माओवादियों के पक्ष की एक बात यह है कि जिनकी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिनके हितों की रक्षा की बात करते हैं उस जनता के साथ बिलकुल घुले-मिले हुए हैं। जनता और उनके प्रतिनिधियों में कोई बाधा नहीं है। दूसरी तरफ़ पूँजीवाद तंत्र के राज्य और जनता के बीच इतने-इतने संस्थान और उनकी जटिलताओं की इतनी दूरी है कि माओवादी व्यवस्था बड़ी सरल और सुलभ और जनतांत्रिक मालूम देती है। आदेश देने वालों लोगों और पालन करने वालों लोगों के बीच एक सीधा संवाद है, ऐसा आभास होता है। उनका यह गुण वरेण्य लगता है।
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एक तरफ़ माओवादी हैं जिनके केन्द्रीय नेतृत्व की तलाश पुलिस दिन-रात करती है, और जब वे अपना महाधिवेशन करते हैं जिसमें उनके सारे छोटे-बड़े नेता एक जगह इकट्ठा होते हैं तो किसी को कानो-कान ख़बर नहीं होती। पूरा पुलिस और गुप्तचर तंत्र बेकार है क्योंकि वे एक ऐसा आदमी भी नहीं खोज पाते जो माओवादियों की इस अधिवेशन का पता-ठिकाना उन तक पहुँचा दे। दूसरी तरफ़ हमारे संसदीय लोकतंत्र के राजनेता हैं जो निर्वाचित होने के पहले और बाद में भी जनता से दस हाथ की दूरी पर रहते हैं। एक्स, वाई, ज़ेड सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। पुलिस बल का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ़ इनकी सुरक्षा के लिए तैनात रहता है।
एक तरफ़ नेता और जनता में ज़मीनी, ठोस, गहरा रिश्ता है। दूसरी तरफ़ अब हालात ये पहुँच गए हैं कि संसदीय लोकतंत्र के नेता और जनता सिर्फ़ आभासी तल पर रूबरू हो सकते हैं। क्या पहला सम्बन्ध एक ऐसे गुज़रे ज़माने का अवशेष है जो सिर्फ़ आदिवासी इलाक़ो में ही सम्भव है जहाँ मानवीय प्रगति के चिह्न नहीं पहुँचे हैं? और दूसरा उस नए जीवन की पदचाप, जिस में वास्तविक से अधिक आभासी महत्वपूर्ण हो जाएगा?
ये कुछ माँ और बच्चे के सम्बन्ध जैसा है जिसमें माँ से बच्चा उत्तरोत्तर दूर ही होता जाता है; ये ब्रह्माण्ड की उस अवधारणा जैसा है जिस में सब पहले एक सिंगुलैरिटी में सिमटा हुआ था लेकिन अब सब कुछ, एक-दूसरे से दूर भाग रहा है; ये ईश्वर की उन कल्पनाओं जैसा है जिसमें पहले सब कुछ एक ही तत्व में सयुंक्त रहता है और फिर माया उसे जटिल, और जटिलतर बनाती जाती है।
बावजूद इन आकर्षक उपमाओं के, हमारी गहरी से गहरी कामनाओं की प्रेरणा इसी संयुक्त भाव की सरलता, इसी एकत्व, इसी तौहीद, इसी ज़मीनी, और ठोस रिश्ते की ओर होती है। मगर अजीब बात ये है कि इन आन्तरिक प्रेरणाओं और हमारे संघर्ष के बावजूद, ज़माना है कि विविधता और जटिलता और विलगाव की दिशा में भागा चला जा रहा है।
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यह पूछने पर कि क्या वे अपना आन्दोलन अहिंसा के साथ नहीं चला सकते, कौमरेड गणपति पलट कर पूछते हैं कि ये आप को राज्य से पूछना चाहिये कि वो प्रतिरोध के शांतिपूर्ण तरीक़ो का हिंसक दमन क्यों करते हैं? शांतिपूर्ण जुलूसों पर लाठीचार्ज और फ़ायरिंग क्यों करते हैं? हड़ताल करने वालों को जेलों में ठूंस कर यंत्रणा क्यों देते हैं? वे पूछते हैं कि वे क्यों पुलिस वालों को क्यों अनुमति देते हैं कि वे औरतों से बलात्कार करें? सही सवाल हैं!
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मगर दूसरी जगह गणपति साफ़ कहते हैं कि वे एक बड़े भूखण्ड को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं- "The general direction of the Congress is to intensify the people’s war and to take the war to all fronts. Concretely it decided to take the guerrilla war to a higher level of mobile war in the areas where guerrilla war is in an advanced stage and to expand the areas of armed struggle to as many states as possible. The destruction of the enemy forces has come into the immediate agenda in these areas without which it is very difficult to consolidate our gains or to advance further. Likewise, there is an immediate need to transform a vast area into the war zone so that there is enough room for manoeuvrability for our guerrilla forces."
हालांकि इस युद्धघोष का आधार यही समझ है कि बिना लड़े अन्याय से मुक्ति नहीं है। ये एक केन्द्रीय सवाल है जो आम मध्यवर्ग को व्यथित करता है, कि क्या अन्याय से मुक्ति बिना युद्ध के सम्भव नहीं? मार्क्सवादी मानते हैं कि नहीं। मेरे ख़्याल से गाँधी के बाद से इस समझ में विश्वस्तर पर अन्तर आया ज़रूर है। लेकिन यहाँ पर यह भी याद रखना चाहिये कि हिंसा प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य के भी स्वभाव का एक अविभाज्य हिस्सा है। पर मुश्किल तब होती है जब माओवादी राज्य की आलोचना का मुख्य आधार हिंसा को ही बनाते हैं, और उसे ही ख़त्म करने के लिए युद्ध छेड़े हुए हैं। मैं यहाँ जा कर उलझता हूँ कि अगर माओवादी सफल हो भी गए तो क्या नए समाज में हिंसा का कोई स्थान न होगा? हिंसा अपने आप में कोई चीज़ तो नहीं है ना.. वो तो अन्याय करने का एक हथियार है... और अगर माओवादी समेत, कृष्ण व मोहम्मद आदि महापुरुषों को स्मरण किया जाय तो न्याय करने का भी।
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इन सारे महापुरुषों को नमन है लेकिन ये सच है कि आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता। इस मामले में बुद्ध, ईसा, और गाँधी का मुरीद हूँ; हिंसा से हिंसा का शमन नहीं होता। न तो राज्य हिंसा से माओवाद का नाश कर सकता है और न ही माओवाद हिंसा से अन्याय का अंत कर के न्याय के युग का सूत्रपात कर सकते हैं। हिंसा से बस अल्पकालीन सत्ता का परिवर्तन मुमकिन है, जो हमने होते हुए देखा भी है। अहिंसा वाली डगर लम्बी है लेकिन उम्मीद की जाय कि पक्की है।
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कौमरेड गणपति अपने देश को साम्राज्यवाद के चंगुल से छुड़ाने के लिए सत्ता को हासिल करने के हिंसक रास्तों की वक़ालत करते हैं। हिंसक रास्तों की बात तो हम जानते हैं लेकिन जब वे देश कहते हैं तो साफ़ नहीं होता कि उनका अर्थ क्या है। क्योंकि वे राष्ट्रीयता के नाम पर चल रहे लगभग हर अलगाववादी आन्दोलन का समर्थन करते हैं। कश्मीरी राष्ट्रीयता के नाम पर कश्मीर में जो चीज़े होती रही हैं लगभग उसी स्वभाव की चीज़ें या उनकी अनुगूंज, शिवसेना और मनसे की नीतियों में देखी जा सकती है। यह जानना दिलचस्प होगा कि मनसे पर कौमरेड के क्या विचार होंगे?
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अर्ध-सामन्ती परिभाषा के चलते माओवादी सिर्फ़ उन्ही इलाक़ो में सक्रिय हो पाते हैं जहाँ अभी भी सामन्ती तत्व बचे हैं। नहीं तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े इलाक़ो से भी बड़े पैमाने पर शहरों में विस्थापन हो रहा है। बीवियों और पूर्वजों के ज़रिये ही बस गाँवों से रिश्ता बच पा रहा है। लेकिन माओवादी गाँव और आदिवासी क्षेत्रों को ही क्रांति का केन्द्र मान रहे हैं। बहुत मुमकिन है वे कुछ इलाक़े आज़ाद करा भी ले जायं मगर उसके बाद क्या? क्या वे आदिवासी या कृषि समाज में ही एक उत्तम न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने लगेंगे? या पूँजी का विकास करेंगे? कैसे करेंगे अनैतिक पूँजी के बरक्स एक नैतिक पूँजी का विकास? इस पर उनके पास कोई सफ़ाई नहीं है।
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एक बात और समझने की है। सम्पन्नता बैठे-ठाले किसी समाज में नहीं आती और न किसी दूसरे के आसरे से आती है। उस समाज के लोगों को ही उद्यम करना होता है। हर समय दूसरों पर उंगुली उठा कर इल्ज़ाम लगाना काफ़ी नहीं होता कि तुम ने मेरे विकास के लिए कुछ नहीं किया। बंजर भूमि से आने वाले मारवाड़ी ज़बरदस्त उद्यमशील होते हैं जबकि मुट्ठी भर दाने फेंक कर खाने-पीने के प्रति निश्चिन्त हो जाने वाले गंगा प्रदेश के लोग शायद सबसे क़ाहिल। अगर गंगा प्रदेश में विकास नहीं हुआ है तो इसके लिए सामाजिक बेड़ियों के अलावा इस बात की भी भूमिका है। और इसके लिए उन्हे मारवाड़ियों, गुजरातियों यहाँ तक के तक़्सीम के बाद शरणार्थियों के रूप में आए और अब बेहद सम्पन्न पंजाबियों को दोषी नहीं ठहराना चाहिये; कि वे हमारा शोषण करते हैं। मुश्किल असल में ये है कि गंगा प्रदेश के लोग, या कोई और दूसरे लोग जो इस बीमारी का शिकार हैं, स्वयं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं का ठीक से शोषण नहीं करते। यहाँ शोषण का प्रयोग भूल से नहीं जानबूझ कर किया गया है; उसके सकारात्मक अर्थ में।
भौतिक उन्नति और सांसारिक सम्पदा की आकांक्षाओ की पूर्ति, करुणा व त्याग जैसे आध्यात्मिक मूल्यों के रास्ते न होगी, स्वार्थ सिद्धि से ही होगी। सन्तोष का धन चाहिये, तो मार्क्स का नहीं गाँधी के ग्राम स्वराज का रास्ता देखिये। मगर उसके अलग हाहाकार हैं। बुद्ध की तरह मध्यमार्ग दिखाने वाला कौन है?
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क्रांतिकारियों की कार्यपद्धति में दो दौर देखने में आते हैं। एक जब कि वे स्थापित सत्ता का विरोध कर रहे होते हैं तो वे धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल से लेकर हिंसक कार्रवाइयों तक में संलग्न होते हैं और समाज में असंतोष को बढ़ावा देते हुए गृह-युद्ध की स्थिति की ओर खींचते जाते हैं। दूसरा दौर तब आता है जब वे, जिन भी कारणों के चलते, सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाते हैं। इस दौर में वे ये मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ़ वे ही, जनता और उसकी आंकाक्षाओं के सच्चे प्रतिनिधि हैं। इसलिए ऐसी किसी भी आवाज़ का वो दमन करने लगते हैं जो उनकी समझ के ख़िलाफ़ हो। धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल जैसी शांतिपूर्ण तरीक़ों का भी हिंसक दमन किया जाता है। इस के अनगितन उदाहरण हमारे इतिहास में मौजूद हैं। इन दोनों दौरों में एक चीज़ अलबत्ता ज़रूर समान रहती है, वो है उनके सही होने, और सब कुछ जानने का एहसास।
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म़ज़े की बात ये है कि अरुंधति स्वयं इस आशंका के प्रति सजग हैं कि जो पार्टी आज जनता के हितों की पैरोकार बनी हुई है, वही पार्टी सत्ता में आते ही अपना चरित्र बदल देगी। लेकिन वे इस भविष्य के डर को दरकिनार कर आज की लड़ाई लड़ना चाहती है। मुझे फिर लगता है कि यह समस्यामूलक है। ये अनुभव से न सीखने जैसा है। और वो भी तब जबकि माओवादी घोषित रूप से अपना उद्देश्य आदिवासी जीवन और जंगल को अक्ष्क्षुण रखना नहीं बल्कि इस देश में नवजनवादी क्रांति करना बताते हैं।
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कैसे आएगी ये नवजनवादी क्रांति? मनुष्य के इतिहास का सबसे उन्नत, सबसे न्यायपूर्ण, सबसे सभ्य समाज बनाने के लिए माओवादी किन शक्तियों को गोलबन्द कर रहे हैं? क्या वो शक्तियां आज के समाज के सबसे उन्नत उत्पादन सम्बन्धों से उपजी हैं? नहीं, बिलकुल नहीं! वे तो आज की तारीख़ में जो सबसे पिछड़े, सबसे पुरातन उत्पादन सम्बन्धों वाले समाज से आने वाले आदिवासी लोग हैं, छोटे या भूमिहीन किसान हैं। तो फिर जब उन्हे इस पुरातन अवस्था से सामाजिक परिवर्तन की सबसे आगे की पाँत में ले जा कर खड़ा कर दिया जाएगा तो वो कैसे नेतृत्व करेंगे? क्योंकि आज तो आप उन्हे परिवर्तन के पक्ष में नहीं बल्कि परिवर्तन के विरुद्ध गोलबन्द कर रहे हैं?
इसके बरख़िलाफ़ शहरों में, एक नया सर्वहारा पैदा हो रहा है, जो मज़दूर की किसी भी पहचानी हुई परिभाषा में फ़िट नहीं होता। वो जींस और बेसबौल कैप पहनता है, अंगेज़ी बोलता है। वो धर्म, जाति और देश के बन्धनों से लगभग टूट चुका है। वो बीपीओज़ और मौल्स में काम करता है। अख़्बारों और मीडिया में काम करता है। उसके न तो काम के कोई नियत घण्टे हैं और न ही श्रमिक क़ानून के कोई लाभ उसे मिलते हैं। वो व़कील है, डौक्टर है, अध्यापक है, पत्रकार है, गायक है, चित्रकार है, अभिनेता है, लेखक है। अपने उत्पादन के साधनों पर उसका कोई अधिकार नहीं है, और अपने उत्पाद से वो विलगित है। उसके पास खोने के लिए वो सारी चीज़े हैं जो उस ने कर्ज़ लेकर ख़रीदी हैं। शायद उसी के लिए मियां ग़ालिब ने लिखा था:
कर्ज़ की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।
वो नया मज़दूर है, वो नया सर्वहारा है। लेकिन न वो ये बात जानता है और न ही देश की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी, माओवादी तो बिलकुल नहीं।
*इस लेख में अरुंधति के हवाले आउटलुक में छपे उनके हालिया लेख 'वाकिंग विद कौमरेड्स' से हैं।
*कौमरेड गणपति के हवाले २००७ के उनके एक लम्बे साक्षात्कार से हैं।
(समाप्त)
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४
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एक तरफ़ माओवादी हैं जिनके केन्द्रीय नेतृत्व की तलाश पुलिस दिन-रात करती है, और जब वे अपना महाधिवेशन करते हैं जिसमें उनके सारे छोटे-बड़े नेता एक जगह इकट्ठा होते हैं तो किसी को कानो-कान ख़बर नहीं होती। पूरा पुलिस और गुप्तचर तंत्र बेकार है क्योंकि वे एक ऐसा आदमी भी नहीं खोज पाते जो माओवादियों की इस अधिवेशन का पता-ठिकाना उन तक पहुँचा दे। दूसरी तरफ़ हमारे संसदीय लोकतंत्र के राजनेता हैं जो निर्वाचित होने के पहले और बाद में भी जनता से दस हाथ की दूरी पर रहते हैं। एक्स, वाई, ज़ेड सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। पुलिस बल का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ़ इनकी सुरक्षा के लिए तैनात रहता है।
एक तरफ़ नेता और जनता में ज़मीनी, ठोस, गहरा रिश्ता है। दूसरी तरफ़ अब हालात ये पहुँच गए हैं कि संसदीय लोकतंत्र के नेता और जनता सिर्फ़ आभासी तल पर रूबरू हो सकते हैं। क्या पहला सम्बन्ध एक ऐसे गुज़रे ज़माने का अवशेष है जो सिर्फ़ आदिवासी इलाक़ो में ही सम्भव है जहाँ मानवीय प्रगति के चिह्न नहीं पहुँचे हैं? और दूसरा उस नए जीवन की पदचाप, जिस में वास्तविक से अधिक आभासी महत्वपूर्ण हो जाएगा?
ये कुछ माँ और बच्चे के सम्बन्ध जैसा है जिसमें माँ से बच्चा उत्तरोत्तर दूर ही होता जाता है; ये ब्रह्माण्ड की उस अवधारणा जैसा है जिस में सब पहले एक सिंगुलैरिटी में सिमटा हुआ था लेकिन अब सब कुछ, एक-दूसरे से दूर भाग रहा है; ये ईश्वर की उन कल्पनाओं जैसा है जिसमें पहले सब कुछ एक ही तत्व में सयुंक्त रहता है और फिर माया उसे जटिल, और जटिलतर बनाती जाती है।
बावजूद इन आकर्षक उपमाओं के, हमारी गहरी से गहरी कामनाओं की प्रेरणा इसी संयुक्त भाव की सरलता, इसी एकत्व, इसी तौहीद, इसी ज़मीनी, और ठोस रिश्ते की ओर होती है। मगर अजीब बात ये है कि इन आन्तरिक प्रेरणाओं और हमारे संघर्ष के बावजूद, ज़माना है कि विविधता और जटिलता और विलगाव की दिशा में भागा चला जा रहा है।
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यह पूछने पर कि क्या वे अपना आन्दोलन अहिंसा के साथ नहीं चला सकते, कौमरेड गणपति पलट कर पूछते हैं कि ये आप को राज्य से पूछना चाहिये कि वो प्रतिरोध के शांतिपूर्ण तरीक़ो का हिंसक दमन क्यों करते हैं? शांतिपूर्ण जुलूसों पर लाठीचार्ज और फ़ायरिंग क्यों करते हैं? हड़ताल करने वालों को जेलों में ठूंस कर यंत्रणा क्यों देते हैं? वे पूछते हैं कि वे क्यों पुलिस वालों को क्यों अनुमति देते हैं कि वे औरतों से बलात्कार करें? सही सवाल हैं!
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मगर दूसरी जगह गणपति साफ़ कहते हैं कि वे एक बड़े भूखण्ड को युद्ध क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं- "The general direction of the Congress is to intensify the people’s war and to take the war to all fronts. Concretely it decided to take the guerrilla war to a higher level of mobile war in the areas where guerrilla war is in an advanced stage and to expand the areas of armed struggle to as many states as possible. The destruction of the enemy forces has come into the immediate agenda in these areas without which it is very difficult to consolidate our gains or to advance further. Likewise, there is an immediate need to transform a vast area into the war zone so that there is enough room for manoeuvrability for our guerrilla forces."
हालांकि इस युद्धघोष का आधार यही समझ है कि बिना लड़े अन्याय से मुक्ति नहीं है। ये एक केन्द्रीय सवाल है जो आम मध्यवर्ग को व्यथित करता है, कि क्या अन्याय से मुक्ति बिना युद्ध के सम्भव नहीं? मार्क्सवादी मानते हैं कि नहीं। मेरे ख़्याल से गाँधी के बाद से इस समझ में विश्वस्तर पर अन्तर आया ज़रूर है। लेकिन यहाँ पर यह भी याद रखना चाहिये कि हिंसा प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य के भी स्वभाव का एक अविभाज्य हिस्सा है। पर मुश्किल तब होती है जब माओवादी राज्य की आलोचना का मुख्य आधार हिंसा को ही बनाते हैं, और उसे ही ख़त्म करने के लिए युद्ध छेड़े हुए हैं। मैं यहाँ जा कर उलझता हूँ कि अगर माओवादी सफल हो भी गए तो क्या नए समाज में हिंसा का कोई स्थान न होगा? हिंसा अपने आप में कोई चीज़ तो नहीं है ना.. वो तो अन्याय करने का एक हथियार है... और अगर माओवादी समेत, कृष्ण व मोहम्मद आदि महापुरुषों को स्मरण किया जाय तो न्याय करने का भी।
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इन सारे महापुरुषों को नमन है लेकिन ये सच है कि आग से आग को नहीं बुझाया जा सकता। इस मामले में बुद्ध, ईसा, और गाँधी का मुरीद हूँ; हिंसा से हिंसा का शमन नहीं होता। न तो राज्य हिंसा से माओवाद का नाश कर सकता है और न ही माओवाद हिंसा से अन्याय का अंत कर के न्याय के युग का सूत्रपात कर सकते हैं। हिंसा से बस अल्पकालीन सत्ता का परिवर्तन मुमकिन है, जो हमने होते हुए देखा भी है। अहिंसा वाली डगर लम्बी है लेकिन उम्मीद की जाय कि पक्की है।
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कौमरेड गणपति अपने देश को साम्राज्यवाद के चंगुल से छुड़ाने के लिए सत्ता को हासिल करने के हिंसक रास्तों की वक़ालत करते हैं। हिंसक रास्तों की बात तो हम जानते हैं लेकिन जब वे देश कहते हैं तो साफ़ नहीं होता कि उनका अर्थ क्या है। क्योंकि वे राष्ट्रीयता के नाम पर चल रहे लगभग हर अलगाववादी आन्दोलन का समर्थन करते हैं। कश्मीरी राष्ट्रीयता के नाम पर कश्मीर में जो चीज़े होती रही हैं लगभग उसी स्वभाव की चीज़ें या उनकी अनुगूंज, शिवसेना और मनसे की नीतियों में देखी जा सकती है। यह जानना दिलचस्प होगा कि मनसे पर कौमरेड के क्या विचार होंगे?
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अर्ध-सामन्ती परिभाषा के चलते माओवादी सिर्फ़ उन्ही इलाक़ो में सक्रिय हो पाते हैं जहाँ अभी भी सामन्ती तत्व बचे हैं। नहीं तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े इलाक़ो से भी बड़े पैमाने पर शहरों में विस्थापन हो रहा है। बीवियों और पूर्वजों के ज़रिये ही बस गाँवों से रिश्ता बच पा रहा है। लेकिन माओवादी गाँव और आदिवासी क्षेत्रों को ही क्रांति का केन्द्र मान रहे हैं। बहुत मुमकिन है वे कुछ इलाक़े आज़ाद करा भी ले जायं मगर उसके बाद क्या? क्या वे आदिवासी या कृषि समाज में ही एक उत्तम न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने लगेंगे? या पूँजी का विकास करेंगे? कैसे करेंगे अनैतिक पूँजी के बरक्स एक नैतिक पूँजी का विकास? इस पर उनके पास कोई सफ़ाई नहीं है।
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एक बात और समझने की है। सम्पन्नता बैठे-ठाले किसी समाज में नहीं आती और न किसी दूसरे के आसरे से आती है। उस समाज के लोगों को ही उद्यम करना होता है। हर समय दूसरों पर उंगुली उठा कर इल्ज़ाम लगाना काफ़ी नहीं होता कि तुम ने मेरे विकास के लिए कुछ नहीं किया। बंजर भूमि से आने वाले मारवाड़ी ज़बरदस्त उद्यमशील होते हैं जबकि मुट्ठी भर दाने फेंक कर खाने-पीने के प्रति निश्चिन्त हो जाने वाले गंगा प्रदेश के लोग शायद सबसे क़ाहिल। अगर गंगा प्रदेश में विकास नहीं हुआ है तो इसके लिए सामाजिक बेड़ियों के अलावा इस बात की भी भूमिका है। और इसके लिए उन्हे मारवाड़ियों, गुजरातियों यहाँ तक के तक़्सीम के बाद शरणार्थियों के रूप में आए और अब बेहद सम्पन्न पंजाबियों को दोषी नहीं ठहराना चाहिये; कि वे हमारा शोषण करते हैं। मुश्किल असल में ये है कि गंगा प्रदेश के लोग, या कोई और दूसरे लोग जो इस बीमारी का शिकार हैं, स्वयं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं का ठीक से शोषण नहीं करते। यहाँ शोषण का प्रयोग भूल से नहीं जानबूझ कर किया गया है; उसके सकारात्मक अर्थ में।
भौतिक उन्नति और सांसारिक सम्पदा की आकांक्षाओ की पूर्ति, करुणा व त्याग जैसे आध्यात्मिक मूल्यों के रास्ते न होगी, स्वार्थ सिद्धि से ही होगी। सन्तोष का धन चाहिये, तो मार्क्स का नहीं गाँधी के ग्राम स्वराज का रास्ता देखिये। मगर उसके अलग हाहाकार हैं। बुद्ध की तरह मध्यमार्ग दिखाने वाला कौन है?
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क्रांतिकारियों की कार्यपद्धति में दो दौर देखने में आते हैं। एक जब कि वे स्थापित सत्ता का विरोध कर रहे होते हैं तो वे धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल से लेकर हिंसक कार्रवाइयों तक में संलग्न होते हैं और समाज में असंतोष को बढ़ावा देते हुए गृह-युद्ध की स्थिति की ओर खींचते जाते हैं। दूसरा दौर तब आता है जब वे, जिन भी कारणों के चलते, सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाते हैं। इस दौर में वे ये मानकर चलते हैं कि वे और सिर्फ़ वे ही, जनता और उसकी आंकाक्षाओं के सच्चे प्रतिनिधि हैं। इसलिए ऐसी किसी भी आवाज़ का वो दमन करने लगते हैं जो उनकी समझ के ख़िलाफ़ हो। धरना, प्रदर्शन, जुलूस, हड़ताल जैसी शांतिपूर्ण तरीक़ों का भी हिंसक दमन किया जाता है। इस के अनगितन उदाहरण हमारे इतिहास में मौजूद हैं। इन दोनों दौरों में एक चीज़ अलबत्ता ज़रूर समान रहती है, वो है उनके सही होने, और सब कुछ जानने का एहसास।
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म़ज़े की बात ये है कि अरुंधति स्वयं इस आशंका के प्रति सजग हैं कि जो पार्टी आज जनता के हितों की पैरोकार बनी हुई है, वही पार्टी सत्ता में आते ही अपना चरित्र बदल देगी। लेकिन वे इस भविष्य के डर को दरकिनार कर आज की लड़ाई लड़ना चाहती है। मुझे फिर लगता है कि यह समस्यामूलक है। ये अनुभव से न सीखने जैसा है। और वो भी तब जबकि माओवादी घोषित रूप से अपना उद्देश्य आदिवासी जीवन और जंगल को अक्ष्क्षुण रखना नहीं बल्कि इस देश में नवजनवादी क्रांति करना बताते हैं।
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कैसे आएगी ये नवजनवादी क्रांति? मनुष्य के इतिहास का सबसे उन्नत, सबसे न्यायपूर्ण, सबसे सभ्य समाज बनाने के लिए माओवादी किन शक्तियों को गोलबन्द कर रहे हैं? क्या वो शक्तियां आज के समाज के सबसे उन्नत उत्पादन सम्बन्धों से उपजी हैं? नहीं, बिलकुल नहीं! वे तो आज की तारीख़ में जो सबसे पिछड़े, सबसे पुरातन उत्पादन सम्बन्धों वाले समाज से आने वाले आदिवासी लोग हैं, छोटे या भूमिहीन किसान हैं। तो फिर जब उन्हे इस पुरातन अवस्था से सामाजिक परिवर्तन की सबसे आगे की पाँत में ले जा कर खड़ा कर दिया जाएगा तो वो कैसे नेतृत्व करेंगे? क्योंकि आज तो आप उन्हे परिवर्तन के पक्ष में नहीं बल्कि परिवर्तन के विरुद्ध गोलबन्द कर रहे हैं?
इसके बरख़िलाफ़ शहरों में, एक नया सर्वहारा पैदा हो रहा है, जो मज़दूर की किसी भी पहचानी हुई परिभाषा में फ़िट नहीं होता। वो जींस और बेसबौल कैप पहनता है, अंगेज़ी बोलता है। वो धर्म, जाति और देश के बन्धनों से लगभग टूट चुका है। वो बीपीओज़ और मौल्स में काम करता है। अख़्बारों और मीडिया में काम करता है। उसके न तो काम के कोई नियत घण्टे हैं और न ही श्रमिक क़ानून के कोई लाभ उसे मिलते हैं। वो व़कील है, डौक्टर है, अध्यापक है, पत्रकार है, गायक है, चित्रकार है, अभिनेता है, लेखक है। अपने उत्पादन के साधनों पर उसका कोई अधिकार नहीं है, और अपने उत्पाद से वो विलगित है। उसके पास खोने के लिए वो सारी चीज़े हैं जो उस ने कर्ज़ लेकर ख़रीदी हैं। शायद उसी के लिए मियां ग़ालिब ने लिखा था:
कर्ज़ की पीते थे मय और समझते थे कि हाँ,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।
वो नया मज़दूर है, वो नया सर्वहारा है। लेकिन न वो ये बात जानता है और न ही देश की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी, माओवादी तो बिलकुल नहीं।
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*इस लेख में अरुंधति के हवाले आउटलुक में छपे उनके हालिया लेख 'वाकिंग विद कौमरेड्स' से हैं।
*कौमरेड गणपति के हवाले २००७ के उनके एक लम्बे साक्षात्कार से हैं।
(समाप्त)
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४