रविवार, 17 अप्रैल 2011

डंक और मुस्कान



आजकल दफ़्तर में काम कुछ ज़्यादा है। बच्चों के स्कूल के चलते शांति घर से निकलती तो उसी समय है। मगर घर लौटने में उसे रोज़ आठ-साढ़े आठ बज जाता है। इस वजह से घर के; बच्चों के; उसके अपने; बहुत सारे काम अधूरे पड़े हुए हैं। और एक लगातार कचोटने वाली ज़िम्मेदारी की तरह उसकी स्मृति से चिपटे हुए हैं। इसी वजह से या किसी और भी वजह से शांति आजकल कुछ उखड़ी-उखड़ी रहती है। वह चाहती है कि दफ़्तर का काम उसके सर से उतरे। घर की और दूसरी ज़िम्मेदारियां उसके सर से उतरे। जो भी उसके सर पर बोझ की तरह चढ़ा है, उतरे। ताकि वो मुक्त होकर वापस चैन से जी सके। अभी वो बेचैन है।

उसे अपना काम सख़्त नापसन्द हो चला है। जिन अंको के अमूर्तन में उसे ब्रह्म के दर्शन होते थे। अभी वही उसे नीरस, उबाऊ और जानखाऊ लगने लगे हैं। गिनतियों की भूलभुलैय्या में लाभ-हानि की एक तस्वीर बनाने के काम से वो लगभग नफ़रत करने लगी है। घर जाती है तो घर में भी वो सुकून नहीं मिलता। सुकून के सब सामानों के जैसे दांत से निकल आए हों। घर जाते ही वो शांति को काटने लगते हैं। और नतीजा ये है कि शांति का दिमाग़ धीरे-धीरे एक बर्र के छत्ते में बदलता जा रहा है। जिसमें दाख़िल होने वाला कोई भी विचार या व्यक्ति एक दुश्मन की तरह देखा जाता है। अभी उससे बात करना बर्र के छत्ते में हाथ डालना है। दिमाग़ की प्रतिक्रिया हर बार ऐसी जवाबी कार्रवाई की होती है कि सामने वाले बिलबिला उठे। मगर कुछ अपनेपन का परदा होने से उसके बच्चे, उसका पति, दफ़्तर में बौस और कुछ भूतपूर्व अज़ीज़ सहकर्मी कमोबेश बचे रहते हैं। मगर सड़क पर चलते लोग, सब्ज़ी-भाजी वाले, काम वाली बाई, दफ़्तर के बहुत सारे सहकर्मी, और सबसे अधिक फोन मार्केटिंग वाले उसके कोप का निशाना बन रहे हैं। शांति को छेड़ते ही वो ऐसा डंक खाते हैं कि कई दिनों तक डंक की जलन से छुटकारा नहीं पाते।

ऐसे ही एक दिन जब शांति का रौद्ररूप उसकी सहन शक्ति के सीमान्त पर फुफकार रहा है और वो अपनी सारी रचनात्मक ऊर्जा बटोर कर आँखों में जमा कर के कम्प्यूटर स्क्रीन की तफ़्तीश कर रही है। तभी फोन की घंटी बजती है। और पहले उसके शांति शर्मा होने का सत्यापन किया जाता है। और फिर उसे कारलोन का सौभाग्यशाली अधिकारी सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। तो शांति किसी भूखी शेरनी की तरह छलांग लगाकर दूरभाष की सारी दूरियों को लांघकर लोन विक्रेता को ऐसी फटकार देती है कि उसके आत्मसम्मान से ख़ून छलछलाने लगता है। और वो भी कारलोन को भुलाकर एक ऐसे ख़ूनी संघर्ष में कूद पड़ता है जिसका मक़सद है सामने वाले की अस्मिता को गहरे तक छील देना। कहना न होगा कि विजय शांति की ही होती है। और फोन पर कारलोन बेचने वाला लड़का अपने घावों को चाटता हुआ पलायन कर जाता है।

उस शाम जब शांति घर पहुँची तो उसने पाखी को एक पैर पर लंगड़ाता हुआ पाया। पाखी का टखना मोच खा गया है और सूज भी गया है। इस घटना ने शांति के दिमाग़ के छत्ते में दुश्मन की तरह प्रवेश किया। और शांति पाखी पर ही बिगड़ गई- बैठे बिठाई चोट लगा ली। पाखी ने बताया कि बैठे-बिठाये नहीं बास्केटबाल खेलते हुए। शांति का मन हुआ कि पाखी को डंक मार दे। फिर बेटी पर रहम आया और चुप रही। सुबह होते-होते चोट और सूज आई। अजय टुअर पर बाहर है। लिहाज़ा हड़बड़ाई हुई सुबह के बाद पाखी को लेकर शांति ही हस्पताल पहुँची।

हस्पताल के गेट पर ही जूते-चप्पल उतारने की जगह है। एक टोकेन लेकर जूते-चप्पल एक ख़ाने में रख देना होता है। शांति ने टोकेन लिया और आगे बढ़ गई। उसने ध्यान भी नहीं दिया कि किसी ने उससे गुड मौरिनंग की। डौक्टर ने बताया कि हड्डी कोई नहीं टूटी मगर फ़िज़ियोथेरेपी करनी होगी। रोज़ आना होगा अगले दस दिन तक। अगले दिन जब शांति और पाखी आए तो उनके चप्पल-जूते लेने के पहले फिर से एक गुडमौर्निंग ने उनका स्वागत किया। शांति ने देखा। वो चप्पल रक्षक था। काही रंग की वर्दी। ढलती हुई सी उमर। कच्चे-पक्के सर के बाल। छरहरा बदन। तांबे जैसा रंग। मगर यह सब उसकी चमकती हुई मुस्कान के पीछे धुंधलाया हुआ था।

अगले रोज़ अजय लौट आया। और पाखी को फ़िज़ियोथेरेपी के लिए ले जाने की ज़िम्मेदारी दो दिन उसी ने सम्हाल ली। तीसरे दिन अजय बहुत देर से उठा तो फिर शांति पाखी को लेके हस्पताल आई। हस्पताल में घुसने से पहले उसे चप्पल रक्षक की याद आई। उसकी मुस्कान और उसकी गुडमौर्निंग याद आई। वो तमाम आने वालों के जूते-चप्पल लेने-देने में व्यस्त था। न जाने क्यों इस बार शांति ने पहले गुडमौरनिंग की। चप्पल लेते हुए उसने पूछा कि दो दिन वो नहीं आईं? शांति ने बताया कि वो व्यस्त थी इसलिए उसके पति आए थे। उसने मुसकरा कर पाखी से पूछा कि उसकी मोच बेहतर है ना। पाखी उसे देखकर जिस तरह से मुसकराई उससे शांति ने समझा कि पाखी उसे कितना पसन्द करती है। हस्पताल के भीतर जाते हुए शांति ने देखा कि सभी आने-जाने वालों के साथ उसका एक दोस्ती और आत्मीयता का नाता है। और तभी शांति ने एक और चीज़ ग़ौर की जो वो पहले नहीं देख सकी थी। उसका दायां हाथ कंधे से कटा हुआ था। वो एक ही हाथ से सारे काम निबटा रहा था।

जितनी देर पाखी की फ़िज़ियोथेरेपी होती रही, शांति उसी के बारे में सोचती रही। एक ऐसे आदमी के बारे में जिसका काम तो आने वालों के चप्पल-जूतों को लेना-देना है। मगर हस्पताल के गेट पर बैठकर वो चप्पल-जूतों से अलग किसी और चीज़ का लेनदेन कर रहा है । आने वाले हर बीमार के मन में एक मुस्कान भर रहा है। जबकि उसके अपने जीवन में कुढ़ने, नाराज़ और निराश होने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। वापस जाते हुए जब शांति ने अपनी चप्पल ली और साथ में एक उदार अमूल्य मुसकान भी।

शांति ने देखा कि घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। उसे आधे घंटे में दफ़्तर पहुँचना होगा। उसके पहले पाखी को घर भी छोड़ना है। सड़क के जाम से अलग एक जाम पार्किंग में भी लगा हुआ है। पाखी को पीछे बिठाकर पहियों को पैरों से धकेलते हुए शांति के भीतर का तापमान बढ़ने लगा। बाहर का तापमान ऐसा था कि उसके शरीर के विभिन्न अंगों से गर्मी पसीज कर कई धाराओं में बह निकली। शांति ने बेवजह हौर्न न बजाने की अपनी नीति के अनुसार हौर्न से अपना हाथ दूर हटाया हुआ था। मगर कानों को किनकिना देने वाले तीखे हौर्न सब तरफ़ से उस की सहन शक्ति पर आक्रमण कर रहे थे। उसी में फोन भी बजने लगा। बड़ी मुश्किल से हेलमेट उतार कर कान पर लगाने पर पता चलता है कि कोई दिवाकर हैं जो उसके इन्श्योरैन्स के लिए फ़िक्रमन्द हैं। अन्दर-बाहर की तपन एक झटके में शांति की जीभ पर सिमट आई और कुछ शब्द ज़हरीले डंक बनकर निकले। फ़ोन कट जाने के बाद शांति ने सोचा कि दूसरे सिरे पर मौजूद आदमी को कुछ घाव ज़रूर हुआ होगा। न जाने क्यों उसे थोड़ा सा अफ़सोस भी हुआ।

पार्किंग से निकलते हुए हस्पताल के गेट नज़र आता था। शांति ने देखा चप्पल रक्षक आने-जाने वालों से घिरा हुआ था। वो अभी भी मुसकरा रहा होगा, शांति ने सोचा। और फिर ये भी सोचा कि मुसकराता कैसे है वो आदमी?

*** 

(१७ अप्रैल के दैनिक भास्कर में प्रकाशित) 

3 टिप्‍पणियां:

Dr Varsha Singh ने कहा…

आदि से अन्त तक पाठक में जिज्ञासा जगाती हुई बेहतरीन...रोचक कथामाला के माध्यम से नारी जीवन के यथार्थ का सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण... दैनिक भास्कर में भी प्रकाशित अंश पढ़ती हूं. आज भी 17 अप्रैल के दैनिक भास्कर में प्रकाशित कथा पढ़ी है.हार्दिक शुभकामनायें।

मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है! आपके विचारों से मेरा उत्साह बढ़ेगा.

मीनाक्षी ने कहा…

चप्पल रक्षक की मुस्कान से लगता है कि चाहे ज़िन्दगी में कितनी भी जद्दोजहद हो ...मुस्कुराने से शायद आसान हो जाए...सहज प्रवाह में शुरु से अंत तक पढ़ने में आनन्द है...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

समय बेसमय लोन के लिये समझाने वालों का फोन सबसे अधिक आक्रोशित करता है। कार्य और विचार से दबे व्यक्तित्व का सफल चित्रण।

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