मैं इस बारे में उत्सुक हूँ कि भारतीय जनो में विभिन्न जातियों का क्या अनुपात है। लेकिन इस उत्सुकता के आधार पर ही क्या मैं जातिवादी हो जाता हूँ? मेरी उत्सुकता के बीज दूसरे हैं और मुलायमादि यादवों के कारण दूसरे। पर देखा ये जा रहा है कि आम प्रगतिशील व्यक्ति जाति आधारित जनगणना के ख़िलाफ़ मत प्रकट कर रहा है। रिजेक्ट माल पर निखिल आनन्द ने जाति और जनगणना के सम्बन्ध में कुछ मौज़ूं सवाल उठाए हैं और मैं काफ़ी कुछ उनसे सहमत हूँ।
मुम्बई में मेरी गणना हो चुकी है। बी एम सी के विद्यालय के एक शिक्षक जो छुट्टियां मनाने गाँव न जा सके इस कार्य को सम्पन्न करने आए थे। उन्होने बाक़ी सवाल तो किए मगर जाति के बारे में नहीं पूछा। जब मैंने सवाल किया तो उन्होने बताया कि सब कुछ (सारे सरनेम्स) कम्प्यूटर में फ़ीड हैं; यानी तिवारी डालते ही वह मुझे ब्राह्मण की श्रेणी में सरका देगा। वैसे यह प्रणाली ठीक भी है, आम लोग भी ऐसे ही औपरेट करते हैं। रही बात कुमारादि या अन्य 'भ्रामक' सरनेम की तो उन मौक़ो पर उन्हे सवाल पूछने का निर्देश है।
जब धर्म के आधार पर गणना हो सकती है तो जाति के आधार पर क्यों नहीं? ये सही है कि जाति और धर्म के समीकरण में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं। इस देश के बहुतायत मुसलमान और ईसाई अधिकतर दलित समाज से धर्म परिवर्तन किए हुए लोग हैं या पूर्व-बौद्ध हैं। बौद्धों के बारे में अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है हालांकि लोग उनकी प्रस्थापना को मानने में हिचकते हैं। मुझे उनकी बात तार्किक लगती है। इस नज़रिये से मुसलमान और वे ईसाई जिनके पूर्वज आदिवासी या दलित समाज से थे, आरक्षण के अधिकारी होने चाहिये, मगर राजनीति इस के आड़े आती है।
और ये बात भी सही है कि जाति जान लेने भर से कोई जातिवादी थोड़े हो जाता है। ये तो आँधी के डर से रेत में सर डाले रखने वाली बात है। मैं जाति आधारित जनगणना का समर्थन करता हूँ।