शनिवार, 18 जून 2011

जंगले के पार

ये खिड़की जिस दिशा में खुलती है, उसी दिशा में आगे कहीं समुद्र उफनता है। उसकी कूदती-फांदती लहरों के पहले एक रेत का मैदान है। रेत पर बनाए बिलों से केकड़े बाहर आते हैं और अपनी भुजाओ को चमकाते टेढ़े-टेढ़े भागे जाते हैं। एक आदमी की आँख में दृश्य का जितना आयतन समा सकता है उतने भर में हज़ारों केकड़े या फिर लाखों । 

मैदान से पहले एक दलदल के खारे पानी में अपनी जड़ों को डुबाए पेड़ों का एक गरान है। उन पेड़ों की शाखाओं में घोसला बनाने पक्षी हज़ारों मील दूर से आते हैं।  गरान से पहले एक बस्ती है। बस्ती में सड़के हैं। मुख्य सड़क पर शोर और धुएं की एक नदी है। अधिकत लोग उससे नफ़रत करते थे पर कुछ मनचले प्यार। 

मुख्य सड़क और इस खिड़की के बीच तीन पेड़ एक कतार से लगे हैं। नागचम्पा, आम और पकुरिया। नागचम्पा की फुनगी पर हर चिड़िया हर रोज़ कुछ पल सुस्ताती है। पकुरिया के आगे नगरपालिका का लैम्पपोस्ट है। उसका बल्ब बहुत पहले फूट चुका है। 

लैम्प के अन्दर मैना ने अण्डे दिये थे। अण्डों से निकली मैना भी वहीं अण्डे देती है और तार पर बैठकर बार-बार ऊँचे शब्द से लैम्प पर अपने अधिकार की घोषणा करती है। 

मैं अक्सर सुनता हूँ, पर उसके और मेरे बीच एक जंगला है। जंगले के पार संसार, जंगले में क़ैद है। 


3 टिप्‍पणियां:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

वाह क्या बात है..जंगल के पार फूटे बल्ब में भी जीवन की दुनिया और जंगल इस तरफ कैद

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दुनिया को दो में बाँट देता है यह जंगला।

मीनाक्षी ने कहा…

यह जंगला है ही क्यों.... ? अगर यह न हो तो क्या हो ?

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