शनिवार, 18 जुलाई 2009

कबूतर जैसा मशहूर नहीं!

वैसे तो मैं नाटक देखता नहीं लेकिन कल एक देखना पड़ा। पृथ्वी पर। वहीं मेरे एक दोस्त सलीम शेख मिल गए। मिज़ाजपुर्सी हुई। मोहब्बत के दो बोल उन ने बोले। एकाधी अदा हम ने भी दिखाई। फिर कहने लगे कि क्या कर रहे हो आजकल। हमारा हाल किस से पोशीदा है। सब जानते हैं कि ज़माने से बेरोज़गार हूँ। वो बात अलग है कि किसी मजबूरी में नहीं अपनी मर्ज़ी से हूँ।

कभी-कभी डर भी लगता है कि कहीं एक दिन ऐसा न आए कि लोग काम के लिए पूछना भी छोड़ दें। लोग पुर्सिश करते रहें और आप कहें कि अमां जाओ यार कहाँ फंसा रहे हो, हमें अपनी आज़ादी कहीं प्यारी है। मन-माफ़िक काम न मिले तो दो-चार पैंटो और नए-ताज़े असबाब की हवस के लिए रुपये के लिए गधा मजूरी करने से तो इन्कार की यह लज़्ज़त भली। नए कपड़े नहीं खरीदता हूँ, जहाँ तक हो सके बस और ट्रेन से चलता हूँ, सिगरेट छोड़ ही चुका हूँ। जब तक सर पर ना आ पड़े ग़ुलामी नहीं करेंगे ऐसा सोचा है।

दुनिया में लोगों की तमाम ज़िम्मेदारियां होती हैं। माँ-बाप, बीबी-बच्चे, भाई-बहन। नसीब ने हमें ऐसी किसी भी ज़िम्मेदारी से आज़ाद रखा है। अगर उसके बावजूद मैं मौक़े का फ़ाएदा न उठाऊँ, और वो न करूँ जो वाक़ई दिल की तमन्ना है तो निहायत अहमक़ होऊँगा। और अपना तो उलटे ऐसा ख्याल है कि हम काफ़ी ज़हीन हैं।

तो सलीम साहब कहने लगे कि यार हमारे एक दोस्त हैं। थियेटर की बड़ी हस्ती हैं। अगले माह एक बड़े फ़ेस्टिवल के लिए हम से इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखवना चाहते हैं। पर हमें ससुरा वक़्त ही नहीं मिल रहा, तुम लिखोगे क्या?

अब इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखना कौन बड़ी बात है। मैं क्या कोई भी सेल्फ़ रेस्पेक्टिंग ब्लॉगिया लिख देगा। आज कल तो वैसे भी साहित्य-ब्लॉगित्य की बड़ी धूम है। मैंने बोला कि बेफ़िकर रहिये लिख दूंगा। तो कहने लगे कि मगर उन की थियेटर पर्सनैल्टी ने उनसे लिखने को कहा है। और जब वो कहेंगे कि फ़लां साहब लिख रहे हैं तो वो कहेंगे कि कौन फ़लां साहब? क्या जवाब देंगे? यानी सलीम शेख की तो एक शुहरत है, आप कौन? मैंने कहा कि अगर ऐसा है तो जाने दीजिये।

बोले नहीं कि कर लो, लूप में आ जाओगे!

लूप में?

हम बमुश्किल टीवी के लूप से बाहर निकले हैं। मसाला फ़िल्म के लूप के जबड़ों में जाते-जाते खुद को किसी तरह बचाया है। और अब आप थियेटर के लूप का झुनझुना हमें झलका रहे हैं। हद है। हम ने कहा कि नहीं भाई हमें माफ़ करें हम अब थियेटर के लूप में आने के लिए स्ट्र्गल नहीं करेंगे। सलीम मियां चुप हो गए।

फिर मैंने उन से पूछा कि उन्होने कभी कबूतर देखा है। ज़ाहिर सी बात है सब ने देखा है उन्होने भी देखा होगा। कबूतर को कौन नहीं पहचानता। बोले हाँ। फिर मैंने पूछा कि फिर तो आप ने हरेवा भी देखा होगा?

हरेवा?

वो क्या होता है?

एक पंछी होता है हरे रंग की देह, सर लाल, चोंच और गला काला और सर से लेकर गरदन तक एक सुनहरी पट्टी। निहायत दिलकश पंछी है।

तोता है क्या किसी तरह का?

नहीं साहब तोते से इसका कोई रिश्ता नहीं। बुलबुल के क़द का होता है और घने जंगल में बसर करता है। मगर क़िस्मत अच्छी हो तो हो सकता है आबादी के आस-पास के दरख्तों में भी छिपा दिख जाय। अंग्रेज़ी में गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस कहते हैं।

क्लोप्सिस..?

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस!?

करेक्ट! इसमें बस एक ही नुक़्स है।

क्या?

कबूतर जैसा मशहूर नहीं है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

गिलानी के आगे गुलाटी

भारत की पाक-नीति मिस्र में मुँह के बल गिर पड़ी है। शर्म अल शेख में गिलानी और मनमोहन सिंह की मुलाक़ात के बाद एक उद्घोषणा के अनुसार :

१) दोनों देश सभी मुद्दों पर बात करने को राजी हो गए है। (सभी मुद्दों में कश्मीर मुद्दा भी शामिल माना जाएगा)

२) दोनों देशों ने माना कि आतंकवाद और वातचीत के बीच में कोई सीधा संबन्ध नहीं बनाया जा सकता। (यानी पाकिस्तान की ओर से कितनी भी आतंकी गतिविधियां हो, भारत ये नहीं कह सकेगा कि जाओ हम तुम से बात नहीं करते तुमने हमें मारा !)

३) पाकिस्तानी प्रांत बलूचिस्तान में अशांति पर भारत बातचीत करने को तैयार हो गया है। !!!??? (ये एक परोक्ष स्वीकार है कि वहाँ हो रहे आज़ादी के आन्दोलन को भारत प्रायोजित कर रहा है)

पाकिस्तानी प्रधान मंत्री ने कल रात से ही इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित करना शुरु कर दिया है। जबकि भारत ने तुरंत लीपापोती भी शुरु कर दी है। भारतीय मीडिया इसे अण्डरप्ले कर रहा है। कल रात एन डी टी वी को छोड़कर सब ने माया-रीता विवाद पर ही ज़ोर बनाए रखा। अखबारों में भी इस समर्पण को ज़्यादा अहमियत नहीं दी गई।

जबकि पाकिस्तान में हाल उलट हैं। निश्चित ही यह उनकी कूटनीतिक जीत है। पिछले महीने ही ज़रदारी मनमोहन के द्वारा बुरी तरह झिड़क दिए गए थे सरे मीडिया; कि भारत सिर्फ़ आतंकवाद के रोकथाम पर ही बात करेगा और कुछ भी नहीं। और एक ही महीने में इतनी भी बड़ी गुलाटी? राज़ क्या है।

निश्चित ही यह किसी दबाव में हुआ है। और वह अमरीकी दबाव के अलावा और क्या हो सकता है। अमरीका ने पाकिस्तान को तालिबान के खिलाफ़ लड़ाई के लिए कुछ मुआवज़ा तय किया था। लड़ाई लड़ने की मोटी आर्थिक क़ीमत के अलावा उनकी मुख्य शर्त भारत के साथ समीकरण में अपने पक्ष को भारी करवाना ही रही होगी। जिस को वे सार्वजनिक रूप से भी कहते रहे हैं।

आज मोहतरमा क्लिण्टन भारत पधार रही हैं। पांच दिन के लिए। और सब से दिलचस्प बात ये है कि न वो भारत आने से पहले पाकिस्तान जा रही हैं और न बाद में। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। अमरीका ने हमेशा भारत और पाकिस्तान को भारत-पाक की तरह हाइफ़ेनेट ही किया है जिसके प्रति लगातार भारत ने शिकायत की है। अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पाकिस्तान से मुक्त होकर अपनी पहचान बनाने की यह क़ीमत चुका रहा है शायद भारत।

मेरा ख्याल है कि पाकिस्तान में भारत के प्रति इस नए अमरीकी झुकाव को लेकर कोई आन्तरिक आन्दोलन न खड़ा हो जाय इसलिए भारत को यह कूटनीतिक गुलाटी मारनी पड़ी है।

बहुत सारे लोग देश की कूटनीति को शुद्ध ठकुरैती की नज़र से देखते हैं। घुस जाओ! खदेड़ दो! नेस्तओनाबूद कर दो! मगर देश ऐसे नहीं चलता। कूटनीति में न तो कोई स्थायी मित्र होता है न शत्रु। यहाँ तक कि कोई स्थायी नीति भी नहीं होती; होते हैं सिर्फ़ स्थायी हित।

बहुत सम्भव है कि भारत के वर्तमान कर्णधारों ने ये फ़ैसला इसलिए लिया हो कि मोहतरमा क्लिण्टन ऐसा कुछ दे रही हों जो इस गुलाटी से कहीं अधिक देश के लिए हितकारी हो!

देखें क्या दे के जाती हैं मिसेज़ क्लिण्टन!

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

अ सिविलाइज़्ड एण्ड डीसेन्ट सोसायटी

भारत ने कहा है कि पाकिस्तान शुड एक्ट अगेन्स्ट हाफ़िज़ सईद इफ़ इट इज़ अ सिविलाइज़्ड एण्ड डीसेन्ट सोसायटी। वेल सेड।

विडम्बना यह है कि यह बयान उस दिन आया है जब प्रोफ़ेसर सबरवाल की हत्या के सभी आरोपियों को सबूत के अभाव में अदालत द्वारा बाइज़्ज़त रिहा कर दिया गया। मुक्त हुए मुल्ज़िमों ने मालाएं पहनी, मिठाई चाभी और मुस्कुराहटें बिखेरीं।

क्या आप ने प्रोफ़ेसर सबरवाल की मौत से पहले उनकी पिटाई का वीडियो देखा था। मैंने देखा था.. मज़े की बात है अदालत के पास एक भी गवाह नहीं कोई सबूत नहीं।

अजीब बात है लाहौर हाई कोर्ट में भी यही दलील देकर हाफ़िज़ सईद को आज़ाद छोड़ दिया गया।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद

उदय प्रकाश से एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद की जा रही है बल्कि कुछ हद तक उन पर थोपी जा रही है। वे इस नैतिकता के थोपे जाने का विरोध करने के बजाय सामने वालों पर कीचड़ उछाल रहे हैं। हिन्दी साहित्य की दुनिया का जवाब नहीं।


मसला ये है कि उदय प्रकाश गोरखपुर के एक आयोजन में भाजपा के उग्र सांसद योगी आदित्यनाथ के साथ न केवल मंच पर बैठे वरन उनके हाथों सम्मान भी ग्रहण किया। सम्मान, बताया जा रहा है कि उदय जी के दिवंगत भाई के नाम पर है।


उदय जी का सारा साहित्य वामपंथी, प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित है। अब यह एक आम परम्परा बन चुकी है कि किसी भी साम्प्रदायिक, जातिवादी ‘आततायी’ संस्था या व्यक्ति के हाथों पुरस्कार को ठोकर मार दी जाय। अच्छी बात है। ऐसा करने वाले सभी कलावन्तों का मैं नमन करता हूँ। हालांकि ये स्वयं एक ऐसा मुकुट बन चुका है जिस के प्रति एक अभिलाषा पाली जा सकती है मुझे पुरस्कार मिला मगर मैंने ठोकर मार दी


मेरा मानना है कि जीवन और साहित्य दो अलग-अलग मामले हैं। उनमें एक साम्य अपेक्षित है पर सहज प्राप्य नहीं। जीवन ठोस और क्रूर है। साहित्य तरल और नरम है। उसमें वह बहुत कुछ व्यक्त हो सकता है जीवन जिस की राह में रोड़े अटका रहा हो। साहित्यकार समाज से हमेशा विद्रोह की मुद्रा में ही रहे यह सम्भव नहीं, वह बहुत सारे समझौते करेगा क्योंकि वह समाज का अंग है। क्रांतिकारी की बात अलग है। वह समझौतापरस्त जीवन को ठोकर मार देता है- मैं नकारता हूँ तुझे- वह एक नए समाज की निर्माण में लग जाता है।


जब तक उनके साहित्य में आपत्तिजनक रंग नहीं घुलने लगे या उनका साहित्य नक़ली और घटिया न हो जाय, हमें शिकायत क्यों होनी चाहिये? और जब होने लगे तो उन्हे बख्शना भी नहीं चाहिये। मैं पिछले दिनों उनकी एक फ़र्जी कविता पर अपनी निराशा व्यक्त कर ही चुका हूँ। इसलिए बहस उनके व्यक्तित्व के बजाय उनके कृतित्व पर होती तो बेहतर था।


दुनिया में आप के अनेको ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें बड़े-बड़े कलाकार अपने निजी जीवन में हिंसक, बदमिज़ाज, चोर यहाँ तक कि बलात्कारी भी हुए हैं। उदय प्रकाश ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। समाज में दूसरों के तुलना में अपने सम्मान और पुरस्कारो को लेकर एक विपन्न भाव से ग्रस्त रहना एक कलाकार का मनोगत दोष है।उदय प्रकाश जैसे सफल और मशहूर लेखक का स्वयं को लांछित और उपेक्षित महसूस करना खेदपूर्ण है पर ठीक है।


उदय जी को हम क्रांतिकारी के तौर पर नहीं जानते, साहित्यकार के बतौर पहचानते हैं। न जाने किन कारणों के दबाव में उन्होने योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेना स्वीकार किया। ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी होना क्या नैतिकता का सब से बड़ा पैमाना है?


और ये मान लेना भी बचकाना ही होगा कि तथाकथित ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी दुनिया में सफलता की सभी सीढ़ियाँ सुबह-शाम नैतिकता के गंगाजल से धो कर पवित्र रखी जाती हैं। आज कल के अखबारों और टीवी चैनलों के दौर में कौन अपनी चदरिया के कोरी होने का दावा कर सकता है? दिक़्क़त बस इतनी सी है कि उदय प्रकाश स्वयं दूसरों को गाली देते वक़्त इन्ही मापदण्डो का सहारा लेते हैं।


और एक दुख की बात ये भी है कि हम लोग बेहद असहिष्णु हो चुके हैं। किसी भी छोटी सी ग़लती को हम नज़रअंदाज़ करने को तैयार नहीं। मित्रों ने उदय प्रकाश पर जम कर आक्रमण किया मगर शालीन। पर देख रहा हूँ कि उदय जी आक्रमण से तिलमिलाकर अपनी शालीनता का विस्मरण कर बैठे। और उन्होने उलटा आरोप लगाया है कि उन की आलोचना करने वाले सभी लोग साम्प्रदायिक, जातिवादी और न जाने क्या क्या हैं।


इस तरह की होने वाली बहसों के दौरान मुझे ये बोध हुआ है कि आजकल किसी भी व्यक्ति की इज़्ज़त उतारनी हो तो उसे साम्प्रदायिक और जातिवादी की गाली दे दो। अच्छी बात यह है कि ये मूल्य असभ्यता का प्रतीक माने जा रहे हैं। अफ़सोस की बात ये है कि उदय प्रकाश जैसे साहित्य का शिखर कहे जाने वाले व्यक्ति के इस आरोप के मूल में वही असत्य और अश्लील भाव है जिसकी अभिव्यक्ति पहले माचो-बैंचो में होती थी अब ऐसे हो रही है।


सोमवार, 6 जुलाई 2009

एक छिलके में दो गिरियां

मुझे याद हैं वो दिन जब मैं और मेरा दोस्त बादाम के एक छिलके में दो गिरियों जैसे बने रहते। फिर अचानक हम बिछड़ गए। कुछ वक़्त बाद मेरा दोस्त लौटा और मुझ पर इल्ज़ाम धरने लगा कि मैंने उस दौरान कोई क़ासिद भी क्यों न भेजा। मैंने कहा कि जिस हुस्न से मैं महरूम हूँ उस पर किसी क़ासिद की नज़र क्यों पड़े?


न दे मुझे सलाहे ज़ुबानी कह दो मेरे यार से।

क्यूंकि तोबा करूँ ये होगा नहीं ज़ोरे तलवार से॥


देख नहीं सकता कि हो तू ग़ैर से रज़ामन्द।

मैं फिर कहता हूँ कि हो सबका मज़ा बन्द॥


तेरहवीं सदी के शाएर शेख सादी की यह लघुकथा समलैंगिक प्रेम पर आधारित है। गुलिस्तान में संकलित इस लघुकथा के आधार पर भले ये सिद्ध न हो कि शेख सादी लौंडेबाज़ थे मगर ये तो ज़रूर पता चलता है कि उनके काल में भी यह तथाकथित बीमारी मौजूद थी। वेश्यावृत्ति की तरह इसका भी इतिहास बड़ा पुराना है। बाईबिल के पुराने विधान में भी इसका ज़िक्र मिलता है। सोडोम नाम का एक शहर था (इसी के नाम से समलैंगिकता सोडोमी कहलाई), जिसके निवासी सलोनी लड़कियों के बजाय खूबसूरत लड़कों के लिए मचलते थे। बाईबिल घोषणा करती है कि ईश्वर ने उनके शहर पर बिजली गिरा कर उन्हे उनके अपराध की सजा दी।


बावजूद इस के तीनों अब्राहमपंथी धर्मावलम्बियों की परम्पराओं में इस बीमारी की उपस्थिति बनी रही। यहूदियों, योरोपीय ईसाईयों और अरब मुस्लिम और ग़ैर अरब मुस्लिम समाजों में समलैंगिकता अबाध रूप से चलती रही। इस रुझान के लोगों की सूची में तमाम बड़े-बड़े नाम हैं जिसमें लियोनार्दो दा विंची जैसे कलाकार और बाबर जैसे सेनानायक शामिल हैं। मैंने इस ब्लॉग पर पहले भी मीर के शौक़ के बारे में लिखा है-


मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब,
उसी अत्तार के लड़के से दवा लेते हैं।


ऐसी लौंडेबाज़ी को धर्म और नैतिकता तब भी नहीं स्वीकारती थी। मगर नसीब वाले थे मीर कि उनके समय इस तरह के रुझान अपराध नहीं थे। अंग्रेज़ो के आने के बाद लॉर्ड मैकाले ने क़ानून बना के इसे अपराध घोषित कर दिया। आज हमारे देश में अदालत के आदेश से यह सम्बन्ध अपराध नहीं रहा। इस कारण से बड़ा हो-हल्ला है। लोग नाराज़ हैं। संस्कृति और परम्परा, धर्म और नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं। उनका मानना है कि ये रुझान अप्राकृतिक है इसलिए निन्दनीय है। और समाज के लिए घातक है और इसीलिए आपराधिक है।


एक तर्क यह भी सुनने को मिलता है कि पशु ऐसा नहीं करते! वैसे यह पूरी तरह सच नहीं है कुछ पशु समलैंगिक व्यवहार प्रदर्शित करते पाए गए हैं। एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि ये लोग जो समलैंगिक सेक्स की आज़ादी चाहते हैं कल को पशुओं से सेक्स करने की भी इजाज़त माँगेंगे? मैं ऐसे लोगों के तर्कों के आगे ध्वस्त हो जाता हूँ। क्या कोई सचमुच इजाज़त माँग कर यह काम करता है। क्या कल तक इजाज़त न होने पर लोग समलैंगिक सेक्स नहीं कर रहे थे और आज आज़ादी मिल जाने पर मुफ़्तिया माल की तरह टूट पडेंगे?


क्या इन का सोचना यह है कि हर व्यक्ति के भीतर समलैंगिक सेक्स की ऐसी भयानक चाह है कि अपराध का डर हटते ही समाज में प्रेम का स्वरूप धराशायी हो जाएगा? बाबा रामदेव कहते हैं कि आदमी आदमी पर चढ़ने लगेगा तो बच्चे कैसे पैदा होंगे? यएनी बाबा मानते हैं कि लोग डण्डे के डर से मन मार के बैठे हैं? हास्यास्पद है ये सोच!


क्या आप ने ऐसे व्यक्ति नहीं देखे जो नर के शरीर में क़ैद नारी हैं और ऐसे भी जो नारी के शरीर में क़ैद नर हैं? ज़रूर देखें होंगे। पर मैं इस से अलग जा के एक और बात कहना चाहता हूँ- नर और नारी के चरित्र की यह श्रेणियां ही ग़लत हैं। यह वास्तविक नहीं कल्पित हैं। मानवीय गुण-दोषों की ये शुद्ध परिभाषाएं है। मगर वास्तविकता में कोई तत्व शुद्ध नहीं मिलता। शुद्ध तत्व प्रयोगशालाओं में अशुद्ध तत्वों से अलग कर के पाए जाते हैं। मेरी नज़र में तो ग़लत ये है कि नर-नारी के एक कल्पना की गई छवि के आधार पर लोगों के बारे में कोई फ़ैसला करे। फ़ैसला करे तो करे ये तो हद ही है कि फिर उन्हे आपराधिक घोषित करे? अब आप बताइये कौन प्राकृतिक है?


यह ठीक है कि मनुष्य के शरीर में यौन अंग प्रजनन के उद्देश्य से उपजे हैं। और यह बात भी तार्किक लगती है कि जो चीज़ जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई हो वो उसी उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाय। मगर प्रकृति ऐसा नहीं करती। प्रजनन के लिए एक शुक्राणु ही चाहिये होता है मगर प्रकृति उन्हे करोड़ो के संख्या में पैदा करती है। बबून के समूह में एक बंदर ही प्रजनन करता है मगर प्रकृति प्रजननांग सभी नर बंदरो को प्रदान करती है। पूछा जाना चाहिये कि प्रकृति हर चीज़ नाप-तौल के क्यों नहीं करती? और उद्देश्य के तर्क से घायल ये सारे लोग क्या अपना सारा यौनाचार प्रजनन के उद्देश्य से ही करते हैं?


समलैंगिकता प्रकृति के विरुद्ध है। चलिए माना। पर मनुष्य के जीवन में क्या और कुछ भी नहीं जो प्रकृति के विरुद्ध है? पका हुआ भोजन भी प्रकृति के विरुद्ध है। समलैंगिकता का विरोध करने वाले क्या मिर्च-मसाले छोड़ कर कच्चा भोजन खाना शुरु कर सकेंगे? ईंट-गारे की इमारतें, मोटरकार, और पैसा-रुपया भी तो प्रकृति के विरुद्ध है। और तो और कपड़े भी प्रकृति के विरुद्ध है। पश्चिम में एक ऐसा आन्दोलन है जो प्राकृतिक होने की ज़िद में ऐसे समुदाय बना के रहते हैं जिसमें कपड़ों का कोई इस्तेमाल नहीं। क्या समलैंगिकता के विरोधी कपड़े उतार के नंगे रहना पसन्द करेंगे क्योंकि ईश्वर ने हमें कपड़े पहना के नहीं भेजा?


और सबसे बड़ा प्रकृति का विरोधी तो धर्म है। प्रकृति तो किसी धर्म को नहीं मानती। वो न तो गाय खाने से मना करती है न सूअर खाने से। प्राणी जगत में तो हर जन्तु स्वतंत्र है उस पर कोई बन्दिश नहीं। और इस तर्क से तो मनुष्य पर इस तरह की बन्दिशें लगाने वाला धर्म आप ही अप्राकृतिक है। और समलैंगिको का अपने स्वभावाविक आकर्षण के प्रति जवाबदारी बरतना प्राकृतिक।


मैं मानता हूँ कि नैतिकता समाज को स्वस्थ रखने का एक बेहतर आचरण है। पर नैतिकता स्थिर तो नहीं रहती। देश-काल-परिस्थिति के सापेक्ष है। निरन्तर बदलती है।और धार्मिक दृष्टि से तो समलैंगिकता अभी भी अनैतिक है न! उसे अवैध बनाकर समलैंगिकों को निशाना क्यों बनाना चाहता है धार्मिक नेतृत्व? कहीं ये चोर की दाढ़ी में तिनके वाली बात तो नहीं?


प्रकृति का नियम है जहाँ पानी रोका जाय वहाँ दबाव सबसे तेज़ होता है। साथ ही मैंने अक्सर महसूस किया है कि धर्म और यौनाचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तंत्र कहता है कि दोनों एक ही ऊर्जा का उपयोग करते हैं। शायद इसीलिए दोनों में ऐसा ज़बरदस्त विरोध है। पर वो दूसरी बहस है।


अंत में इतना ही कहूँगा कि मनुष्य का स्वभाव, सामाजिक और धार्मिक नैतिकता से कहीं जटिल है और प्रकृति के अनन्त भाव मनुष्य के सामाजिक परिपाटियों से कहीं विराट है।


क्या आप जानते हैं कि किशोर डॉल्फ़िन्स वयस्कता पाने के पहले अन्य प्रजातियों के जन्तुओं के साथ यौनाचार के प्रयोग करते हैं?

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