इलाहाबाद में अपने छात्र जीवन की शुरुआत के साथ ही अश्लील परम्पराओं से मेरा परिचय हो गया था। हमें हौस्टल के सीनियर्स ने फ़र्शी सलामी सिखलाई और जिस हौस्टल गीत को याद कर के उचित अवसरों पर सुनाने की हमें ताक़ीद की गई उसमें पुरुष के अंग विशेष के गुणगान किए गए थे। ऐसा बताया जाता था कि वह गौरवगीत हौस्टल के एक पूर्ववासी के पेन-प्रताप का ही परिणाम था।
हमारे रहते भी हौस्टल के एक वरिष्ठ वासी हिन्दी भाषा में अपने जौहर, साहित्य की इस अश्लील परम्परा को अर्पित करते रहे थे। उनके गीतों की लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके गायन के सभी अवसरों पर हौस्टलवासियों का आनन्द और उत्साह राष्टगीत और राष्ट्रगान को गाने के मौक़ो से कई गुणा अधिक होता, और उसका उद्गम विशुद्ध, अनहत और मणिपुर से भी गहरे सीधे मूलाधार से होता। सभी सुनने वालों के अंग-अंग से हर्ष का सागर हिलोड़ें मारने लगता।
ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ये पाशविक वृत्ति की उपज थी, पर भाषा और गायन की मानवीय उपलब्धियों में आबद्ध था। शारीरिक उद्वेगों की ये सामाजिक अभिव्यक्ति थी। जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़ सभी को जोड़ देने वाली यह संस्कृति थी। जन संस्कृति थी। लेकिन किसी भी सभ्य हलक़ों में इस 'जन संस्कृति' को मान्यता नहीं थी। नहीं है।
हौस्टल में ही रहते हुए मेरा परिचय बनारस की उस परिपाटी से हुआ जिसकी आवृत्ति हर बरस होली के अवसर पर होती। अस्सी पर होने वाला इस विशिष्ट सम्मेलन की ख्याति दूर-दूर तक हो चली थी, जिसमें सार्वजनिक मंच से आदमी और औरत के गुप्त प्रसंगो, और सामाजिक मसलों में उन प्रसंगो के मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल, की चर्चा सस्वर गायन के ज़रिये की जाती। इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता जो पढ़ना तो हर कोई चाहता लेकिन घर में रखना कोई न चाहता। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि आम तौर पर हास्य कवि ही होते और कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होता।
बाक़ी कवियों को छोड़ दें और सिर्फ़
चकाचक बनारसी की ही बात करें। साल के ३६४ दिन चकाचक की पहचान एक हास्य कवि की ही बनी रही। ये भी पता चला है कि वे दूसरा कोई काम नहीं करते थे और कवि सम्मेलनों में हुई आमदनी के ज़रिये ही अपना खर्चा चलाते थे। लेकिन एक होली के दिन उनका रूप बदल जाता और वे सारी वर्जनाओं को छोड़ कर भाषा को खुला छोड़ देते। और फिर ऐसी कोई चीज़ निकलती जो बड़े-बड़े विद्वानों को किए जा रहे सम्मान को बहुत हुआ बताकर उनकी माता जी से सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा होती :
बड़े-बड़े विद्वान,
तुम्हारी...
बहुत हुआ सम्मान,
तुम्हारी...
इस विद्रोही तेवर की अनुगूँज मुझे दूर-दूर तक सुनाई दी है, सुदूर मुम्बई तक भी। भाषा की मुख्यधारा में पड़े हुए और उस से अड़े हुए दोनों तरह के लोगों के भीतर। इस तरह की ज़बरदस्त मक़बूलियत अच्छे-अच्छे साहित्यकारों की नहीं है जो साहित्य के शीर्ष पुरस्कार पाने के बाद भी जनता के प्यार और स्वीकृति से कटे होने के कारण एक प्रकार की कुण्ठा में जीते हैं। चकाचक की घोषणा शायद उन को भी सम्बोधित है कि बहुत हुआ सम्मान। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि चकाचक सभी तरह की कुण्ठा से मुक्त हो कर वैकुण्ठ हो गए होंगे। मुझे पता लगा है कि एक उनका एक संग्रह ही प्रकाशित हुआ और वो भी बहुत बाद में; सन २००४ में उनकी मृत्यु के कुछ पहले ही और उसमें भी उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं को जगह नहीं थी। वे सिर्फ़ लोगों के दिलों, ज़ुबानों और गुप्त खर्रों में ही बसी रहीं। ये वहीं चकाचक हैं जिनकी एक और कविता का मुखड़ा बहुत लोकप्रिय हुआ है:
हर अदमी परेसान ह
हर अदमी त्रस्त ह
मारा पटक के
जे कहे पन्द्रह अगस्त ह
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चकाचक की इसी चमक को याद करके मैंने इस बार होली बनारस में मनाने का फ़ैसला किया। इलाहाबाद तक आया था, फिर ऐसा मौक़ा मिले न मिले। तो वापसी के कार्यक्रम को रद्द कर के मैं बस इसी कार्यक्रम में शिरक़त करने के लिए बनारस पहुँचा। बनारस आ कर भाई
अफ़लातून और अपने पुराने मित्र मेजर संजय से मालूम हुआ कि न तो अब होली का ये विशिष्ट कवि सम्मेलन अस्सी पर होता है और न उसे चमकाने के लिए चकाचक जीवित हैं। सम्मेलन की जगह बदल कर मैदागिन के एक मैदान में कर दी गई है क्योंकि अस्सी में रहने वाले परिवार, सम्मेलन के तीन-चार घण्टों के दौरान तय नहीं कर पाते थे कि अपने कान बन्द करें कि अपने बच्चों के।
होली तो नहीं खेली मगर भाई अफ़लातून और स्वाति जी के शानदार आतिथ्य का लाभ उठाया और अस्सी पर पप्पू की दुकान पर होली मिलन समारोह में गुलाल से रंगा गया। बनारस के तमाम राजनीतिक और साहित्यिक विभूतियों से मिलना हुआ। और इस साहित्य की इस अश्लील परम्परा पर विचार-विमर्श भी हुआ। मैं कह रहा था कि आने वालों साल में चकाचक को वैसे ही मान्यता मिल जाएगी जैसे पश्चिमी साहित्य में
दि साद को मिली, डेढ़-दो सौ साल बाद।
मैं यह भी चाह रहा था कि मेरे हाथ इस अश्लील सम्मेलन के पुराने प्रकाशन मिल जायं लेकिन वे किसी के घर पर नहीं थे, कारण स्पष्ट है। अस्सी से निकलते-निकलते मैंने उत्साहित हो कर अपनी इस राय को भी गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष रखा कि इस अश्लील साहित्य का एक ब्लौग रचा जाय और उसे जनता के लाभार्थ समर्पित कर दिया जाय। अफ़लातून भाई इस बात पर बहुत सहमत नहीं दिखे। न जाने वह कुछ देर पहले उदरस्थ किए भंग के गोले का असर था या मेरी बात का, वे सपाट नज़रों से मेरी तरफ़ देखते रहे। और मुझे अपनी राय पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते रहे। सबसे विदा लेके मैं मैदागिन को चला आया।
सम्मेलन की सभी कुर्सियाँ काशी की जनता की तशरीफ़ों से घेरी जा चुकी थी। एक शरीफ़ आदमी ने अपनी तशरीफ़ सरका के मुझे भी अपनी तशरीफ़ टिकाने का निमंत्रण दिया; मैंने स्वीकार कर लिया। मंच पर और दर्शकों में सभी धर्म और वर्ग के लोग मौजूद थे। लोग हल्ला मचा रहे थे और संचालक बद्री विशाल की बहन के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति इच्छुक और आतुर दिख रहे थे। हारकर बद्री विशाल ने सामान्य कविताओं के दौर को समाप्त करते हुए विशिष्ट सम्मेलन का आग़ाज़ किया। उसके बाद जो कुछ हुआ उस से अश्लील साहित्य के प्रति मेरा उत्साह धीरे-धीरे ठण्डा पड़ता गया।
मंच पर से जो पढ़ा जा रहा था वो अधिकतर फ़िल्मी गानों की पैरोडी या सस्ती तुकबन्दी के अलावा कुछ नहीं था। बीच में एक कवि, जिनका मैं नाम याद न रख न सका, ने ज़रूर शिल्प और कथ्य दोनों में एक स्तर दिखाया। उस एक को छोड़कर किसी भी कविता में कोई सामाजिक या राजनैतिक सच्चाई को टटोलने की कोई कोशिश नहीं दिखी। जिसका निष्कर्ष मैं यह निकालता हूँ कि कविता श्लील हो या अश्लील, वो आम तौर पर कूड़ा ही होती है। (इस पाठक चाहें तो 'बुरा न मानो होली है' की भावना से प्रेरित मान सकते हैं)।
लगभग एक घण्टे तक किसी बेहतरी की उम्मीद करने के बाद मुझे अपनी तशरीफ़ और देर वहाँ रखने में तकलीफ़ होने लगी और मैं उठ चला आया। बाद में मैंने अफ़लातून भाई से किए अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार करते हुए पाया कि अच्छा यही होगा कि साहित्य की अश्लील परम्परा को अपना स्थान खुद तलाशने दिया जाय। चकाचक के उत्तराधिकारियों को इन्टरनेट तक पहुँचने में मेरी सहायता की ज़रूरत होगी, यह सोचना अहमन्यता होगी। और रही बात चकाचक को उनका स्थान मिलने की तो कौन जानता है कि तमाम कहावतों का निर्माता कौन है? चुटकुले कौन बनाता है? भाषा की उस गुमनामी में हो सकता है कि चकाचक के लिए भी कोई कोना सुरक्षित हो!
***
बाद में सोचते हुए अस्सी पर
रामाज्ञा शशिधर की एक बात पर विचार करते हुए मैंने पाया कि ये बात ठीक है कि यह अश्लील परम्परा सिर्फ़ पुरुषवादी सोच या पुरुषों की अभिव्यक्ति है। पूरे का पूरा महिला वर्ग इस से कटा हुआ है। इस संस्कृति पर यह आरोप भी है कि यह महिला के प्रजननांगो को अपनी विकृति का निशाना बनाती है, इसलिए हिंस्र और पतनशील है। मेरा इस से मतभेद है। पहले तो ये कि प्रजनन के प्रति आदमी और औरत का नज़रिया अलग-अलग है। एक-दूसरे के प्रति आप उनसे एक ही जैसे व्यवहार की उम्मीद अगर करते हैं तो आप की उम्मीद निराधार है। प्रजनन के प्राकृतिक ज़िम्मेदारी है और आदमी की प्रजनन में भूमिका गर्भाधान के साथ ही समाप्त हो जाती है। उसके बाद पालन-पोषण में उसकी जो भूमिका है उसे निभाने में कोई सार्वभौमिक मानक नहीं रहा है।
विवाह संस्था का इतिहास से पता चलता है कि अलग-अलग समाजों में यह भूमिका बदलती रही है। और स्त्री को जितनी अधिक आर्थिक स्वतंत्रता मिली है उसने अपने यौन व्यवहार पर से पुरुषवादी बन्धनों को उतना ही तोड़ा है। विवाह की सामंती धारणा स्त्री की यौन शुचिता को एक ऐसे मूल्य की तरह प्रस्तुत करती है जो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है। एक बार कौमार्यभंग हो जाने पर वह किसी सम्मानित पुरुष के योग्य नहीं रहती और उसके लिए आत्महत्या या किसी भयंकर अपमान और सज़ा के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।
इस्लाम में ये मूल्य बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। जहाँ औरत को ग़ैर-मर्दों से बराबर पर्दे में रहने की बात है। (बहस बस इतनी है कि कितना परदा करने की बात है) और किसी भी प्रकार के व्यभिचार की कड़ी स़ज़ा है। पिछली सदी में आए हिन्दू समाज में सुधारों की चलते उन परम्पराओं से छुटकारा पा लिया जो पति की मृत्यु के बाद भी उसकी विधवा पर उसका यौन-अधिकार बनाए रखती थी। लेकिन आज के पूँजीवादी अमरीकी समाज में प्रथम सहवास के इर्द-गिर्द कोई मिथक नहीं रह गया है बल्कि तमाम अमरीकी फ़िल्मों और साहित्य के ज़रिये देखा जा सकता है कि अमरीकी नवयुवतियों के बीच ‘कौमार्यभंग न होना’ एक पिछड़ेपन की निशानी है और यौन अनुभव होना आकर्षकता की पहचान।
तो हमारे सामंती समाज में यौन-सम्बन्धों पर बन्दिशों के चलते ही इस प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति होती है जिसे हम अश्लीलता का नाम देते हैं। अगर यौन-सम्बन्धों के लिए एक स्वस्थ माहौल हो तो इस प्रकार के विकार पैदा होने की सूरत कम हो जाएगी।
दुनिया में हर जगह पारिवारिक रिश्तों में यौन-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध है और ये क्या सिर्फ़ संयोग है कि अधिकतर गालियां माँ और बहन को लेकर हैं? इन्ही गालियों के कारण कहा जाता है कि इन गालियों के ज़रिये पुरुष समाज स्त्री के प्रजननांगो को अपनी हिंसा का निशाना बना रहा है। ऐसा नज़र ज़रूर आता है लेकिन ये सही समझ नहीं है। ऐसा लग सकता है कि वह किसी दूसरे की माँ के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की बात कर रहा है मगर वास्तव में वह आदमी माँ और बहन के सम्बन्धों में अपनी यौन-आंकाक्षाओं को जगह दे रहा है। जो ‘कर्मणा’ नहीं हो पा रहा उसे ‘वाचा’ कर रहा है।
संस्कृति और विकृति दोनों सामाजिक नज़रिये का फ़रक़ है। मेरा मानना यह है कि गालियाँ प्रजननांगो पर हमला नहीं बल्कि उन के प्रति सम्मोह हैं। और ये गालियां स्त्री के प्रजननांगो पर नहीं बल्कि प्रजननांगो पर हैं और गुप्तांगो पर हैं। भूला न जाय कि कितनी गालियाँ गुदा पर लक्षित है। और ये भी याद कर लिया जाय कि गालियों का एक प्रमुख हिस्सा आदमी के लिंग को बार-बार स्मरण को समर्पित है। और यह मान लेना कि यदि औरतों को मौक़ा मिला तो वे गालियाँ नहीं देंगी, भी ठीक नहीं। इस समाज में ही कितनी औरतें गाली देती हैं। वे शायद पुरुषवादी सोच के प्रभाव में देती हैं लेकिन पश्चिमी समाजों में जहाँ औरतें अपेक्षाकृत स्वतंत्र है, वहाँ औरतें गाली देती हैं और किसी पुरुषवादी सोच के तहत नहीं देतीं। औरतों द्वारा दी जाने वाली अंग्रेज़ी की प्रमुख गालियों में उल्लेखनीय हैं: अपने-आप से यौन सम्बन्ध बनाना, पुरुष के लिंग के समकक्ष होना।
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समाज हमेशा चाहता है कि यथास्थिति को बनाए रखे। नैतिकता उस की इसी इच्छा का हथियार है। बहुत लोग जो साहित्य को समाज का दर्पण मानते हैं और दर्पण को सजने-सँवरने का साधन देखते हैं और वे जो साहित्य को आदर्शों की हदबन्दी में ही क़ैद रखना चाहते हैं, मुख्यधारा के उन खेवैयों के लिए लिए अश्लीलता हमेशा एक विकृति बनी रहेगी।
यहाँ पूछा जा सकता है कि कविता की मुख्य धारा क्या है और कौन सी है। तुलसी दास के ज़माने में कविता की मुख्यधारा काशी के सांस्कृत-पण्डितों की रही होगी लेकिन आज के ज़माने में वामपंथी विचार के साहित्यकारों की धारा ही मुख्यधारा है। शेष कवियों को अस्सी की धारा* की तरह भ्रष्ट मान लिया गया है और उनका हाल अस्सीवत ही यानी नालेनुमा हो चला है। मुख्यधारा में अपनी-अपनी नाव खे रहे ये महाभाग ऐसे किसी काव्यसाधक को मुख्यधारा में प्रवेश की अनुमति नहीं देते जो उनके वैचारिक और नैतिक मानदण्डों पर ख़रा न उतरता हो।
कुछ लोग ऐसा मान सकते हैं कि साहित्यिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे ये लोग आज भी उसी क़िस्म का छुआछूत चला रहे हैं समाज में जिसकी ये ऊँचे गले से निन्दा करते हैं। ये तर्क किया जा सकता है कि यह बात इस आधार पर ग़लत है कि वामपंथ का सत्ता से कोई जुड़ाव नहीं रहा है। लेकिन ये बात ठीक नहीं है; साहित्य और शिक्षा के दायरों में वामपंथी विचारकों का वर्चस्व शुरु से ही बना हुआ है। और तुलसी दास के भी समय में कौन सा काशी का पण्डित मुग़ल दरबार का सीधा भागीदार था?
उच्च साहित्य की सारी वर्जनाओं और उनके द्वारा जनता की नैतिक रक्षा के बावजूद जनता की संस्कृति बेलाग रूप से चलती रहती है। और जनता उच्च साहित्य द्वारा प्रस्तावित दूसरी ‘जन-संस्कृति’ की घास को अछूता छोड़ देती है। बनारस में एक ऑटो यात्रा के दौरान कुछ भोजपुरी गीतों ने मेरे समेत दूसरे यात्रियों को तरंगित किया उनके बोल थे – ‘तनि सा जींस ढीला करा’ और ‘मीस्ड काल मारत आड़ू कीस देबू का हो, आपन मसिनिया में पीस देबू का हो’।
यह याद रखना चाहिये कि जो साहित्य न सीमाओं को तोड़ता है और न नए आसमानों की ओर पंख पसारता है वह मनुष्यता के विकास में कोई योगदान नहीं करता।
*अस्सी गंगा से ही निकली एक धारा का नाम है। वो जहाँ गंगा से वापस मिलती है उस घाट का नाम अस्सी है। इसी अस्सी और वरुणा के बीच बसे नगर को वाराणसी कहा गया। आजकल यह धारा नाला बन चुकी है।
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(मुम्बई से दूर अपने इस उत्तरभारतीय प्रवास के दौरान
गिरिजेश राव और
ज्ञानभाई से भी मिलना हुआ और पाया कि ये दोनों जितने बेहतर ब्लौगर हैं उतने ही बेहतर इन्सान भी)