भाषा मुँह से निकली ध्वनियों से अलग भी कुछ होती है? क्या होती है? हमारी सोच का विस्तार और सीमा? हमारे चिन्तन का शिल्प? ज्ञानकोष का खाता? सामाजिक और नैतिक मूल्यों की परम्परा?
मेरी परिवार की एक बारह साल की बच्ची को ठीक से 'क ख ग घ' नहीं आता। तीस के आगे गिनती भी नहीं आती। मैं इस बात से अवसादग्रस्त हुआ हूँ। ये भाषा के अप्रसांगिक होने के संकेत हैं। हालांकि बातचीत वह हिन्दी में ही करती है मगर ज्ञानार्जन के लिए उसे हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला की ज़रूरत नहीं। एक सफल जीवन जीने के लिए उसे जिस प्रकार की शिक्षा चाहिये वह अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। हिन्दी वर्णमाला और अंकमाला के प्रति अपनी अज्ञानता के चलते वह किस चीज़ से वंचित हो रही है? कुछ भी तो नहीं! तो फिर मेरे इस अवसाद का मतलब क्या है?
क्या अपने पूर्वजो से, भाषा और साहित्य में संचित उनके विचारों और अनुभूतियों से कट जाने का दर्द है ये अवसाद? क्योंकि भाषा भी जाति और धर्म की ही तरह एक सामुदायिक प्रत्यय है? और अपनी जानी हुई भाषा पर इसरार करते जाना बस एक तरह की साम्प्रदायिक ज़िद है? क्योंकि समूह को छोड़ दें तो एक अकेला आज़ाद आदमी कभी भी महज़ अपनी उन्नति के प्रति भर चिंतित होता है। यही वह अकेला आदमी है जो धर्म परिवर्तन करता है, यही वो अकेला आदमी है जो अपने पराजित साथियों के बीच से निकल कर, अपनी परम्परा को विजेताओं की परम्परा से हीन और उनकी भाषा के अधीन मान लेता है।
क्या आप जानते हैं ऐसी किसी अकेले आदमी को जिसने अपनी परम्परा को इसी तरह अनुपयोगी मान कर त्यागा हो? भारतीय समाज पर क़ाबिज़ सत्तावर्ग उसी अकेले आदमी का प्रतिनिधि है। हमारे आज के भारतीय राज्य और व्यवस्था के ढांचे में हमारी परम्परा की क्या चीज़ है? शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापार; किस विभाग की स्मृति हमारी भाषा में मौजूद है? हमारे समाज की जितनी भी संस्थाएं जो हमारे जीवन को प्रचालित कर रही हैं उन सबा की स्मृति अंग्रेज़ी या दूसरी योरोपीय भाषाओं में मिलती है। हिन्दी में कुछ नहीं है, संस्कृत में भी कुछ नहीं है।
यानी अपनी उन्नति के प्रति चिंतित उस अकेले आदमी का अपनी परम्परा से हाथ धोने का निर्णय संगत है? क्योंकि हमारी परम्परा में शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि क्षेत्रों में स्वतंत्र स्वरूप विकसित करने की क्षमता नहीं थी या थी तो ख़त्म हो चुकी थी? या बात कुछ ऐसी है कि इस अकेले आदमी की अवसरवादिता के चलते व्यापक समूह के बीच उन क्षमताओं के विकास की सम्भावनाएं कुन्द हो रही हैं?
जैसी स्थिति हिन्दी की भारत में है ठीक वैसी ही स्थिति उर्दू की पाकिस्तान में नहीं है। ये एक तथ्य है। अंग्रेज़ी की एक अन्तर्राष्ट्रीय उपयोगिता के बावजूद उर्दू शिक्षा, न्याय, प्रशासन, व्यापारादि की भाषा बनी हुई है। क्या पाकिस्तान के लोगों में उस अकेले आदमी की उपस्थिति नहीं है जो अपने धर्म, अपनी भाषा और परम्परा को लेकर शर्मिन्दा है? और जो विजेताओं की पाँत के पकवान खा लेने के लिए उसी तरह से आतुर है जिस तरह से भारतीय जन हैं?
क्या उर्दू का मामला इस्लाम, शरिया और अमरीका-विरोध से अभिन्न है? क्या हिन्दी की दुर्दशा इसलिए है कि हिन्दू जन या हिन्दी जन एक मज़बूत परम्परा पर एकजुट होने में नाकाम रहे हैं? या उस परम्परा को त्यागे बिना उसका संवर्धन और संस्कार करने के बजाय उन्होने अंग्रेजी का कोट और टाई पहनना उन्हे अधिक आसान मालूम हुआ है? फिर सवाल है कि क्या धोती और हिन्दी अलग-अलग नहीं हो सकते या टाई लगा कर हिन्दी भाषा में नए प्राणों का संचार किया जा सकेगा?