आज कल मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म आने लगी है। मेरी राजनीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। पूछा जा रहा है: तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है पार्टनर। मैं उनकी शर्म का समाधान नहीं कर सकता। मैं यह ब्लौग इसलिए नहीं लिखता कि मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म न आए। इसलिए भी नहीं लिखता कि कोई मुझे साम्प्रदायिक, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी आदि न समझ ले। मैं यह ब्लौग इसलिए लिखता हूँ कि मैं इस लिखाई के ज़रिये अपने बारे में, लोगों और दुनिया के बारे में अपनी समझ को साफ़ कर सकूँ। किन्ही बनी-बनाई समझदारियों और सूत्रों का समर्थन और मंज़ूरी देने के लिए नहीं लिखता।
मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि मेरा ये संवाद मेरे प्रगतिशील मित्रों से है, या यूँ समझिये कि मैं अपने आप से ही एक संवाद कर के अपने ही भीतर की पुरानी मान्यताओं का संस्कार, परिष्कार और सुधार कर रहा हूँ। इच्छुक लोग आगे पढ़ें अन्यथा यहीं से विदा हो सकते हैं। क्योंकि ये एक तरह की पोलेमिक है, या कहें कि अपने आप से एक लम्बी बातचीत।
***
अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा उत्पादन के लिए तेल पर निर्भरता और उसका विश्व अर्थव्यवस्था का केन्द्रीय धुरी बने होना चिंता का विषय इसलिए है कि तेल एक सीमित संसाधन है। आने वाले समय में उसके कारण पूँजीवाद में बड़े संकट उठ खड़े होने वाले हैं। उसके विकल्प के तौर पर बायोफ़्यूल की जो बात की जा रही है, वह खाद्यान्न की क़ीमतों और सुलभता की समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझा देगा। मगर फिर भी इस मामले में उम्मीद है कि मानव अन्वेषणशीलता संकट आने तक कोई न कोई हल पा ही लेगी। दूसरी समस्या अधिक गहरी और भयंकर है।
योरोप और अमरीका में पूँजीवाद के विकास में जिस तरह से पृथ्वी के संसाधनो का दोहन हुआ है अगर उसी दर से संसाधनो का दोहन भारत और चीन और उसके बाद अफ़्रीका के देशों के भी विकास के लिए हो तो पृथ्वी की वर्तमान सूरत को बचाए रख पाना लगभग असम्भव माना जा रहा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि दोनों देशों को अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए एक-एक स्वतंत्र पृथ्वी चाहिये होगी। मिसाल के लिए अमरीका और योरोप में आदमियों और कारों का जो अनुपात है अगर चीन और भारत में वही सूरत बन जाय तो होने वाले प्रदूषण की कल्पना ही विकट है। अगर इस जहान में विष्णु जैसा कोई ईश्वर है तो ज़रूर ही उनके दरबार में पृथ्वी रूपी गाय अपने अति दोहन और अति शोषण की शिकायत करती, और पूँजीवाद और भूमण्डलीकरण नाम के दो दैत्यों से अपनी रक्षा के लिए प्रभु के आगे गुहार करती होगी।
***
सवाल ये है कि क्या मैं पूँजीवाद के पक्ष में हूँ? क्या मैं उसे एक आदर्श मानवीय व्यवस्था मानता हूँ? इसको ऐसे समझें कि मैं पूँजीवाद के समर्थन में नारे नहीं लगाता लेकिन मैं पूँजीवाद का विरोध करने के लिए सामन्ती, अर्ध-सामन्ती सम्बन्धों और व्यवस्थाओं के पक्ष में भी नहीं खड़ा हो जाता। पूँजीवाद इतिहास की कोई पहली व्यवस्था नहीं जो शोषण पर आधारित है। दास-प्रथा और सामंतवादी कृषि व्यवस्थाओं में कहीं अधिक शोषण था, हालांकि उनमें कुछ ऐसे मानवीय तत्व थे जो पूँजीवाद में एकदम बिला गए हैं, जैसे: प्रकृति के साथ तादाम्य और मनुष्य की अपनी अनुभूतियों के संसार में गहरी पैठ। लेकिन उन तत्वों के प्रति चाह रखने के बावजूद हमारे लिए उन व्यवस्थाओं में वापस जाना ना सम्भव है और ना वांछित।
आदिवासियों का मामला थोड़ा जटिल है। माना जा सकता है कि उनका जीवन और उनका सामाजिक तंत्र दोनों क़िस्म के शोषण से रहित है। न तो वे एक-दूसरे का शोषण करते हैं और न ही प्रकृति का। (हालांकि करते ज़रूर हैं मगर अपेक्षाकृत रूप से कम, अरुंधति की रिपोर्ट के ही अनुसार पहले आदिवासी मुखिया बाक़ी गाँव वालों का शोषण करते थे- सबसे ज़्यादा ज़मीन हड़पना, अपने खेत में काम करवाना, फ़सल में हिस्सा लेना आदि। बताइये ये शोषण आदमी का कितना गहरा स्वभाव है? आदमी क्या मैंने देखा है कि कुतिया का एक पिल्ला दूसरे को धकेल कर उसके हिस्से का भी दूध पी जाता है। बड़ा पेड़ छोटे पेड़ का पानी पी जाता है, धूप छीन जाता है। कहाँ तक घुसा है यह शोषण?) दास-प्रथा, सामंतवाद, और पूँजीवाद में, ये दोनों तरह के शोषण उत्तरोत्तर प्रबल होते जाते हैं।
पूँजीवाद, प्रकृति का इस बुरी तरह से शोषण कर रहा है कि पूरी मनुष्य़ जाति का अस्तित्व संकट में आ गया है। और आदमी और आदमी के बीच की खाई इतनी चौड़ी और गहरी पहले कभी न थी, जितनी अब है। पूँजीवाद का प्रभाव इतना व्यापक है कि कोई भी व्यक्ति इस व्यवस्था के बाहर रह कर अपनी बसर नहीं कर सकता। कोई सोचे कि मैं नकारता हूँ इस व्यवस्था को और चाहे कि मैं समाज से दूर चला जाऊँ, तो वो मुमकिन नहीं। पानी समेत प्रकृति के सारे तत्वों का कमोडीफ़िकेशन हो चुका है। एक हवा बची है, लेकिन शहरों में अब औक्सीज़न बार भी बन रहे हैं जहाँ जा कर आप कुछ मिनट तक शुद्ध हवा के मास्क पहन कर तरो-ताज़ा हो सकते हैं। सारे जंगल, सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े गिने और पहचाने जा चुके हैं। पहले वे सर्कस के दल में आप तक आते थे और अब आप नेशनल पार्क्स में जाकर उनका ‘बेहतर उपभोग’ कर सकते हैं।
यह बाज़ार सर्वव्यापी है। आदिवासी इलाक़ो को भी ये अपने घेरे में लेकर उनकी सम्पदा को रिसोर्स और उन आदिवासियों को उपभोक्ता बना देना चाहता है। यह एक दोहरे शोषण की नीति है। और आदिवासी अपने आदिकालिक जीवन की रक्षा करने के लिए पूरे जी-जान से लड़ रहे हैं। मुझे उनके साथ सहानुभूति है। उन्हे अपनी आदिम जीवन की रक्षा करने का पूरा हक़ है लेकिन वो उनकी लड़ाई है, मेरी नहीं। मैं यह नहीं समझता कि उनकी लड़ाई में मेरी मुक्ति के बीज भी छिपे हैं। माओवादी समझते हैं और उनके साथ, उनकी लड़ाई लड़ रहे हैं, इस विश्वास से कि यह लड़ाई पूँजीवाद को परास्त करने की लड़ाई है। उनकी इस समझ पर मेरे और बहुत से दूसरे लोगों के बहुत सारे सवाल हैं।
***
पूँजीवाद ने क्या आदमी के जीवन में कुछ सार्थक बदलाव भी किया है? मनुष्यता के विकास में क्या उसका कोई योगदान है? क्या वो मनुष्यता का ही एक एक्सप्रेशन है, या आदमी के भीतर बैठे किसी शैतान का? जीवन को और समाज को इतना संगठित करने और इतना केन्द्रीकृत करने के पीछे पूँजीवाद की क्या प्रेरणा है?
***
केन्द्रीकरण अकेले पूँजीवाद का ही लक्षण नहीं है। सत्ता और सम्पदा के कुछ व्यक्तियों और घरानों और कारपोरेशन्स में केन्दित हो जाने की बार-बार दुहाई दी जाती है। ये समझना चाहिये कि ये वो ज़माना नहीं है कि धन को धनवान धरती के भीतर गाड़ कर रखता है। पूँजी वैसा धन नहीं है, उसे समाज में वापस निवेश करने से ही वह पूँजी बनी रहती है। सम्पदा सार्वजनिक है किसी की निजी सम्पत्ति नहीं। लेकिन यह जो केन्द्रीकरण दिखाई दे रहा वही एक स्थिति के बाद विकेन्द्रीकरण भी बन जाएगा, ऐसा मैं सोचता हूँ।
आदमी का शरीर भी एक केन्द्रीकृत संरचना है। और मानव समाज की संरचना आदमी की अभिव्यक्ति है। अलग-अलग समयों पर अलग-अलग व्यक्तियों और समूहों के छोटे-बड़े योगदानों से विभिन्न गतियों में विकसित होती हुई यह संरचना अभी भी आदमी के स्वभाव की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है। ऐसा नहीं है कि सामाजिक संरचना में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य के स्वभाव से बाहर के हैं। लालच और शोषण अगर सामाजिक संरचना में बुना हुआ है तो वो आदमी के स्वभाव से ही निकला है। यहाँ यह सवाल मौज़ूं बनता है कि अगर हिंसा, लालच और शोषण आदमी के स्वभाव की अविभाज्य गुण हैं तो क्या एक ऐसा समाज बनना सम्भव है जिसमें ये बातें अनुपस्थित हों? और अगर है भी तो क्या वो समाज आदमी के स्वभाव की सच्ची अभिव्यक्ति होगा? इस सवाल का एकमात्र तार्किक जवाब मुझे यही लगता है कि – हिंसा, लालच और शोषण मनुष्य का सच्चा स्वभाव नहीं है। और अगर ऐसा है तो इन वृत्तियों से हीन उस सच्चे स्वभाव को पाए बिना, ऐसा सच्चा समाज बनाना कैसे मुमकिन है? कुछ लोग यह भी तर्क कर सकते हैं कि असल में मनुष्य का स्वभाव ‘कुछ नहीं’ है, वह जो है वह अपने समाज की निर्मिति है। क्या वाक़ई? क्या सामाजिक व्यवस्था अचानक एक दिन आसमान से उतर आई, किसी मनुष्य (या मनुष्यों) ने नहीं बनाई?
अलग-अलग समाज, सभी समाज आदमी के स्वभाव की अपूर्ण अभिव्यक्तियां हैं। क्योंकि, एक तो, मनुष्य का स्वभाव कोई एक स्थिर और निश्चित प्रत्यय है भी नहीं; और दूसरे आदमी की सामाजिक संरचना अभी भी विकसित हो रही है। मनुष्य प्रकृति की सबसे जटिल संरचना है और मनुष्य का समाज जटिल से जटिलतर की ओर बढ़ रहा है। आदिम आदिवासी समाज, सरलतम और आज का पूँजीवादी समाज जटिलतर संरचना है। यहाँ दूसरा मौज़ूं सवाल ये है कि कम अपूर्ण अभिव्यक्ति के बनिस्बत अधिक अपूर्ण अभिव्यक्ति को तरजीह देना क्या उचित है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कोई भी आदिवासी समाज में लौट चलने की वक़ालत नहीं कर रहा मगर मौके पर इस बिन्दु पर सफ़ाई बना लेना मुझे उचित लगा।
***
अब यह पूछा जाना चाहिये कि माओवादी कौन है? आज की तारीख़ में दो तरह के माओवादी हैं: एक तो आदिवासी लड़ाके जो बन्दूक ले कर सुरक्षा बलों से लड़ रहे हैं और दूसरे वे माओवादी जिन्होने उन आदिवासियों के हाथ में बन्दूक दी है। यहाँ पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि आदिवासी एक लम्बी लड़ाई लड़ रहे हैं, पहले तीर-कमान से लड़ते थे, अब बन्दूक से लड़ रहे हैं; सम्भव है, ठीक है। लेकिन यह भी मानना होगा कि वो बन्दूक उन्होने अपने जंगल में नहीं उगाई। किसी ने बाहर से ला कर उनके हाथ में दी है। मैं उन लोगों की बात करना चाहता हूँ। ये कौन लोग है? ये मार्क्सवादी है, लेनिनवादी हैं, माओवादी हैं, नक्सलवादी हैं।
ये सुशिक्षित मध्यमवर्गीय या पेटी बुर्ज़ुआ हैं जो युवाओं की सहज स्वप्नवृत्ति के प्रभाव में, समाज परिवर्तन की अवधारणाओं से लैस, क्रांति की राह पर निकल पड़ते हैं। क्रांति एक ज़बरदस्त एडवेंचर हैं, जोखि़म है, रोमांच है, रोमांस है। हर युवा इन सब के प्रति सहज ही आकर्षित होता है। और उस सामाजिक क्रांति को सम्भव करने के लिए जनता के बीच जाना होता है और ऐसी जनता के बीच जिसका शोषण हो रहा हो। लेकिन माओवादियों को ऐसी जनता शहर में नहीं मिलती, उसके लिए वे ऐसे गाँवों में जाते हैं जहाँ सामन्ती सम्बन्ध अभी भी प्रबल हैं या ऐसे जंगल में जहाँ ‘सभ्यता’ के चरण न गए हों। और उस जनता को क्रांति के लिए तैयार करते हैं।
वो ख़ुद अपने को जनता के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं और जनता न होने की शर्म में हमेशा अपनी वर्ग चेतना से लड़ते रहते हैं। भले ही उनके वर्ग की माली हालत पश्चिमी देशों के सर्वहारा से बदतर हो, फिर भी वे अपने को जनता नहीं मान पाते और जनता की तलाश में अपने आप से दूर, बड़ी दूर चले जाते हैं। इस जनता के उद्धार के लिए ये अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। और उनके पेटी बुर्ज़ुआ वर्ग के दूसरे सदस्य जो ऐसा नहीं कर पाते, वे उन्हे घृणा की नज़र से देखते हैं। वे पेटी बुर्ज़ुआ से आत्म-त्याग की उम्मीद रखते हैं और अपनी तथाकथित जनता से अपने स्वार्थ के लिए बन्दूक उठा लेने की न सिर्फ़ उम्मीद करते हैं बल्कि उसे लगातार प्रेरित करते हैं। जब ये जनता के पास आते हैं तो ये पहले से ही तय कर चुके होते हैं कि समाज क्या है, जनता क्या है, क्रांति क्या है, क्रांति का रास्ता क्या है। वह सिर्फ़ जनता को उस तरफ़ हाँकते हैं। जनता ‘उनके उस सपने’ का निमित्त है, जो जनता के हित के लिए उन्होने देखा है। वे जनता से बेहतर जनता का हित जानते हैं और उसके लिए जनता को, उनके न्यायोचित असंतोष को, एक युद्ध में बदल देना वो उचित समझते हैं।
ये लोग उग्र हैं क्योंकि इनका विश्वास समझौते में नहीं, संघर्ष में है। इसी बात को खींचकर ये भी कहा जा सकता है कि ये लोग रोमांच की तलाश में वो नौजवान हैं जो अपनी लड़ाई नहीं खोज सके, इसलिए दूसरों की लड़ाई में भाग लेने आ गए। ऐसा नहीं है कि इनके अपने जीवन में सब कुछ कुशल मंगल है और वहाँ लड़ाई की कोई सम्भावना नहीं। उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के जीवन में भी, उनके निजी जीवन में तमाम मुद्दे हैं जहाँ वे संघर्ष कर सकते हैं, लेकिन नहीं करते। क्योंकि अपने स्वयं के जीवन संघर्ष को पहचानने की क्षमता से हीन हैं और अगर पहचानते भी हैं तो उसे किस शिल्प में अभिव्यक्त करें ये नहीं समझ पाते, और शिल्प भी जानते हैं तो उसे क्रांति की राह के लायक़ न मानकर ख़ारिज कर देते हैं। क्योंकि उस के लिए लड़ना, चिंतित होना, परेशान होना उनकी लिए एक शर्म का विषय है, जिसे वे पेटी बुर्ज़ुआ चिन्तन मानते हैं।
आज देश में इतना बड़ा सर्वहारा वर्ग पैदा हो चुका है, लेकिन उनको कोई ख़बर नहीं। डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, अभिनेता, और गीतकार, संगीतकार, गायक सभी वेज लेबर में तब्दील हो चुके हैं। न तो उनके पास उत्पादन के औज़ार है और न ही उत्पाद के साथ कोई रिश्ता। वे वास्तविक और सच्चे तौर पर अपनी रचना और उत्पाद से विलगित हैं। लेकिन माओवादी ही नहीं, भारत की कोई कम्यूनिस्ट पार्टी उन्हे सर्वहारा नहीं मानती। वे बुद्धिजीवी हैं कलाकार, पेटी बुर्ज़ुआ हैं जिनका काम जनता के साथ सहानुभूति करना और जनता के आन्दोलन में अपनी शिरकत करना है। न तो वे जनता की परिभाषा में आते है, न उनकी संस्कृति, जन संस्कृति है और न ही उन का अपना कोई आन्दोलन हो सकता है। क्योंकि वे खाए-पिए, अघाए हुए लोग हैं।
सच बात तो ये है कि ये दूसरे तरह के माओवादी, जिनकी बात मैं कर रहा हूँ, ये वही भगवा पहन कर युद्ध करने वाले क्रांतिकारी हैं जिनको आप बंकिम के आनन्दमठ में देखते हैं। ये भौतिकवादी नहीं, ये आदर्शवादी हैं। ये त्याग करने, अपने जीवन का बलिदान करने निकले हैं।
लेकिन यहाँ पर ये याद रहे कि ये लोग हमारे समाज के सबसे नेक, सबसे ईमानदार और संवेदनशील लोग हैं। पर क्या नेक, ईमानदार और संवेदनशील होना ही काफ़ी है? क्या अच्छी नीयत और अच्छे अंजाम में सीधा-सीधा रिश्ता होता है? अब जैसे संवेदनशील तो और भी मिल जाएंगे, जीवन के तमाम हलक़ो में लेकिन इनके जैसे ईमानदार सिर्फ़ एक और संगठन में मिलते हैं, वो है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। आर एस एस के लोगों से मुझे और तमाम दूसरे लोगों को शिकायत है लेकिन उनकी ईमानदारी से कोई इंकार नहीं कर सकता। एक और ईमानदार और निष्ठावान और अपने ध्येय के लिए समर्पित लोग हैं जो अपने विश्वास के लिए जी जान लड़ा देते हैं। वो है आतंकवादी, आत्मघाती आतंकवादी। इस दलील के आधार पर मुझे लगने लगा है कि ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण, संवेदनशीलता, और आदर्शवादिता वो लक्षण नहीं है जो समाज में अमन और समृद्धि के कारक होते हैं।
(जारी )
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३
(जारी )
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२
पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-३
20 टिप्पणियां:
@ आज कल मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म आने लगी है। मेरी राजनीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं। पूछा जा रहा है: तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है पार्टनर। मैं उनकी शर्म का समाधान नहीं कर सकता।
अभय जी,
कल ही उदय प्रकाश की 'डिबिया' नामक एक रचना को पढ़ने का सुख मिला है जिसमें उन्होंने काव्यात्मक मानस से एक बात कही है कि उनके पास एक डिबिया है जिसमें कि उन्होंने बचपन में अपने छिद्रित घर की छत से आने वाले धूप के रोचक हिस्से को बंद कर रखा है। उस धूप के बनते बिगड़ते टुकड़े से उनकी कई यादें जुड़ी हैं और उदय प्रकाश जी का अब भी मानना है कि वह धूप का टुकड़ा इस डिबिया में बंद है। यदि उसे खोलूं तो वह शायद गायब हो जायगा।
यार दोस्त अक्सर उस डिबिया के बारे में अविश्वास भाव व्यक्त करते रहते हैं।
यहाँ उदय प्रकाश जी ठीक आप ही की तरह सवाल खड़े कर रहे हैं कि मैं क्या उस डिबिया को खोल कर सिर्फ इसलिये दिखा दूँ ताकि मेरे यार दोस्त मुझ पर विश्वास कर लें।
और जो है वह मुझे पता है, उससे मेरा जो मंतव्य है वो मै अच्छी तरह समझता हूँ। मैं अपने यार दोस्तों के विश्वास को जीतने के लिये अपनी उस डिबिया को खोलने का खतरा नहीं उठाना चाहता।
-----------
लेकिन देख रहा हूँ.....आपने अपने मानस की डिबिया खोल दी है :)
अगली पोस्ट का इंतज़ार है।
bahut saral tarike se gudh baat rakhi hai aapne.
koshish kar raha hu ki ise apni chetna ke star par lakar samajh saku...
intejar hai agli kisht ka...
पोसिटिक्स तो होनी चाहिये जनता के हित । कोई भी/तो करे, स्वागत है ।
तटस्थ भाव से सारगर्भित पर थोङा लंबा विश्लेषणात्मक आलेख.....
आप लिखे जाएँ। पढ़ रहा हूँ, कुछ नया सीख रहा हूँ। कुछ कहने की स्थिति होगी तो अवश्य कहूँगा।
पोस्ट तो धांसू है,अभी आगे का इन्तजार भी है .
लेकिन भाई ---
""आज कल मेरे दोस्तों को मुझ पर शर्म आने लगी है?-."".
यह क्या है??
क्या आपका तात्पर्य यह है कि हर किसी को सिर्फ अपनी-अपनी लड़ाई ही लड़नी चाहिए। कोई अपने दायरे से बाहर निकल कर किसी और की लड़ाई लड़ने जाता है, या उसकी लड़ाई को भी अपनी बड़ी लड़ाई का हिस्सा समझता है तो इसे षडयंत्र की नजर से देखा जाना चाहिए। अगर ऐसा है तो इसका विस्तार यह होगा कि हर किसी को अपने लिए या अपने जैसों के लिए ही लिखना चाहिए, उन्हीं के लिए फिल्में बनाना चाहिए, उन्हीं के लिए सोचना चाहिए। माओवाद से आपकी हजार बहसें हो सकती हैं लेकिन आप तो इसे ऐडवेंचर के लिए नौजवानों द्वारा आदिवासियों को भुनाने की साजिश जैसा बता रहे हैं। एक विचार से बहस करने का भला यह क्या तरीका है। खुद को इतने ऊंचे मंच पर खड़ा करके क्या आप किसी से कोई बहस करने के लायक भी रह जाते हैं।
आप थोड़ा सही समझ रहे हैं और थोड़ा ग़लत समझ रहे हैं चन्दू भाई!
फिर से देखिये मैंने क्या लिखा है, और उसके आगे-पीछे क्या लिखा है। मैं माओवादियों और दूसरे कम्यूनिस्टों की सर्वहारा की समझ पर सवाल कर रहा हूँ। और साथ में यह भी कह रहा हूँ कि जो लड़ाई आदमी की अपनी लड़ाई न हो उसे वो लम्बे समय तक नहीं लड़ सकता। इसीलिए मध्यमवर्ग के लोग छोड़-छोड़ कर भागते हैं क्योंकि जो लड़ाई चल रही है, वो उनके जीवन से सीधे नहीं जुड़ती बल्कि उलटे उन के जीवन का बलिदान माँगती है। जबकि आदिवासियों और किसानों के साथ ये स्थिति नहीं है। लड़ाई से उनकी ज़िन्दगी बेहतर होने के रास्ते खुलते हैं।
रही बात एडवेंचर की तो उस पर फ़िलहाल मेरा यही मत बन रहा है कि हाँ, वो भी एक पहलू है.. लेकिन आप उसे सिंगल आउट मत कीजिये.. मैं तमाम दूसरी बातें भी कह रहा हूँ.. उसे कान्टेक्स्ट में देखिये..
http://samatavadi.wordpress.com/2010/04/15/dantewada_sunil-3/
"इस दलील के आधार पर मुझे लगने लगा है कि ईमानदारी, निष्ठा, समर्पण, संवेदनशीलता, और आदर्शवादिता वो लक्षण नहीं है जो समाज में अमन और समृद्धि के कारक होते हैं।"
ये कहना ज्यादा ठीक होगा कि *सिर्फ* ये लक्षण पर्याप्त नहीं. आतंकवादियों, खाकी पतलून वालों और माओवादियों में (और कई अन्य वादों-वादियों में) जो समान है, वो है 1) दूसरे वादों और विचारों के प्रति असहिष्णुता और 2) हिंसा की स्वीकार्यता, बल्कि महज स्वीकार्यता ही नहीं उसकी आवश्यकता की स्वीकार्यता. ये दोनों जब साथ-साथ हों तो कोई न कोई मारा जाएगा ये तो तय है
जाने क्यों मुझे वह अकविता याद आ रही है:
कुछ ऐसी है
"यह दुनिया कचरे का ढेर नहीं,
जिस पर खड़ा होकर
कोई भी मुर्गा दे दे बांग
और बन जाये मसीहा।"
मुझे तो कई बार लगता है कि बहुतेरे प्रगतिशील मुर्गों के लिए दुनिया कचरे के ढेर से अधिक कुछ नहीं। ...
लिखते रहिए, बाँच रहे हैं।
आप भी हुजूर , धुंवाधार हैं ..
इतना लंबा लिख देते हैं कि पढ़ते पढ़ते आँख सिल होइ जात है ..
ज़रा और छोट-छोट टुकडा बनाय दीन करैं ..
फिलहाल बस पढ़े जाइत अहन ..
.
@ गिरिजेश राव जी
अरे यह कविता अकविता कैसे हुई ?
ये मुक्तिबोध की कविता है ..
मुक्तिबोध न तो अकवि हैं न ही यह कविता अकविता
समझने की कोशिश चल रही है।
वैसे दुख है कि आप मुझे दोस्त नहीं मानते।
घुघूती बासूती
घुघूती जी @ आप निश्चित दोस्त हैं मगर वो वाली नहीं जिन्हे मुझ पर और मेरी राजनीति पर शर्म आ जाती है..:)
मै आपके ब्लाग पर अक्सर आता रहता हू कुछ कह पाने की स्थिति मे कभी नही रहता..
आपकी अपनी सोच और समझ है और अलग भी है..
आपकी बातो से मुझे ’हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी’ की कहानी याद आती है जिसमे 'के के मेनन' ऐसे ही रोमान्च से कुछ, अपनी कालेज लाईफ़ छोड कर शोषित वर्ग के लिये क्रान्ति करने की कोशिश करता है... अन्त मे वो हारकर अमेरिका चला जाता है..
आपका कथन उस मूवी के ’The End’ के बाद की कहानी कहता है... अब उन आदिवासियो का क्या.. अब उन शोषित लोगो को क्या..
अबयजी,
बढ़िया है यह शृंखला।
पूंजीवाद एक सच्चाई है।
हिंसा, लालच और शोषण मनुष्य ही नहीं, निसर्ग के सभी प्राणियों का स्वभाव है। मूलभूत।
तथाकथित विकास के रास्ते इन्ही से होकर गुजरते रहे हैं।
विचारधाराओं की बहस से परे होते हैं विकास और विनाश। विचारधारा के स्तर पर भी कोई व्यक्ति या समूह कितना ईमानदार है, पता कहां चलता है?
अभ दूसरे आलेख की और बढ़ता हूं।
अभी पढ़ना शुरू किया। यह बात अभी नोट की गयी कि माओवादी लोग आदिवासियों का जबरियन भला करने आ गये हैं लेकिन अपने को उनके जैसा नहीं मानते। अपने को उनके साथ जोड़कर नहीं देख पाते।
..संग्रहणीय पोस्ट के लिए आभार।
पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूँ और शीर्षक से ढूँढ़कर पहली किस्त पढ़ी है। आप कुछ प्रश्नों का उत्तर देते हैं लेकिन कहीं-कहीं भ्रांतिपूर्ण भी हैं। कुछ बिन्दुओं पर आपकी नज़र नहीं पड़ी है,फिलहाल इतनी लम्बी पोस्ट से ढूँढ़कर उनको रखना और अपना नजरिया रखना संभव नहीं है क्यूँकि बाकी पांच पोस्ट भी पढ़नी है। संभव हुआ तो सार के रूप में अन्त में टिप्पणी करूंगा। आपके श्रम से पूरी तरह प्रभावित हूँ। इससे बहुतों का पेट दुखेगा वे टिप्पणी भी करेंगे लेकिन आप निश्चितरूप से अप्रभावित रहेंगे । इस पोस्ट के संदर्भ में गिरजेश राव जी अकविता आपत्तिजनक है, उसे भी बांच लिया है और उनकी अगली बांग भी होगी तो उसे भी बांच लेंगे।
एक टिप्पणी भेजें