२०११ के इस अप्रैल के पहले पखवाड़े में कुछ अभूतपूर्व घटनाएं हुई हैं। भारत ने क्रिकेट का विश्वकप जीता। अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जनलोकपाल के लिए किये गए अनशन को अप्रत्याशित जनसमर्थन मिला। और सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फ़ैसलों को कूड़ेदान में फेंकते हुए राजद्रोह के आरोपी बिनायक सेन को निर्दोष घोषित कर दिया। तीनों घटनाएं आशा, विजय और आनन्द का दुर्लभ प्रयोजन बनी। इनमें से पहली और आख़िरी पर तो कोई अधिक विवाद नहीं हुआ। मगर दूसरी घटना याने अन्ना हज़ारे, उनका आन्दोलन और उनके द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल बिल क्रूर आलोचनाओं का निशाना बना है।
आशावाद बनाम हताशा
मूर्धन्य पत्रकार पी साईनाथ से जब पूछा गया कि उनकी इस बिल के बारे में क्या सोच है। तो उन्होने इसे चरम आशावाद बताया है। और इस पर आस्था रखने वाले व्यक्ति की तुलना किसी बहुमंज़िली इमारत से गिर रहे उस बदनसीब आदमी से की जो हर मंज़िल गुज़रने के बाद कहता है- यहाँ तक तो सब बढ़िया है। निश्चित तौर पर इस आन्दोलन के समर्थक एक तरह के आशावाद के मरीज़ हैं। जो मान रहे हैं कि एक लोकपाल आ जाने से देश में भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान हो जाएगा। पर क्या बात सिर्फ़ इतनी ही है?
पिछले पचीस बरस से इस देश में भ्रष्टाचार के मामले कभी ठण्डे नहीं पड़ने पाए हैं। एक के बाद दूसरे मामले, उत्तरोत्तर गहरे और बड़े मामले। लाखों से करोड़ों और करोड़ों से अरबों रुपये के घपले के मामले। जनता का पैसा जिसे देश के विकास- स्वास्थ्य, शिक्षा और जनकल्याण- में खर्च होना चाहिये, वो नेता और नौकरशाह चूहों की तरह कुतरते तो भी सहा जा सकता मगर वो तो डाकुओं की तरह लूट रहे हैं। जनता उनकी इस बेशर्म लूट को लेकर इतनी हताश हो चुकी है कि ‘सब साले चोर हैं’ को ही अन्तिम सत्य मान चुकी है। जबकि सच्चाई कभी इतनी सरल नहीं होती।
भारत की जनता एक हारी हुई, लुटी हुई, और पिटी हुई मानसिकता का शिकार रही है। शायद सैकड़ों बरस से। एक अकाल, एक दुर्भिक्ष का मानस घर कर गया है उनके अन्दर। हर आदमी अपने संकीर्ण स्वार्थ को सामने रखकर जितना हो सके, मलाई चांभ लेना चाहता है। इसीलिए जब कोई आदमी लंगोटी लगाकर उनके हित की बात करने को आगे आता है तो वो जनता उसे व्यक्ति को महात्मा की पदवी पर चढ़ाकर उसमें अपनी सम्पूर्ण आस्था निवेश कर देती है। यह जनता इस क़दर हारी हुई भी है कि एक क्रिकेट टीम की जीत को वो अपनी निजी जीत की तरह देखती है। और उसकी हार की सम्भावना उपस्थित होते ही स्टेडियम से पलायन कर जाती है या टीवी बन्द कर देती है। ऐसी हताश जनता में आशा के संचार होने को क्या पी साईनाथ की तरह रोग समझा जाय? या स्वास्थ्य की दिशा में बढ़ते क़दम। हताश लोग या तो लड़ाई लड़ते ही नहीं, लड़ते हैं तो प्रतिरोध होते ही हथियार डाल देते हैं, और कुछ तो आत्महत्या भी कर लेते हैं। आशावान ही किसी नए समाज की नींव रख सकता है। या किसी परिवर्तन में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है। अफ़सोस ये है कि मेरे अधिकतर प्रगतिशील और सामाजिक परिवर्तन के आंकाक्षी मित्र अभी भी निराशा की गर्त में से इस आन्दोलन को गलिया रहे हैं। शुरुआत में सीपीआई एम एल के मेरे कुछ पुराने साथियों ने अन्ना के प्रति बेहद कटु निन्दा का रवैया लिया था। इसीलिए जब सीपीआई एम एल ने आन्दोलन का समर्थन करने का फ़ैसला किया तो मुझे बहुत हैरानी हुई मगर ख़ुशी भी।
साम्प्रदायिक और जातिवादी समर्थक
एक बात बार-बार ये भी कही जा रही है कि इस बिल के समर्थक या तो शहरी, अभिजात्य वर्ग के स्वयं भ्रष्टाचारी लोग हैं। या फिर साम्प्रदायिक और जातिवादी लोग। पहले तो यह सच है नहीं। इस आन्दोलन की अपील बहुत व्यापक है। तभी सरकार ने घबराकर फ़ौरन सारी माँगें मान लीं। और अब छिपकर तरह-तरह के दुष्प्रचार करवा रही है। दूसरे ये कि जो लोग ये आरोप लगा रहे हैं असल में उन्हे भारवासियों के असली चरित्र का अन्दाज़ा नहीं है। ये कहा जा सकता है कि यहाँ वही ईमानदार है जिसे बेईमानी करने का मौक़ा नहीं मिला है। अगर ग़रीब किसान और मज़दूर ईमानदार है तो इसलिए कि वो कमज़ोर है। भ्रष्ट होने के लिए ताक़त होना ज़रूरी है। रही बात जातिवादी होने की। तो इस समाज में मैं बहुत कम ऐसे लोगों से मिला हूँ जो जातिवादी नहीं हैं। और उनमें से अधिकतर शहरी और पढ़े-लिखे वर्ग से आते हैं। हाँ ये ज़रूर कहा जा सकता है कि इस आन्दोलन के कई समर्थक मण्डल कमीशन के विरोधी थे। ऐसा ज़रूर सच है। मगर इस से यह सिद्ध नहीं होता कि जो लोग मण्डल कमीशन के समर्थक थे वो जातिवादी नहीं थे? कुछ एक प्रगतिशील तत्वों को छोड़कर मण्डल के समर्थक वही लोग हैं जिन्हे इस नीति से लाभ मिलने वाला है। इस लाभ के मिल जाने से उनके भीतर का जातिवाद मिट नहीं जाता। उलटे वह अवसर और शक्ति मिलने से और प्रबल होकर सामने आया है। आरक्षण से दलित और पिछड़ी हुई जातियों का उत्थान अवश्य होगा मगर उससे जातिवाद नहीं जाएगा। जातिवाद को कमज़ोर करने वाली सबसे बड़ी ताक़त वो शै है जिसे मेरे प्रगतिशील मित्र हिकारत की नज़र से देखते हैं- औद्योगिक पूँजीवादी समाज। भारतीय ग्रामीण जीवन जातिवाद की जड़ों का पोषण करता रहा है।
मेरा कहना यह है कि फ़िलहाल देश में जातिवाद और भ्रष्ट आचरण सर्वव्याप्त है। तो किसी ऐसी जनता की कल्पना करना जो पूरी तरह से इन रोगों से मुक्त होगी, व्यर्थ है। निश्चित ही इस अभियान के कुछ समर्थक मण्डल कमीशन की प्रगतिशील नीतियों के विरोधी हैं। मगर उनके चरित्र को पूरे अभियान पर आरोपित करना अतिरेक है। यह अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध है जातिवाद के पक्ष या विपक्ष में नहीं। जो लोग इसमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता का आरोपण कर रहे हैं उनके लिए पुरानी कहावत पीढ़ियों से चली आई है- सावन के अंधे को सब तरफ़ हरा ही हरा दिखता है।
अनशन का ब्लैकमेल
कुछ लोग कह रहे हैं कि अन्ना लोकतंत्र की गाड़ी में डंडा फंसा रहे हैं। अनशन करके वो जनता के प्रतिनिधियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। अन्ना कोई अकेले या पहले आदमी हैं जिन्होने अनशन किया है? इरोम शरमीला नाम की एक लड़की दस साल से अनशन कर रही है। सरकार तो आज तक ब्लैकमेल नहीं हुई? सवाल है कि क्यों नहीं हुई? अनशन करने से कोई सरकार ब्लैकमेल नहीं होती। अनशन करने से जब किसी व्यक्ति को जनसमर्थन मिलने लगता है तो सरकार पर जनता का दबाव बनता है और जनता की व्यापक इच्छा को ध्यान में रखते हुए वो कोई क़दम उठाती है। इस तरह के अनशन और अभियान को अलोकतांत्रिक समझना एक गहरी भूल है। लोकतंत्र चुनाव तक ही सीमित नहीं होता। अधिक से अधिक जनता की भागीदारी ही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।
लोकपाल का दायरा
कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा है- कि सिर्फ़ संसद, विधानसभा और नौकरशाही ही लोकपाल कानून के दायरे में हैं। और कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि लोकपाल के दायरे में नहीं हैं। इस तर्क में कोई दम नहीं है। कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि के ख़िलाफ़ सरकार जब चाहे तफ़तीश कर सकती है। उसके पास तमाम एजेन्सीज़ हैं। सवाल तो उनके खिलाफ़ जांच करने का है जो जांच एजेन्सीज़ के माईबाप बनकर बैठे हैं।
साम्प्रदायिकता बनाम भ्रष्टाचार
एक लहर ये भी चली है कि अन्ना मोदी के समर्थक हैं। इसका समूहगान करने वाले भूल जाते हैं कि इसी अभियान के दूसरे नेता स्वामी अग्निवेश माओवादियों के समर्थक हैं। वैसे सच ये है कि अन्ना ने मोदी की व नीतीश की तारीफ़ की ज़रूर मगर ग्रामीण विकास के प्रसंग में। फिर अलग से उन्होने गुजरात के साम्प्रदायिक दंगो की भर्त्सना भी की। मगर कुछ लोग तो जैसे इसी इन्तज़ार में थे कि कब अन्ना कुछ ऐसा कहें जिस पर उनको पीटा जा सके। मैं स्वय़ं मोदी का विरोधी हूँ। मगर ज़रा सोचिये गुजरात में एक साम्प्रदायिक मोदी बनाम महाराष्ट्र में पवार, ठाकरे, व देशमुख, कर्णाटक में बेल्लारी बंधु और येदुरप्पा, तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता, आंध्र में वाइ एस आर जगनरेड्डी, बिहार में लालू, यू पी में मुलायम और माया, झारखण्ड में कोडा और केन्द्र के अनगिनत मंत्री और सत्ता के दलाल। क्या अकेले साम्प्रदायिकता ही देश पर आसन्न ख़तरा है और भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं है? ये वैसे ही है जैसे बहुत से लोग लाख से ऊपर आत्महत्या कर चुके किसानों की कर्ज़े की समस्या से बड़ी समस्या आतंकवाद को मानते हैं। सत्ता, लगातार मँहगें होते चुनाव और भ्रष्टाचार का एक वर्तुल सा बना हुआ है। जिसे तोड़ने के लिए लोकपाल बिल एक ज़रूरी कड़ी बन सकता है।
अन्ना और बिल
अन्ना कौन हैं क्या हैं, यह महत्व का है। मगर अभियान उनसे अधिक महत्व का है। अभियान में और भी लोग हैं जो अन्ना जैसे नहीं हैं। उनकी अलग साख और अलग मूल्य हैं। अग्निवेश, केजरीवाल, किरन बेदी यह सब एकदम अलग लोग हैं, पर एक मुद्दे पर एक हैं। देखने की बात ये भी है कि इनका पिछला ट्रैक रेकार्ड क्या है? अन्ना और केजरीवाल वही लोग हैं जिन्होने सूचना के अधिकार के लिए अभियान चलाया था। और आज जब सूचना का अधिकार का क़ानून बन गया है तो वो सिर्फ़ सवर्णों और हिन्दुओं के लिए नहीं है। लोकपाल क्या अन्ना की कल्पना है? चालीस साल से यह बिल बनकर धूल खा रहा है। हुआ बस इतना कि इतने अरसे में उसके दांत ज़रूर गिर गए। फिर से कहता हूँ कि साम्प्रदायिकता और जाति का मुद्दा ध्यान भटकाने की साज़िश है।
बिल में समस्याएं
इस प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में तमाम समस्याएं हैं। और इसमें लोकपाल चुनने की प्रक्रिया तथा अन्य भी सुधार और परिष्कार की गुंज़ाईश है। मगर जिस तरह मेरे तमाम प्रगतिशील मित्र और सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध साथी इस आन्दोलन और जनलोकपाल बिल का विरोध कर रहे हैं उस से ऐसा लगता है कि जनलोकपाल बिल सामाजिक परिवर्तन की राह में रोड़ा बन गया हो। और जैसे उसके लागू हो जाने से जातीय विषमताएं बढ़ जाने वाली हैं। जैसे लोकपाल अपने आप में कोई साम्प्रदायिक पद हो। जिसके अस्तित्व में आ जाने से देश में मुसलमानों और ईसाईयों पर बड़ी आफ़त टूट पड़ने वाली है। अभी बिल पर बहुत बात होनी है। बजाय दूसरी बातों के जनलोकपाल की संस्था को कैसे और बेहतर बनाया जाय, पर बात होनी चाहिये।
पावर करप्ट्स
आजकल एक चलन हो चला है कोई बीमारी हो प्राणायाम कर लो। रामदेव का यह रामबाण तो अब उनके भक्तों के अनुसार भी बेअसर होने लगा है। हमारा यह विविधतापूर्ण समाज इतना सरल नहीं है। कि एक जातिवाद को दूर करने से ही आदर्श समाज क़ायम हो जाएगा। या इज़ारेदार पूँजी पर रोक लगाने भर से समता स्थापित हो जाएगी। या साम्प्रदायिक भेदभाव को मिटा देने और साम्प्रदायिकता के राक्षस को जिबह कर देने से अमन और इंसाफ़ का निज़ाम हो जाएगा। मामला उलझा हुआ और जटिल है। कुछ लोग कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार का सम्बन्ध नई उदारवादी आर्थिक नीतियों से है। अगर ऐसा है तो १९९१ के पहले तो सब जगह सदाचार ही होना चाहिये था। पर ऐसा था क्या? इन सारी समस्याओं के प्रति यथोचित सम्मान व्यक्त करते हुए मैं इतना अर्ज़ करना चाहूँगा कि मेरी समझ में भ्रष्टाचार की जड़ सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण में है। जब अधिकार किसी एक संस्था या व्यक्ति में केन्द्रीकृत हो जाते हैं तो भ्रष्टाचार जड़ फैलाने लगता है। अंग्रेज़ी का सरल और पुराना सूत्र है- पावर करप्ट्स। दो शब्दों में सीधा सम्बन्ध नज़र आता है। पावर और करप्शन। इसीलिए शक्तिशाली और सत्ताधीन लोगों की शक्ति और सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ज़रूरत है। और जनलोकपाल इसी दिशा में एक और क़दम है। मेरा ज़ोर ‘एक और’ पर है। न तो यह पहला है और न आख़िरी। लोकतंत्र की संरचना ही शक्ति के केन्द्र के विखण्डन की है। और जो लोग इस बिल को अलोकतांत्रिक कह रहे हैं वो असल में इसके भीतर और जनतांत्रिक सम्भावनाओं की सेंध लगा रहे हैं। उनका स्वागत किया जाना चाहिये।
मगर जो लोग इसे पूरी तरह से नकार कर इसके ख़िलाफ़ एक भर्त्सना अभियान चला रहे हैं वो असल में सत्ताधारियों और भ्रष्टाचारियों की उस साज़िश का शिकार बन रहे हैं जो इस मुद्दे से ध्यान भटका कर अपनी बदउन्वानी की रसोई पकाते रहना चाहते हैं। क्योंकि लोकपाल की संस्था के क़ायम हो जाने से उनकी मनमानी पर लगाम लग जाने वाली है।
17 टिप्पणियां:
......तभी सरकार ने घबराकर फ़ौरन सारी माँगें मान लीं। और अब छिपकर तरह-तरह के दुष्प्रचार करवा रही है......बुद्धिजीवी आप की तरह कितनी मेहनत, लगन और समर्पण से लिखते हैं किन्तु पर्दे के पीछे के सच अक्सर नामी-गिरामी चेहरों के मुखौटे उतार कर बताती है कि ये तो सरकारी अलशेसियन हैं....कृपया यह लिंक देखें...http://nac.nic.in/transparency/lokpal.htm
अच्छा और सुलझा कर समझाया हुआ लेख।
बहुत सुलझा हुआ लेख.
एक शुरुआत हुई है, यह मामूली बात नहीं है. अति पढ़े-लिखे लोगों ने डुबकी लगाकर टटोलने के बहाने भ्रष्टाचार के मुद्दे को साम्प्रदायिकता, जातिवाद और न जाने कितने वादों से जोड़ दिया है. कई बार लगता है जैसे यह सब आम आदमी को भटकाने के तौर-तरीके हैं. पता नहीं सच क्या है लेकिन जो शुरुआत हुई है, उसे आगे बढ़ाने में किसी को कष्ट नहीं होना चाहिए.
भैया बेनामी, अगर आपका इशारा ये है कि ये एक सरकार द्वारा प्रायोजित अभियान है तो प्रायोजन करने वाले इतनी मूर्खता तो न करेंगे कि अपने प्रायोजन के सबूत यूं खुले आम प्रदर्शित करें!
ये कोई क्रांति नहीं है मगर जो है उतना साफ़-साफ़ देखा जाय.. कभी-कभी बहुत महीन देखने के चक्कर में सामने खड़ा हाथी नहीं दिखता!
@बेनामी,
पहली बात तो ये कि आपका बेनामी होना ही आपके और आपकी टिपण्णी के आत्मविश्वास को कमजोर किये दे रहा है, मतलब समझते तो आप भी ये हैं, कि ये बता पाने का दम किसी के बाप में भी नहीं है कि सत्ता का ऊंट किस करवट जायेगा | क्योंकि कल को जब आप गलत होते हैं तो हम बेनामी पर तो टिपण्णी करने से रहे |
सरकार कोई रॉकेट साईंस तो नहीं,सब जानते ही हैं कि सत्ता में बैठे लोग लोकपाल बिल से घृणा करते हैं | लेकिन कुछ प्रयास अगर होता है, चलिए झूठा ही सही पर जनता के विरोध की तो लहर देखने लायक थी | मुझे उम्मीद है यहाँ से हम भारत के बदले हुए दृष्टिकोण को देखेंगे, मतलब प्री-हजारे मूवमेंट भारत एंड पोस्ट-हजारे मूवमेंट भारत बन चुका है | अगर ये असफल होता है तो उम्मीद न खोएं आगे इससे भी बढ़िया आन्दोलन हो सकता है | सरकार ने ये तो कतई नहीं चाहा होगा कि जनता को ऐसे आन्दोलन का स्वाद चखाया जाये |
और देखिये इस मुद्दे से पर दावे से तो कोई भी कुछ नहीं कह सकता लेकिन विचार करने से ही नए रास्ते खुल सकते हैं | रहा दवा आपके सत्ता में घुसे हुए सोर्स बाज़ी का या लिंक का तो क्या वे बी. रमन के भी बाप हैं | हजारों दावों के हजारों रंग में लिंक पड़े हैं, सो मैं भी लिंक्स का योगदान करना चाहूँगा |
(1). http://www.southasiaanalysis.org/papers45/paper4414.html
(B. Raman on 07 April)
"Any attempt to have it discredited or to underestimate the genuine anger of growing sections of the public against widespread corruption at various levels of the political leadership and bureaucracy would be short-sighted and could lead to political instability and a disturbance of law and order. We might be faced with a Jasmine Revolution type situation with the Jantar Mantar in New Delhi from where the movement has been launched becoming India's Tahrir Square."
B. Raman said It might be, but It didn't. सरकार भी नहीं चाहती थी, उसे भी डर लगने लगा था ये व्यापक बगावत का रूप ले न ले |
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(2). http://www.southasiaanalysis.org/papers45/paper4415.html
(B. Raman on 08 April)
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(3). http://www.southasiaanalysis.org/papers45/paper4418.html
(B. Raman concluded, on 11 April after fast has broken)
"Co-operation with the civil society coalition headed by Anna Hazare in matters relating to the legislation and independent initiatives in other matters should be the over-all strategy of the Government."
बाकी का तो पाठक पढ़ ही लेंगे |
योगेन्द्र सिंह शेखावत.....शायद १९७४ के नवनिर्माण आंदोलन के समय आप इस धरा पर अवतरित नहीं रहे होंगे...किसी से नहीं तो वैदिक जी से ही पता करनें कि कोशिश करिये कि उस स्वत:स्फूर्त नौजवानों का सौदा किसनें किया था? नौजवानों की उर्जा को दफना कर मलाई खाने वालों में कौन-कौन स्वनाम धन्य थे? ४अप्रैल को सरकर के साथ मींटिग कर के ५ अप्रैल को अन्ना हजारे जी को धरनें पर बैठानें का षड़्यंत्र किसके इशारे पर था? गांधी भी देश को नेहरु परिवार को गिरवी रख गये थे! बेनामी होंना वैसी ही मजबूरी है जैसी इस देश के हर राष्ट्रभक्त की मजबूरी बन चुकी है, क्योंकी यह देश जिन लोगों द्वारा चलाया जा र्हा है उनका धर्म इस देश के गुलामों पर शासन करना ही सिखाता है...यही सेक्युलरिज्म कहा जाता है। अल्शेशियन्स की लिस्ट बहुत...........लम्बी है......खुश रहो आबाद रहो...खुद सोंचना और बिट्वीन द लाइन्स पढ़्ना भी आना चाहिये!
अन्ना का अनशन ब्लाक्क्मैलिंग है तो गाँधी सबसे बड़े ब्लैक मेलर थे
बेनामी जी, सत्ता के गलियारे कभी निर्मल नहीं रहे न ही हो सकते है | ख्यातनाम विचारक मनोहर श्याम जोशी ने एक जगह कहा है, राजा वही जो छले प्रजा को | आदर्श राज्य की कल्पना मैं सपने में भी नहीं करता | मेरी दृष्टि में आदिम समाज के ख़त्म होने के बाद न कभी रामराज्य था और न ही आएगा | अधिक ताकतवर हमेशा कमजोर पर प्रहार करता ही रहा है | निश्चित ही मैं 1974 मैं अवतरित नहीं हुआ परन्तु आप जो भी हैं, मुझे पूरा यकीन है परन्तु आप भी काल-चक्र से परे लाखों सालों से सजीव और स्थिर रहकर धरती का अवलोकन तो नहीं ही कर रह होंगे कि एक-एक चीज़ का राज जानने का दवा करें | कोई भी नहीं कर सकता, न मैं न आप |
क्या "अखंड भारत" के इतिहास में कभी कोई युद्ध नहीं हुआ? सत्ता हमेशा ही दूषित होती रही है और संघर्ष हमेशा ही करना पड़ा है | क्या पहले नन्द की सत्ता के खिलाफ क्रांति करने वाले और बाद में खुद महान सम्राट अशोक जब कलिंग के नक्सलवादियों का संहार करते हैं तब रामराज्य की स्थापना होती है ? और भारत में एकता स्थापित होती है |या फिर तब जब ब्राह्मण समुदाय बौद्ध समुदाय को मार-कूट के भारत से चलता करता है | अगर आप ये समझते हैं, कांग्रेस या पार्टी विशेष के चले जाने से, या मुसलमानों के भाग जाने से सब कुछ सुधर जायेगा तो आप गलत हैं | वर्गवाद आदमी की सोच में हैं, परशुराम और सहश्रबाहू का संग्राम आज का नहीं है | मुसलमान नहीं तो क्या हुआ | दलित-सवर्ण युद्ध, जाट-राजपूत युद्ध, गुर्जर-मीणा युद्ध, ऊँच-नीच का युद्ध, पूंजीवादी-साम्यवादी का युद्ध या सबका सबसे युद्ध खत्म नहीं होगा | राग-द्वेष के गुण मनुष्य के खून से ख़त्म नहीं हो सकते | हम बस एक औसत समाज की रचना कर सकते हैं, और जिसके लिए भी हमेशा संघर्ष करते रहना पड़ेगा | जैसा की अभय जी ने कहा "पावर करप्ट्स" | क्या आप ये चाहते हैं, सब लोग सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठें, योग-ध्यान करें, स्वस्थ रहें, सदाचारी रहें | जल्दी सोयें | लेकिन सब लोग एक सा काम कर ही नहीं सकते | राक्षस तो सदा ही थे, सदा ही रहेंगे | संघर्ष सदा ही रहा है और रहेगा |
मैंने नहीं कहा अण्णा गलत है या सही, न ही मुझे उसके सही या गलत होने से कोई फर्क पड़ने वाला है | सवाल ये है की कुत्तों की तरह आपस में एक दूसरे कि बुराई करते हुए, लड़कर मिटना है, या सरदार पटेल की तरह नेहरु से अलग विचारधारा होते हुए भी देश के भले के लिए कर्तव्य का पालन करना है | या फिर यूँ कहें कि जलन इस बात की है कि मुझे छोडकर सत्ता का स्वाद और कोई क्यों भोगे | विध्वंश कर देना, मार देना, भाग जाना या भगा देना ही उपाय नहीं है | जैसा की बुजुर्गों का कहना है, की संन्यास लेना बड़ी बात है, लेकिन गृहस्थी में डटे रहकर जिम्मेदारियों को उठाना और लड़ना, और भी बड़ी बात है | इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए |
मुझे आपसे लेख में असहमत होने की गुन्जाईस नहीं दिखती.
अच्छा लेख है। अच्छे और उपयोगी सन्दर्भ।
योगेन्द्र सिंह शेखावत...एक उपन्यासकार थे दत्त भारती जोशी जी की तरह वह भी गंभीर व्यंग्यात्मक टिप्पड़ियाँ करते थे..नीला आस्मान नामक उपन्यास में उन्होंने एक टिप्पड़ी की थी...इस देश को तीन चीजें ले डूबी...ड़ालडा कांग्रेस और बास्टर्ड्स..ड़ालडा मिलावट का और घटियापन का प्रतीक है, कांग्रेस..सैटिसफाइ एण्ड रूल, टेरेराइज एण्ड रूल,डिवाइड एण्ड रूल और ब्राइब एण्ड रूल का प्रतीक है और हर बास्टर्ड सेक्यूलर है। यह व्यंग है शाश्वत सत्य नहीं। मनोहर श्याम जोशी जी व्यंग में जो कह रहे हैं वह इसलिए कि आदर्श का अनुकरण नहीण हो रहा। सुबह न उठिये रात को उठिये लेकिन उठिये तो सही..रेंगते रहना..मनुष्यता नहीं है। अमेरिका जहाँ फ्री सेक्स जायज है वहाँ भी मोनिका लेविंस्की-क्लिंटन प्रकरण समाज को रास नहीं आया था। अपना लिखा ६ माह बाद फिर पढने की कोशिश करेंगे तो आज की आक्रोशित और अविचारित कथन शायद तब खुद ब खुद बेमानी लगे...?
पीछे बहुत कुछ छूट चुका है,जो नहीं हुआ या गलत हुआ उसका रोना रोकर क्या हम पढ़े-लिखे और समझदार कहे जायेंगे !माना कि भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले से कानून हैं,पर भाई लोग उसमें भी छेद किये हुए हैं.हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिनके ऊपर इस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी है,वही इसके मुख्य पात्र हैं !
फिर भी,यदि अन्ना की पहल रंग ला रही है तो यथास्थिति-वादियों के पेट में मरोड़ होना स्वाभाविक है !
इस विषय में "एक खत अपनों के नाम पर " भी नज़र डालें @ www.santoshtrivedi.com
@बेनामी, ..कि आदर्श का अनुकरण नहीं हो रहा। आपने ध्यान नहीं दिया कि "आदर्श" के बारे में मैं अपना मंतव्य पिछली टिपण्णी में स्पष्ट कर चुका हूँ | आदर्श राज्य की कल्पना मैं सपने में भी नहीं करता |
लेकिन ऐसा लगता है आप मुझे कांग्रेस का हितेषी या भ्रष्टाचार-प्रियाय समझने की गलती भी कर रहे हैं |
दूसरा आप या आप जैसे लोग, मुझे या मुझ जैसे लोगों को देश के हालात और ख़बरों से एकदम अनभिज्ञ और मूर्ख समझते हैं | आपके हिसाब से मैं तो "वानुआतु" के आईलेंड में रहता हूँ | अमेरिका से क्या अश्वेत ख़त्म हो गए | बल्कि आज वो अमेरिका के अभिन्न अंग हैं, आज वहां काले और गोरे दोनों में देशद्रोही और देशभक्त हैं, किसी समय दोनों रंगों में बड़ा द्वेष था | कीड़ा अति सुंदर बाग़ में भी गोबर ढूंढ लेता है | यदि दिमागी द्वेष को मिटाकर विवेकपूर्ण सही तरीका अपनाया जाये हालात काफी हद तक सुधारे जा सकते हैं | कश्मीर से भी डॉ. शाह फैज़ल जैसे लोग निकल सकते हैं, क्या आपने सोचा था |
भारत के लोग ही ये नहीं कहते की पकिस्तान से दोस्ती मत करो | पाकिस्तान के लोगों को भी लगता है की पाकिस्तानी सियासत जबरदस्ती भारत से दोस्ती कर रही है | भारतीय कहते हैं अमेरिका की गुलामी मत करो | अमेरिकी जनता भारतीयों के भविष्य से भयभीत हो रही है, भारतीयों को आउट्सोर्सिंग बंद करो | विश्व के लगभग सब देशों की जनता को अपनी सरकार से घृणा है | और सब सरकारों को अपने सुख प्रिय है | विश्व का बाप अमेरिका नहीं होता तो रूस होता, रूस नहीं तो कोई और होता और उस बाप से परेशानी सभी को हमेशा है | फिर से कहूँगा, "कोऊ नृप होई, हमें का हानि" (राजा वही जो छले प्रजा को ) | हर व्यक्ति का धर्म-स्वभाव अलग है, वह कभी नहीं छुट सकता | जाने-अनजाने सब अपना काम कर ही रहे हैं | भले ही सतही तौर पर आपकी बात सही हो, लेकिन जड़ व्यक्ति की मानसिकता में हैं, उसे बदले बिना कोई पार्टी हिंसा-दुःख के अलावा कुछ नहीं दे पायेगी |
संतोष त्रिवेदी जी से भी सहमत |
देश की परिस्थिति का सटीक आकलन। देश के आने वाले कुछ वर्ष निर्णायक होंगे।
For Yogendra Singh Sekhavat....On plots allotted by govt, the Bhushans have high standards — for others
Tanu Sharma Posted online: Thu Apr 21 2011, 01:07 hrs
When it comes to individuals getting land allotted from the government much below market rates and without any lottery or auction, the Bhushans have always claimed to hold high standards of probity — for others.
The Indian Express reported today how Shanti Bhushan and son Jayant Bhushan applied and got two 10,000 square metre Noida farmhouse plots from the Mayawati government via a process they themselves go on to question.
But on the website of Campaign for Judicial Accountability and Judicial Reforms (CJAR), an NGO of which Shanti Bhushan is a patron and son Prashant the convenor, are documents alleging corruption against two former Chief Justices of India and one former High Court Chief Justice for allegedly receiving land from the government.
Consider:
Ex-CJI K G Balakrishnan: As recently as April 4, the CJAR wrote to the Prime Minister and the President seeking the removal of NHRC chairperson and former CJI, Justice K G Balakrishnan, on the basis of a TV channel’s story on the judge’s aide, M Kannabiran, having been “awarded” two prime plots of land in Chennai by misusing Tamil Nadu Chief Minister M Karunanidhi’s discretionary power.
Alleging “misbehaviour” on the part of Justice Balakrishnan, the letter claims: “Rules would not have been bent for a lowly employee and in fact Justice Balakrishnan used his influence with the CM of Tamil Nadu to get these allotments.”
Ex-CJI Y K Sabharwal: A CJAR press release dated August 3, 2007 accuses Justice Sabharwal of facilitating allotment of “three huge plots of 12,000 sq m in a prime sector of Noida” to Pawan Impex, a company owned by the “Sabharwals” on December 29, 2004 by the Mulayam Singh/Amar Singh government of UP at a rate of only Rs 3,700 per sq m, when the market price of commercial land here was at least Rs 30,000 per sq m at that time.”
The CJAR also claims that a “huge” commercial plot of 12,000 sq m in Sector 68 was allotted to a company they allege was owned by Sabharwals at Rs 4000 per sq m.
The CJAR also underlines three 800-sq m plots in Sector 63 to the Sabharwals and a house plot at the “fancy” Sector 44, Noida, to Justice Sabharwal’s daughter-in-law in 2005. The latter allotment is described as “the infamous Noida allotment scam where the media exposed that most allotments were made to VIPs in a supposed draw of lots.”
Justice Madan Mohan Punchhi: The CJAR website carries a Notice of Motion against the former CJI which could not presented before the Speaker for the want of requisite signatures from MPs.
The second charge in the notice is how he dismissed a writ petition against then Haryana Chief Minister Bhajan Lal on the same day (May 1, 1986) his two “unmarried daughters” were allotted two “valuable plots” in Gurgaon from the CM’s discretionary quota.
Justice Jagdish Bhalla: The CJAR website has an Impeachment Motion against Justice Jagdish Bhalla. This includes the charge that Justice Bhalla used his position and influence to get several plots allotted to himself and his relatives from the Lucknow Development Authority (LDA) and the Noida Authority. And that he used his influence to get several of these allotments changed from new sectors to developed sectors through discretionary powers of the Vice Chairman, LDA.
चाहे जितना समझा दो , लेकिन जो 'चतुर-मंडल' पहले से समझे बैठा है , और सब कुछ समझे बैठा है , उन 'समझदारों का गीत'कभी ख़त्म नहीं होने वाला.
इस लेख में CPIML का ज़िक्र आया है , इस लिए दर्ज करता चलूँ , कि उन का देशव्यापी भ्रष्टाचार - महंगाई विरोधी एक लंबा कार्यक्रम पहले ही चल रहा था .( और अब इस का क्या करें कि मज़दूरों की इसी दिल्ली में महज़ कुछ दिन पहले हुयी हज़ारों की रैली मीडिया के लिए नितांत अदृश्य रही.)वक़्त की इस जरूरत की स्पस्ट समझ के चलते ही अन्ना आन्दोलन के प्रति सक्रिय समर्थन व्यक्त करने में CPIML ने देर नहीं लगाई. हाँ , आलोचना और बहस के जो मुद्दे हैं , उन पर आलोचना और बहस भी चल रही है , लेकिन एक दोस्ताना बहस , न कि साजिशवादियों सी साजिशाना बहस.
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