रविवार, 12 जून 2011

गुलमोहर का सत्याग्रह



आजकल गर्मियों में सारे पेड़ों पर फूल ही फूल छाए हुए हैं। पेड़ों पर तो फूल आँखों को ठण्डक देते ही हैं और ज़मीन पर गिरकर वो सड़क को भी ख़ूबसूरत बना देते हैं। वैसे तो तमाम फूल हैं मगर गुलमोहर और अमलतास की तादाद ज़्यादा है। दफ़्तर जाने के पहले अचरज को वैद्यशाला ले जाने की हड़बड़ाहट के बीच भी शांति ने ऊपर और नीचे दोनों तरफ़ लाल-पीले फूलों के बीच से गुज़रने का सुख ले ही लिया।

दो दिन से अचरज के बदन पर लाल-लाल चकत्ते उभरे हुए हैं। बेटे के बदन पर उभरे उन लाल फूलों को देखकर उसके मन में किसी ठण्डक की पैठ नहीं होती।  डाक्टर मण्डल ने कुछ टैबलेट्स और औइन्टमेण्ट दिया था मगर अभी तक उस से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा। ऊपर से अचरज ने खुजा-खुजा के उसमें घाव और कर लिए थे। शांति ने सोचा कि किसी दूसरे डाक्टर से सलाह करें लेकिन सासू माँ ने ज़िद पकड़ ली कि अचरज का आयुर्वैदिक इलाज कराओ। शांति ने सोचा कि चलो ये भी करके देख लेते हैं।

तिलकनगर के मोड़ पर ही बाबा की एक वैद्यशाला है। जो बाबा के टीवी के प्रवचनों के बाद पूरे देश में फैल गई तमाम शाखाओं में से एक है। वहीं पर बैठे वैद्यजी ने अचरज की कलाई पकड़कर नाड़ी परीक्षण किया और बताया कि पित्त का प्रकोप है। कुछ लेप व गोलियां दी और परहेज़ की एक फ़ैहरिस्त भी थमा दी। ये परहेज़ बड़ा मुश्किल है। बच्चों को दवाई तो किसी तरह खिला भी दें मगर परहेज़ में तो बड़े-बूढ़े भी हार जाते हैं। ऐलोपैथिक पद्धति में यही अच्छा है जो मनचाहे खाओ! लेकिन आयुर्वैदिक दवा ली है तो परहेज़ भी कराना ही पड़ेगा।

अचरज को घर छोड़ने के लिए जब शांति लौट रही थी तो देखा कि घर से थोड़ा पहले एक गुलमोहर का पेड़ अजब सा कटा हुआ खड़ा है। ये वही पेड़ है जिसके नीचे मोहल्ले का प्रेसवाला का टीनटपरा है। जाते और लौटते के बीच में एक पेड़ के इस बदले हाल पर शांति को बड़ी मायूसी हुई। प्रेसवाले से पूछा तो उसने बताया कि पिछले हफ़्ते जो बारिश आई तो पता चला कि वही डाल जो अपने गिरे हुए फूलों से सड़क की कालिख़ को छिपाए रहती, सड़क पर गिरकर शहीद हो गई। डाल और सड़क के इस प्रेम के बीच आकर किनारे पर खड़ी एक गाड़ी की छत धचक गई और दूसरी का तो बोनट ही टूट गया। क्रोधित होकर गाड़ियों के मालिकों ने पेड़ की दो-चार डालें और कटवा दीं। न रहेगी डाल और न टूटेगा बोनट।

गुलमोहर की मुश्किल बस यह है कि इसकी लकड़ी बड़ी कच्ची होती है। थोड़ी सी भी आँधी-बरसात में जनाब गुलमोहर कभी हाथ-पैर तुड़वा लेते हैं तो कभी जड़ समेत उलट जाते हैं। आँधी-तूफ़ान के अत्याचार के आगे पेड़ का कुछ बस नहीं होता और ना ही डाल काट देने वाले इन्सानों के आगे। अपनी कटी हुई डालों के बाद वो गुलमोहर ऐसा लग रहा था जैसे किसी अपराधी के हाथ काट कर छोड़ दिया गया हो। ये वैसे ही है जैसे कि किसी दुर्घटना कोई कार के सामने आकर हाथ गँवा बैठे तो लोग उसकी टाँगे भी काट दें। पेड़ की तरफ़ से बदला लेने वाला कोई नहीं और जीजान से उसके हित की रक्षा करने वाला शायद उसका कोई मालिक भी नहीं। पेड़ को अच्छा तो नहीं ही लगा होगा मगर ज़ुबान न होने के चलते उसकी आह किसी को पता न चली। चुपचाप उसी जगह पर खड़ा रहा। शिखर पर बचे रहे कुछ टहनियों में से किसी फूल को न तो कसकर जकड़ा और न किसी हवा के दुलराने पर अड़ा। हमेशा की तरह अपने व्यवहार में वैसे ही जड़ों में जड़ और फुनगियों में चंचल बना रहा। ये ज़रूर है कि कई चिडि़यों का आशियाना उजड़ गया।

अचरज को लेके जैसे ही दरवाज़े के भीतर आई तो सरला और सासू माँ दोनों की खीजी हुई आवाज़े सुनाई दीं। पास जाकर देखा तो उसे भी खीज हो आई -कबूतर ने गमले के पीछे अण्डे दे दिये थे। उनको उठाने में सरला हिचक रही थी किसी के बच्चे हैं रहने दीजिये। और सासू माँ को कबूतर पसन्द नहीं लेकिन वो ख़ुद हाथ लगाने में घिना रही थीं। शांति को कबूतर अच्छे तो लगते हैं मगर दूर से। उनकी समस्या ये है कि वे एक तो गंदगी बहुत करते हैं, दूसरे पौधों को नोचकर खतम कर देते हैं, तीसरे आपस में झगड़ा करते हैं। और घर में जगह दे दी तो फिर निकलने का नाम ही नहीं लेते। एक बार उनको घर बनाने देकर भुगत चुकी है। वही सब सोचकर शांति ने दिल कड़ा किया और ख़ुद ही किसी तरह चम्मच से अण्डे अख़बार में धकेल दिए। इस पूरी कसरत के बीच दोनों माँ-बाप अपने बनाए घोंसले के आस-पास फड़फड़ाते रहे। शांति को उनके लिए बुरा तो लग रहा था पर अपनी परेशानी उसे अधिक अहम लगी। अण्डे हटाकर शांति ने सरला को घोंसला फेंक देने के लिए बोला और दफ़्तर के लिए निकल गई। गूलर के पेड़ पर बैठे दोनों कबूतर अपने घर और अपनी अगली पीढ़ी के विनाश के गवाह बने रहे। इस गूलर की सारी डालियां सलामत हैं और जिस पर तमाम क़िस्म और रंग की चिड़ियां पनाह पाती हैं और भोजन भी।

शाम को जब शांति लौटी तो घर में एक नया हंगामा घटित हो रहा था। अचरज जो सुबह से ही पित्त के प्रकोप की दवाई खा रहे थे, अचानक आमों पर टूट पड़े। जब उनकी दादी ने ये अनर्थ होते हुए देखा तो मना किया लेकिन अचरज ने उनकी एक न सुनी। और बहुत डाँटने और हड़काने के बाद भी दादी को चकमा देके फ़्रिज से आम ले उड़े और अपने कमरे में बैठ कर खाने लगे। शांति जब धड़धड़ाकर उनके कमरे में घुसी तो आधा आम उन्होने उदरस्थ कर लिया था और उस वक़त गुठलियों पर आमादा थे। शांति ने जो कड़ककर डाँट लगाई तो फिर आम को छूने की हिम्मत न पड़ी। लेकिन चाल बदलकर गिड़गिड़ाने लगे कि एक आम से क्या होने वाला है.. प्लीज़ खाने दीजिये। लेकिन शांति ने एक सुनी तो प्लेट हाथ से छीन ली। अपनी माँ की इस क्रूरता के आगे अपनी दाल न गलते देख अचरज रोने लगे और फिर भी जब माँ न मानी तो धमकी दी कि आम न मिला तो खाना नहीं खायेंगे। अनशन करेंगे, सत्याग्रह करेंगे। शांति को एक तरफ़ हँसी भी आई कि देखो अपने टीवी में देखी-सुनी बातों को कैसे अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर रहा है, और दूसरी ओर ग़ुस्सा भी।  

बहुत समझाने पर भी अचरज न माना और अनशन जारी रखते हुए भूखा ही सो गया। अगली सुबह अचरज के और शांति के भी उठने के पहले सूरज की जब पहली किरन गुलमोहर के कटे हुए ठूंठ तक पहुँची तो उसका स्वागत करने के लिए तने की कड़ी भूरी छाल को चीरकर एक नन्हा हरा कल्ला ऐसे सर ताने खड़ा था जैसे गुलमोहर के सत्याग्रह की घोषणा हो। बालकनी में कबूतरों का जोड़ा फिर से उसी जगह पर तिनके ला कर इकट्ठा भी कर रहा था और गूँगूं की आवाज़ के साथ नाचते हुए उस छोटे से टुकड़े पर अधिकार का दावा भी कर रहा था। वो कबूतर भी एक तरह के ज़िद्दी सत्याग्रह में संलग्न थे। कबूतर और गुलमोहर दोनों का सत्याग्रह सीधे उनके सत्य- उनके अस्तित्व से जुड़ा था। मगर अचरज का सत्याग्रह ठीक-ठीक सत्य का ही आग्रह था, नहीं कहा जा सकता।  
***  


(इसी इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)

4 टिप्‍पणियां:

मुनीश ( munish ) ने कहा…

matlab , chalo thoda 'symbolic' ho jaayen :) but Jinnah called for 'direct action' and took Pakistan away .

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सत्याग्रह के स्थान पर यथाग्रह हो।

Swapnrang ने कहा…

rochak kahani.anand aa gaya.

Unknown ने कहा…

kuch naya sa ek sunder kahani ....


jai baba banaras......

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