बुधवार, 31 मार्च 2010

अरुंधति का रूमान

अरुंधति अपने दांतेवाड़ा यात्रा वृत्तान्त का अंत एक ऐसे शाएर की एक मशहूर नज़्म के एक टुकड़े से करती है, जो अपनी रुमानी क्रांतिकारिता के लिए प्रसिद्ध है- फ़ैज़।

वहाँ पाया गया अंश यह है :

हम अहले-सफ़ा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे

नज़्म के इसी तेवर के चलते पाकिस्तान में इस पर लम्बे समय तक बंदिश रही। लेकिन क्या अरुंधति को आभास है कि यह नज़्म इस्लामी क़यामत की धारणा में गहरे तक धंसी हुई है? यह पूरी नज़्म क़यामत के रोज़ होने वाले इंसाफ़ को समर्पित है जिसे ख़ुदा ने अपनी विशालकाय पट्टी (लौहे अज़ल) पर पहले से ही लिख रखा है। इस नज़र से नज़्म में एक तरह का नियतिवाद है। मगर तख़्त ओ ताज उछालने की बात भर से इंक़लाबी बेहद भावुक हो कर अपनी रुमानियत में और उतराने लगते हैं।

फ़ैज़ की रूमानियत को ऐसे और समझा जाया कि उनकी वफ़ात हुए चौथाई सदी गुज़र गई है। तख़्त ओ ताज कई उछले और गिरे लेकिन जो नारा गूंज रहा है पाकिस्तान की फ़िज़ाओं में, वो अनल हक़ का नहीं है। (अनल हक़-अह्म ब्रह्मास्मि- फ़ारस के प्रसिद्ध सूफ़ी मंसूर हल्लाज का वो नारा था जिसकी उद्घोषणा के लिए उसे अनेक यातना देने के बाद मौत के घाट उतार दिया गया था)

क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि अरुंधति का दांतेवाड़ा वृतान्त एक रूमानियत पर अंत होता है?

फ़ैज़ की पूरी नज़्म कुछ यूं है:

हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन की जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल पे लिखा है

जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़े-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफ़ा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे

बस नाम रहेग अल्लाह का
जो ग़ायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़े-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

गुरुवार, 25 मार्च 2010

हिन्दी पर आलोक


उर्दू-हिन्दी का विवाद बड़ा जटिल मामला है। हिन्दी भाषा और हिन्दी समाज गहरे तौर पर इस विवाद से प्रभावित रहा है। पिछले दिनों इलाहाबाद में लोकभारती में किताबें देखते हुए अचानक शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी की किताब उर्दू का आरम्भिक युग दिखाई दी। फ़ारुक़ी साब आज की तारीख़ में उर्दू के सबसे बड़े विद्वानों में से है। मीर तक़ी मीर पर उनके लेख अंग्रेज़ी में पढ़ चुका हूँ। उर्दू-हिन्दी मामले पर उनके विचार हिन्दी में पढ़ने का लोभ-संवरण नहीं कर सका। ख़रीद ली और आनन-फ़ानन पढ़ भी डाली। बहुत ही रिसर्च की मेहनत के बाद लिखे हुए लेख हैं, लेकिन वे जितने सवाल हल करते हैं उतने ही खड़े करते हैं।

बाद में वाक में नीलाभ भाई का एक लेख पढ़ने को मिला जिसमें उन्होने फ़ारुक़ी साब की प्रस्थापनाओं की ख़बर ली है: “फ़ारुक़ी साहब ने इस तहक़ीक़ाती कोशिश का जो मक़सद अपने लिए तय किया, वह इस पेचीदा मसले पर एक नया स्वाधीन और विवेकसम्मत विचार-विमर्श करने की बजाय उसी पिटे-पिटाये तर्क को दोहराना है कि सारी गड़बड़ी –और यहाँ ‘सारी’ पर ज़ोर मेरा है – अंग्रेज़ो की थी और उसके बाद हिन्दी (हिन्दू) अस्मिता के अलमबरदारों की।

संयोग से तभी बोधिसत्त्व के घर से नया पथ के दो उर्दू-हिन्दी विशेषांक हाथ लग गए, उनमें असग़र वजाहत, अली अहमद फ़ातमी, महेश्वर दयाल, लुत्फ़ुर रहमान, मेहर अफ़शां फ़ारुक़ी, सलिल मिश्र, प्रमोद जोशी, मधु प्रसाद, आलोक राय, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, और रविकांत, के बड़े धारदार लेख पढ़ने को मिले। लेकिन मामले के सुलझाव का सिरा नहीं मिलता था। मुझ भाषा में इस क़दर उलझते देख प्रमोद भाई ने मेरी ओर आलोक राय की 'हिन्दी नेशनलिज़्म' उछाल दी। जिसे पढ़ कर मन तृप्त और गदगद हो गया।

अपनी भाषा और इतिहास और परम्परा के जितने भी माठे हैं, सब को किताब में बड़े प्रेम से सहेजा गया है। न किसी को सोहराया गया और न किसी को बख़्शा गया है। समझ में आता है कि किसी का दामन पाक नहीं है। अफ़सोस ये है कि किताब के पहले संस्करण के दस साल बाद भी इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। आलोक राय प्रेमचंद के पोते हैं और ऑक्सफ़ोर्ड से शिक्षित हैं। लिहाज़ा हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी तीनों परम्परा में दख़ल रखते हैं। ये तो आलोक जी की सुगठित अंग्रेजी की महिमा है जो किताब कुल १२२ पन्नो की है, लेकिन अगर कोई आम इंसान लिखता तो शायद ३०० पन्ने की किताब बनती। इसका अनुवाद करना कोई हँसी-खेल नहीं मगर हम ने हाथ आज़माया है क्योंकि बातें बेहद ज़रूरी है।


हिन्दी नेशनलिज़्म

(ये किताब के बीच से रैन्डमली उठाया हुआ अपनी पसन्द का एक टुकड़ा है। इसके पहले राय साहब ये बता चुके हैं कि किस तरह से १८३५ में अंग्रेज़ो नें सरकारी कामकाज़ की भाषा फ़ारसी से बदलकर उर्दू कर दी। दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ो की शिक्षा नीति के तहत हिन्दी पाठशालाओं में नागरी में और मदरसों में उर्दू में शिक्षा जारी रही।)

दो समान्तर शिक्षा धाराएं पालने का बेतुकापन एक दुखद पिच तक पहुँच गया क्योंकि सबसे अधिक रोज़गार पैदा करने वाला कोलोनियल तंत्र, नागरी धारा से शिक्षित लोगों के रोज़गार के लिए पूरी तरह से बंद नहीं था। जैसा कि पहले इशारा किया गया है कि निस्बतन इस ज़्यादा देहाती छात्र से अपेक्षित था कि वे ‘मामूली स्थानीय पदों’ के लिए, अक्सर शिक्षा के ही क्षेत्र में, उम्मीदवारी करें – जिस से मसला और उलझता था। १८७७ में, नागरी/हिन्दी की मान्यता के लिए जो आन्दोलन पनप रहा था, उसके लगभग एक अड़ियल जवाब में, १० रुपये मासिक से अधिक की सरकारी नौकरी पाने के लिए उर्दू की जानकारी को कम्पलसरी बना दिया गया। अंग्रेज़ सरकार की शिक्षा नीति और रोज़गार नीति के बीच की विसंगति (कम्पलसरी उर्दू की बात को १८९६ में जाकर वापस लिया गया) से उपजी आर्थिक ज़रूरत या कहें आर्थिक हताशा, उन्नीसवीं सदी के आख़िरी सालो में उत्तर भारतीय भाषाई भेदभाव की राजनीति को समझने का एक ज़रूरी हिस्सा है। भारतेन्दु और उनके समकालीनों के लेखन में, शिक्षित वर्गो में बेरोज़गारी का विषय, बार-बार लौटता रहता है। उन में से एक ने एक कविता भी लिखी (जिसकी तारीख़ भी दिलचस्प है ६ ए. एच., एनो हरिश्चन्द्र यानी १८९१) जिसमें फंसे होने के मूड को बख़ूबी पकड़ा गया है:

लैसन इंकम चुन्गी चन्दा पुलिस अदालत बरसा घाम।
सब के हाथन असन बसन जीवन संसयमय रहत मुदाम।
जो इनहू ते प्रान बचे तो गोलि बोलति आय धड़ाम।
मृत्यु देवता नमस्कार तुम सब प्रकार बस तृप्यन्ताम॥

इनपुट (शिक्षा) और आउटपुट (रोज़गार) के बीच उस वक़्त मौजूद इस विसंगति के बिना, ख़ाली सीरामपुर और फ़ोर्ट विलियम से निकली कही जाने वाली फ़ारसी प्रभावित, संस्कृत और ब्रज से प्रभावित क़िस्मों के भाषाई और शैलीगत फ़र्क़ो से- यहाँ तक कि पतनशील मुग़ल अमीरों से और हिन्दू धार्मिक ग्रंथो के विविध अनुवादकों से भी- वो ज़हरीला असर मुमकिन नहीं था जो जल्द ही सामने आया। अपने और दूसरे के अंग-भंग करने वाले, और अन्ततः गृहयुद्ध और विभाजन तक ले जाने वाले सांस्कृतिक भेदभाव के प्रचण्ड राक्षस की रचना उन समान्तर नर्सरियों में हुई जो कोलोनियल शिक्षा नीति के अनचाही और मासूम पैदाईश थीं। लेकिन वर्नेकुलर विवाद- जैसा कि इस मामले को उस वक़्त नाम दिया गया था- या नागरी/हिन्दी आन्दोलन- केवल संयुक्त प्रांत (नॉर्थ वेस्ट प्राविन्स और अवध) में ही ज़ोर पकड़ सका। और ये बेक़ाबू तब हो चला जब कोलोनियल शिक्षा नीति - और कुछ दूसरे कारणों ने जैसे कि क़स्बों में व्यापारियों और साहूकारों के हाथों में वेल्थ के एकुमुलेशन - ने एक ऐसे इलीट वर्ग को पैदा कर दिया था जो भाषाई भेदभाव के द्वारा मुमकिन हुई, और अपरिहार्य हो गई राजनीति की बाग़डोर सम्हाल सके।

* * *

उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध को, कम से कम उत्तर भारत को, डिफ़ाइन करने वाली –बहुत मक़बूल न भी सही- घटना १८५७ का विद्रोह थी। कोलोनियल इतिहासकारों ने जिसका महत्व ‘सिपाही विद्रोह’ कह कर घटाने की सायास कोशिश की। १९७७ में राम विलास शर्मा की लिखी हुई असरदार किताब ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ एक घनघनाती हुई घोषणा से शुरु होती है: “हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से आरम्भ हुआ।” शर्मा जी के अनुसार, १८५७ के विद्रोहियों द्वारा जारी तमाम एलानों में व्यक्त पापुलर, डेमोक्रेटिक और एन्टी कोलोनियल विचारों से, भारतेन्दु और उनके समकालीनों में अभिव्यक्त चेतना तक, एक अबाध संक्रमण है। इसके बाद वे भारतेन्दु युग से, द्विवेदी जी के प्रभावशाली पत्रिका ‘सरस्वती’ से जुड़े लेखकों की चारित्रिक नेशनलिस्ट और मार्डनिस्ट बेचैनी तक, भी एक सीधा विकास देखते हैं। ये ऊपरी तौर पर विश्वसनीय और एक ख़ुशगवार अवधारणा है, लेकिन इसके साथ कुछ मुश्किलें हैं। १८५७ के विद्रोहियों की वैचारिक प्रेरणा में पापुलर-डेमोक्रेटिक और फ़्यूडल तत्व मिले-जुले थे। ये हैरानी की बात नहीं, और शर्मा जी १८५७ के विद्रोहियों की कोलोनियल नज़रिये से इतिहास में उन पर रखे गए दोषारोपण से उद्धार की ज़बरदस्त वक़ालत करते हैं। लेकिन १८५७ के सदमे के बाद वाली पीढ़ी का उस धरोहर से एक दुविधापूर्ण रिश्ता रहा। निश्चित ही इस धरोहर को ख़ुले तौर पर न अपना पाने के भारी कारण भी थे। फिर भी, ये ग़ौर करने लायक़ बात है कि कुछ दशक बीत जाने के बाद ही १८५७ की याद की जा सकी। नागरी/हिन्दी के आन्दोलन के एक पहलू पर उनके पायनियर स्टडी में क्षितिकंठ मिश्र अनायास कहते हैं कि भारतेन्दु हरिशचन्द्र और उनके समकालीनों में १८५७ को कोई जगह नहीं मिलती।

और जबकि १८५७ के विद्रोहियों को अपनाया नहीं जा सकता था, उस भूचाल के बाद क़ाबिज़ कोलोनियल सत्ता के साथ एक समझौते का रास्ता बनाना ही था। नतीजे में पैदा हुई चेतना एक अन्तरविरोध के तनाव में है, एक कोलोनियल आतंक के सन्दर्भ में एक राष्ट्रीय चेतना को गढ़ने की ज़रूरत के तनाव में है। भारतेन्दु का करियर कुछ अर्थों में इस तनाव का मार्मिक मुज़ाहरा है: अपनी दुनिया की ज़िम्मेदारी लेने को आतुर आज़ाद चेतना की लगाम बार-बार कसी जाती है, कोलोनियल ताक़त की सच्चाई के मुताबिक चलने के लिए मजबूर होती है, चुप रहने के लिए मजबूर होती है। शर्मा जी को सम्मान सहित, मेरा मत है कि कि यही तनाव है जो भारतेन्दु, उनके समकालीनों और उनके उत्तराधिकारियों के भी विकास का निर्धारण करता है। यही वजह है, म्यूटैटिस म्यूटैन्डिस*, कि हिन्दी आन्दोलन के आरम्भिक दौर में बेशक़ जो डेमोक्रेटिक और मार्डन तत्व थे वे समय के साथ संकीर्ण और रिएकशनरी बन गए। १८५७ एक वाटरशेड है, लेकिन राजनीति- सांस्कृतिक राजनीति भी - जो वाटरशेड के इस तरफ़ विकसित हुई वो मुक्ति और दमन, दोनों के क्षण से दाग़ी हुई है। १८५७ को एक ऐसी देहरी या ऐसे मंच, जिससे भारतीय राष्ट्र की आधुनिकता का प्रोजेक्ट शुरु हुआ, के बजाय मेरा सोच में वह एक रसातल की तरह है। रसातल के इस तरफ़ जो राजनीति हुई वो रसातल और उससे पैदा हुए शक्ति शून्यता, दोनों से बराबर प्रभावित थी, और उतनी ही विद्रोहियों के ऐलानों से और यहाँ तक कि सदमे के पहले के संसार की स्मृतियों से भी।

* दूसरे बदलावों को ज़ेहन में रखते हुए



(हालांकि किताब लिखने के बाद गंगा में और तमाम पानी बह गया है, हिन्दी आम लोगों तक पहुँचने की एक कारगर भाषा के रूप बाज़ार में उसके लिए जगह बनाई जा रही है तो दूसरी तरफ़ लण्डन में बैठे भाषाविद, हिन्दवी के इतिहास से नई बातें खोज निकाल रहे हैं। जिन्हे पढ़ने के बाद हिन्दी की उर्दू के कंधे पर सवार होने की बात शक़ के दायरे में जा रही है। )

बुधवार, 24 मार्च 2010

जै सिया राम!

पहले बोलते थे- जै सिया राम! बोलते थे राम-राम! नाम भी होते थे राम सजीवन, राम पदारथ, राम खिलावन, राम कृपाल, राम गोपाल। जन-जन राम से ओत-प्रोत था, सराबोर था। लोग चुहुल में माँ को माताराम भी कहते। अल्पसंज्ञा और संज्ञाशून्य हस्तियों को भी नाम प्रत्यय से पुकारते थे, जैसे कुत्तेराम, और पेड़राम। अवसरवादी भी आयाराम-गयाराम की उपाधि ले कर राम का प्रसाद पा जाते। पिंजड़े में क़ैद मिट्ठू भी पहले सीताराम का पाठ ही सीखता।

लेकिन आडवाणी जी ने अपनी राजनीति खेलकर सब नरक कर दिया। अब लोग राम का नाम लेने में शर्माने लगे हैं। क्योंकि ‘जै श्री राम’ कहते ही एक साम्प्रदायिक फ़िज़ा तैयार हो जाती। क्रूर और हिंसक स्मृतियां कुलबुलाने लगती हैं। राम के नाम के साथ किए इस अपराध के लिए मैं निजी तौर पर आडवाणी जी को कभी माफ़ नहीं कर सकता।

पहले लोग ‘जै श्री राम’ नहीं ‘जै सिया राम’ बोलते थे। पहले पद में ‘सिया’ को निकाल कर बाहर कर के राम के मर्यादा पुरुषोत्तम छवि पर जो धब्बा है वह और गहरा गया है। जबकि ‘जै सिया राम’ में राम के अपराध के प्रति एक विद्रोह है कि राम जी भले आप ने सीता मैया को निकाल दिया हो, हम तो उन्हे हमेशा याद करेंगे और आप के पहले याद करेंगे।

जै सिया राम!

यह कहते हुए सीता को हम राम से वापस मिला देते हैं और राम की छवि को निर्मल बना देते हैं।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

जन्नत हमीं अस्त?


जम्मू और कश्मीर में ‘वूमन्स परमानेन्ट रेज़ीडेन्ट (डिसक्वालिफ़िकेशन) बिल’ पर घमासान छिड़ा हुआ है। इस बिल के पास हो जाने के बाद राज्य की कोई भी औरत अगर किसी ग़ैर-प्रान्तीय से शादी करती है तो वो राज्य की स्थायी निवासी होने का अधिकार खो देगी। क्या है वो अधिकार? राज्य में सम्पत्ति ख़रीदने का अधिकार!

भरतीय संविधान की धारा ३७० के चलते कोई ग़ैर-प्रान्तीय राज्य में सम्पत्ति नहीं ख़रीद सकता है। मज़े की बात ये है कि जम्मू और कश्मीर राज्य में यह क़ानून १९२७ से ही लागू है। क्योंकि उस समय बड़ी तादाद में पंजाबी, जम्मू में पैर फैला रहे थे। तो जम्मू के लोगों ने असुरक्षा की भावना से महाराज हरि सिंह से गुहार लगाई और सुरक्षित हो गए। उस वक़्त का बना क़ानून १९४८ में भारत में विलय के बाद भी बना रहा।

हम ग़ैर-कश्मीरियों के ज़ेहन में कश्मीर को लेकर एक छवि बनी हुई है कि भई धरती का स्वर्ग है कश्मीर। ये भ्रान्ति मुग़ल बादशाह जहाँगीर की ग़लतफ़हमी -जन्न्त हमीं अस्त- से पैदा हुई और अभी तक चली आ रही है। अगर ये वास्तव में सच होता तो मुग़ल बादशाहों ने अपना मरकज़ आगरा और दिल्ली को बनाने के बजाय श्रीनगर को बना लिया होता। वहाँ की आबो-हवा ज़िन्दगी बसर करने के लिए इतनी ही माक़ूल होती तो गंगा के मैदान में आबादी का घनत्व कम होता और कश्मीर की घाटी में ज़्यादा होता!

लेकिन कश्मीर के बाशिन्दों ने इस ग़लतफ़हमी को कुछ ज़्यादा ही सीरियसली ले लिया है। इसीलिए वे सोचते हैं कि पूरा हिन्दोस्तान (दुन्या न भी सही) कश्मीर में किसी भी तरह एक कुटिया बना लेने के लिए मरा जा रहा है। इसीलिए पीडीपी, नेशनल कान्फ़्रेन्स से लेकर कांग्रेस तक इस अपने मूल में स्त्री-विरोधी क़ानून को बेहिचक, बेशर्मी से लागू करने में योगदान कर रहे हैं।

लेकिन कोई उनसे पूछे कि भैया कौन रहना चाहता है कश्मीर में? कश्मीरी मुसलमान तो ख़ुद आरोप लगाते हैं कि कश्मीरी पंडितो को किसी ने नहीं भगाया; वे स्वेच्छा से निकल गये। कश्मीर घाटी के जो हालात हैं वहाँ से कोई भी अमनपसन्द आदमी मौक़ा मिलते ही भाग खड़ा होना चाहता है। माना जा रहा कि दुनिया के सबसे ख़तरनाक इलाक़ो में एक कश्मीर भी है। और लोगबाग़ है कि अपनी आँख से पट्टी हटाना ही नहीं चाहते? उनका ख़याल है कि लोग कश्मीर में घुसने के लिए मरे जा रहे हैं? होश में आइये भाईयों!

शनिवार, 20 मार्च 2010

एल एस डी नहीं सच की गोली

फ़िल्म का नाम सचमुच वहमाना है। एल एस डी जो सच्चाई से दूर एक सपनीली दुनिया में तैराने की एक गोली हुआ करती थी, यह फ़िल्म आज के इण्डिया की वो सच्ची तस्वीर है जिसमें बुरक़े पहन कर जवान मुस्लिम लड़कियां ‘लव सेक्स और धोख़ा’ देखने चली आतीं है। सिनेमा हॉल में नौजवान लड़कों के गिरोह, लड़कियों के गिरोह, दर्ज़न भर जवान जोड़ों के बीच दो गिरोह बुरक़े बन्द लड़कियों के भी थे जो पूरी फ़िल्म में सेक्स के सारे सन्दर्भों पर खिलखिलाते रहे।

फ़िल्म में तीन अलग-अलग कहानियां है, तीनों में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के बीच में कैमरा है और सेक्स। फिर भी ये फ़िल्म वायरिज़्म के बारे में नहीं है। मानव मन के उस पहलू की कोई अलग से पड़ताल इसमें नहीं की गई है। कहा जा सकता है कि उनका सेक्स और कैमरे से सम्बन्धित होना एक संयोग है या आज के समय की एक दी हुई सच्चाई है जिसे दर्शाने में दिबाकर बैनरजी ने कोई चूक नहीं की है।

पिछले कुछ बरसों में इन्डियन सोसायटी में आए बदलावों के सेक्चुअल पहलू को ‘लव सेक्स और धोख़ा’ बख़ूबी पेश करने में कामयाब हैं। जैसा कि फ़िल्म दावा करती है बीच-बीच में धोख़ा होने लगता है कि आप फ़िल्म नहीं रिएलटी टी वी देख रहे हैं। सारे चरित्र दमबदम ज़िन्दा और तमाम जटिलताओं को समोये हुए हैं। अख़रने वाला प्रसंग सिर्फ़ एक है जब फ़िल्म के अंत के एक छोटे से सीन में आदर्श नाम का चरित्र अचानक अपनी किरदार की हदों से बाहर जा कर बड़ा विटी और कूल बन जाता है।

एल एस डी हिन्दी फ़िल्म इतिहास में एक अनोखा प्रयोग है मगर अफ़सोस! 'ओय लकी, लकी ओय' में दिबाकर ने मनोरंजक बने रहते हुए ही दिल्ली के समाज की जो परतें उघाड़ी थीं, यहाँ वो परतें तो हैं लेकिन फ़िल्म बोझिल सी है। पहली कहानी तो इतनी उबाऊ है कि आप को थिएटर छोड़ कर भागने की इच्छा करने लगती है। अलबत्ता फ़िल्म छोड़ कर भागा कोई नहीं क्योंकि शायद सभी दर्शक दिबाकर से किसी ओय लकी जैसे जादू की उम्मीद कर रहे थे। जादू नहीं होता, मगर हाँ फ़िल्म अपने अंजाम के क़रीब जाकर काफ़ी संगठित बन जाती हैऔर दिलचस्प भी। फ़िल्म के दो गानों में जो ऊर्जा है वह फ़िल्म में नहीं दिखती, इस अर्थ में फ़िल्म दुबारा वहमाना है।

इस प्रयोग के मेरी उम्मीदों पर पूरी तरह खरे न उतरने के बावजूद दिबाकर बैनरजी की प्रतिभा पर मेरे विश्वास को ज़रा ठेस नहीं पहुँची है।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

लैण्डमार्क में हिन्दी वाले

परसों के रोज़ लैंडमार्क बुक स्टोर जाना हुआ। मेरी हमसर तनु पामुक की नई किताब 'म्यूज़ियम ऑफ़ इन्नोसेन्स' पढ़ना चाह रही थीं। पहले उसे हाथ में ले लिया और फिर इधर-उधर किताबों पर नज़र फेंकता रहा। एक अरसे से अलबर्तो मोराविया की किताबें खोज रहा हूँ, मिलती नहीं। फ़िक्शन सेक्शन में एल्फ़ाबेटिकल सिलसिले से किताबें रखीं हुई हैं –तक़रीबन दस-बारह रैकों पर। एम वाली किताबें दो रैकों पर हैं; मुराकामी, मार्केज़ आदि के बीच मोराविया कहीं नहीं थे।


याद आया कि पवन कुमार वर्मा की हिन्दी प्रदेश की संस्कृति और पहचान पर केन्दित पुस्तक ‘बिकमिंग इन्डियन’ बिक रही है, लगे हाथ वो भी ले ली। पिछले कुछ महीनों से लैंडमार्क में एक हिन्दी विभाग भी बनाया था। उस ओर पैर बढ़ाया तो देखा कि हिन्दी का साम्राज्य पाँच रैकों में फैल गया है; पहले दो पर था। यह प्रगति अच्छी लगी।

मुख़्तलिफ़ प्रकाशकों की मुख़्तलिफ़ विषयों पर किताबें वहाँ मौजूद देखकर ही खुशी हो रही थी कि मुख्यधारा में हिन्दी की जगह बन रही है। लेकिन ये देख कर अजीब लगा कि किताबें निहायत बेतरतीबी से रखी हुई हैं; न तो कोई सिलसिला है और न कोई विभाजन। मन बना लिया कि शिकायत करूँगा।

हेल्प डेस्क पर बैठी लड़की ने मुँह लटका कर बताया कि उन्हे हिन्दी किताबों की रोज़ाना रैकिंग* करनी पड़ती है। उस सेक्शन में सबसे ज़्यादा ब्राउज़िंग** होती है मगर सेल्स सब कम।

क्या मतलब है आख़िर इस बात का?

हिन्दी किताबों में दिलचस्पी लेने वाले किताब को अलटते-पलटते हैं और वापस कहीं भी रख देते हैं?

हिन्दी किताबें देखने वाले और अंग्रेज़ी किताबे देखने वाले अलग-अलग लोग हैं और उनका व्यवहार भी अलग है?

इस व्यवहार से जुड़ा क्या एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि भाषा आदमी का व्यवहार तय करने, उसे निखारने में मददगार होती है? भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं संस्कारों का भी मसला है?

हिन्दी वाले (संज्ञा को छोटा कर दिया है) और अंग्रेज़ी वाले अलहदा वर्ग नहीं बल्कि एक ही हैं, बस दो भाषाओं और उनकी किताबों को लेकर उनका रवैया जुदा-जुदा है?

हिन्दी वाले किताब में रुचि तो रखते हैं लेकिन उसे ख़रीदने के लिए पैसे खर्च करने के फ़ैसले तक पहुँच नहीं पाते?

हिन्दी वालों की किताब को ख़रीद सकने की सामर्थ्य और किताबों की क़ीमतों में साम्य नहीं है?

जो भी मामला है, सुखद नहीं है, अफ़सोसनाक है!

*किताबों को विषयानुसार नियत रैक के ख़ानों में सजाना
**पन्ने पलटना



रविवार, 14 मार्च 2010

आदमी की औरत और अन्य कहानियां

शनिवार की शाम को अमित दत्ता की फ़िल्म ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ देखने का अवसर हुआ। अमित दत्ता की पिछली छोटी फ़िल्में ‘क्षत्रज्ञ’ और क्रमशः’ मैं ने देख रखीं है। इसके अलावा अमित ने एक और छोटी फ़िल्म ‘का’ भी बनाई है, वह भी मैंने देखी है। अमित के शिल्प की बहुत चर्चा होती रही है। तमाम लोग उनकी तुलना मणि कौल और कमल स्वरूप के साथ करते रहे हैं। जब मैंने इस फ़िल्म के बारे में पहले-पहल सुना था तो ही जिज्ञासा उग गई थी। वो सामान्य से अधिक बलवती इस कारण भी थी क्योंकि ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ की तीन कहानियों में दो मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की हैं और तीसरी मेरे एक और प्रिय लेखक सआदत हसन मंटो की।


चूँकि मैं अमित के शिल्प से परिचित था तो मेरी उम्मीद किसी तरह का लीनियर नैरेटिव देखने की क़तई नहीं थी। बावजूद इस तैयारी के मैं अमित दत्ता की फ़िल्म से निराश हुआ। उसकी एक से अधिक वजहें हैं।
कहानियों पर बनी फ़िल्मों को हमेशा इस सवाल का सामना करना पड़ता है कि किस हद तक निष्ठा निभाई जाय? हर फ़िल्मकार के लिए निष्ठा की परिभाषा और उसकी हदें दोनों अलग होंगी। अमित की सोच में न सिर्फ़ इस मामले में काफ़ी रूपवादिता नज़र आई। संवादों और घटनाओं के साथ तो उसने अधिक छेड़छाड़ न की मगर चरित्रों की भावना और कथा की आत्मा के प्रति वो, मेरी उम्मीद है कि अनचाहे तौर पर, ईमानदारी नहीं निभा सके।

अमित ने अपने छोटे करियर में ही अपना एक स्टाइल, एक अंदाज़ विकसित कर लिया है। लोग उसे पहचानने लगे हैं। एक कलाकार के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि आप को एक ‘स्वरूप’ हासिल हो जाय जिसमें ढाल कर आप अपनी शराब लोगों को पेश करते रहें। मगर इस स्टाइल की मुश्किल भी होतीं हैं और ये एक हासिल की जगह बन्धन भी बन सकता है। ये मुश्किल और भी जटिल तब हो उठ सकती है जब आप की बोतल में स्वरूप ही स्वरूप रह जाय और शराब ग़ायब हो चले। लोग बोतल के कांच के रंग, आकार और ढलाई की तो तारीफ़ करें मगर न गला तर हो और न नशा हो? भगवान न करे कि अमित का स्टाईल इस अंजाम तक पहुँचें लेकिन इस की आशंकाएं हैं।


‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ फ़िल्म में पहली कहानी है ‘पेड़ पर कमरा’। जिन्होने भी यह कहानियां पढ़ी है वे इसके मुरीद हैं। शहर की कचर-मचर के भीतर प्रकृति के साथ एक बीहड़ कि़स्म का रिश्ते बनने की कहानी है। एक कमरा है जिस की बिना सीखचों और पल्लों की खिड़की से सटी एक पीपल की एक मोटी सी डाल है। जिस से होकर गिलहरियां कमरे में और लेखक के मन में घुसी चली आती हैं। प्रकृति के साथ जो तादाम्य और संघर्ष का रिश्ता आदमी का है उसी के आयामों को खोलती हुई कहानी है यह।

फ़िल्म में गिलहरियों के नाम पर सफ़ेद चूहें हैं, चीलों के नाम पर सफ़ेद कबूतर। कमरा इतना संकरा है कि उसे देख कर घुटन होती है। खिड़कियां एक नहीं चार हैं। पेड़ की शाख़ और कमरा अलग-अलग ही बने रहते हैं; कहीं से भी यह भाव बनता ही नहीं कि ‘पेड़ पर कमरा’ है। ये सारी बातें क्षम्य हैं क्योंकि फ़िल्म ‘फ़ि टे इ इ, पुणे’ के अभिनय कोर्स के विद्यार्थियों के लिए सीमित साधनों में बनाई गई है और नियमों के अनुसार पूरी तरह संस्थान के अन्दर शूट की गई है। लेकिन यह ऊपरी बाते हैं। मूल मसला आत्मा का है, भावना का है।

अमित का शिल्प आप को चरित्र की भावना में गिरने ही नहीं देता, कहानी की आत्मा में उतरने ही नहीं देता। फ़िल्म माध्यम के अलग-अलग तत्व, अलग-अलग दिखाई देते रहते हैं। शाट अलग नज़र आता है, चिड़ियों की आवाज़ें अलग सुनाई पड़ती हैं। अभिनेताओं के चेहरे पर आते-जाते भाव अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। शाट कहाँ कट हुआ आप नोटिस करते हैं। सब कुछ पारा-पारा होकर हवा में झूलता रहता है। कहानी का तारतम्य नहीं बनता, कोई नैरेटिव नहीं बनता।*


क्या अमित से यह ग़लती से हो गया है? नहीं, अमित ने जो कुछ किया सब सायास है, डेलीबिरेट है। फ़िल्म कला के विमर्श में पिछले सालों शिल्प के कनर्वजेन्स को तोड़ने की, तत्वो की एकता की दादागिरी को ख़त्म करके अनेकता को जगह देने की बातें होती रही हैं। ऐसा मालूम देता है अमित परदे पर किसी बात को उकेरने के पहले से स्थापित तरीक़ों को नकार रहा है और एक नया रस्ता ले रहा है। इस प्रयोगधर्मिता में बात अक्सर कुछ की कुछ हो जा रही है और दर्शक तक पहुँचने के पहले ही कहीं खो जा रही है। ऐसी प्रयोगधर्मिता से मुझे कोई ऐतराज़ नहीं अगर वो किसी दूसरे के कलाकर्म/कहानी को अपनी प्रयोग के अनुष्ठान में बलि नहीं दे रही। विनोद जी कहानी के साथ इस तरह की अनुशासनहीनता मुझे नहीं रुची।

मणि कौल ने भी विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'नौकर की कमीज़' पर फ़िल्म बनाई है। उसे देखते हुए मुझे निराशा हुई कि फ़िल्म, उपन्यास का काफ़ी खुदरा रूप बन कर सामने आती है। मगर वो फ़िल्म विनोद कुमार शुक्ल के कृतित्व के प्रति ईमानदार है, कोशिश करती है कि उनकी भाषा की महीन बिनाई को दर्शक तक पहुँचाए। लेकिन अमित, विनोद जी की कथा और दर्शक के बीच अपनी बुनावट से कुछ अधिक ही व्यवधान पैदा कर देते हैं।

वैसे अमित अपने स्टाईल के प्रति अनुशासनबद्ध ही रहे, उसकी हदों को नहीं लांघा उन्होने। दूसरी कहानी ‘आदमी की औरत’ भी विनोद जी के कथा संग्रह ‘महाविद्यालय' से है। कहानी के साथ कुछ आज़ादी लेते हुए उसका शिल्प पहली कहानी से कुछ जुदा बनाया अमित ने लेकिन अपने मौलिक अंदाज़ से बहुत हिले नहीं। जो शिकायतें मैंने ऊपर दर्ज की हैं उनसे यह टुकड़ा भी अछूता नहीं था, लेकिन इस के तत्व इतने विखण्डित नहीं थे। फिर भी कहानी के भीतर मौजूद कई पहलू परदे पर आने से रह जाते हैं। शायद इसलिए भी कि यह पहला अवसर है कि जब अमित ने अभिनेताओं के साथ काम किया है।


तीसरी कहानी ‘ १०० कैन्डल पावर का बल्ब’ ही फ़िल्म की ठीक-ठाक और मुकम्मल कहानी मालूम देती है। उसके बारे में दो बातें हैं। एक तो यह कि मैंने वह कहानी पढ़ी नहीं है तो फ़िल्म का वह अंश किसी भी तरह की तुलना से स्वतंत्र है। और दूसरे यह कि परदे पर देखने से ऐसा लगा कि उस कहानी के भीतर विनोद कुमार शुक्ल जैसे महीन आयाम कम हैं और सेक्स. वेश्यावृत्ति और हत्या जैसे तत्व होने के कारण उसका कथ्य शिल्प के रूपवादी आग्रह में अटकता नहीं। और भी बहुत बाते हैं लेकिन उस विस्तार में जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।


जो भी हो, ये मेरी राय है। सुना गया है कि लोग इस फ़िल्म को हाथो-हाथ ले रहे हैं और वेनिस फ़िल्मोत्सव में यह क्लोज़िंग फ़िल्म रही और इसे स्पेशल मेंशन भी हासिल हुआ।** भारतीय फ़िल्मों में इस से पहले यह सम्मान १९३६ की शेख़ फ़त्तेलाल की संत तुकाराम और सत्यजित राय की अपराजितो को ही हासिल हुआ है। अमित दत्ता जैसे फ़िल्मकार कम हैं जो बात को कहने के नई तरीक़े खोजते हैं, और सिनेमाई तत्वों के आपसी सम्बन्ध और उनकी सापेक्षिक आज़ादी के बारे में चिंता करते हैं। मेरी इस आलोचना के बावजूद मेरी शुभकामनाएं और उम्मीदें उनके साथ हैं।




* फ़िल्म न तो तस्वीरों का माध्यम है न आवाज़ों का। कितनी भी आवाज़ और मोहक तस्वीरें जोड़कर आप एक असरदार फ़िल्म नहीं बना सकते। जबकि इसका उलट अकसर होते देखा गया है। दीवार जैसी फ़िल्म को आप क्या कहेंगे? या अभी हाल की थ्री ईडियट्स -उस फ़िल्म से मेरी आपत्तियां दरकिनार- भी एक माक़ूल मिसाल है। जैसे कहानी टाईम का फ़ंक्शन है वैसे ही फ़िल्म भी अपने मौलिक रूप में टाईम का ही फ़ंक्शन है।

**विदेशी सिनेमा को देखने की नज़र अलहदा होती है और अपने समाज में धंसी हुई फ़िल्म को देखने का अनुभव अलहदा। अकसर अनजान समाज की फ़िल्में एक ए़क्ज़ोटिका के बतौर काफ़ी आकर्षक हो जाती हैं। उनके मीन-मेख निकाल सकने की क़ुव्वत हमारे पास नहीं होती, वो एक सच्चाई का अक्स नहीं बल्कि एक स्वतंत्र सच्चाई के रूप में खड़ी हो जाती हैं। आजकल यह असर अपनी फ़िल्मों को लेकर भी हो गया है लेकिन फिर भी उस की आलोचना सम्भव है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

रोड मूवी

हिन्दी फ़िल्मों की मसालेदार दुनिया से एकदम अलग स्वाद की बनी एक हिन्दी फ़िल्म है रोड मूवी। हिन्दी समाज के किसी भी स्वाद से फ़ीकी, एकदम बेस्वाद। इस क़दर नक़ली और बनावटी कि हैरत होती है कि ऐसी फ़िल्म बनाने के पीछे क्या सोच काम कर रही है आख़िर?

नक़ली चरित्रों द्वारा एक हवाई घटनाक्रम में उचारे गए अंग्रेज़ी से तरजुमा किए हुए उतने ही नक़ली संवाद! विम वेन्डर्स की 'किंग्स ऑफ़ दि रोड' और मार्सेलो गोमेज़ की 'सिनेमा, एस्पिरिन एण्ड वलचर्स' से ‘बुरी तरह’ प्रभावित यह फ़िल्म बिलकुल बेअसर है।

हम हिन्दुस्तानी जिस तरह के कचर—मचर के समाज में रहते हैं, उन के लिए दूर-दूर तक के ख़ालीपन का आतंकित कर देने वाला लैण्डस्केप और उसमें विचरने की आज़ादी बहुत आकर्षक मालूम दे सकती है; मुझे देती है। लेकिन उसे सिनेमा की शक्ल देने का भी एक तरीक़ा होगा जिस से कि वो निहायत बेहूदी और हवाई शोशेबाज़ी न बन के रह जाय।

मैं यह नहीं मानता कि सिनेमा सिर्फ़ सामाजिक सच्चाईयों को प्रस्तुत करने का माध्यम है। आदमी के भीतर की ‘उड़ानों को पकड़ने’ का भी वो एक सशक्त और सफल माध्यम है। और अपने उसी रूप में अधिक लुभावना लगता है। असल में वो उड़ानें भी एक तरह की सच्चाईयां है- हमारे अन्तर्मन की सच्चाईयां। लेकिन कुछ फ़िल्में होती हैं जो न घर की रहती हैं न घाट की, रोड मूवी की गिनती उन्ही में की जा सकती है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?

क़रीब तीन साल पहले जब ब्लौग जगत के कुछ उत्साही सेकुलरपंथियों ने हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं की मर्यादा का अतिक्रमण करती कुछ पोस्टें चढ़ाई थीं तो धुरविरोधी* ने पूछा था : “रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?”

एम एफ़ हुसैन साहिब को लेकर जो बहस छिड़ी हुई है, उसमें मैं अपने पुराने साथी पंकज श्रीवास्तव और नीलाभ भाई से सहमत हूँ। मगर 'जनतंत्र' पर जो बात समरेन्द्र कहते हैं वो भी मुझे तार्किक लगती है। न तो हुसैन उतने मासूम हैं जितने कि हमारे साथी उन्हे बतला रहे हैं और न ही हमारे साथी उतने निरपेक्ष जितना कि वे दावा करते हैं। इसी कमी की ओर इंगित करते हुए धुरविरोधी ने पूछा था कि रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?

बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि 'रंगीला रसूल' क्या है। जो थोड़ी बहुत जानकारी** मिलती है वो कुछ यूँ हैं -

१९२० में दो किताबें प्रकाशित हुईं एक का नाम था- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’, और दूसरी थी – ‘बीसवीं सदी का महर्षि’। इन किताबों में श्रीकृष्ण और आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द के चरित्र की जिस अन्दाज़ से विवेचना की गई थी, तत्कालीन पंजाब के हिन्दुओं को वह बहुत नहीं जंची। जवाब में एक आर्यसमाजी विद्वान पंडित चमूपति ने पैग़म्बर मोहम्मद के चरित्र पर एक किताब लिखी जिसका शीर्षक रखा – रंगीला रसूल। इस किताब में मोहम्मद साहब के यौन-जीवन पर बात की गई थी। लेकिन चमूपति जी किताब को अपने नाम से छपवाने में डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि जान से जायं। एक नए प्रकाशक राजपाल ने चमूपति को गुमनामी का आश्वासन दिया और पुस्तक पर लेखक की जगह ‘दूध का दूध पानी का पानी’ नाम दे दिया, मगर अपना नाम-पता न छिपाया।

जैसी कि आशंका थी, १९२४ में किताब छपते ही बड़ा बलवा म़चा। राजपाल जी पर बहुत दबाव आया कि बतायें कि लेखक कौन है। लेकिन उन्होने अपना वादा न तोड़ा। लिहाज़ा ग़ुस्से का निशाना वही बने। पहला जानलेवा हमला उन पर १९२६ में एक पठान ने छुरे से किया। हमलावर को सात साल की जेल हुई और राजपाल जी तीन मास में चंगे हो गए। कुछ मास बाद एक और हमला हुआ, लेकिन इस बार हमलावर ने उनके धोखे में किसी और को निशाना बना लिया।

मामला गर्म हो गया और गाँधी जी को भी बयान देना पड़ा कि ‘एक साधारण तुच्छ पुस्तक-विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैग़म्बर की निन्दा की है, इसका प्रतिकार होना चाहिये।’ ख़िलाफ़त आन्दोलन वाले मौलाना मोहम्मद अली ने जामा मस्जिद से तक़रीर की कि काफ़िर राजपाल को छोड़ना नहीं, उसे सज़ा देनी चाहिये। दबाव में आकर ब्रिटिश सरकार ने राजपाल जी पर पांच साल तक मुक़द्दमा चलाया, निचली अदालत ने छै महीने की सज़ा सुनाई। लेकिन हाई कोर्ट ने उस सज़ा को रद्द किया और फ़ैसला दिया कि किताब में दिए सारे तथ्य सच्चे और ऐतिहासिक हैं। रिहा होने के बाद राजपाल जी*** ने कहा कि रंगीला रसूल से मुसलमानों का दिल दुखा है इसलिए वे उसका अगला संस्करण नहीं छापेंगे।

इस के बावजूद १९२९ में एक अन्य हमलावर ने उनकी जान ले ली।

खोजने वाले को रंगीला रसूल इन्टरनेट पर मिल जाएगी। मैंने वहीं से खोज के पढ़ी है और पाया कि वाक़ई उस किताब में ‘तथ्यतः’ कुछ भी ग़लत नहीं है। (भावना का प्रश्न रह जाता है वह बड़ा सापेक्षिक है) आज भी दुकानों में रंगीला रसूल आप को ढूंढने से भी कहीं नहीं मिलेगी।

क्यों?

गाँधी जी आज जीवित होते तो हुसेन साहब के मसले पर भी वही राय रखते जो उनकी रंगीला रसूल पर थी?

अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए लड़ने वाले बन्धु ‘रंगीला रसूल’ और राजपाल की शहादत को भूल क्यों जाते हैं?


*एक सजग चिट्ठा जो अब अन्तरजाल से डिलीट किया चुका है।
**राजपाल जी के पुत्र दीना नाथ मल्होत्रा की किताब ‘भूली नहीं जो यादें’ में से।
***भारत के दो मुख्य प्रकाशन गृह
-राजपाल और हिन्द पॉकेट बुक्स -के स्वामी उन्ही के वंशज है।

विकी पीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार किताब मूल रूप से उर्दू में लिखी गई थी। बाद में उसका हिन्दी में लिप्यान्तर किया गया। किताब भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में प्रतिबंधित है। राजपाल जी के हत्यारे इलम दीन को मौत की सज़ा हुई और उसे शहीद माना गया और बाद में गाज़ी का ख़िताब दिया गया।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

संस्कृति की अश्लील परम्परा उर्फ़ बहुत हुआ सम्मान

इलाहाबाद में अपने छात्र जीवन की शुरुआत के साथ ही अश्लील परम्पराओं से मेरा परिचय हो गया था। हमें हौस्टल के सीनियर्स ने फ़र्शी सलामी सिखलाई और जिस हौस्टल गीत को याद कर के उचित अवसरों पर सुनाने की हमें ताक़ीद की गई उसमें पुरुष के अंग विशेष के गुणगान किए गए थे। ऐसा बताया जाता था कि वह गौरवगीत हौस्टल के एक पूर्ववासी के पेन-प्रताप का ही परिणाम था।

हमारे रहते भी हौस्टल के एक वरिष्ठ वासी हिन्दी भाषा में अपने जौहर, साहित्य की इस अश्लील परम्परा को अर्पित करते रहे थे। उनके गीतों की लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके गायन के सभी अवसरों पर हौस्टलवासियों का आनन्द और उत्साह राष्टगीत और राष्ट्रगान को गाने के मौक़ो से कई गुणा अधिक होता, और उसका उद्गम विशुद्ध, अनहत और मणिपुर से भी गहरे सीधे मूलाधार से होता। सभी सुनने वालों के अंग-अंग से हर्ष का सागर हिलोड़ें मारने लगता।

ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ये पाशविक वृत्ति की उपज थी, पर भाषा और गायन की मानवीय उपलब्धियों में आबद्ध था। शारीरिक उद्वेगों की ये सामाजिक अभिव्यक्ति थी। जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़ सभी को जोड़ देने वाली यह संस्कृति थी। जन संस्कृति थी। लेकिन किसी भी सभ्य हलक़ों में इस 'जन संस्कृति' को मान्यता नहीं थी। नहीं है।

हौस्टल में ही रहते हुए मेरा परिचय बनारस की उस परिपाटी से हुआ जिसकी आवृत्ति हर बरस होली के अवसर पर होती। अस्सी पर होने वाला इस विशिष्ट सम्मेलन की ख्याति दूर-दूर तक हो चली थी, जिसमें सार्वजनिक मंच से आदमी और औरत के गुप्त प्रसंगो, और सामाजिक मसलों में उन प्रसंगो के मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल, की चर्चा सस्वर गायन के ज़रिये की जाती। इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता जो पढ़ना तो हर कोई चाहता लेकिन घर में रखना कोई न चाहता। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि आम तौर पर हास्य कवि ही होते और कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होता।

बाक़ी कवियों को छोड़ दें और सिर्फ़ चकाचक बनारसी की ही बात करें। साल के ३६४ दिन चकाचक की पहचान एक हास्य कवि की ही बनी रही। ये भी पता चला है कि वे दूसरा कोई काम नहीं करते थे और कवि सम्मेलनों में हुई आमदनी के ज़रिये ही अपना खर्चा चलाते थे। लेकिन एक होली के दिन उनका रूप बदल जाता और वे सारी वर्जनाओं को छोड़ कर भाषा को खुला छोड़ देते। और फिर ऐसी कोई चीज़ निकलती जो बड़े-बड़े विद्वानों को किए जा रहे सम्मान को बहुत हुआ बताकर उनकी माता जी से सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा होती :

बड़े-बड़े विद्वान,
तुम्हारी...
बहुत हुआ सम्मान,
तुम्हारी...

इस विद्रोही तेवर की अनुगूँज मुझे दूर-दूर तक सुनाई दी है, सुदूर मुम्बई तक भी। भाषा की मुख्यधारा में पड़े हुए और उस से अड़े हुए दोनों तरह के लोगों के भीतर। इस तरह की ज़बरदस्त मक़बूलियत अच्छे-अच्छे साहित्यकारों की नहीं है जो साहित्य के शीर्ष पुरस्कार पाने के बाद भी जनता के प्यार और स्वीकृति से कटे होने के कारण एक प्रकार की कुण्ठा में जीते हैं। चकाचक की घोषणा शायद उन को भी सम्बोधित है कि बहुत हुआ सम्मान। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि चकाचक सभी तरह की कुण्ठा से मुक्त हो कर वैकुण्ठ हो गए होंगे। मुझे पता लगा है कि एक उनका एक संग्रह ही प्रकाशित हुआ और वो भी बहुत बाद में; सन २००४ में उनकी मृत्यु के कुछ पहले ही और उसमें भी उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं को जगह नहीं थी। वे सिर्फ़ लोगों के दिलों, ज़ुबानों और गुप्त खर्रों में ही बसी रहीं। ये वहीं चकाचक हैं जिनकी एक और कविता का मुखड़ा बहुत लोकप्रिय हुआ है:

हर अदमी परेसान ह
हर अदमी त्रस्त ह
मारा पटक के
जे कहे पन्द्रह अगस्त ह

***

चकाचक की इसी चमक को याद करके मैंने इस बार होली बनारस में मनाने का फ़ैसला किया। इलाहाबाद तक आया था, फिर ऐसा मौक़ा मिले न मिले। तो वापसी के कार्यक्रम को रद्द कर के मैं बस इसी कार्यक्रम में शिरक़त करने के लिए बनारस पहुँचा। बनारस आ कर भाई अफ़लातून और अपने पुराने मित्र मेजर संजय से मालूम हुआ कि न तो अब होली का ये विशिष्ट कवि सम्मेलन अस्सी पर होता है और न उसे चमकाने के लिए चकाचक जीवित हैं। सम्मेलन की जगह बदल कर मैदागिन के एक मैदान में कर दी गई है क्योंकि अस्सी में रहने वाले परिवार, सम्मेलन के तीन-चार घण्टों के दौरान तय नहीं कर पाते थे कि अपने कान बन्द करें कि अपने बच्चों के।

होली तो नहीं खेली मगर भाई अफ़लातून और स्वाति जी के शानदार आतिथ्य का लाभ उठाया और अस्सी पर पप्पू की दुकान पर होली मिलन समारोह में गुलाल से रंगा गया। बनारस के तमाम राजनीतिक और साहित्यिक विभूतियों से मिलना हुआ। और इस साहित्य की इस अश्लील परम्परा पर विचार-विमर्श भी हुआ। मैं कह रहा था कि आने वालों साल में चकाचक को वैसे ही मान्यता मिल जाएगी जैसे पश्चिमी साहित्य में दि साद को मिली, डेढ़-दो सौ साल बाद।

मैं यह भी चाह रहा था कि मेरे हाथ इस अश्लील सम्मेलन के पुराने प्रकाशन मिल जायं लेकिन वे किसी के घर पर नहीं थे, कारण स्पष्ट है। अस्सी से निकलते-निकलते मैंने उत्साहित हो कर अपनी इस राय को भी गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष रखा कि इस अश्लील साहित्य का एक ब्लौग रचा जाय और उसे जनता के लाभार्थ समर्पित कर दिया जाय। अफ़लातून भाई इस बात पर बहुत सहमत नहीं दिखे। न जाने वह कुछ देर पहले उदरस्थ किए भंग के गोले का असर था या मेरी बात का, वे सपाट नज़रों से मेरी तरफ़ देखते रहे। और मुझे अपनी राय पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते रहे। सबसे विदा लेके मैं मैदागिन को चला आया।

सम्मेलन की सभी कुर्सियाँ काशी की जनता की तशरीफ़ों से घेरी जा चुकी थी। एक शरीफ़ आदमी ने अपनी तशरीफ़ सरका के मुझे भी अपनी तशरीफ़ टिकाने का निमंत्रण दिया; मैंने स्वीकार कर लिया। मंच पर और दर्शकों में सभी धर्म और वर्ग के लोग मौजूद थे। लोग हल्ला मचा रहे थे और संचालक बद्री विशाल की बहन के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति इच्छुक और आतुर दिख रहे थे। हारकर बद्री विशाल ने सामान्य कविताओं के दौर को समाप्त करते हुए विशिष्ट सम्मेलन का आग़ाज़ किया। उसके बाद जो कुछ हुआ उस से अश्लील साहित्य के प्रति मेरा उत्साह धीरे-धीरे ठण्डा पड़ता गया।

मंच पर से जो पढ़ा जा रहा था वो अधिकतर फ़िल्मी गानों की पैरोडी या सस्ती तुकबन्दी के अलावा कुछ नहीं था। बीच में एक कवि, जिनका मैं नाम याद न रख न सका, ने ज़रूर शिल्प और कथ्य दोनों में एक स्तर दिखाया। उस एक को छोड़कर किसी भी कविता में कोई सामाजिक या राजनैतिक सच्चाई को टटोलने की कोई कोशिश नहीं दिखी। जिसका निष्कर्ष मैं यह निकालता हूँ कि कविता श्लील हो या अश्लील, वो आम तौर पर कूड़ा ही होती है। (इस पाठक चाहें तो 'बुरा न मानो होली है' की भावना से प्रेरित मान सकते हैं)।

लगभग एक घण्टे तक किसी बेहतरी की उम्मीद करने के बाद मुझे अपनी तशरीफ़ और देर वहाँ रखने में तकलीफ़ होने लगी और मैं उठ चला आया। बाद में मैंने अफ़लातून भाई से किए अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार करते हुए पाया कि अच्छा यही होगा कि साहित्य की अश्लील परम्परा को अपना स्थान खुद तलाशने दिया जाय। चकाचक के उत्तराधिकारियों को इन्टरनेट तक पहुँचने में मेरी सहायता की ज़रूरत होगी, यह सोचना अहमन्यता होगी। और रही बात चकाचक को उनका स्थान मिलने की तो कौन जानता है कि तमाम कहावतों का निर्माता कौन है? चुटकुले कौन बनाता है? भाषा की उस गुमनामी में हो सकता है कि चकाचक के लिए भी कोई कोना सुरक्षित हो!

***

बाद में सोचते हुए अस्सी पर रामाज्ञा शशिधर की एक बात पर विचार करते हुए मैंने पाया कि ये बात ठीक है कि यह अश्लील परम्परा सिर्फ़ पुरुषवादी सोच या पुरुषों की अभिव्यक्ति है। पूरे का पूरा महिला वर्ग इस से कटा हुआ है। इस संस्कृति पर यह आरोप भी है कि यह महिला के प्रजननांगो को अपनी विकृति का निशाना बनाती है, इसलिए हिंस्र और पतनशील है। मेरा इस से मतभेद है। पहले तो ये कि प्रजनन के प्रति आदमी और औरत का नज़रिया अलग-अलग है। एक-दूसरे के प्रति आप उनसे एक ही जैसे व्यवहार की उम्मीद अगर करते हैं तो आप की उम्मीद निराधार है। प्रजनन के प्राकृतिक ज़िम्मेदारी है और आदमी की प्रजनन में भूमिका गर्भाधान के साथ ही समाप्त हो जाती है। उसके बाद पालन-पोषण में उसकी जो भूमिका है उसे निभाने में कोई सार्वभौमिक मानक नहीं रहा है।

विवाह संस्था का इतिहास से पता चलता है कि अलग-अलग समाजों में यह भूमिका बदलती रही है। और स्त्री को जितनी अधिक आर्थिक स्वतंत्रता मिली है उसने अपने यौन व्यवहार पर से पुरुषवादी बन्धनों को उतना ही तोड़ा है। विवाह की सामंती धारणा स्त्री की यौन शुचिता को एक ऐसे मूल्य की तरह प्रस्तुत करती है जो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है। एक बार कौमार्यभंग हो जाने पर वह किसी सम्मानित पुरुष के योग्य नहीं रहती और उसके लिए आत्महत्या या किसी भयंकर अपमान और सज़ा के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

इस्लाम में ये मूल्य बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। जहाँ औरत को ग़ैर-मर्दों से बराबर पर्दे में रहने की बात है। (बहस बस इतनी है कि कितना परदा करने की बात है) और किसी भी प्रकार के व्यभिचार की कड़ी स़ज़ा है। पिछली सदी में आए हिन्दू समाज में सुधारों की चलते उन परम्पराओं से छुटकारा पा लिया जो पति की मृत्यु के बाद भी उसकी विधवा पर उसका यौन-अधिकार बनाए रखती थी। लेकिन आज के पूँजीवादी अमरीकी समाज में प्रथम सहवास के इर्द-गिर्द कोई मिथक नहीं रह गया है बल्कि तमाम अमरीकी फ़िल्मों और साहित्य के ज़रिये देखा जा सकता है कि अमरीकी नवयुवतियों के बीच ‘कौमार्यभंग न होना’ एक पिछड़ेपन की निशानी है और यौन अनुभव होना आकर्षकता की पहचान।

तो हमारे सामंती समाज में यौन-सम्बन्धों पर बन्दिशों के चलते ही इस प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति होती है जिसे हम अश्लीलता का नाम देते हैं। अगर यौन-सम्बन्धों के लिए एक स्वस्थ माहौल हो तो इस प्रकार के विकार पैदा होने की सूरत कम हो जाएगी।

दुनिया में हर जगह पारिवारिक रिश्तों में यौन-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध है और ये क्या सिर्फ़ संयोग है कि अधिकतर गालियां माँ और बहन को लेकर हैं? इन्ही गालियों के कारण कहा जाता है कि इन गालियों के ज़रिये पुरुष समाज स्त्री के प्रजननांगो को अपनी हिंसा का निशाना बना रहा है। ऐसा नज़र ज़रूर आता है लेकिन ये सही समझ नहीं है। ऐसा लग सकता है कि वह किसी दूसरे की माँ के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की बात कर रहा है मगर वास्तव में वह आदमी माँ और बहन के सम्बन्धों में अपनी यौन-आंकाक्षाओं को जगह दे रहा है। जो ‘कर्मणा’ नहीं हो पा रहा उसे ‘वाचा’ कर रहा है।

संस्कृति और विकृति दोनों सामाजिक नज़रिये का फ़रक़ है। मेरा मानना यह है कि गालियाँ प्रजननांगो पर हमला नहीं बल्कि उन के प्रति सम्मोह हैं। और ये गालियां स्त्री के प्रजननांगो पर नहीं बल्कि प्रजननांगो पर हैं और गुप्तांगो पर हैं। भूला न जाय कि कितनी गालियाँ गुदा पर लक्षित है। और ये भी याद कर लिया जाय कि गालियों का एक प्रमुख हिस्सा आदमी के लिंग को बार-बार स्मरण को समर्पित है। और यह मान लेना कि यदि औरतों को मौक़ा मिला तो वे गालियाँ नहीं देंगी, भी ठीक नहीं। इस समाज में ही कितनी औरतें गाली देती हैं। वे शायद पुरुषवादी सोच के प्रभाव में देती हैं लेकिन पश्चिमी समाजों में जहाँ औरतें अपेक्षाकृत स्वतंत्र है, वहाँ औरतें गाली देती हैं और किसी पुरुषवादी सोच के तहत नहीं देतीं। औरतों द्वारा दी जाने वाली अंग्रेज़ी की प्रमुख गालियों में उल्लेखनीय हैं: अपने-आप से यौन सम्बन्ध बनाना, पुरुष के लिंग के समकक्ष होना।

***

समाज हमेशा चाहता है कि यथास्थिति को बनाए रखे। नैतिकता उस की इसी इच्छा का हथियार है। बहुत लोग जो साहित्य को समाज का दर्पण मानते हैं और दर्पण को सजने-सँवरने का साधन देखते हैं और वे जो साहित्य को आदर्शों की हदबन्दी में ही क़ैद रखना चाहते हैं, मुख्यधारा के उन खेवैयों के लिए लिए अश्लीलता हमेशा एक विकृति बनी रहेगी।

यहाँ पूछा जा सकता है कि कविता की मुख्य धारा क्या है और कौन सी है। तुलसी दास के ज़माने में कविता की मुख्यधारा काशी के सांस्कृत-पण्डितों की रही होगी लेकिन आज के ज़माने में वामपंथी विचार के साहित्यकारों की धारा ही मुख्यधारा है। शेष कवियों को अस्सी की धारा* की तरह भ्रष्ट मान लिया गया है और उनका हाल अस्सीवत ही यानी नालेनुमा हो चला है। मुख्यधारा में अपनी-अपनी नाव खे रहे ये महाभाग ऐसे किसी काव्यसाधक को मुख्यधारा में प्रवेश की अनुमति नहीं देते जो उनके वैचारिक और नैतिक मानदण्डों पर ख़रा न उतरता हो।

कुछ लोग ऐसा मान सकते हैं कि साहित्यिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे ये लोग आज भी उसी क़िस्म का छुआछूत चला रहे हैं समाज में जिसकी ये ऊँचे गले से निन्दा करते हैं। ये तर्क किया जा सकता है कि यह बात इस आधार पर ग़लत है कि वामपंथ का सत्ता से कोई जुड़ाव नहीं रहा है। लेकिन ये बात ठीक नहीं है; साहित्य और शिक्षा के दायरों में वामपंथी विचारकों का वर्चस्व शुरु से ही बना हुआ है। और तुलसी दास के भी समय में कौन सा काशी का पण्डित मुग़ल दरबार का सीधा भागीदार था?

उच्च साहित्य की सारी वर्जनाओं और उनके द्वारा जनता की नैतिक रक्षा के बावजूद जनता की संस्कृति बेलाग रूप से चलती रहती है। और जनता उच्च साहित्य द्वारा प्रस्तावित दूसरी ‘जन-संस्कृति’ की घास को अछूता छोड़ देती है। बनारस में एक ऑटो यात्रा के दौरान कुछ भोजपुरी गीतों ने मेरे समेत दूसरे यात्रियों को तरंगित किया उनके बोल थे – ‘तनि सा जींस ढीला करा’ और ‘मीस्ड काल मारत आड़ू कीस देबू का हो, आपन मसिनिया में पीस देबू का हो’।

यह याद रखना चाहिये कि जो साहित्य न सीमाओं को तोड़ता है और न नए आसमानों की ओर पंख पसारता है वह मनुष्यता के विकास में कोई योगदान नहीं करता।



*अस्सी गंगा से ही निकली एक धारा का नाम है। वो जहाँ गंगा से वापस मिलती है उस घाट का नाम अस्सी है। इसी अस्सी और वरुणा के बीच बसे नगर को वाराणसी कहा गया। आजकल यह धारा नाला बन चुकी है।


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(मुम्बई से दूर अपने इस उत्तरभारतीय प्रवास के दौरान गिरिजेश राव और ज्ञानभाई से भी मिलना हुआ और पाया कि ये दोनों जितने बेहतर ब्लौगर हैं उतने ही बेहतर इन्सान भी)
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