रविवार, 16 सितंबर 2007

मारेसि मोहिं कुठाँउ -२

(पिछली कड़ी से जारी)

बौद्ध हमारे यहीं से निकले थे। उस समय के वे आर्यसमाजी ही थे। उन्होने भी हमारे भंडार को भरा। हम तो 'देवानां प्रिय' मूर्ख को कहा करते थे। उन्होने पुण्यश्लोक धर्माशोक के साथ यह उपाधि लगाकर इसे पवित्र कर दिया। हम निर्वाण के माने दिये को बिना हवा के बुझना ही जानते थे, उन्होने मोक्ष का अर्थ कर दिया। अवदान का अर्थ परम सात्त्विक दान भी उन्होने किया।

बकौल शेक्सपीयर के जो मेरा धन छीनता है, वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि कुछ कहा नहीं जाता, हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। औरों ने तो गाँव को कुछ न दिया, उन्होने अच्छे-अच्छे शब्द छीन लिए।इसी से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिं कुठाँउ'। अच्छे-अच्छे पद तो यूँ सफ़ाई से ले लिए हैं कि इस पुरानी दुकानों का दिवाला निकल गया। लेने के देने पड़ गए।

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, 'हिंदू' कहते हैं। जैसे परशुराम के भय से क्षत्रियकुमार माता के लहँगों में छिपाए जाते थे वैसे ही विदेशी शब्द हिन्दू की शरण लेनी पड़ती है और आर्यसमाज पुकार-पुकार कर जले पर नमक छिड़कता है कि हैं क्या करते हो? हिन्दू माने काला चोर काफ़िर। अरे भाई कहीं बसने भी दोगे? हमारी मंडलियाँ भले 'सभा' कहलावें 'समाज' नहीं कहला सकतीं। न आर्य रहे और न समाज रहा तो क्या अनार्य कहे और समाज कहें(समाज पशुओं का टोला होता है)? हमारी सभाओं के पति या उपपति(गुस्ताखी माफ़, उपसभापति से मुराद है) हो जावें किन्तु प्रधान या उपप्रधान नहीं कहा सकते। हमारा धर्म वैदिक धर्म नहीं कहलावेगा, उसका नाम रह गया है- सनातन धर्म। हम हवन नहीं कर सकते, होम करते हैं। हमारे संस्कारों की विधि- संस्कार विधि नहीं रही, वह पद्धति (पैर पीटना) रह गई। उनके समाज-मन्दिर होते हैं हमारे सभा-भवन होते हैं।

और तो क्या 'नमस्ते' का वैदिक फ़िक़रा हाथ से गया, चाहे जयरामजी कह लो चाहे जयश्रीकृष्ण, नमस्ते मत कहना। ओंकार बड़ा मांगलिक शब्द है। कहते हैं कि यह पहले-पहल ब्रह्मा का कंठ फाड़ कर निकला था। प्रत्येक मंगल कार्य के आरंभ में हिन्दू श्री गणेशाय नमः कहते हैं। अभी इस बात का श्रीगणेश हुआ है- इस मुहावरे का अर्थ है कि अभी आरंभ हुआ है। एक वैश्य यजमान के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पंडित जी गरुड़पुराण की कथा कहने गए। आरम्भ किया श्री गणेशाय नमः। सेठ जी चिल्ला उठे- 'वाह महाराज! हमारे यहाँ तो यह बीत रहा है। और आप कहते हैं कि श्री गणेशाय नमः। माफ़ करो।' तब से चाल चल गई है कि गरुड़पुराण की कथा में श्री गणेशाय नमः नहीं कहते हैं श्री कृष्णाय नमः कहते हैं। उसी तरह सनातनी हिन्दू अब ना बोल सकते हैं ना लिख सकते हैं, संध्या या यज्ञ करने पर ज़ोर नहीं देते। श्रीमद्भागवत की कथा या ब्राह्मण-भोजन पर संतोष करते हैं।

और तो और, आर्यसमाज ने हमें झूठ बोलने पर लाचार किया। यों हम लिल्लाही झूठ न बोलते, पर क्या करें। इश्क़बाज़ी और लड़ाई में सब कुछ ज़ायज़ है। हिरण्यगर्भ के माने सोने की कौंधनी पहने हुए कृष्णचन्द्र करना पड़ता है, 'चत्वारि श्रृंगा' वाले मंत्र का अर्थ मुरली करना पड़ता है, 'अष्टवर्षो‍ऽष्टवर्षो वा' में अष्ट च अष्ट च एकशेष करना पड़ता है। शतपथ ब्राह्मण नामक कपालों की मूर्तियाँ बनाना पड़ता है। नाम तो रह गया हिन्दू। तुम चिढ़ाते हो कि इसके माने होता है काला चोर या काफ़िर।

अब क्या करें? कभी तो इसकी व्युत्पत्ति करते हैं कि हि+इंदु। कभी मेरुतंत्र का सहारा लेते हैं कि ' हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये' यह उमा-महेश्वर संवाद है, कभी सुभाषित के श्लोक 'हिंदवो विंध्यमाविशन' को पुराना कहते हैं और यह उड़ा जाते हैं कि उसी के पहले यवनैरवनिः क्रांता' भी कहा है, कभी महाराज कश्मीर के पुस्तकालय में कालिदास रचित विक्रम महाकाव्य में 'हिन्दूपतिः पाल्यताम' पद प्रथम श्लोक में मानना पड़ता है। इसके लिए महाराज कश्मीर के पुस्तकालय की कल्पना की, जिसका सूचीपत्र डॉक्टर स्टाइन ने बनाया हो, वहाँ पर कालिदास के कल्पित काव्य की कल्पना, कालिदास के विक्रम संवत चलाने वाले विक्रम के यहाँ होने की कल्पना, तथा यवनों के अस्पृष्ट (यवन माने मुसलमान! भला यूनानी नहीं) समय में हिन्दूपद के प्रयोग की कल्पना; कितना दुःख तुम्हारे कारण उठाना पड़ता है।

बाबा दयानन्द ने चरक के एक प्रसिद्ध श्लोक का हवाला दिया कि सोलह वर्ष से कम अवस्था की स्त्री में पच्चीस वर्ष से कम पुरुष का गर्भ रहे तो या तो वह गर्भ में ही मर जाय, या चिरंजीवी न हो या दुर्बलेन्द्रिय जीवे। हम समझ गए कि यह हमारे बालिका विवाह की जड़ कटी नहीं, बालिकारभस पर कुठार चला। अब क्या करें? चरक कोई धर्मग्रंथ तो है नहीं कि जोड़ की दूसरी स्मृति में से दूसरा वाक्य तुर्की-बतुर्की में दे दिया जाय। धर्मग्रंथ नहीं है आयुर्वेद का ग्रंथ हैइसलिए उसके चिरकाल न जीने या दुर्बलेन्द्रिय हो कर जीने की बात का मान भी कुछ अधिक हुआ। यों चाहे मान भी लेते और व्यवहार में मानते ही हैं- पर बाबा दयानन्द ने कहा तो उसकी तरदीद होनी चाहिए। एक मुरादाबादी पंडितजी लिखते हैं कि हमारे परदादा के पुस्तकालय में जो चरक की पोथी है, उसमें पाठ है--
ऊनद्वादशवर्षायामप्राप्तः पंचविशतिम।
लीजिए चरक तो बारह वर्ष पर ही 'एज ऑफ़ कंसेट विल' देता है, बाबा जी क्यों सोलह कहते हैं? चरक की छपी पोथियों में कहीं यह पाठ न मूल में है न पाठान्तरों में। न हुआ करे-- हमारे परदादा की पोथी में तो है।

इसीलिए आर्यसमाज से कहते हैं कि 'मारेसि मोहि कुठाँउ'।


-चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित और विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित ग्रंथ 'स्तबक' में संकलित


2 टिप्‍पणियां:

अनामदास ने कहा…

कमाल है, विशुद्ध कमाल. शब्द, धर्म, संस्कार, आयुर्वेद, हमारी कुंठाएं, दोहरापन सबको कितने स्टाइल से खोलते हैं गुलेरी जी.
अनमोल है.

बोधिसत्व ने कहा…

आनन्द आया भाई.....मैं कह सकता हूँ कि ऐसे लेखक अब नहीं हैं

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