एक हफ़्ते से सब जगह युद्ध का माहौल बना हुआ है। अख़बार में, टीवी पर, दफ़्तर में, सड़कों पर, हर मुमकिन जगह पर पीट देने, तोड़ देने, पटक देने और ऐसी ही दूसरी अन्य क्रियाओं की गूँज बनी हुई है। किसी ने तो इसे युद्ध, महायुद्ध, जंग, संग्राम, आर-पार की लड़ाई जैसे शब्दों जो भेदकर भारत-पाक चौथा युद्ध तक कह डाला। शांति को क्रिकेट से कोई दिलचस्पी नहीं है। क्रिकेट का नाम सुनकर ही उसे चिढ़ होने लगती है। और जहाँ क्रिकेट की बात होती हो वहाँ शांति नहीं रुकती। उसका सर पकने लगता है। एक ही बेमतलब की बात पर कोई कैसे इतनी देर तक बात कर सकता है। जबकि उस बात से न तो जीवन में कुछ बनने वाला है और न बिगड़ने वाला है। मगर लोग हैं कि जीत पर ऐसे उछलने लगते हैं जैसे उनकी लौटरी खुल गई हो। और हार पर ऐसे मायूस हो जाते हैं जैसे कोई अपना रुख़सत हो गया हो। शांति अक्सर अपने आप से पूछती है कि ऐसे खेलना क्या ज़रूरी है? खेल को खेल ही रहने दो.. युद्ध क्यों बनाते हो?
अजीब माहौल है दफ़्तर का। दोपहर के डेढ़ बजे हैं और ऐसा लगता है जैसे साढ़े पाँच बज रहे हों। पूरे हौल में बमुश्किल चार-पांच लोग हैं। शांति ने सोचा कि बौस देखेंगे तो बहुत ग़ुस्सा करेंगे। मगर उसी पल में बौस भी पलायन करते नज़र आए। जाते-जाते शांति को भी घर जाने की सलाह दे गए। सड़कों का हाल बुरा है। वहाँ पर भी साढ़े पाँच-छै बज रहे हैं। सबको घर जाने की जल्दी है। अजय शांति से पहले घर पहुँचकर टीवी के सामने अपनी जगह जमा चुका है। और अकेला नहीं है। उसके साथ उसके तीन दोस्त भी आसीन हैं। और युद्ध की इस गरमी में तरावट बनाए रखने के ठंडी बीयर भी उनके साथ है।
सासू माँ अपने कमरे में अपने टीवी पर सीरयलों की दुनिया में मगन रहते हुए भी क्रिकेट के बुख़ार की ज़द में आ चुकी थीं। लगातार कुढ़ रही थीं क्रिकेट से। और कोस रही थीं उन सबको जिन्होने क्रिकेट को जुनून बना रखा है। अजय के तीन दोस्तों में से एक दोस्त को सर्दी है। हर तीसरे मिनट पर उसे उठकर बेसिन तक कफ़ से मुक्ति पाने जाना पड़ रहा है। शांति की समझ से बेहतर तो होता कि वो घर जाकर आराम करता। मगर मेहमान से घर जाने को कहना बेअदबी होती। अजय और उसके बाक़ी दोस्त उसे गर्म पानी में रंगीन पानी मिलाकर पीने की नेक सलाह देते रहे। मगर उठकर दवा लेने कोई नहीं गया। घर में आ गए जंगजुओं से बचने के लिए दवा लेने गई शांति।
सड़क पर कुत्ते भूंक रहे थे। शांति ने सोचा कि अगर कुत्तों को भी क्रिकेट में दिलचस्पी होती तो सड़क का सन्नाटा पहाड़ों की चुप्पी से होड़ ले सकता था। दवा की दुकान पर भी क्रिकेट चल रहा था। जो शहर शांति को हर रोज़ अपनी बदसूरती और बेसुरेपन के लिए अखरता है। आज वही अपने खुले-खुले सन्नाटे में बड़ा रुचने लगा। शांति का मन किया कि वहीं दवा की दुकान के सामने, महुवे के पेड़ के नीचे जो थोड़ी हरी-पीली घास है, उस पर बैठ जाय कुछ पल। और शहर के अन्दर जो जीवन अचानक सांस लेता हुआ लग रहा है उसे अपने अन्दर बहने दे और देर तक वहीं रहने दे। शांति शायद धूप की परवाह न करते हुए भी घंटे-दो घंटे वहीं बैठी रहती। मगर उसे याद आई उस मरीज़ की जिसकी दवा लेने वो आई है। और वो स्कूटर उठाकर वापस घर को लौट गई।
अजय के दोस्त को दवा दे दी। मगर उसकी बीमारी कुछ और थी। जिसके असर में उसका बुख़ार तब तक बढ़ता रहा जब तक कि भारत जीत नहीं गया। उसके पहले तक वो और बा़की भी, कई उबालों से गुज़रते रहे। भारत के पक्ष में और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मचलते रहे। ऐसा लगता था जैसे एक उन्माद उनके रगों से होकर बह रहा हो। शांति ने सोचा कि अब थोड़ी राहत होगी मगर शोरोगुल थमा नहीं, बढ़ता ही रहा। देर तक पटाखे फूटते रहे। नारे गूंजते रहे। सुबह अख़बार और टीवी में वही ख़बरें थीं। मगर उन्माद हवा हो गया था। यहाँ तक कि उन्ही उन्मादियों में से कुछ लोग पाकिस्तान के लिए अफ़सोस और अफ़रीदी की तारीफ़ करते हुए भी पाए गए। शांति को यह देख बड़ी हैरत हुई।
दफ़्तर में भी लोग गोल बनाकर कल की जीत के जोश में फूले नहीं समा रहे हैं। लेकिन मिश्रा जी का सुर कुछ अलग है। उन्होने क्रिकेट को इस तरह की तवज्जो दिए जाने के अपनी आवाज़ बुलन्द की। उन्होने कहा, “क्रिकेट से क्या हासिल होता है। ये सिर्फ़ लोगों को बहकाता है। भ्रष्टाचार और अत्याचार जैसी मुख्य समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाता है। ये जनता की अफ़ीम है। अगर जनता को जागना होगा तो क्रिकेट और ऐसे किसी भी भुलावे से छुटकारा पाना ही होगा।” मिश्रा जी ने अपनी ज्ञान की जड़ियाँ हवा में उछाल दी। अच्छे-अच्छे क्रिकेट के जुनूनियों की ज़ुबान भी उस जड़ी के आगे अकड़ गई।
शांति को मिश्रा जी की राय में न तो कोई दिलचस्पी रही है और न ही उस फ़ुज़ुल की जुगाली में हिस्सा लेने की कोई हसरत। मगर मिश्रा जी ने शांति का नाम लेकर उसे जबरन अपने पक्ष में खींचने की कोशिश की, “क्यों शांति जी, आप क्या कहती हैं..?”
उन्होने सोचा होगा कि शांति क्यों भला क्रिकेट के जुनूनियों के पक्ष में बोलने लगी। मगर ठीक उसी वक़्त शांति के ज़ेहन में पिछले दिन लोगों से ख़ाली सड़क, और अगले दिन ख़बरों से ख़ाली अख़बार ने साथ आकर एक अजब सोच पैदा की। और शांति को अचानक क्रिकेट का एक उजला पहलू दिखने लगा, “मेरे ख़याल से मैच अच्छे हैं..”
“अच्छा?!” मिश्रा जी को एक पल को तो यक़ीन नहीं हुआ कि शांति भी ऐसा कह सकती है।
“क्यों भला?”
“मैच होता है तो लोग बिज़ी रहते हैं.. कुछ देर के लिए अपनी मुश्किलों को भूल जाते हैं..”
“और उसके लिए लड़ना भी भूल जाते हैं..” मिश्रा जी को अपनी बात पर ज़ोर देने का मौक़ा मिल गया।
“लड़ाई भी तरीक़े से लड़ी जानी चाहिये.. क्रिकेट हो या कोई भी खेल हो.. आपको एक सलीक़ा सिखाता है.. और नौजवानों में जो बहुत सारी ऊर्जा होती है उसका सही इस्तेमाल भी कराता है.. जब वही ऊर्जा कहीं ख़र्च नहीं होती तो तोड़फोड़ और मारपीट में निकलती है.. इसीलिए मैं कहती हूँ कि मैच अच्छे हैं!” शांति ने कहा।
“मैच क्या पूरा युद्ध हो रहा है और आप कह रही हैं मैच अच्छे हैं..?”
“कल तक मैं भी यही सोच रही थी कि ये सारे टीवी वाले पागल हो गए हैं.. क्रिकेट के एक मैच को इन्होने भारत-पाक के युद्ध में बदल दिया.. मगर आज मुझे लग रहा है कि एक आम आदमी के दिल में पाकिस्तान के लिए जितनी नफ़रत कल थी.. आज उस से कम है..”
“कम है क्योंकि हम मैच जीत गए.. अगर ग़लती से हार जाते तो..”
“तो भी हार का बदला लेने की बात खेल के मैदान में ही होती न कि युद्ध के मैदान में.. युद्ध से तो युद्ध जैसे मैच ही अच्छे हैं..”
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6 टिप्पणियां:
ऐसा है तो मैच अच्छे हैं।
शांति की बात से एकदम सहमत ..रणभूमि में लड़ने से खेल के मैदान में लड़ना बहुत बेहतर है.
पढ़ कर एकदम लगा तो अजीब सा -पर बात में तत्व है !
अच्छा लिखा है! खेल को खेल की तरह ही लिया जाना चाहिये। लेकिन मीडिया की भी अकल की सीमा है! :)
विचार अच्छे हैं....
रोचक प्रस्तुति
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