सोमवार, 11 अप्रैल 2011

मधुर मिलन


अजीब दृश्य था। बेटी ज़ार-ज़ार रो रही थी। और माँ उसे अजनबियों की तरह घूर रही थी। बेटी कुछ चाह रही थी। और माँ उसे वो देने को तैयार नहीं थी। बेटी माँ को ग़ुस्से में नोच रही थी। माँ उसे चिढ़कर झटक रही थी। बेटी और भी ग़ुस्से में माँ से चिपट रही थी। माँ उसे थप्पड़ मार रही थी। बेटी ने रो-रो कर आसमान गुंजा दिया। अपने कान लाल कर लिए। गरदन की नसें फुला लीं। अजीब दृश्य था। पर कुछ भी अजीब नहीं था। सम्बन्ध जितना आत्मीय हो, हिंसा उतनी ही गहरी होती जाती है। न जाने क्या बात थी? न जाने बेटी क्या चाह रही थी? और न जाने क्यों माँ ऐसी निष्ठुर की तरह बरताव कर रही थी? शांति को देखकर कर बहुत बुरा लग रहा था। मगर माँ-बेटी के नाज़ुक रिश्ते के बीच दख़ल देना मूर्खता होती। तो शांति चुप रही। एअरक्राफ़्ट में मौजूद बा़की सभी लोग भी चुप ही रहे। ये घटना दो-तीन महीने पुरानी है।

पिछले हफ़्ते यही माँ-बेटी शांति की ऊपर वाली मंज़िल पर आकर रहने लगे। आते-जाते हलका-फुलका परिचय हो गया। बेटी का नाम अंकिता है। माँ का नाम सुनीता। पिता के अभी तक दर्शन नहीं हुए। पर रात-बिरात उनके फ़्लैट से चीख़ने-चिल्लाने की सदाएं, झटकने-पटकने के शब्द और रोने-सुबकने के सुर सुने जाते हैं। नए पड़ोसियों के घरेलू झगड़े का सोसायटी में हर जगह चर्चा है। अंकिता की अचरज से अच्छी दोस्ती हो गई है। और इसी बहाने थोड़ी-थोड़ी शांति से भी। अंकिता को सजने का बहुत शौक़ है।

एक रोज़ अंकिता आई तो अचरज नहा रहा था। तो बैठ गई पाखी के साथ और बतियाने लगी। शांति ने भी कुछ देर उसकी मीठी बातों का रस लिया। मगर उसका ध्यान दूसरी चीज़ों में उलझा था। अगली बार जब उसने अंकिता को देखा तो पाखी ने उसका पूरा नखशिख श्रंगार कर दिया था। आईलाइनर, लिपस्टिक, नेलपौलिश, मस्कारा वगैरह लगाकर अंकिता इतनी प्यारी लग रही थी कि शांति ने फ़ौरन उसकी कुछ तस्वीरें खींच डाली। और अंकिता की मुस्कान तो कानों तक जा रही थी। मानो उसकी सब मुरादें पूरी हो गई हों। बाद में जब सुनीता ने उसे देखा तो सब की उम्मीद थी कि वो भी अंकिता की सजधज देखकर आनन्दित होगी। मगर सुनीता तो जैसे चिढ़ गई और लगभग खींचते हुए उसे ऊपर ले गई। उनके आंखों से ओझल हो जाने के बाद अंकिता के रोने की आवाज़ आने लगी। एक ख़ुशहाल बच्चे को बेवजह रुलाने के लिए सुनीता के ख़िलाफ़ शांति के मन में एक क्रोध का उबाल आया। पर शांति ने उस पर दुनियादारी और समझदारी के छींटे मारे और दरवाज़ा बंद कर लिया।

अगली शाम को जब शांति घर लौटी तो घबराई हुई सुनीता उसके दरवाज़े पर थी। उसके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी। साथ ही ग़ुस्से और खीज ने उसके चेहरे को और भी जटिल बना रखा था। वो अंकिता को तलाश रही थी। अंकिता घर पर नहीं थी। अचरज भी नहीं था। वो नीचे खेल रहा था। और अंकिता उसके साथ नहीं थी। शांति और सुनीता ने हर मुमकिन जगह पर अंकिता को खोज डाला मगर अंकिता नहीं मिली। तरह-तरह के ख़्याल उनके मन को ग्रसने लगे। कहीं कोई उठा न ले गया हो? कहीं कोई दुर्घटना न हो गई हो? या रूठकर तो नहीं चली गई?

शांति ने पूछा कि क्या उसने डाँटा था अंकिता को किसी बात पर? सुनीता चुप रह गई। शांति का मन तो किया कि कस कर ख़बर ले सुनीता की। पर उसका चेहरा एक बंद दरवाज़े की तरह था जिस पर कोई बड़ा बेडौल ताला पड़ा हो। हर विचार और भाव को अस्वीकार करता हुआ। शांति को नहीं पता था कि सुनीता की अंकिता के पापा के साथ क्या मुश्किलें थीं। मगर उस चेहरे के साथ कुछ भी सुलझना लगभग असम्भव मालूम दिया शांति को। कहने को बहुत कुछ था शांति के पास मगर वो जानती है कि उलटे भगोने में कुछ भी डालना मूर्खता है। वो चुप रह गई। सुनीता ही गरम होती रही। अपना रोना रोती रही। जैसे-जैसे समय बीता उसकी गरमी पिघल कर आँसुओं में टपकने लगी।

दोनों ने सोसायटी में सब जगह देख लिया। फिर पुलिस में फोन किया। उन्होने थाने आकर रपट लिखाने को कहा। वहाँ के लिए स्कूटर निकालते हुए अचानक शांति को अपने बचपन की एक घटना याद आई। शांति ने सोसायटी से बाहर निकलकर अपना स्कूटर सामने वाले पार्क के सामने रोक दिया। सुनीता का हाल बुरा हो चला था। उसे बाहर ही बिठाकर शांति अन्दर गई। जैसी कि शांति की उम्मीद थी, अंकिता वहीं थी। एक आईसक्रीम वाले के ठेले के पास पेड़ से टिककर बैठी थी। अंधेरा घिर आने से उसे अंकिता के गालों पर आँसुओं के बहकर जाने के निशान नहीं दिखाई दिए। शांति हौले से अंकिता के बगल में बैठ गई। अंकिता न घबराई न मुसकराई। अपने दुख में बने-बने ही शांति की मौजूदगी को एक नज़र से दर्ज़ किया। और सर झुका लिया। दो पल की चुप्पी के बाद शांति ने पूछा।

क्या बात हो गई?
मैंने घर छोड़ दिया!
क्यों?
मुझसे कोई प्यार नहीं करता..
पापा भी नहीं?
नहीं। अगर करते तो मेरे बर्थडे के दिन बाहर क्यों चले जाते?
हम्म.. अब क्या करोगी?
पता नहीं..
तुम्हारे बिना मम्मी तो बहुत रोएगी..
रोने दो! जब मैं नहीं रहूंगी तब पता चलेगा उसे..
उसको पता चल गया.. वो बहुत रो रही है..
अच्छा?!
हाँ.. देखोगी?
अंकिता एक पल को हिचकी।
दूर से..?

इस पर अंकिता राज़ी हो गई और उठ गई। शांति ने उसका हाथ पकड़ना चाहा। मगर अंकिता ने शायद इस डर से छुड़ा लिया कि कहीं उसके साथ कोई ज़बरदस्ती न हो जाय। शांति ने कोई प्रतिक्रिया न की। दो-चार क़दम चलने के बाद अपने आप शांति की उंगलियों के गिर एक नन्हा हाथ लिपट गया। दोनों चलकर पार्क की उस दीवार तक गए जिस के पार फ़ुटपाथ पर सुनीता बैठी थी। स्ट्रीट लाइट की भगवा रौशनी में उसका धीरे-धीरे फफकना दूर से भी दिख रहा था। अंकिता ने दूर से अपनी माँ को रोते हुए देखा। शांति ने देखा कि अंकिता को अपनी माँ का रोना देखकर सुकून मिल रहा था। वो रोना सबूत था कि उसकी माँ के दिल में अंकिता के लिए प्यार है। उसका आत्मविश्वास लौट आया और वहीं से उसने आवाज़ दी- मम्मी। सुनीता ने दौड़कर उसे चिपटा लिया। दोनों के मधुर मिलन के बीच पार्क की दीवार की सलाखों के अलावा भी बहुत कुछ उलझा हुआ था। जो आगे की ज़िन्दगी में पसरने वाला है। उस रात ऊपर के फ़्लैट से न तो चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आई ना रोने-सुबकने की।    

बाद में एक रोज़ सुनीता ने शांति से पूछा कि उसे कैसे पता चला कि अंकिता पार्क में होगी? शांति ने बताया कि कभी वो भी घर से भागी थी। मुझे भी कभी लगा था कि मेरे माँ बाप मुझ से बिलकुल प्यार नहीं करते तो मैं घर छोड़कर चली गई। और गोलगप्पे के ठेले के पास बैठी रही।
गोलगप्पे?

मुझे बहुत पसन्द थे। गोलगप्पे वाला मुझे पहचान गया। पहले तो गोलगप्पे खिलाए और बाद में मेरे घरवालों को ख़बर कर दी। वो सोच रहे थे कि मैं खो गई हूँ। पर मैं नहीं खोई थी। वो खो गए थे। जब मैं भागी तो वो मिल गए। सुनीता ने सुना और दूसरी ओर देखने लगी।

***

(१० अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपा)  

5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सम्बन्ध जितना आत्मीय हो, हिंसा उतनी ही गहरी होती जाती है।

हिंसा का मानवीय पहलू, गाँधी बाबा आप से रूठ जायेंगे।

अपने लिये बहे आँसू गज़ब ढा देते हैं, हिंसा से भी अधिक हिंसात्मक।

अजय कुमार झा ने कहा…

पर मैं नहीं खोई थी। वो खो गए थे। जब मैं भागी तो वो मिल गए।”..................अब भी यही शब्द सनसना रहे हैं ..और शायद सदियों तक सनसनाते रहेंगे ..

मीनाक्षी ने कहा…

कहानी...शायद किसी का सच ..मर्मस्पर्शी ...

" चेहरा एक बंद दरवाज़े की तरह था जिस पर कोई बड़ा बेडौल ताला पड़ा हो।" जब ऐसा होता है तो एक छटपटाहट भी होती है..

विष्णु बैरागी ने कहा…

'सम्बन्ध जितना आत्मीय हो, हिंसा उतनी ही गहरी होती जाती है।' यह तो प्रेम का समूचा जीवन दर्शन है।

उन्मुक्त ने कहा…

Touching

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