शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

मैं तो हिन्दू हूँ...

इरफ़ान मेरे पुराने मित्र हैं.. भाषा के धनी हैं और लहजे के शिकायती हैं..बीस सालो से जानता हूं इरफ़ान नाम के इस जीव को..चौंकाने वली धमाकेदार बात कह के सनसनी फैलाकर मज़ा लेना इरफ़ान का नैसर्गिक गुण है। आज वो चौंका तो रहे हैं पर मजा नहीं ले पा रहे.. दुख की बात है.. आदमी जीवन भर मजा ही तो खोजता फिरता है.. जिस में मजा आये वही करने लग पड़ता है.. और बहुत सारी चीज़ें इसलिये उसको करनी पड़ती हैं.. क्योंकि उनको कर के मजा लेने के साधन खुलेंगे.. जैसे नौकरी धन्धा इत्यादि.. जवानी में आदमी साधनों की फ़िकर नही करता.. शुद्ध मजा लेता है..
मैने और इरफ़ान ने साथ साथ बहुत शुद्ध मज़े किये हैं..हज़ारों कप चाय पी है.. लाखों उबलते हुये शब्दों और नारों को आकाश मे फेंका है.. प्रेम के गुदगुदे अनुभवो को बांटा है.. ग़ालिब और फ़ैज़ की गहराइयों में उतरे हैं.. इलाहाबाद में... हम दोनो ने साथ साथ बहुत सड़कें नापी हैं.. मैं डायमन्ड जुबिली हास्टल में रहता था.. और इरफ़ान मुस्लिम बोर्डिन्ग हाउस में.. लेकिन इरफ़ान और उनके सारे मित्र कभी एम बी एच के मुख्य दरवाजे से होकर उनके कमरे पर नही जाते थे.. कर्नलगन्ज से एक पतली गली कम्पनी बाग़ की तरफ़ जाती थी... अजीब सी गली थी वो.. सुनसान सी उस गली में एक-आध ही छोटी मोटी दुकान रही होगी.. ऊंची ऊंची दीवारो वाले कई मकानों के पिछवाड़े जरूर दिखते थे.. ऐसे ही लम्बी ऊंची दीवारो के बीच एक छोटा सा दरवाज़ा भी था.. वही था इरफ़ान के कमरे पर आने जाने का हमारा रास्ता.. शायद सर्वेन्ट क्वाटर्स मे खुलता था वो दरवाज़ा, क्योंकि एक दरवाज़ा और पार करके हम एम बी एच मे दाख़िल हो जाते... हमारे सामने होते कुल जमा दो कमरे, जिनमें से एक कमरा इरफ़ान मियां का था और सामने दिखता था एक गलियारा.. जिसपर चल कर थोड़ा आगे दाहिने हाथ पर लाइन से सन्डास बने थे.. और बांई तरफ़ जाने पर आप हास्टल के मुख्य आंगन के चारो ओर बने डेढ़ दो सौ कमरो का दर्शन कर सकते थे..
तो इस तरह इरफ़ान एम बी एच मे पीछे के रास्ते से दाखिल होते और् पीछे के रास्ते से ही निकलते.. हास्टल के जीवन की मुख्य धारा से उनका कोई लेना देना कभी नही रहा.. हास्टल मे एक मस्जिद भी थी.. आज भी होगी.. लेकिन इरफ़ान कभी उस तरफ़ झांकने भी गये होंगे.. ऐसा कहना मुश्किल है.. इरफ़ान तो प्रगतिशील थे.. आज भी होंगे... शायद.. ठीक ठीक नहीं कह सकता.. जवानी में आदमी कई ग़लतियां करता है.. मैंने भी ये ग़लती की थी.. अब सुधार ली है.. अब मेरे विचारों को आप प्रगतिशील कह सकेंगे इस में मुझे संशय है.. अब जैसे आज मेरा विचार है कि इरफ़ान को अपने धर्म से इतनी दूरी नहीं बनानी चाहिये थी.. धर्म आदमी की बुनियादी ज़रूरत है..उन्हे तब भी नमाज़ पढ़नी चाहिये थी.. और आज भी पढ़नी चाहिये.. ऐसा मेरा विचार है..
मगर इरफ़ान अपने मुस्लिम समाज में वैसे ही रहे हैं जैसे वो एम बी एच मे रहे हैं.. पीछे के दरवाज़े से गये और पीछे के ही दरवाज़े से निकल आये.. पढ़े लिखे आदमी हैं पर फ़ारसी का उन्हे कुछ नही पता.. और अरबी इल्लै.. किन्तु हिन्दी पर उनका ज़बरदस्त अधिकार है.. वो कितने मुसलमान हैं मैं नही जानता मगर वो कितने मुसलमान थे ये मैं जानता हूं.. वो मुसलमान नहीं थे.. वो जानते थे कि उन्होने मुसलमान घर मे जन्म लिया है.. पर मुसलमान होना नहीं जानते थे.. आज जानते हैं.. क्योंकि वो अपने आपको मुसलमान माने या ना माने इस से कोई फ़रक नहीं पड़ता.. दुनिया तो आपको मुसलमान मानती है... जैसे मुझे हिन्दू मानती है.. और इसलिये मैं निश्चिन्त रहता हूं कि कभी किराये पर घर बदलना होगा.. तो मुम्बई के किसी भी कोने में घर मिलने में कोई दिक्कत नही होगी...मुसलमानों को होती है.. मुझे कोई चिन्ता नहीं रहती कि आगामी बम धमाकों के कुछ दिनो बाद तक कभी भी पोलिस मेरे घर पर आ धमकेगी और आधी रात थाने ले जा कर अपने स्टाइल मे पूछताछ करेगी.. मेरे एक मुसलमान मित्र इस अनोखे अनुभव से रु-ब-रु हो चुके हैं.. और भी बहुत सारे मसले होंगे जो इरफ़ान और उनके जैसे दूसरे मुसलमानों के भीतर शंका और भय उपजाते होंगे.. मैं नही जानता... कैसे जानूंगा.. मैं इस देश में मुसलमान होने के लिये अभिशप्त नहीं हूं.. मैं तो हिन्दू हूं।

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

कोई बात नही... अगर आप मुस्लिम होने को अभिशप्त नही है तो......
आपकी दिग्भ्रमित समझ????? ही आपके लिये एक अभिशाप है...
हां, किस्मत वाले हो कि इंसान हो....

बेनामी ने कहा…

maine padha Abhay ji ka prahaar "mai hindu hun".yahan jin Irfaan sahab ka zikr hua hai ,itefaak se mai bhi un se wakif hun....jab wo patna mein they...'jan sanskriti manch' mein...mai us waqt janvadi andolan mein shamil ho raha tha....

yahan jis ghatna ka zikr ho raha hai...ab na to wo naya rah gaya hai aur na hi logon ko a-sahajata mehsus hoti hai isey sun kar.....

jab mujhe makaan khojaney mei pareshaani hui to logon ne mujh se hamdardi jatai aur kaha ki naam badal lo....ya mere naam par maakaan le kar usmein tum raho....

ye to alag vishay hai ki mere liye ye kitna dur-bhagya-purn hai....abhi samajhna darasal mere un doston ko hai jo meri madad ke liye aagey aaye...unki aisi madad hi ye batati hai ki haalaat haath se nikal chuke hain....aur badi masumiyat aur sahajta ke saah mere dost ye maan chuke hain ki haalaat theek nahi kiye jaa sakte.... ya shayed wo ye maan chuke hain ki hamara DESH ab eik HINDU RASHTRA ho chuka hai...jahan minorties ko aise hi din guzaarne hain bas....

ye niraashavad mere doston ki ho sakti hai lekin ye mujh-mein nahi hai....

Abhay ji ke lekh par eik sahab Rajit, kaafi naaraaz nazar aaye....

mai Rajit se kehna chahuga ki mere bhai jo kuch bhi in dino hamare DESH mein ho raha hai...communalism ya sampradaykta ka ubhaar...ye duniya mein ho rahey globalization ka hi hissa hai...vyapaar ka hissa hai ...aur globalization HINDU DHARM ki prakriti ke viruddha hai....hamein HINDU DHARM ko bachaney ki koshish karni chahiye....musalmano ko baad mein bacha lengey...

FARID KHAN,mumbai.

Avinash Das ने कहा…

fareed ne maarke ki baat kahi hai...

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