आस्तिक.. संस्कृत के अस्ति से निकल रहा है.. अस्ति माने है.. अस्ति जो फ़ारसी मे अस्त है.. और जो कालान्तर में अस्ति से अहै हुआ कहीं छे या छई हुआ... खड़ी बोली में है बन के है। एक और प्यारा शब्द अस्तित्त्व भी इसी अस्ति से निकलता है। तो आस्तिक वो है जो किसी वस्तु के अस्तित्त्व की मौजूदगी की स्वीकृति करता है..मेज़ है.. कुर्सी है....प्रेम है..भलाई है.. और जो चीज़ों के अस्तित्त्व को नकारे वो नास्तिक। मेरे बहुत से मित्र इस बात को भी नकारेंगे.. ये परिभाषा नहीं है। उन्हे नकारने की आदत पड़ गई है.. लेकिन वो इस बात को भी नकारेंगे। मैं मानता हूं कि आज के सन्दर्भों में उन्ही की परिभाषा सही है। जो ईश्वर के अस्तित्त्व को माने वो आस्तिक और जो नकारे वो नास्तिक। मैं सिर्फ़ बात को एक कोण तक ले जाना चाहता था।
संतों का मत है कि स्वीकार में अपने प्रकार की सरलता है और नकार में एक तरह की हिंसा .. ध्वनियों का अपना विज्ञान होता है और अलग अलग ध्वनियां भीतर की ऊर्जा पर अलग अलग प्रभाव डालती हैं.. नहीं कहते हुये शरीर का ताप चढ़ता है.. और हाँ के साथ शरीर शीतल होता है.. सुखमय होता है। मुझे नहीं मालूम मगर सुना है पढ़ा है कि सारे सन्त लोग बड़े मजे मे रहते हैं.. कहीं कठौती मे गंगा बहा रहे हैं.. कहीं लंगोटी में फाग खेल रहे हैं।
कहते हैं कि जब मनुष्य ने एरोप्लेन नहीं बनाया था तो भी उसके लिये सारी ज़मीन तैयार थी.. विज्ञान मौजूद था.. दस बीस हज़ार साल पहले भी.. मगर उस विज्ञान को आदमी ने अपनी समझ के दायरे मे बन्द नहीं किया था। उस समय ऐसे किसी भी व्यक्ति पर हँसना तर्कसंगत लगता जो आकाश मे उड़ने वाले किसी विमान की कल्पना करता। आज हम उस पर हँसते हैं जो विमान देख कर मुँह बा देता है। और मज़े की बात ये है.. जो मनुष्य ने रो धो कर बड़ी मशक्कत के बाद हासिल किया वो विज्ञान छोटे बड़े पंछी आदिकाल से अपने पंखों मे दबाये उड़ रहे हैं..
मैने कई दफ़े ज्ञानी लोगों को कहते सुना है कि आदमी की कल्पना वहीं तक जाती है जहाँ तक उसकी सम्भावना..एक तरह से देखने पर ऐसा लगेगा कि आदमी की सम्भावनायें अनन्त हैं मगर दूसरे शब्दो मे इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आदमी सिर्फ़ उतने की ही कल्पना कर सकता है जो उसकी सम्भावना के दायरे मे है..
और अपनी मूल बात पर वापस लौटते हुए यदि ईश्वर वीश्वर कुछ नहीं है ये तो सिर्फ़ आदमी के भीतर की असुरक्षा है.. कमज़ोरी है.. भय है और आदमी ईश्वर की कल्पना ही कर रहा है तो उसको भी आदमी तमाम मशक्कत के बाद एक रोज़ पा ही लेगा जिसको कि शायद गाय भैंस और पंछी आदि सहज ही पाये बैठे हैं।
बुधवार, 28 फ़रवरी 2007
शनिवार, 24 फ़रवरी 2007
नींद के आर पार
आज भोर में अचानक नींद खुल गई आँख बन्द ही रही पर जाग पड़ गई थी। शायद हमेशा यही होता है कि जागता आदमी पहले है और आँख बाद में खोलता है.. सीधी बात है सभी जानते है आँख बन्द करने और खोलने से सोने का कोई लेना देना नहीं.. लोग घन्टो आँख बन्द किये करवट पलटते रहते हैं.. और नींद का कोई सुराग नहीं मिलता... नींद अपने से आती है.. और अपने से चली जाती है.. सोचिये इतना बलशाली जानवर है मनुष्य, दुनिया के खतरनाक से खतरनाक जानवर उस से खौफ़ खाते है.. वही पराक्रमी महापुरुष नींद के आगे कितना बेबस हो जाता है...पलक झपकते लाखों लोगों को मौत की नींद तो सुला सकता है आदमी का विज्ञान ... पर अपनी इच्छा से सो नहीं सकता। क्या बला है ये नींद.. किसके बल पर इतना इतराती है?
वैसे कुछ ही ऐसे अभागे होते हैं जो अनिद्रा के शिकार हो जाते है.. कहते हैं बहुत मेहनत, बहुत ज़्यादा तनाव या बहुत ज़्यादा सुख-सुविधा, भोग-विलास नींद को रुष्ट कर देते हैं...नही तो अधिकाधिक लोग तो खा पी के चैन की नींद सोते है.. भाग्य के प्रबल जो होते हैं घोड़े बेच के सोते हैं । और जब सोते हैं तो नाना प्रकार के स्वप्न भी देखते हैं.. स्वप्न भी कभी याद रहते हैं.. कभी नहीं...ज्ञानी लोग कहते हैं कि नींद के दो फेजेस होते हैं.. आर ई एम और एन आर ई एम.. यानी के Rapid Eye Movement और Non Rapid Eye Movement.. लगभग घंटे-घंटे भर के अन्तराल पर यह अवस्थायें बदलती रहती हैं जब आँखो की पुतलियों मे सोते सोते ही त्वरित गतिविधि होती है तो इसका अर्थ निकला गया कि व्यक्ति स्वप्न देख रहा है.. उसे उसी समय जगा के पूछने पर इस प्रमेय का सत्यापन भी किया गया है मतलब यह कि जब आँखो की पुतलियां शांत होती है तो व्यक्ति गहरी नींद मे सो रहा होता है.. और इस अवस्था में जागने पर उसे रात भर आर ई एम अवस्था में देखे गये तमाम स्वप्नों की कोई स्मृति नही होती। कुछ लोग जो हमेशा इस अवस्था मे नींद से जागते हैं शान से कहते हैं.. हमे कोई सपना आ कर कभी हैरान नही करता.. ये बात कुछ अजीब सी है.. कोई स्वप्न क्यों नही देखना चाहेगा.. स्वप्न की दुनिया तो बड़ी आज़ाद हो सकती है.. बाहर की दुनिया का आपके स्वप्नों पर कोई नियन्त्रण नहीं.. आप जो चाहे स्वप्न देखें.. कोई रोक टोक नही.. लेकिन विडम्बना देखिये.. जहां बाहर का नियन्त्रण नही वहां भीतर की मनमानी है..हमारे स्वप्नों पर भी हमारा कोई नियन्त्रण नही.. कभी-कदार ही ऐसा होता है कि पकवान चाँप रहे हैं या अप्सराओं के साथ विलास कर रहे हैं.. वरना बचपन और गुलाबी जवानी के बाद जब से दुनियादारी ने पैरों मे बेड़ियां डाली हैं.. दुःस्वप्न ही सताते हैं.. शायद इसीलिये लोग स्वप्नों से बचना चाहते हैं.. और ऐसे ही लोगों को राहत देने के लिये आयुर्वेद में स्वप्न न आने के लिये औषधियां भी सोच रखी हैं..
पर ये तो दुनिया है सब लोग एक जैसे कहां होते हैं.. अगर सभी लोग ऐसे हो गये तो स्वप्नदृष्टा और स्वप्नदर्शी जैसे लोगों का क्या होगा...जो रजोगुण प्रबल होते हैं इन लोगों के लिये भाषा को दिवास्वप्न जैसा शब्द ईजाद करना पड़ा... ये लोग स्वप्न देखने के लिये नींद के मोह्ताज नहीं होते.. और नींद के वक़्त देखे गये स्वप्नों की मनमानी से भी मुक्ति हासिल कर लेते है...खुली आँखों से स्वप्न देख सकते है.. जो चाहे वो देखते हैं.. मैंने मैदान मार लिया है.. मैं अमेरिका का प्रेसीडेन्ट हो गया हूं.. आदि आदि.. जैसे जिसके अरमान.. वैसी दुनिया वह अपनी पलकों पर बसा लेता है.. और बिना पलक झपकाये मज़ा लूटता जाता है...इन्ही वीरों मे कुछ महावीर भी होते हैं.. जो एक ही स्वप्न को बार बार देखते जाते हैं और जब नही देख रहे होते हैं.. तो उसे दूसरों को दिखाने के लिये, सच बनाने के लिये अपने आस पास कि दुनिया बदलते जाते हैं.. और दुनिया का क्या है.. वो तो महर्षियों ने कहा ही है.. वो तो माया है.. बदलने के लिये तैयार ही बैठी है.. आप नही बदलोगे तो अपने आप बदल जायेगी। उसके इसी चरित्र की वजह से मनोवैज्ञानिक हमेशा घनचक्कर बने रहते हैं.. कन्ट्रोल ग्रुप और वैरिएबल ग्रुप के तमाम ताम झाम फैलाने बाद भी उन्हे कुछ समझ नही आता कि क्या बदलने से क्या बदल जाता है.. पर उनकी दुकान चलती रहती है..
पर ये ठीक ठीक तय कर पाना लगभग असम्भव है कि यदि आदमी हाथ पर हाथ दिये बैठा रहे तो भी क्या वही सब कुछ होगा जो तमाम जोर आजमाईश करने के बाद होता है.. भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ.. अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाय जिसकी जन्मकुन्डली तो एकदम दो कौड़ी की हो पर जीवन मे उपलब्धियों का अम्बार लगा हो.. तो गुत्थी सुलझ जाय... मगर नहीं मिलता.. माओ-मार्क्स जैसे धुर भौतिकवादी भी भाग्य के बड़े प्रबल चक्र ले कर अवतरित हुये थे.. यहां तक कि भगवान रामचन्द्र जी को भी जन्म लेने के लिये सारे ग्रहों के उच्च होने का इन्तज़ार करना पड़ा.. मनु और शतरुपा को वरदान तो उन्होने सतयुग मे ही दे दिया था पर त्रेता तक बैठाये रखा
तो क्या है मनुष्य के वश मे.. एक नींद तो क़ायदे की अपनी मर्जी से ले नही सकता.. आँख बन्द कर के आदमी बाहर के दृश्य से आज़ाद तो हो सकता है.. पर भीतर की संसार मे जकड़ा रहता है.. जो बाहर से अन्दर आया है या अन्दर से बाहर प्रक्षेपित है.. पता नहीं..(स्वप्न देखने पर आँख को नाचते पाया जाता है) ..कितना अच्छा होता कि जैसे नींद आने पर हम बन्द आँखों के पीछे, तात्कालिक तौर पर, बाहर से मुक्त हो जाते हैं.. वैसे ही आँख खोलकर हम भीतर की क़ैद से भी छूट जाते .. भीतर क्या कोई कम राक्षस हैं ।
वैसे कुछ ही ऐसे अभागे होते हैं जो अनिद्रा के शिकार हो जाते है.. कहते हैं बहुत मेहनत, बहुत ज़्यादा तनाव या बहुत ज़्यादा सुख-सुविधा, भोग-विलास नींद को रुष्ट कर देते हैं...नही तो अधिकाधिक लोग तो खा पी के चैन की नींद सोते है.. भाग्य के प्रबल जो होते हैं घोड़े बेच के सोते हैं । और जब सोते हैं तो नाना प्रकार के स्वप्न भी देखते हैं.. स्वप्न भी कभी याद रहते हैं.. कभी नहीं...ज्ञानी लोग कहते हैं कि नींद के दो फेजेस होते हैं.. आर ई एम और एन आर ई एम.. यानी के Rapid Eye Movement और Non Rapid Eye Movement.. लगभग घंटे-घंटे भर के अन्तराल पर यह अवस्थायें बदलती रहती हैं जब आँखो की पुतलियों मे सोते सोते ही त्वरित गतिविधि होती है तो इसका अर्थ निकला गया कि व्यक्ति स्वप्न देख रहा है.. उसे उसी समय जगा के पूछने पर इस प्रमेय का सत्यापन भी किया गया है मतलब यह कि जब आँखो की पुतलियां शांत होती है तो व्यक्ति गहरी नींद मे सो रहा होता है.. और इस अवस्था में जागने पर उसे रात भर आर ई एम अवस्था में देखे गये तमाम स्वप्नों की कोई स्मृति नही होती। कुछ लोग जो हमेशा इस अवस्था मे नींद से जागते हैं शान से कहते हैं.. हमे कोई सपना आ कर कभी हैरान नही करता.. ये बात कुछ अजीब सी है.. कोई स्वप्न क्यों नही देखना चाहेगा.. स्वप्न की दुनिया तो बड़ी आज़ाद हो सकती है.. बाहर की दुनिया का आपके स्वप्नों पर कोई नियन्त्रण नहीं.. आप जो चाहे स्वप्न देखें.. कोई रोक टोक नही.. लेकिन विडम्बना देखिये.. जहां बाहर का नियन्त्रण नही वहां भीतर की मनमानी है..हमारे स्वप्नों पर भी हमारा कोई नियन्त्रण नही.. कभी-कदार ही ऐसा होता है कि पकवान चाँप रहे हैं या अप्सराओं के साथ विलास कर रहे हैं.. वरना बचपन और गुलाबी जवानी के बाद जब से दुनियादारी ने पैरों मे बेड़ियां डाली हैं.. दुःस्वप्न ही सताते हैं.. शायद इसीलिये लोग स्वप्नों से बचना चाहते हैं.. और ऐसे ही लोगों को राहत देने के लिये आयुर्वेद में स्वप्न न आने के लिये औषधियां भी सोच रखी हैं..
पर ये तो दुनिया है सब लोग एक जैसे कहां होते हैं.. अगर सभी लोग ऐसे हो गये तो स्वप्नदृष्टा और स्वप्नदर्शी जैसे लोगों का क्या होगा...जो रजोगुण प्रबल होते हैं इन लोगों के लिये भाषा को दिवास्वप्न जैसा शब्द ईजाद करना पड़ा... ये लोग स्वप्न देखने के लिये नींद के मोह्ताज नहीं होते.. और नींद के वक़्त देखे गये स्वप्नों की मनमानी से भी मुक्ति हासिल कर लेते है...खुली आँखों से स्वप्न देख सकते है.. जो चाहे वो देखते हैं.. मैंने मैदान मार लिया है.. मैं अमेरिका का प्रेसीडेन्ट हो गया हूं.. आदि आदि.. जैसे जिसके अरमान.. वैसी दुनिया वह अपनी पलकों पर बसा लेता है.. और बिना पलक झपकाये मज़ा लूटता जाता है...इन्ही वीरों मे कुछ महावीर भी होते हैं.. जो एक ही स्वप्न को बार बार देखते जाते हैं और जब नही देख रहे होते हैं.. तो उसे दूसरों को दिखाने के लिये, सच बनाने के लिये अपने आस पास कि दुनिया बदलते जाते हैं.. और दुनिया का क्या है.. वो तो महर्षियों ने कहा ही है.. वो तो माया है.. बदलने के लिये तैयार ही बैठी है.. आप नही बदलोगे तो अपने आप बदल जायेगी। उसके इसी चरित्र की वजह से मनोवैज्ञानिक हमेशा घनचक्कर बने रहते हैं.. कन्ट्रोल ग्रुप और वैरिएबल ग्रुप के तमाम ताम झाम फैलाने बाद भी उन्हे कुछ समझ नही आता कि क्या बदलने से क्या बदल जाता है.. पर उनकी दुकान चलती रहती है..
पर ये ठीक ठीक तय कर पाना लगभग असम्भव है कि यदि आदमी हाथ पर हाथ दिये बैठा रहे तो भी क्या वही सब कुछ होगा जो तमाम जोर आजमाईश करने के बाद होता है.. भाग्य प्रबल है या पुरुषार्थ.. अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाय जिसकी जन्मकुन्डली तो एकदम दो कौड़ी की हो पर जीवन मे उपलब्धियों का अम्बार लगा हो.. तो गुत्थी सुलझ जाय... मगर नहीं मिलता.. माओ-मार्क्स जैसे धुर भौतिकवादी भी भाग्य के बड़े प्रबल चक्र ले कर अवतरित हुये थे.. यहां तक कि भगवान रामचन्द्र जी को भी जन्म लेने के लिये सारे ग्रहों के उच्च होने का इन्तज़ार करना पड़ा.. मनु और शतरुपा को वरदान तो उन्होने सतयुग मे ही दे दिया था पर त्रेता तक बैठाये रखा
तो क्या है मनुष्य के वश मे.. एक नींद तो क़ायदे की अपनी मर्जी से ले नही सकता.. आँख बन्द कर के आदमी बाहर के दृश्य से आज़ाद तो हो सकता है.. पर भीतर की संसार मे जकड़ा रहता है.. जो बाहर से अन्दर आया है या अन्दर से बाहर प्रक्षेपित है.. पता नहीं..(स्वप्न देखने पर आँख को नाचते पाया जाता है) ..कितना अच्छा होता कि जैसे नींद आने पर हम बन्द आँखों के पीछे, तात्कालिक तौर पर, बाहर से मुक्त हो जाते हैं.. वैसे ही आँख खोलकर हम भीतर की क़ैद से भी छूट जाते .. भीतर क्या कोई कम राक्षस हैं ।
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007
मैं तो हिन्दू हूँ...
इरफ़ान मेरे पुराने मित्र हैं.. भाषा के धनी हैं और लहजे के शिकायती हैं..बीस सालो से जानता हूं इरफ़ान नाम के इस जीव को..चौंकाने वली धमाकेदार बात कह के सनसनी फैलाकर मज़ा लेना इरफ़ान का नैसर्गिक गुण है। आज वो चौंका तो रहे हैं पर मजा नहीं ले पा रहे.. दुख की बात है.. आदमी जीवन भर मजा ही तो खोजता फिरता है.. जिस में मजा आये वही करने लग पड़ता है.. और बहुत सारी चीज़ें इसलिये उसको करनी पड़ती हैं.. क्योंकि उनको कर के मजा लेने के साधन खुलेंगे.. जैसे नौकरी धन्धा इत्यादि.. जवानी में आदमी साधनों की फ़िकर नही करता.. शुद्ध मजा लेता है..
मैने और इरफ़ान ने साथ साथ बहुत शुद्ध मज़े किये हैं..हज़ारों कप चाय पी है.. लाखों उबलते हुये शब्दों और नारों को आकाश मे फेंका है.. प्रेम के गुदगुदे अनुभवो को बांटा है.. ग़ालिब और फ़ैज़ की गहराइयों में उतरे हैं.. इलाहाबाद में... हम दोनो ने साथ साथ बहुत सड़कें नापी हैं.. मैं डायमन्ड जुबिली हास्टल में रहता था.. और इरफ़ान मुस्लिम बोर्डिन्ग हाउस में.. लेकिन इरफ़ान और उनके सारे मित्र कभी एम बी एच के मुख्य दरवाजे से होकर उनके कमरे पर नही जाते थे.. कर्नलगन्ज से एक पतली गली कम्पनी बाग़ की तरफ़ जाती थी... अजीब सी गली थी वो.. सुनसान सी उस गली में एक-आध ही छोटी मोटी दुकान रही होगी.. ऊंची ऊंची दीवारो वाले कई मकानों के पिछवाड़े जरूर दिखते थे.. ऐसे ही लम्बी ऊंची दीवारो के बीच एक छोटा सा दरवाज़ा भी था.. वही था इरफ़ान के कमरे पर आने जाने का हमारा रास्ता.. शायद सर्वेन्ट क्वाटर्स मे खुलता था वो दरवाज़ा, क्योंकि एक दरवाज़ा और पार करके हम एम बी एच मे दाख़िल हो जाते... हमारे सामने होते कुल जमा दो कमरे, जिनमें से एक कमरा इरफ़ान मियां का था और सामने दिखता था एक गलियारा.. जिसपर चल कर थोड़ा आगे दाहिने हाथ पर लाइन से सन्डास बने थे.. और बांई तरफ़ जाने पर आप हास्टल के मुख्य आंगन के चारो ओर बने डेढ़ दो सौ कमरो का दर्शन कर सकते थे..
तो इस तरह इरफ़ान एम बी एच मे पीछे के रास्ते से दाखिल होते और् पीछे के रास्ते से ही निकलते.. हास्टल के जीवन की मुख्य धारा से उनका कोई लेना देना कभी नही रहा.. हास्टल मे एक मस्जिद भी थी.. आज भी होगी.. लेकिन इरफ़ान कभी उस तरफ़ झांकने भी गये होंगे.. ऐसा कहना मुश्किल है.. इरफ़ान तो प्रगतिशील थे.. आज भी होंगे... शायद.. ठीक ठीक नहीं कह सकता.. जवानी में आदमी कई ग़लतियां करता है.. मैंने भी ये ग़लती की थी.. अब सुधार ली है.. अब मेरे विचारों को आप प्रगतिशील कह सकेंगे इस में मुझे संशय है.. अब जैसे आज मेरा विचार है कि इरफ़ान को अपने धर्म से इतनी दूरी नहीं बनानी चाहिये थी.. धर्म आदमी की बुनियादी ज़रूरत है..उन्हे तब भी नमाज़ पढ़नी चाहिये थी.. और आज भी पढ़नी चाहिये.. ऐसा मेरा विचार है..
मगर इरफ़ान अपने मुस्लिम समाज में वैसे ही रहे हैं जैसे वो एम बी एच मे रहे हैं.. पीछे के दरवाज़े से गये और पीछे के ही दरवाज़े से निकल आये.. पढ़े लिखे आदमी हैं पर फ़ारसी का उन्हे कुछ नही पता.. और अरबी इल्लै.. किन्तु हिन्दी पर उनका ज़बरदस्त अधिकार है.. वो कितने मुसलमान हैं मैं नही जानता मगर वो कितने मुसलमान थे ये मैं जानता हूं.. वो मुसलमान नहीं थे.. वो जानते थे कि उन्होने मुसलमान घर मे जन्म लिया है.. पर मुसलमान होना नहीं जानते थे.. आज जानते हैं.. क्योंकि वो अपने आपको मुसलमान माने या ना माने इस से कोई फ़रक नहीं पड़ता.. दुनिया तो आपको मुसलमान मानती है... जैसे मुझे हिन्दू मानती है.. और इसलिये मैं निश्चिन्त रहता हूं कि कभी किराये पर घर बदलना होगा.. तो मुम्बई के किसी भी कोने में घर मिलने में कोई दिक्कत नही होगी...मुसलमानों को होती है.. मुझे कोई चिन्ता नहीं रहती कि आगामी बम धमाकों के कुछ दिनो बाद तक कभी भी पोलिस मेरे घर पर आ धमकेगी और आधी रात थाने ले जा कर अपने स्टाइल मे पूछताछ करेगी.. मेरे एक मुसलमान मित्र इस अनोखे अनुभव से रु-ब-रु हो चुके हैं.. और भी बहुत सारे मसले होंगे जो इरफ़ान और उनके जैसे दूसरे मुसलमानों के भीतर शंका और भय उपजाते होंगे.. मैं नही जानता... कैसे जानूंगा.. मैं इस देश में मुसलमान होने के लिये अभिशप्त नहीं हूं.. मैं तो हिन्दू हूं।
सोमवार, 19 फ़रवरी 2007
कलाकार who??!!
तुलसीदास ने लिखा है वो अपने ही सुख के लिये लिख रहे हैं... स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषा निबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।
भक्ति काल के सारे कवि इस आदर्श का पालन करते रहे मगर रीतिकाल मे आकर कविता सामन्तो को गुदगुदाने और बदले मे पुरुस्कार पाने का अच्छा रोज़गार बनने लगी थी.. १८५७ के बाद अंग्रेज़ो के खिलाफ़ एक व्यापक गोलबन्दी के चलते कलाकार को एक नये आदर्श के दर्शन हुये और रीतिकाल के कवियों कि दुकान बन्द हो गयी। आज़ादी के कुछ साल बाद तक आदर्शों का खुमार छाया रहा...वामपंथियो ने पूरी आज़ादी की लड़ाई के लिये समाज मे जागृति का नारा दिया मगर बाज़ार की ऐसी आंधी आई कि उन्ही के पांव उखड़ गये... ममता बनर्जी उनसे ज़्यादा रैडिकल होने की धमकी दे रही है।
तो आज के समाज मे कलाकार होने का मतलब क्या है.. कला का जीवन के साथ अटूट सम्बन्ध है.. जिये हुये का भोगे हुये का अवशेष, उच्छिष्ट कला के हिस्से मे आता है.. ये लिखने का अर्थ ये नही कि कला कूड़ा कर्कट है.. कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है.. कि जीवन कला से कहीं ज़्यादा विराट है.. कहीं ज़्यादा सूक्ष्म है...जब तक जीवन है तब तक कला होती रहेगी.. कला का प्रवाह रुक भी सकता है.. तब जब कि आदमी को जीवन जीने से फ़ुरसत ही न मिले.. और इतना मैला भी हो सकता है कि उसमे से जीवन की झलक ही लुप्त हो जाये.. संकट की बात ये है कि ऐसा हो रहा है.. बाज़ार ने हमारे सामने जीवन जीने की ऐसी शर्ते रख दी हैं कि हम जीते जाते हैं.. भोगते ही जाते हैं.. अनवरत.. इतना कि सांस लेने की भी फ़ुरसत नही मिलती...अतः आम आदमी के लिये कलाकार होने की सम्भावना क्षीणतर होती जा रही है.. बच गये वो अभागे जो बचपन मे सम्वेदनशील का तमगा पहनकर बड़े हुये हैं.. और जिन्होने ने रोटी कमाने के तुच्छ तरीको को लात मार दी थी... आज के समाज मे इन कलाकारों की क्या दशा है...? मेरे आस पास तो इन बेचारो को(मैं भी इनमे से एक हूं) बाज़ार ने नून तेल लकड़ी के प्राचीन झमेले मे फंसा कर बाज़ार का एक पुर्ज़ा बना डाला है.. ये कला बेचते हैं...एम एफ़ हुसैन से लेकर जावेद अखतर तक और शुभा मुदगल से लेकर मृणाल पाण्डे तक.. हम जैसे छुटभैयो की तो बात ही क्या है... और कला की प्रेरणा के लिये दूसरो के काम से चोरी को इन्सपिरेशन का मुलम्मा पहनाते हैं। कुछ ऐसे भी वीर हैं जो इस चोरी की सीना ठोक कर वकालत भी करते हैं। समाज के लिये तो कला दूर की बात है.. स्वान्तः सुखाय भी असम्भव हो चली है।
और हिन्दी साहित्य की दुनिया के कवि... आदर्शों के अभाव मे पुरुस्कारों के लोभ में रीतिकालीन होते जा रहे हैं... वो भी क्या करेंगे बेचारे.. उनका दोष नही.. हमारे समय का है... बेचारा कवि किस आदर्श के लिये लिखे.. आदर्श तो मुक्तिबोध के समय मे ही बेच खाये गये थे..
जम गये, जाम हुये, फंस गये,
अपने ही कीचड़ मे धंस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज़्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम...
विडम्बना ये है कि देश तो मर ही चुका है... उसकी लाश तक को अमरीकी हितो के हवाले कर दिया गया है... कवि बेचारा जीवित रह जाता तो कम से कम उसकी आत्म-रक्षा तो हो जाती... कवि भी मर गया... और कलाकार भी..
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान...
निकल कर आंखो से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ।
वियोगी होने मे कोई कमी नहीं है...अपने आप से मिले महीनों गुज़र जाते हैं.. आंसू, आह और गान इनके विषय मे संदेह है...
मेरे मित्र प्रमोद सिंह अपने ब्लाग मे प्यासा की चर्चा कर रहे हैं... उनकी इस पहल से मेरे अन्दर भी दबे जमे तमाम विचारो ने आलस के मैले तालाब के ऊपर की हवा मे झांकने का मन बनाया... विचार के ये बुलबुले लोप हो जाने के पहले लिखने की कोशिश की है... मेरे कवि मित्र मुझे माफ़ करें.. और गाली देनी है तो प्रमोद सिंह को दें..ये आग उन्ही की लगाई हुयी है..
भक्ति काल के सारे कवि इस आदर्श का पालन करते रहे मगर रीतिकाल मे आकर कविता सामन्तो को गुदगुदाने और बदले मे पुरुस्कार पाने का अच्छा रोज़गार बनने लगी थी.. १८५७ के बाद अंग्रेज़ो के खिलाफ़ एक व्यापक गोलबन्दी के चलते कलाकार को एक नये आदर्श के दर्शन हुये और रीतिकाल के कवियों कि दुकान बन्द हो गयी। आज़ादी के कुछ साल बाद तक आदर्शों का खुमार छाया रहा...वामपंथियो ने पूरी आज़ादी की लड़ाई के लिये समाज मे जागृति का नारा दिया मगर बाज़ार की ऐसी आंधी आई कि उन्ही के पांव उखड़ गये... ममता बनर्जी उनसे ज़्यादा रैडिकल होने की धमकी दे रही है।
तो आज के समाज मे कलाकार होने का मतलब क्या है.. कला का जीवन के साथ अटूट सम्बन्ध है.. जिये हुये का भोगे हुये का अवशेष, उच्छिष्ट कला के हिस्से मे आता है.. ये लिखने का अर्थ ये नही कि कला कूड़ा कर्कट है.. कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है.. कि जीवन कला से कहीं ज़्यादा विराट है.. कहीं ज़्यादा सूक्ष्म है...जब तक जीवन है तब तक कला होती रहेगी.. कला का प्रवाह रुक भी सकता है.. तब जब कि आदमी को जीवन जीने से फ़ुरसत ही न मिले.. और इतना मैला भी हो सकता है कि उसमे से जीवन की झलक ही लुप्त हो जाये.. संकट की बात ये है कि ऐसा हो रहा है.. बाज़ार ने हमारे सामने जीवन जीने की ऐसी शर्ते रख दी हैं कि हम जीते जाते हैं.. भोगते ही जाते हैं.. अनवरत.. इतना कि सांस लेने की भी फ़ुरसत नही मिलती...अतः आम आदमी के लिये कलाकार होने की सम्भावना क्षीणतर होती जा रही है.. बच गये वो अभागे जो बचपन मे सम्वेदनशील का तमगा पहनकर बड़े हुये हैं.. और जिन्होने ने रोटी कमाने के तुच्छ तरीको को लात मार दी थी... आज के समाज मे इन कलाकारों की क्या दशा है...? मेरे आस पास तो इन बेचारो को(मैं भी इनमे से एक हूं) बाज़ार ने नून तेल लकड़ी के प्राचीन झमेले मे फंसा कर बाज़ार का एक पुर्ज़ा बना डाला है.. ये कला बेचते हैं...एम एफ़ हुसैन से लेकर जावेद अखतर तक और शुभा मुदगल से लेकर मृणाल पाण्डे तक.. हम जैसे छुटभैयो की तो बात ही क्या है... और कला की प्रेरणा के लिये दूसरो के काम से चोरी को इन्सपिरेशन का मुलम्मा पहनाते हैं। कुछ ऐसे भी वीर हैं जो इस चोरी की सीना ठोक कर वकालत भी करते हैं। समाज के लिये तो कला दूर की बात है.. स्वान्तः सुखाय भी असम्भव हो चली है।
और हिन्दी साहित्य की दुनिया के कवि... आदर्शों के अभाव मे पुरुस्कारों के लोभ में रीतिकालीन होते जा रहे हैं... वो भी क्या करेंगे बेचारे.. उनका दोष नही.. हमारे समय का है... बेचारा कवि किस आदर्श के लिये लिखे.. आदर्श तो मुक्तिबोध के समय मे ही बेच खाये गये थे..
जम गये, जाम हुये, फंस गये,
अपने ही कीचड़ मे धंस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज़्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम...
विडम्बना ये है कि देश तो मर ही चुका है... उसकी लाश तक को अमरीकी हितो के हवाले कर दिया गया है... कवि बेचारा जीवित रह जाता तो कम से कम उसकी आत्म-रक्षा तो हो जाती... कवि भी मर गया... और कलाकार भी..
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान...
निकल कर आंखो से चुपचाप बही होगी कविता अनजान ।
वियोगी होने मे कोई कमी नहीं है...अपने आप से मिले महीनों गुज़र जाते हैं.. आंसू, आह और गान इनके विषय मे संदेह है...
मेरे मित्र प्रमोद सिंह अपने ब्लाग मे प्यासा की चर्चा कर रहे हैं... उनकी इस पहल से मेरे अन्दर भी दबे जमे तमाम विचारो ने आलस के मैले तालाब के ऊपर की हवा मे झांकने का मन बनाया... विचार के ये बुलबुले लोप हो जाने के पहले लिखने की कोशिश की है... मेरे कवि मित्र मुझे माफ़ करें.. और गाली देनी है तो प्रमोद सिंह को दें..ये आग उन्ही की लगाई हुयी है..
सोमवार, 5 फ़रवरी 2007
पद्मानन
ये नही... नही ये जीवन
मन चाहे अब एक नव अन्वेषण
एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
हर दिशा सतत निशा
विरल विकट पथ
स्वयं ही स्वयं का तथागत
विस्मृत सब पितृ हत
वे जो इस निदृष्ट देहजाल में
बसे फँसे पकड़े गये
चीखना चाहते थे
पर चुप रहते गये
मनसा वाचा कर्मणा
घनघोर यन्त्रणा सहते गये
मुक्ति का बोध लुप्त था
जीवन का शोध सुप्त था
सोते रहे रोते रहे
अन्तकाल तक जकड़े रहे
पंचभूतों को पकड़े रहे
अब उस लोक में हैं
शायद अब भी शोक में हैं
शृंखला मज़बूत है भारी है
अब मेरी बारी है
मैं भी सोता हूं
मन भर भर रोता हूं
बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा
हर पल एक सत्य गल रहा
नया ढल रहा
छद्म सत्य का काल
अति विशाल जाल
दस नहीं, शत नहीं
सिर हैं उसके नील शंख पद्म
चक्षु पद्म...पद्म कर्ण, मुख पद्म
ये पद्मानन है
राम ने इसके किसी शिशु दशानन को मारा होगा
अब ये अजेय है
तब हारा होगा
चिहुँक चिहुँक
सुबक सुबक
हिलमिल खिलखिल
भय त्रास विद्रूप
दिखाता है सभी रूप
ये रंजक है अभिव्यंजक है
पर महामददायक आत्मभंजक है
और मैं
अर्धसिक्त अर्धलिप्त
अर्धआवृत्त अर्धनग्न
छद्म सत्य के अभिराम दर्शन में
आमग्न
अस्तित्व जो शेष है
उसमें एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
अपेक्षित जीवन के विस्मृत भविष्य से
क्या क्या विक्षिप्त स्वरों मे बोलता
एक ठण्डे ज्वर मे जलता
विकट पथ के निकट
सर तोडता
थक जाता
पड़ जाता
मूक सन्नाटो से खाकर भय
फिर हारकर खोलता
इसी पद्मानन के छद्म दर्पण
सपाट बिल्लौरी वातायन
समर्पण आत्मसमर्पण
भूलकर सब अन्वेषण
पितृ तरण के सारे प्रण
लो पद्मानन
अतृप्त कामनायें अब तेरे हवाले
सहज को कर जटिल
सरल को कुटिल
हिम को कर ज्वाला
सुधा बना दे हाला
सब तरफ़ तेरा हो अवतरण
अव्यक्त का भी होने दो अब चीरहरण
ओ रे भूप अनूप
दिखा अपना जादू
अब बस तू ही तू
चेतन अवचेतन सब पर तू छाया
कुछ और नही तू है माया
९ फ़रवरी २००५
मन चाहे अब एक नव अन्वेषण
एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
हर दिशा सतत निशा
विरल विकट पथ
स्वयं ही स्वयं का तथागत
विस्मृत सब पितृ हत
वे जो इस निदृष्ट देहजाल में
बसे फँसे पकड़े गये
चीखना चाहते थे
पर चुप रहते गये
मनसा वाचा कर्मणा
घनघोर यन्त्रणा सहते गये
मुक्ति का बोध लुप्त था
जीवन का शोध सुप्त था
सोते रहे रोते रहे
अन्तकाल तक जकड़े रहे
पंचभूतों को पकड़े रहे
अब उस लोक में हैं
शायद अब भी शोक में हैं
शृंखला मज़बूत है भारी है
अब मेरी बारी है
मैं भी सोता हूं
मन भर भर रोता हूं
बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा
हर पल एक सत्य गल रहा
नया ढल रहा
छद्म सत्य का काल
अति विशाल जाल
दस नहीं, शत नहीं
सिर हैं उसके नील शंख पद्म
चक्षु पद्म...पद्म कर्ण, मुख पद्म
ये पद्मानन है
राम ने इसके किसी शिशु दशानन को मारा होगा
अब ये अजेय है
तब हारा होगा
चिहुँक चिहुँक
सुबक सुबक
हिलमिल खिलखिल
भय त्रास विद्रूप
दिखाता है सभी रूप
ये रंजक है अभिव्यंजक है
पर महामददायक आत्मभंजक है
और मैं
अर्धसिक्त अर्धलिप्त
अर्धआवृत्त अर्धनग्न
छद्म सत्य के अभिराम दर्शन में
आमग्न
अस्तित्व जो शेष है
उसमें एक विचित्र व्यामोह...अन्यमनस्क
स्वयं से विछोह
अस्तित्व जो शेष है
उस में एक भ्रान्ति...क्लान्ति...अशान्ति।
तो जड़ो को टटोलता
मूल में लौटता
धर्म दर्शन कभी प्रेम विज्ञान
कभी प्रहसन
अन्त में वही काम
वही व्यसन
अपेक्षित जीवन के विस्मृत भविष्य से
क्या क्या विक्षिप्त स्वरों मे बोलता
एक ठण्डे ज्वर मे जलता
विकट पथ के निकट
सर तोडता
थक जाता
पड़ जाता
मूक सन्नाटो से खाकर भय
फिर हारकर खोलता
इसी पद्मानन के छद्म दर्पण
सपाट बिल्लौरी वातायन
समर्पण आत्मसमर्पण
भूलकर सब अन्वेषण
पितृ तरण के सारे प्रण
लो पद्मानन
अतृप्त कामनायें अब तेरे हवाले
सहज को कर जटिल
सरल को कुटिल
हिम को कर ज्वाला
सुधा बना दे हाला
सब तरफ़ तेरा हो अवतरण
अव्यक्त का भी होने दो अब चीरहरण
ओ रे भूप अनूप
दिखा अपना जादू
अब बस तू ही तू
चेतन अवचेतन सब पर तू छाया
कुछ और नही तू है माया
९ फ़रवरी २००५
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