छै दिन पहले सरला गाँव चली गई। और उसके लौटने में अभी और छै दिन हैं। इन छै दिनों में ही शांति का तनाव दो-तीन स्तर ऊपर चला गया है। ऐसा नहीं कि कोई काम करने वाला नहीं। सरला अपनी बहन कमला को लगा गई है। मगर हर गृहिणी की अपने घर के रखरखाव के कुछ ख़ास तौर-तरीक़े होते हैं। और अगर उनका घर उन तौर-तरीक़ो पर चलता नज़र न आए तो गृहिणी समेत सबकी ज़िन्दगी हराम होने का ख़तरा उपस्थित हो जाता है।
सरला के गाँव जाने और उसके बदले कमला के घर सम्हालने से ये सूरत बननी शुरू हो गई। क्योंकि कमला के काम के छै दिन का हर दिन एक नई बुनावट से बुना हुआ था। पहले दिन वो देरी से आई। और जब आई तो शांति के पास इतना समय नहीं बचा था कि वह उसे सारे काम की बारीकियाँ समझा सके। लेकिन पहले ही दिन शांति को जिस बात ने प्रभावित किया वो कमला की गरिमा थी। बरतन धोते हुए और फर्श बुहारते हुए उसकी गरिमा न तो बहती थी न बिखरती थी। अगर वह ख़ुद न बताये कि वह घर का काम करने वाली महरी है तो अपने से जानना मुश्किल था। उसके कपड़े ज़रूर तुच्छ थे मगर अपने कपड़े और अपने काम की तुच्छता को उसने अपनी आत्मा पर नहीं लगने दिया था।
शांति के दिल पर अपनी गरिमा का इतना प्रभाव छोड़ने के बाद वो दूसरे दिन आई ही नहीं। और तीसरे दिन उसके आने से पहले उसका पति आया। जब घंटी बजी तो देर से कमला का इंतज़ार कर रही शांति ने सोचा कि कमला ही होगी। लेकिन रसोई में कमला के बदले पाखी आई यह बताने कि दरवाज़े पर एक लम्बा साँवला आदमी खड़ा है जो आपने को कमला का पति बताता है। और जब शांति बाहर आई तो वो लम्बा साँवला आदमी दरवाज़े पर खड़ा नहीं था, सोफे पर बैठा था और अपनी पत्नी के लिए कितनी भी देर इंतज़ार करने को तैयार दिख रहा था। उसने अपना नाम बाबू बताया। बाबू के ऐसे अधिकार को देखकर शांति अचकचा सी गई लेकिन बोली कुछ भी नहीं।
बाबू की लाल आँखों में विचित्र सहमापन था मगर एक ऐंठ भी। शांति को शक तो तभी हो गया था लेकिन पक्की तौर पर वो अगली बार ही जान सकी कि उन दोनों भावों की जड़ में सुबह पी गई कच्ची शराब की उत्तेजना थी। आमतौर पर अपनी पूरी गरिमा को अपने चेहरे पर समेटकर रखने वाली कमला बाबू को वहाँ देखकर घबरा गई और एक लगभग अजनबी लज्जा से भर उठी जैसे वह किसी की अपराधी हो। जबकि बाबू की रक्ताभ आँखों की लालिमा में कोई कमी न थी। उनके बीच कुछ बातें ज़रूर हुई और उनका सुर भी बाबू की आवाज़ से भारी था। लेकिन दफ्तर की तैयारियों और फ़ोनकाल्स के बीच शांति का ध्यान उनसे हटा रहा और जब शांति ने घर छोड़ा तो बाबू जा चुका था और कमला चुपचाप घर के काम में लगी थी।
चौथे रोज़ कमला के जल्दी आ जाने से शांति को उसे बहुत सारी चीज़ें समझाने का मौक़ा मिल गया। और जब शांति शाम को घर लौटी तो लगभग सारे काम उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ निबटा दिए थे कमला ने। और जो एक-दो भूलें हुई थीं वो इस क़दर मामूली थीं कि शांति को विश्वास था कि अगली दफ़े आसानी से सुधार ली जाएंगी। इसीलिए जब पाँचवी सुबह कमला फिर से समय से ही आ गई तो शांति इतनी प्रसन्न थी कि उसने भूलों की चर्चा भी न की। लेकिन वो ख़ुशी ज़्यादा देर नहीँ टिक सकी क्योंकि बाबू फिर से आ गया। संयोग से इस बार दरवाज़ा खोलने पाखी नहीं स्वयं शांति गई और दरवाज़ा खोलते ही उसे कच्ची शराब का तेज भभका आया। वो भभका क्या था बाबू की मुँह से निकल कर आ रही साँस में तैर रहे शराब के छोटे-छोटे टुकड़े थे जो सामने खड़ी शांति की त्वचा, नाक, मुँह और फेफड़ों की कोशिकाओं में घुस रहे थे। उसकी प्रतिक्रिया में शांति की इस तरह प्रभावित हर कोशिका के भीतर से एक प्रबल जुगुप्सा का भाव पैदा हुआ जिसने बाबू के विचित्र आधिकारिक भाव को अपने घर की देहरी के इस तरफ पैर भी न रखने दिया। कमला ही उससे बतियाने बाहर गई और इस तरह गई कि लौटकर छठी सुबह ही आई।
शांति तो मानो फट पड़ने के लिए लगभग तैयार थी मगर कमला की गरिमा ने उस विस्फोट को रोके रखा और कमला की कहानी सुनने पर तो वो आप ही पिघल गया। कमला के तीन बच्चे हैं और तीनों स्कूल जाते हैं। कमला काम पर आने से पहले उन सबका सुबह का नाश्ता और दोपहर का टिफिन तैयार करके आती है। सबके स्कूल का समय अलग-अलग है। एक को तो कमला ख़ुद भेजकर आती है और दूसरा भी बाद में अपने आप स्कूल चले जाता है। सिर्फ बेटी को स्कूल छोड़ने की ज़िम्मेदारी बाबू की है जिसे भी वो निभाने से अक्सर चूक जाता है।
किसी ज़माने में बाबू प्लम्बर का काम किया करता था पर आजकल कोई काम नहीं करता। न बाहर और न घर पर। उलटे सुबह-सुबह शराब पीकर कमला और बच्चों के लिए मुसीबत खड़ी करता रहता है। कहानी की इतनी कल्पना तो शांति ने भी कर ली थी। जो चीज़ नहीं समझ सकी थी वो थी बाबू का इस तरह उसके काम पर चले आना। और कमला से उसे जो जवाब मिला उसी से शांति बाबू के अनाधिकार चेष्टाओं को समझ सकी। शराब पी लेने के बाद बाबू अपनी निजी ज़रूरतों के प्रति बेहद संवेदनशील हो जाता है। पाँचवे रोज़ जब बाबू शांति के दरवाज़े पर आया तो उसकी शिकायत ये थी कि कमला उसको खाना परसे बग़ैर ही चली आई थी।
बाबू के इस बचपने पर हँसा नहीं जा सकता था और न ही शांति हँसी ही। अपनी कहानी सुनाकर कमला शरमिन्दा थी। उसके चेहरे से गरिमा की चमक थोड़ी फीकी पड़ गई थी क्योंकि उसकी नज़र में शांति के पास एक ऐसा पति था जो बाबू की तरह कमला का चौथा बच्चा नहीं था।
सातवीं सुबह कमला फिर नदारद थी। बाबू का बचपना ही वजह होगा- शांति ने समझ लिया था। पर समझ लेना ही काफी नहीं था। बरतन माँजे जाने थे, कपड़े धोये जाने थे, खाना बनाया जाना था। इतना कुछ सोचकर ही शांति के हाथों-पैरों की नसें थोड़ी और तन गईं। अजय से बोला तो उसने बाईयों की अविश्वसनीयता पर कुछ कड़ी बातें मुँह से निकाली। कहने लगा कि बरतन और कपड़े रहने दो, एक दिन नहीं धुलेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ने वाला है.. और टिफिन के झंझट में भी मत पड़ो, बच्चों को कुछ बरगर-समोसा ख़रीद कर दे देंगे स्कूल के लिए.. और हमारे लंच के लिए एक दिन टिफिन नहीं रहने से क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है? एक दिन बाहर खा लेंगे!
इतना कहकर अजय ने गुटके का एक पैकेट मुँह में खाली किया और बाथरूम में खाली होने चला गया। एक बारगी शांति को भी अजय का विचार जँचा लेकिन बरसात का मौसम और फैलती बीमारियों का ख़याल आते ही उसने कमर कस के रसोई का रुख़ किया। बच्चों को अगर बीमारी से बचाना है तो किसी को तो खाना बनाना ही होगा, बाई आए चाहे न आए। और जब खाना बन रहा है तो अकेले बच्चों के टिफ़िन में तो रखा नहीं जाएगा, शांति और अजय के टिफ़िन के आकार में भी बँध जाएगा- शांति ने सोचा। और शायद गुटका चबाते-चबाते अजय भी यही सोचते हुए निश्चिन्त था कि शांति कुछ सोच रही होगी।
***