवीय व्यवस्था मानता हूँ? इसको ऐसे समझें कि मैं पूँजीवाद के समर्थन में नारे नहीं लगाता लेकिन मैं पूँजीवाद का विरोध करने के लिए सामन्ती, अर्ध-सामन्ती सम्बन्धों और व्यवस्थाओं के पक्ष में भी नहीं खड़ा हो जाता। पूँजीवाद इतिहास की कोई पहली व्यवस्था नहीं जो शोषण पर आधारित है। दास-प्रथा और सामंतवादी कृषि व्यवस्थाओं में कहीं अधिक शोषण था, हालांकि उनमें कुछ ऐसे मानवीय तत्व थे जो पूँजीवाद में एकदम बिला गए हैं, जैसे: प्रकृति के साथ तादाम्य और मनुष्य की अपनी अनुभूतियों के संसार में गहरी पैठ। लेकिन उन तत्वों के प्रति चाह रखने के बावजूद हमारे लिए उन व्यवस्थाओं में वापस जाना ना सम्भव है और ना वांछित।

आदिवासियों का मामला थोड़ा जटिल है। माना जा सकता है कि उनका जीवन और उनका सामाजिक तंत्र दोनों क़िस्म के शोषण से रहित है। न तो वे एक-दूसरे का शोषण करते हैं और न ही प्रकृति का। (हालांकि करते ज़रूर हैं मगर अपेक्षाकृत रूप से कम, अरुंधति की रिपोर्ट के ही अनुसार पहले आदिवासी मुखिया बाक़ी गाँव वालों का शोषण करते थे- सबसे ज़्यादा ज़मीन हड़पना, अपने खेत में काम करवाना, फ़सल में हिस्सा लेना आदि। बताइये ये शोषण आदमी का कितना गहरा स्वभाव है? आदमी क्या मैंने देखा है कि कुतिया का एक पिल्ला दूसरे को धकेल कर उसके हिस्से का भी दूध पी जाता है। बड़ा पेड़ छोटे पेड़ का पानी पी जाता है, धूप छीन जाता है। कहाँ तक घुसा है यह शोषण?) दास-प्रथा, सामंतवाद, और पूँजीवाद में, ये दोनों तरह के शोषण उत्तरोत्तर प्रबल होते जाते हैं।

पूँजीवाद, प्रकृति का इस बुरी तरह से शोषण कर रहा है कि पूरी मनुष्य़ जाति का अस्तित्व संकट में आ गया है। और आदमी और आदमी के बीच की खाई इतनी चौड़ी और गहरी पहले कभी न थी, जितनी अब है। पूँजीवाद का प्रभाव इतना व्यापक है कि कोई भी व्यक्ति इस व्यवस्था के बाहर रह कर अपनी बसर नहीं कर सकता। कोई सोचे कि मैं नकारता हूँ इस व्यवस्था को और चाहे कि मैं समाज से दूर चला जाऊँ, तो वो मुमकिन नहीं। पानी समेत प्रकृति के सारे तत्वों का कमोडीफ़िकेशन हो चुका है। एक हवा बची है, लेकिन शहरों में अब औक्सीज़न बार भी बन रहे हैं जहाँ जा कर आप कुछ मिनट तक शुद्ध हवा के मास्क पहन कर तरो-ताज़ा हो सकते हैं। सारे जंगल, सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े गिने और पहचाने जा चुके हैं। पहले वे सर्कस के दल में आप तक आते थे और अब आप नेशनल पार्क्स में जाकर उनका ‘बेहतर उपभोग’ कर सकते हैं।

यह बाज़ार सर्वव्यापी है। आदिवासी इलाक़ो को भी ये अपने घेरे में लेकर उनकी सम्पदा को रिसोर्स और उन आदिवासियों को उपभोक्ता बना देना चाहता है। यह एक दोहरे शोषण की नीति है। और आदिवासी अपने आदिकालिक जीवन की रक्षा करने के लिए पूरे जी-जान से लड़ रहे हैं। मुझे उनके साथ सहानुभूति है। उन्हे अपनी आदिम जीवन की रक्षा करने का पूरा हक़ है लेकिन वो उनकी लड़ाई है, मेरी नहीं। मैं यह नहीं समझता कि उनकी लड़ाई में मेरी मुक्ति के बीज भी छिपे हैं। माओवादी समझते हैं और उनके साथ, उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं, इस विश्वास से कि यह लड़ाई पूँजीवाद को परास्त करने की लड़ाई है। उनकी इस समझ पर मेरे और बहुत से दूसरे लोगों के बहुत सारे सवाल हैं।

***

पूँजीवाद ने क्या आदमी के जीवन में कुछ सार्थक बदलाव भी किया है? मनुष्यता के विकास में क्या उसका कोई योगदान है? क्या वो मनुष्यता का ही एक एक्सप्रेशन है, या आदमी के भीतर बैठे किसी शैतान का? जीवन को और समाज को इतना संगठित करने और इतना केन्द्रीकृत करने के पीछे पूँजीवाद की क्या प्रेरणा है?

***

केन्द्रीकरण अकेले पूँजीवाद का ही लक्षण नहीं है। सत्ता और सम्पदा के कुछ व्यक्तियों और घरानों और कारपोरेशन्स में केन्दित हो जाने की बार-बार दुहाई दी जाती है। ये समझना चाहिये कि ये वो ज़माना नहीं है कि धन को धनवान धरती के भीतर गाड़ कर रखता है। पूँजी वैसा धन नहीं है, उसे समाज में वापस निवेश करने से ही वह पूँजी बनी रहती है। सम्पदा सार्वजनिक है किसी की निजी सम्पत्ति नहीं। लेकिन यह जो केन्द्रीकरण दिखाई दे रहा वही एक स्थिति के बाद विकेन्द्रीकरण भी बन जाएगा, ऐसा मैं सोचता हूँ।

आदमी का शरीर भी एक केन्द्रीकृत संरचना है। और मानव समाज की संरचना आदमी की अभिव्यक्ति है। अलग-अलग समयों पर अलग-अलग व्यक्तियों और समूहों के छोटे-बड़े योगदानों से विभिन्न गतियों में विकसित होती हुई यह संरचना अभी भी आदमी के स्वभाव की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है। ऐसा नहीं है कि सामाजिक संरचना में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य के स्वभाव से बाहर के हैं। लालच और शोषण अगर सामाजिक संरचना में बुना हुआ है तो वो आदमी के स्वभाव से ही निकला है। यहाँ यह सवाल मौज़ूं बनता है कि अगर हिंसा, लालच और शोषण आदमी के स्वभाव की अविभाज्य गुण हैं तो क्या एक ऐसा समाज बनना सम्भव है जिसमें ये बातें अनुपस्थित हों? और अगर है भी तो क्या वो समाज आदमी के स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति होगा? इस सवाल का एकमात्र तार्किक जवाब मुझे यही लगता है कि – हिंसा, लालच और शोषण मनुष्य का सच्चा स्वभाव नहीं है। और अगर ऐसा है तो इन वृत्तियों से हीन उस सच्चे स्वभाव को पाए बिना, ऐसा सच्चा समाज बनाना कैसे मुमकिन है? कुछ लोग यह भी तर्क कर सकते हैं कि असल में मनुष्य का स्वभाव ‘कुछ नहीं’ है, वह जो है वह अपने समाज की निर्मिति है। क्या वाक़ई? क्या सामाजिक व्यवस्था अचानक एक दिन आसमान से उतर आई, किसी मनुष्य (या मनुष्यों) ने नहीं बनाई?

अलग-अलग समाज, सभी समाज आदमी के स्वभाव की अपूर्ण अभिव्यक्तियां हैं। क्योंकि, एक तो, मनुष्य का स्वभाव कोई एक स्थिर और निश्चित प्रत्यय है भी नहीं; और दूसरे आदमी की सामाजिक संरचना अभी भी विकसित हो रही है। मनुष्य प्रकृति की सबसे जटिल संरचना है और मनुष्य का समाज जटिल से जटिलतर की ओर बढ़ रहा है। आदिम आदिवासी समाज, सरलतम और आज का पूँजीवादी समाज जटिलतर संरचना है। यहाँ दूसरा मौज़ूं सवाल ये है कि कम अपूर्ण अभिव्यक्ति के बनिस्बत अधिक अपूर्ण अभिव्यक्ति को तरजीह देना क्या उचित है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कोई भी आदिवासी समाज में लौट चलने की वक़ालत नहीं कर रहा मगर मौके पर इस बिन्दु पर सफ़ाई बना लेना मुझे उचित लगा।

***

अब यह पूछा जाना चाहिये कि माओवादी कौन है? आज की तारीख़ में दो तरह के माओवादी हैं: एक तो आदिवासी लड़ाके जो बन्दूक ले कर सुरक्षा बलों से लड़ रहे हैं और दूसरे वे माओवादी जिन्होने उन आदिवासियों के हाथ में बन्दूक दी है। यहाँ पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि आदिवासी एक लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं, पहले तीर-कमान से लड़ते थे, अब बन्दूक से लड़ रहे हैं; सम्भव है, ठीक है। लेकिन यह भी मानना होगा कि वो बन्दूक उन्होने अपने जंगल में नहीं उगाई। किसी ने बाहर से ला कर उनके हाथ में दी है। मैं उन लोगों की बात करना चाहता हूँ। ये कौन लोग है? ये मार्क्सवादी है, लेनिनवादी हैं, माओवादी हैं, नक्सलवादी हैं।

ये सुशिक्षित मध्यमवर्गीय या पेटी बुर्ज़ुआ हैं जो युवाओं की सहज स्वप्नवृत्ति के प्रभाव में, समाज परिवर्तन की अवधारणाओं से लैस, क्रांति की राह पर निकल पड़ते हैं। क्रांति एक ज़बरदस्त एडवेंचर हैं, जोखि़म है, रोमांच है, रोमांस है। हर युवा इन सब के प्रति सहज ही आकर्षित होता है। और उस सामाजिक क्रांति को सम्भव करने के लिए जनता के बीच जाना होता है और ऐसी जनता के बीच जिसका शोषण हो रहा हो। लेकिन माओवादियों को ऐसी जनता शहर में नहीं मिलती, उसके लिए वे ऐसे गाँवों में जाते हैं जहाँ सामन्ती सम्बन्ध अभी भी प्रबल हैं या ऐसे जंगल में जहाँ ‘सभ्यता’ के चरण न गए हों। और उस जनता को क्रांति के लिए तैयार करते हैं।

वो ख़ुद अपने को जनता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं और जनता न होने की शर्म में हमेशा अपनी वर्ग चेतना से लड़ते रहते हैं। भले ही उनके वर्ग की माली हालत पश्चिमी देशों के सर्वहारा से बदतर हो, फिर भी वे अपने को जनता नहीं मान पाते और जनता की तलाश में अपने आप से दूर, बड़ी दूर चले जाते हैं। इस जनता के उद्धार के लिए ये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। और उनके पेटी बुर्ज़ुआ वर्ग के दूसरे सदस्य जो ऐसा नहीं कर पाते, वे उन्हे घृणा की नज़र से देखते हैं। वे पेटी बुर्ज़ुआ से आत्म-त्याग की उम्मीद रखते हैं और अपनी तथाकथित जनता से अपने स्वार्थ के लिए बन्दूक उठा लेने की न सिर्फ़ उम्मीद करते हैं बल्कि उसे लगातार प्रेरित करते हैं। जब ये जनता के पास आते हैं तो ये पहले से ही तय कर चुके होते हैं कि समाज क्या है, जनता क्या है, क्रांति क्या है, क्रांति का रास्ता क्या है। वह सिर्फ़ जनता को उस तरफ़ हाँकते हैं। जनता ‘उनके उस सपने’ का निमित्त है, जो जनता के हित के लिए उन्होने देखा है। वे जनता से बेहतर जनता का हित जानते हैं और उसके लिए जनता को, उनके न्यायोचित असंतोष को, एक युद्ध में बदल देना वो उचित समझते हैं।

ये लोग उग्र हैं क्योंकि इनका विश्वास समझौते में नहीं, संघर्ष में है। इसी बात को खींचकर ये भी कहा जा सकता है कि ये लोग रोमांच की तलाश में वो नौजवान हैं जो अपनी लड़ाई नहीं खोज सके, इसलिए दूसरों की लड़ाई में भाग लेने आ गए। ऐसा नहीं है कि इनके अपने जीवन में सब कुछ कुशल मंगल है और वहाँ लड़ाई की कोई सम्भावना नहीं। उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के जीवन में भी, उनके निजी जीवन में तमाम मुद्दे हैं जहाँ वे संघर्ष कर सकते हैं, लेकिन नहीं करते। क्योंकि अपने स्वयं के जीवन संघर्ष को पहचानने की क्षमता से हीन हैं और अगर पहचानते भी हैं तो उसे किस शिल्प में अभिव्यक्त करें ये नहीं समझ पाते, और शिल्प भी जानते हैं तो उसे क्रांति की राह के लायक़ न मानकर ख़ारिज कर देते हैं। क्योंकि उस के लिए लड़ना, चिंतित होना, परेशान होना उनकी लिए एक शर्म का विषय है, जिसे वे पेटी बुर्ज़ुआ चिन्तन मानते हैं।

आज देश में इतना बड़ा सर्वहारा वर्ग पैदा हो चुका है, लेकिन उनको कोई ख़बर नहीं। डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, अभिनेता, और गीतकार, संगीतकार, गायक सभी वेज लेबर में तब्दील हो चुके हैं। न तो उनके पास उत्पादन के औज़ार है और न ही उत्पाद के साथ कोई रिश्ता। वे वास्तविक और सच्चे तौर पर अपनी रचना और उत्पाद से विलगित हैं। लेकिन माओवादी ही नहीं, भारत की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी उन्हे सर्वहारा नहीं मानती। वे बुद्धिजीवी हैं कलाकार, पेटी बुर्ज़ुआ हैं जिनका काम जनता के साथ सहानुभूति करना और जनता के आन्दोलन में अपनी शिरकत करना है। न तो वे जनता की परिभाषा में आते है, न उनकी संस्कृति, जन संस्कृति है और न ही उन का अपना कोई आन्दोलन हो सकता है। क्योंकि वे खाए-पिए, अघाए हुए लोग हैं।

सच बात तो ये है कि ये दूसरे तरह के माओवादी, जिनकी बात मैं कर रहा हूँ, ये वही भगवा पहन कर युद्ध करने वाले क्रांतिकारी हैं जिनको आप बंकिम के आनन्दमठ में देखते हैं। ये भौतिकवादी नहीं, ये आदर्शवादी हैं। ये त्याग करने, अपने जीवन का बलिदान करने निकले हैं।

लेकिन यहाँ पर ये याद रहे कि ये लोग हमारे समाज के सबसे नेक, सबसे ईमानदार और संवेदनशील लोग हैं। पर क्या नेक, ईमानदार और संवेदनशील होना ही काफ़ी है? क्या अच्छी नीयत और अच्छे अंजाम में सीधा-सीधा रिश्ता होता है? अब जैसे संवेदनशील तो और भी मिल जाएंगे, जीवन के तमाम हलक़ो में लेकिन इनके जैसे ईमानदार सिर्फ़ एक और संगठन में मिलते हैं, वो है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आर एस एस के लोगों से मुझे और तमाम दूसरे लोगों को शिकायत है लेकिन उनकी ईमानदारी से कोई इंकार नहीं कर सकता। एक और ईमानदार और निष्ठावान और अपने ध्येय के लिए समर्पित लोग हैं जो अपने विश्वास के लिए जी जान लड़ा देते हैं। वो है आतंकवादी, आत्मघाती आतंकवादी। इस दलील के आधार पर मुझे लगने लगा है कि ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण, संवेदनशीलता, और आदर्शवादिता वो लक्षण नहीं है जो समाज में अमन और समृद्धि के कारक होते हैं।

(जारी )

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

सड़कों पर नाचते पाकिस्तानी

यह कोई तंज़ या कटाक्ष नहीं है। यह हो रहा है। पाकिस्तान की सड़कों और बाज़ारों में नौजवान लड़के नाच रहे हैं और लड़कियां भी। जी, लड़कियां भी। आज कल एक पाकिस्तानी को लेकर बहस भी गर्म है और लोग डरे हुए हैं कि वो शौएब मलिक हमारी अकेली टेनिस स्टारलेट प्यारी सानिया मिर्ज़ा को पाकिस्तान ले जाकर बुर्क़े में क़ैद कर देगा। यह वीडियो उन भीति आत्माओं के भय-शमन के लिए।



इस से यह पता चलता है कि हम पाकिस्तान के बारे में कितनी एकाश्मी राय रखते है। ये बात सही है कि पाकिस्तान में एक बड़ा तबक़ा औरत को बुर्क़े में बंद रखने और देश में इस्लामी क़ानून लागू रखने का ही हिमायती है, लेकिन साथ ही साथ एक दूसरा अभिजात वर्ग भी है जो उस पुरातन संस्कृति से उस तरह इत्तफ़ाक़ नहीं रखता। कह सकते हैं कि जैसे इस देश में संस्कृतियां वर्गो से विभाजित हैं वैसे ही उस देश में भी।

इसी तर्क को थोड़ा खींच कर यह भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में चल रहा ख़ूनी संघर्ष एक तरह का ‘सांस्कृतिक संघर्ष’ है। अभिजात वर्ग के द्वारा पोषित नई पूँजीवादी संस्कृति और आम जन की मध्ययुगीन इस्लामी संस्कृति के बीच। इस नज़रिये से उन घनघोर मार्क्सवादियों (सभी नहीं, कुछ) को क्या कहा जाएगा जो इस संघर्ष में अमरीका की पूँजीवादी संस्कृति के विरुद्ध लड़ने वाले तालिबान के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं?

ये नाच असल में कोका कोला का एक कैम्पेन है। इसकी पूरी रपट यहाँ देखें जहाँ और भी वीडियो हैं।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

एक पागल का प्रलाप


मेरे दोस्त फ़रीद ख़ान ने दो नई कविताएं लिखी हैं, उर्दू में लिखते तो कहा जाता कि कही हैं, लेकिन हिन्दी में हैं इसलिए लिेखी ही हैं।

हिन्दी में कविता मुख्य विधा है फिर भी ऐसी कविताएं विरल हैं।

मुलाहिज़ा फ़र्माएं:





एक पागल का प्रलाप


कम्बल ओढ़ कर वह और भी पगला गया,
कहने लगा मेरा ईश्वर लंगड़ा है.... काना है, लूला है, गूंगा है।
'निराकार' बड़ा निराकार होता है, नीरस, बेरंग, बेस्वाद होता है।
कट्टर और निरंकुश होता है।

वह कहता है, हर आदमी का अपना ख़ुदा होता है।
जैसे उसका अपना जूता होता है, कपड़ा होता है।
घर में या फ़ुटपाथ पर उसकी जगह होती है। उसी तरह उसका अपना ख़ुदा होता है।

जितने तरह के आदमी,
जितने तरह के पेड़, पौधे, पहाड़, और जानवर, उतने तरह के ईश्वर तो होने ही चाहिए।
इतना तो अपना हक़ बनता है।

जो ईश्वर को दुरदुराते रहते हैं, उनका भी ईश्वर होता है,
नंगे पांव, नंगे बदन, गरियाते, गपियाते।

पागल को सभी ढेला मारते हैं।
ईश्वर कभी लंगड़ा होता है क्या ?
काना होता है क्या ?
लूला होता है क्या ?
गूंगा होता है क्या ?

वह अचरज में इतना ही पूछ पाता है
कि हम लंगड़े, काने, लूले, गूंगे हो सकते हैं तो ईश्वर के लिए मुश्किल है क्या ?



मेरा ईश्वर

मेरा और मेरे ईश्वर का जन्म एक साथ हुआ था।

हम घरौन्दे बनाते थे,
रेत में हम सुरंग बनाते थे।

वह मुझे धर्म बताता है,
उसकी बात मानता हूँ,
कभी कभी नहीं मानता हूँ।

भीड़ भरे इलाक़े में वह मेरी तावीज़ में सो जाता है,
पर अकेले में मुझे सम्भाल कर घर ले आता है।

मैं सोता हूँ,
रात भर वह जगता है।

उसके भरोसे ही मैं अब तक टिका हूँ, जीवन में तन कर खड़ा हूँ।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...