राजनीति नाम से यह आभास होता है कि फ़िल्म भारत की समकालीन राजनीतिक सच्चाईयों पर आधारित कोई फ़िल्म है। और बहुत से लोग इस धोखे का शिकार हो भी गए हैं जिसमें प्रखर राजनैतिक टिप्पणीकार पुण्य प्रसून बाजपेयी भी शामिल हैं।
राजनीति एक कुशल हाथों से गढ़ी हुई रचना है लेकिन उसका मक़सद लोगों का मनोरंजन करना है आज की राजनैतिक सच्चाईयों का चित्रांकन करना नहीं। फ़िल्म की ख़ूबी इसमें है कि वो दो बेहद लोकप्रिय पाठों -महाभारत और गौडफ़ादर- का संकर रूप है जिसे भारतीय चुनावी राजनीति के पृष्ठभूमि में उतारा गया है। महाभारत के तत्व कहाँ ख़त्म होते हैं और कहाँ गौडफ़ादर के तत्व शुरु होते हैं, फ़िल्म के कथानक में ये सरहदें नज़र नहीं आती हैं। जबकि रामायण पर आधारित 'रावण' इसी लिहाज़ से निहायत असफल फ़िल्म है क्योंकि दर्शक लगातार मूल कहानी से तुलना करता रहता है। लेखन के अलावा अभिनय पक्ष में भी 'राजनीति', 'रावण' से बहुत मज़बूत फ़िल्म है। 'रावण' में जहाँ आप अभिषेक और ऐश्वर्या को देख कर दर्शकों के भीतर हिंसा बाहर आने के लिए कुलबुलाने लगती होगी, 'राजनीति' में मामला उलटा है। नाना व मनोज की प्रतिभा को तो सभी मानते रहे हैं लेकिन अर्जुन रामपाल का अभिनेता के रूप में तो जैसे नया जन्म हुआ है 'राजनीति' से।
फ़िल्म के कथ्य पर वापस लौटते हुए यही कहूँगा कि यह फ़िल्म वास्तविकता का एक अच्छा भ्रम पैदा करती है लेकिन है वह भ्रम ही, वास्तविकता नहीं है। प्रकाश झा ने महाभारत और गौडफ़ादर की कहानी का इस्तेमाल किया है एक सफल फ़िल्म बनाने के लिए और सफल हुए हैं। कर्ण को दलित बना कर दलित राजनीति का कोई नया पहलू उजागर नहीं हुआ, कर्ण तो पहले भी सूतपुत्र ही था। बी एस पी जैसी परिघटना को तो अपनी पटकथा में क्यों नहीं सजा पाए झा जी? क्योंकि उनका ज़ोर समकालीन भारतीय सच्चाई को दिखाना नहीं, समकालीन भारतीय सच्चाईयों का इस्तेमाल कर के एक कामयाब यानी बिकाऊ माल बनाने पर है।
इसलिए 'राजनीति' को बिलकुल भी उस नए सिनेमा की श्रेणी में रखने की ग़लती मत करें जिसकी पताका दिबाकर बैनरजी और अनुराग कश्यप लहरा रहे हैं। राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ी पूंजी का दखल, मूल मुद्दे, नक़्ली भावनात्मक मुद्दे, जनता की विविध आकांक्षाएं, सड़क, पानी और बिजली के साथ जंगल, ज़मीन और पर्यावरण के सवालों को घेरे में लिए बिना कोई कैसे भारत की राजनीति की सच्ची तस्वीर बना सकता है?
प्रकाश झा की 'राजनीति' सिर्फ़ सामंती आपराधिक राजनीति की एक अतिरंजित तस्वीर बन गई है जो एक बीती हुई दुनिया का अवाञ्छित अवशेष है। आज की असली राजनीति में अपराध, शुद्ध सामन्ती सत्ता के लिए नहीं आर्थिक सत्ता के लिए होते हैं। सत्ता की राजनीति, अपनी अहम-तुष्टि के लिए गद्दी हासिल करने की राजनीति नहीं है। गद्दी हासिल कर के अर्थव्यवस्था को अपने अनुकूल करने की राजनीति है जिसकी एक भोथरी झलक कर्णाटक के रेड्डी बन्धुओं में और उसका महीन वितान अम्बानियों में मिलता है।
9 टिप्पणियां:
मुझे लगता है कि जिस तरह की राजनीति इस देश में चल रही है, उसे बचते बचाते पेश करना भी एक बड़ी हिम्मत का काम है .....एक जरा सा अंश लिए 'सरकार' क्या आ गई लगे अगवार पछवार करने लोग.....असल चीजें दिखाने पर तोड़ फोड़ और बैनिंग को कोई नहीं झेलना चाहेगा....इसलिहाज से प्रकाश जी ने बचते बचाते बीच का रास्ता ठीक समझा और सह सलामत बच भी निकले...फिल्म उसी बचते बचाते का ही कट शॉर्ट रूप है।
बाकी तो दक्षिण के इन महानुभावों की राजनीति में अभी और न जाने कौन कौन से गठजोड़ होंगे कि समूची धरा को खोखला कर...खनन कर एक नया विवर न बन जाय.....राजनीतिक विवर और आने वाली पीढ़ियों को ये कह दें कि यह तो किसी बाहरी शक्ति....किसी उल्का पिंड आदि की देन है :)
अच्छी समीक्षा की है।
राजनीति ने मुझे भी प्रभावित नहीं किया... फिल्म के पोस्टर देखकर लगता था कि इसमें कहीं सामयिक राजनैतिक माहौल और किरदारों की झलक मिलेगी लेकिन वह तो इसमें कहीं नहीं थी।
महाभारत के इसमें पात्र थे, लेकिन कथानक गॉडफादर से लिया। बार-बार उंगली उठा कर कहने का मन कर रहा था कि यह तो मैंने देख रखा है। मनोज बाजपेयी प्रभावशाली रहे लेकिन अजय देवगन की प्रतिभा के साथ खिलवाड़ हुआ, मुझे लगता है कि जो रोल अर्जुन रामपाल को दिया गया उसके लिये वह ज्यादा सही थे।
कौन यह नया लड़का शायद किसी बड़े अभिनेता की औलाद है, इसका मोम में ढला चेहरा देख-देखकर कोफ्त हुई। जिस तरह की पैनी सोच वाला व्यक्ति इसे दर्शाने की कोशिश की गयी वैसा यह एक सीन में भी नहीं लग पाया... मुझे तो ज्यादातर जगह यह एक ढीला, भोथरे दिमाग का डमी लगा। शायद 7-8 फिल्मों के बाद इसके अभिनय में रवानगी आये। सिर्फ एक भाषण के सीन में थोड़ा जमा।
कैटरीन कैफ को पोस्टर पर देखकर लगता था कि किरदार अहम होगा लेकिन फिल्म के लगभग अंत में उनका ट्रांसफार्मेशन हजम नही हो पाया.
बहरहाल फिल्म पैसा वसूल रही... सीटी बजाने के भी मौके तमाम थे।
हमारा सदुपदेश नहीं है। शुभकामना है कि आप का ऐसा बढ़िया लेखन लगातार जारी रहे।
एक वर्त्तमान राजनीतिग्य (प्रकाश झा) से ये आशा करना ही बेमानी है की वो वर्त्तमान राजनीति का (सच्चे मन से) चित्रण करेंगे.
आपसे सहमत हूँ की आज की राजनीति बस अर्थ (पैसा) के आस-पास ही घुमती है.
आजकल फिल्मों के प्रोमो वीडियोज में कुछ दिखाते हैं और फिल्म कुछ और होती है, परन्तु प्रकाश झा से इस तरह की आशा नहीं कर रहा था | परन्तु देखने पर यही लगा की रामू की 'सरकार' (in turn Godfather) और महाभारत को मिक्स कर दिया गया हो साथ में मूवी के आने से पहले प्रोमो के जरिये ये एहसास दिलाया गया की कांग्रेस के पत्रों के इर्द-गिर्द रची गयी है (कैटरीना को बार-बार दिखाया जाना ); ऐसा थोडा बहुत है लेकिन सब मिक्स है | सो पूरी तरह आशा के अनुरूप नहीं गयी, थोडा गुस्सा भी आया | सामान्य श्रेणी में ही रखूँगा |
इससे अच्छी तो झा की 'अपहरण' ही थी कुछ कहानी बनती है उसमें, उसका मुद्दा भी समझ में आता है, 'राजनीति' में पता नहीं वो मारकाट को फोकस कर रहे हैं या महाभारत को या बस यूँ ही फिल्म बनाने के लिए ही फिल्म बनाकर टाइम पास कर रहे हैं |
अभी कश्यप की 'उड़ान' का बेसब्री से wait कर रहा हूँ |
ise kahte hain sanyog, aaj mera weekly off tha to aaraam se baith kar bas yahi film ekhi apan ne,
kahani kuchh bhi kahiye vahi kahi na kahi gangajal se judi hui si lagi han lekin editing badhiya hai, kahani to jaisa ki aap kah hi rahe hain hai hi....
vaise kahu to pasand aai film, bas afsos yahi hai ki kahi kahi kya bahut se jagah par prakash jaa saheb apne aap ko duhrate hue dikhe.....
प्रकाश झा जिस 'बिहार' के विशेषज्ञ भी माने जाते हैं, उसमें भी बिहार को लेकर उनकी चिंता नहीं होती बल्कि वह एक अच्छा बिकाऊ माल ही होता है। बिल्कुल सही आकलन !!!
Beautifully written , wonderful analysis.
एक टिप्पणी भेजें