दुनिया भर में फैले हुए प्रवासी भारतीय हिन्दुओं को यदि उन देशों के बहुसंख्यक लोग गोमांस खाने पर मजबूर करने लगे तो उन्हे कैसा लगेगा। यदि वो अपनी मरजी से ऐसा करते हैं तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी लेकिन यदि उन पर यह बाध्य कर दिया जाय कि यदि उस देश में रहना होगा तो गोमांसाहारी बनना होगा तो उन को कैसा महसूस होगा और आप को कैसा महसूस होगा? *
भारत में मुसलमान तेरह चौदह सौ साल से रह रहे हैं। कोई भारतीय मुसलमान विदेशी नहीं है, इस भूमि पर उसका भी इतना ही हक़ है जितना कि किसी और का। वे अपने वतन को किस तरह से प्यार करेंगे और किस तरह उसका प्रदर्शन करेंगे यह तय करने वाला कोई और नहीं वे खुद होंगे। यदि कोई दीनी तंजीम यह तय करती है कि यह गीत उनके धर्म के आड़े आता है और वे वन्दे मातरम का गान नहीं करना चाहते तो इसमें किसी को ऐतराज़ कैसा?
यह गीत देशभक्ति का कोई पैमाना नहीं है। देशभक्ति की आड़ में देशवासियों से नफ़रत करना यह कैसी नीति है? इस गीत को गाने से या न गाने से देश का क्या हानि-लाभ हो जा रहा है? यह कोई मुद्दा ही नहीं है। इस बात पर विवाद करना वितण्डा खड़ा करना और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने की साज़िश है।
हर धार्मिक व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं होता, जैसे कि हर साम्प्रदायिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता (आडवाणी जी इस का सबसे बड़ा प्रमाण हैं)।
वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देने वाले पहले देश के लोगों के साथ कुटुम्ब के सदस्यों के तौर पर सम्मान करना सीखें, ये हिटलरी नीति छोड़ें और विचारों और मान्यताओं के वैविध्य के लिए जगह बनाएं।
(जन गण मन और वन्दे मातरम पर यहाँ और पढ़ें!)
* यह प्रवासी का उदाहरण इसलिए दिया है कि वे भारत में बहुसंख्यक और किसी भी अन्य देश में पहले प्रवासी है फिर अल्पसंख्यक।
रविवार, 8 नवंबर 2009
शनिवार, 7 नवंबर 2009
फ़ूको बनाम चॉम्स्की
फ़ूको : बजाय सामाजिक संघर्षों को ‘न्याय’ की दृष्टि से समझने के, हमें न्याय को सामाजिक संघर्ष के नज़रिये से देखना चाहिये ..
.. सर्वहारा शासक वर्ग के खिलाफ़ इसलिए युद्ध नहीं छेड़ता क्योंकि ये एक इंसाफ़ की लड़ाई है। सवर्हारा शासक वर्ग के विरुद्ध युद्ध करता है क्योंकि, इतिहास में पहली बार, वह सत्ता हथियाना चाहता है। और क्योंकि वो शासक वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंकेगा इसलिए वह इस लड़ाई को न्यायपूर्ण समझता है।
चॉम्स्की : मैं सहमत नहीं हूँ।
फ़ूको : आदमी लड़ाई जीतने के लिए लड़ता है, न्याय के विचार से नहीं।
चॉम्स्की : निजी तौर पर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ।
मिसाल के तौर पर, अगर मुझे लगता है कि सर्वहारा के द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़े से एक आतंकवादी पुलिस राज्य का जनम होगा जिसमें आज़ादी और सम्मान और मानवीय सम्बन्धों की गरिमा नष्ट हो जाएगी, तो मैं नहीं चाहूँगा कि सर्वहारा सत्ता में आए। असल में, ऐसा चाहने के पीछे का एकमात्र कारण, मेरे मत से, यह है कि आदमी सोचता है, सही या ग़लत, कि ऐसे सत्ता परिवर्तन से कुछ मूलभूत मानवीय मूल्य हासिल किए जा सकेंगे।
फ़ूको : जब सर्वहारा सत्ता हासिल करता है, तो बहुत मुमकिन है कि सवर्हारा जिन वर्गो पर विजयी हुआ है, उनके प्रति एक हिंस्र, तानाशाही भरी और खूनी ताक़त का इस्तेमाल करे। मैं नहीं समझ पाता कि इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है।
लेकिन अगर आप मुझ से पूछें कि वे कौन से हालात होंगे कि सर्वहारा एक हिंस्र, तानाशाही भरी और खूनी ताक़त का इस्तेमाल करे, तो मैं कहूँगा कि यह तभी सम्भव है जब कि सत्ता सर्वहारा के हाथ में आई ही नहीं, बल्कि सर्वहारा से बाहर का कोई वर्ग, सर्वहारा के भीतर का कोई दल, किसी तरह की नौकरशाही या मध्यवर्ग (पेटी बुर्ज़ुआ) के तत्वों ने सत्ता हथिया ली है।
चॉम्स्की : मैं आप की क्रांति की अवधारणा से कई ऐतिहासिक और दूसरे भी कारणों से ज़रा भी मुतमईन नहीं हूँ। मगर फिर भी यह मान लिया जाय, तर्क के लिए, कि अवधारणा के अनुसार यह सही है कि सर्वहारा सत्ता हथिया ले और उसका अन्यायपूर्ण तरीक़े से खूनी और हिंस्र प्रयोग करे, क्योंकि यह दावा किया गया है, जो कि मेरी समझ से ग़लत दावा है, कि ऐसा करने से एक अधिक न्यायपूर्ण समाज बनेगा, जिस समाज में राज्य का विलोप हो जाएगा, सर्वहारा एक सार्वभौमिक वर्ग होगा, और न जाने क्या-क्या। गर यह न्यायसंगत उद्देश्य न हो, तो सर्वहारा की इस तरह की हिंस्र और रक्तरंजित तानाशाही निश्चित ही अन्याय होगी। अब यह अन्य मामला है कि मुझे इस हिस्र और रक्तरंजित तानाशाही के विचार के प्रति बहुत शंकाएं हैं, खासकर तब जब कि वो किसी हिरावल पार्टी के स्वनियुक्त प्रतिनिधि की तरफ़ से आएं, जो, हम एक लम्बे ऐतिहासिक अनुभव से पहले से ही जानते हैं, कि इस ‘नए’ समाज पर नए शासक होंगे।
(१९७१ में फ़ूको और चॉम्स्की के बीच एक बहस का अंश)
पू्री बहस यहाँ पर पढ़ें या यहाँ देखें।
.. सर्वहारा शासक वर्ग के खिलाफ़ इसलिए युद्ध नहीं छेड़ता क्योंकि ये एक इंसाफ़ की लड़ाई है। सवर्हारा शासक वर्ग के विरुद्ध युद्ध करता है क्योंकि, इतिहास में पहली बार, वह सत्ता हथियाना चाहता है। और क्योंकि वो शासक वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंकेगा इसलिए वह इस लड़ाई को न्यायपूर्ण समझता है।
चॉम्स्की : मैं सहमत नहीं हूँ।
फ़ूको : आदमी लड़ाई जीतने के लिए लड़ता है, न्याय के विचार से नहीं।
चॉम्स्की : निजी तौर पर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ।
मिसाल के तौर पर, अगर मुझे लगता है कि सर्वहारा के द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़े से एक आतंकवादी पुलिस राज्य का जनम होगा जिसमें आज़ादी और सम्मान और मानवीय सम्बन्धों की गरिमा नष्ट हो जाएगी, तो मैं नहीं चाहूँगा कि सर्वहारा सत्ता में आए। असल में, ऐसा चाहने के पीछे का एकमात्र कारण, मेरे मत से, यह है कि आदमी सोचता है, सही या ग़लत, कि ऐसे सत्ता परिवर्तन से कुछ मूलभूत मानवीय मूल्य हासिल किए जा सकेंगे।
फ़ूको : जब सर्वहारा सत्ता हासिल करता है, तो बहुत मुमकिन है कि सवर्हारा जिन वर्गो पर विजयी हुआ है, उनके प्रति एक हिंस्र, तानाशाही भरी और खूनी ताक़त का इस्तेमाल करे। मैं नहीं समझ पाता कि इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है।
लेकिन अगर आप मुझ से पूछें कि वे कौन से हालात होंगे कि सर्वहारा एक हिंस्र, तानाशाही भरी और खूनी ताक़त का इस्तेमाल करे, तो मैं कहूँगा कि यह तभी सम्भव है जब कि सत्ता सर्वहारा के हाथ में आई ही नहीं, बल्कि सर्वहारा से बाहर का कोई वर्ग, सर्वहारा के भीतर का कोई दल, किसी तरह की नौकरशाही या मध्यवर्ग (पेटी बुर्ज़ुआ) के तत्वों ने सत्ता हथिया ली है।
चॉम्स्की : मैं आप की क्रांति की अवधारणा से कई ऐतिहासिक और दूसरे भी कारणों से ज़रा भी मुतमईन नहीं हूँ। मगर फिर भी यह मान लिया जाय, तर्क के लिए, कि अवधारणा के अनुसार यह सही है कि सर्वहारा सत्ता हथिया ले और उसका अन्यायपूर्ण तरीक़े से खूनी और हिंस्र प्रयोग करे, क्योंकि यह दावा किया गया है, जो कि मेरी समझ से ग़लत दावा है, कि ऐसा करने से एक अधिक न्यायपूर्ण समाज बनेगा, जिस समाज में राज्य का विलोप हो जाएगा, सर्वहारा एक सार्वभौमिक वर्ग होगा, और न जाने क्या-क्या। गर यह न्यायसंगत उद्देश्य न हो, तो सर्वहारा की इस तरह की हिंस्र और रक्तरंजित तानाशाही निश्चित ही अन्याय होगी। अब यह अन्य मामला है कि मुझे इस हिस्र और रक्तरंजित तानाशाही के विचार के प्रति बहुत शंकाएं हैं, खासकर तब जब कि वो किसी हिरावल पार्टी के स्वनियुक्त प्रतिनिधि की तरफ़ से आएं, जो, हम एक लम्बे ऐतिहासिक अनुभव से पहले से ही जानते हैं, कि इस ‘नए’ समाज पर नए शासक होंगे।
(१९७१ में फ़ूको और चॉम्स्की के बीच एक बहस का अंश)
पू्री बहस यहाँ पर पढ़ें या यहाँ देखें।
बुधवार, 4 नवंबर 2009
खरगोश : नारेबाज़ी नहीं कला
एक खुशखबरी यह है कि मेरे मित्र परेश कामदार की फ़िल्म खरगोश को ओसियान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में पुरस्कार मिल गया है। और एक नहीं चार पुरस्कार मिल गए हैं: ज्यूरी पुरस्कार, अन्तर्राष्ट्रीय क्रिटिक पुरस्कार, ऑडियेन्स पुरस्कार, और नेटपैक पुरस्कार। किसी भी फ़िल्म के लिए चार अलग-अलग ज्यूरी के दिलों में अपनी जगह बनाना आसान नहीं होता, खरगोश ने यह करिश्मा कर दिखाया है।
कथाकार प्रियंवद की कहानी पर बनी यह फ़िल्म के केन्द्र में एक दस बरस के बच्चे की दुनिया और उसका नज़रिया है। उसके दुनिया में माँ है, उसके अध्यापक हैं, स्कूल है, सहपाठी हैं, एक कठपुतली वाला है, मोहल्ले की गलियाँ हैं, पीछे के खेत और खेतों के पार का जंगल है, मन के भीतर एक और बड़ा जंगल है, और सबसे बढ़कर उसके घर में किरायेदार भैया है, उनकी मोटरसाइकिल है, और मोहल्ले की छतों के आर-पार संचालित होने वाला प्रेम और उसका लक्ष्य नायिका - भैया की प्रेमिका है। मासूम बच्चा इन दो नौजवानों के प्रेम का क़ासिद बनता है और जाने कब से क़ासिद से रक़ीब की हैसियत में आने लगता है, उसे खुद पता नहीं लगता। एक तरह से यह एक बच्चे के भीतर काम के प्रस्फुटन का कलात्मक लेखा है।
खरगोश परेश भाई की तीसरी फ़िल्म है। इसके पहले वे एन एफ़ डी सी के प्रायोजन से टुन्नु की टीना और जुगाड़े हुए स्रोतों व दोस्तों-यारों के प्रायोजन से 'जॉनी-जॉनी येस पापा' बना चुके हैं। टुन्नु की टीना ने बर्लिन तक का सफ़र भी किया, और दूरदर्शन के छोटे पर्दे पर भी उसे जगह मिली। जॉनी-जॉनी येस पापा इतनी भाग्यशाली नहीं रही, तीन-चार साल से बन कर तैयार है लेकिन अभी तक वितरण नहीं हो सका है। परेश भाई एफ़ टी आई आई ने सम्पादन में डिप्लोमा हासिल किया है और कुमार शाहणी के साथ भी काम करते रहे हैं, बाद के वर्षों में टी वी पर सीरियलों का निर्देशन भी किया। लेकिन अच्छी बात ये रही कि बावजूद पैसे के लालच के टीवी की दुनिया में रमे नहीं और कला का जोखिम उठाया। (आजकल कला का जोखिम महज़ अभिव्यक्ति का ही जोखिम नहीं, अस्तित्व का जोखिम भी बनता है) उनकी पत्नी और मेरी सहपाठी रह चुकीं गज़ाला नरगिस ने भी उन्हे इस राह पर बढ़ चलने के लिए उत्साहित बनाए रखा। उनके सहयोग के बिना यह सफ़र बहुत मुश्किल हो सकता था। और धन्यवाद है ऋषि चन्द्रा जैसे निर्माता को जिसने परेश जी को अपनी समझ से एक अच्छी फ़िल्म बनाने की पूरी आज़ादी दी।
फ़िल्म पिछले वर्ष ही बन कर तैयार हो गई थी और मुम्बई में हुए तमाम ट्रायल शो में से एक ट्रायल में मैंने भी इसका आस्वादन किया। इस तरह की फ़िल्में भारत में कम ही बनी हैं और सन अस्सी के बाद तो बिलकुल ही नहीं बनीं। असल में समान्तर सिनेमा के नाम पर भारत में जो सिनेमा बनाया गया वह मोटे तौर पर सामाजिक सच्चाई का सिनेमा था। सिनेमाई कला की बरीक़ियों का अनुसंधान और संधान करने वाले सिनेमा के साधक कम ही रहे। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और बिमल राय, कला और सामाजिक सच्चाई को संतुलित करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे कला पिछड़ती गई और जिसे कथ्य कहा जाता है उसकी धार भोथरी होती गई। (बहुत लोग मानते हैं कि शिल्प और कथ्य दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं, पर इस मसले पर मैं गोदार का मुरीद हूँ जो मानते थे कि कथ्य शिल्प की अन्तर्वस्तु है और शिल्प कथ्य का आवरण)
मुख्यधारा के सिनेमा ने ही सामाजिक परिवर्तन को एक मसाले की तरह अख्तियार कर लिया और अगर आप भूले न हो तों मेरी आवाज़ सुनो, आज का एम एल एल राम अवतार, इंक़िलाब, अंकुश, प्रतिघात आदि फ़िल्में इसी अन्दाज़ की फ़िल्में थीं। मणि कौल और कुमार शाहणी ने ही कलात्मक सिनेमा के महीन परचम की झण्डाबरदारी की लेकिन वह नदी नब्बे आते-आते तक सूख गई। कला के जोखिम से भरी एक अनोखी फ़िल्म कमल स्वरूप की ओम दरबदर भी अस्सी के दशक के नारेबाज़ों का शिकार हुई थी जिसे तब के ‘सचेत’ बुद्धिजीवियों ने इसलिए नकार दिया क्योंकि उसमें सामाजिक सच्चाईयों का कोई प्रगतिशील संदेश उन्हे नहीं मिल सका; आज कला के भूखे लोग खोज-खोज के वो फ़िल्म देखने के लिए मचलते हैं।
नब्बे और नई सदी के वर्षों में प्रयोग तो कई हुए पर कामयाब कम हुए। लगभग टीवी के जन्म और नई आर्थिक नीति के समान्तर ही समान्तर सिनेमा की मृत्यु हो गई। मल्टीप्लेक्स फ़िल्मों का उदय हुआ, फ़िल्मों में बड़े तकनीकि विकास हुए मगर कलात्मक विकास पिछड़ता रहा। खरगोश इन अकाल वर्षों में वर्षा की पहली फुहार की तरह हैं, उस ज़मीन पर जहाँ सिनेमाई प्रयोग के नाम पर लोग शुद्ध नक़ल, योरोपीय सिनेमा और अमरीकी इन्डेपेन्डेन्ट सिनेमा को हिन्दी की बोतल में ढाल कर पेश करने के आगे जाने से क़तराते रहे हों। खरगोश पर सिनेमा की ईरानी परम्परा का प्रभाव ज़रूर दिखता है पर किसी फ़िल्म का नहीं ज़रा नहीं।
फ़िल्म को विदिशा और महेश्वर की पुरानी क़स्बाई दुनिया में फ़िल्मांकित किया गया है। उसका भूगोल बच्चे की मानसिक दुनिया का भूगोल बनता है दरअसल। विवेक शाह का कैमरा और मनोज सिक्का का ध्वनि संयोजन दोनों फ़िल्म की अंतरंगता के माध्यम हैं। जैसा कि पुरस्कारों की झड़ी से ही ज़ाहिर है कि ओसियान में लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। मेरी उम्मीद है कि यह सफलता परेश भाई को आगे तमाम ऐसी और फ़िल्में बनाने के रास्ते साफ़ करेगी और उनके दर्शक इस फ़िल्म की कला से अभिभूत होकर इस परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। विशेषकर इस तथ्य की रौशनी में कि आजकल सामाजिक संदेश को प्रसारित करने का बीड़ा मनोरंजन टीवी ने अपने हाथ ले लिया है, और सिनेमा की ज़मीन का संकट गहरा गया है.. या शायद ये बेहतर हुआ है!
कथाकार प्रियंवद की कहानी पर बनी यह फ़िल्म के केन्द्र में एक दस बरस के बच्चे की दुनिया और उसका नज़रिया है। उसके दुनिया में माँ है, उसके अध्यापक हैं, स्कूल है, सहपाठी हैं, एक कठपुतली वाला है, मोहल्ले की गलियाँ हैं, पीछे के खेत और खेतों के पार का जंगल है, मन के भीतर एक और बड़ा जंगल है, और सबसे बढ़कर उसके घर में किरायेदार भैया है, उनकी मोटरसाइकिल है, और मोहल्ले की छतों के आर-पार संचालित होने वाला प्रेम और उसका लक्ष्य नायिका - भैया की प्रेमिका है। मासूम बच्चा इन दो नौजवानों के प्रेम का क़ासिद बनता है और जाने कब से क़ासिद से रक़ीब की हैसियत में आने लगता है, उसे खुद पता नहीं लगता। एक तरह से यह एक बच्चे के भीतर काम के प्रस्फुटन का कलात्मक लेखा है।
खरगोश परेश भाई की तीसरी फ़िल्म है। इसके पहले वे एन एफ़ डी सी के प्रायोजन से टुन्नु की टीना और जुगाड़े हुए स्रोतों व दोस्तों-यारों के प्रायोजन से 'जॉनी-जॉनी येस पापा' बना चुके हैं। टुन्नु की टीना ने बर्लिन तक का सफ़र भी किया, और दूरदर्शन के छोटे पर्दे पर भी उसे जगह मिली। जॉनी-जॉनी येस पापा इतनी भाग्यशाली नहीं रही, तीन-चार साल से बन कर तैयार है लेकिन अभी तक वितरण नहीं हो सका है। परेश भाई एफ़ टी आई आई ने सम्पादन में डिप्लोमा हासिल किया है और कुमार शाहणी के साथ भी काम करते रहे हैं, बाद के वर्षों में टी वी पर सीरियलों का निर्देशन भी किया। लेकिन अच्छी बात ये रही कि बावजूद पैसे के लालच के टीवी की दुनिया में रमे नहीं और कला का जोखिम उठाया। (आजकल कला का जोखिम महज़ अभिव्यक्ति का ही जोखिम नहीं, अस्तित्व का जोखिम भी बनता है) उनकी पत्नी और मेरी सहपाठी रह चुकीं गज़ाला नरगिस ने भी उन्हे इस राह पर बढ़ चलने के लिए उत्साहित बनाए रखा। उनके सहयोग के बिना यह सफ़र बहुत मुश्किल हो सकता था। और धन्यवाद है ऋषि चन्द्रा जैसे निर्माता को जिसने परेश जी को अपनी समझ से एक अच्छी फ़िल्म बनाने की पूरी आज़ादी दी।
फ़िल्म पिछले वर्ष ही बन कर तैयार हो गई थी और मुम्बई में हुए तमाम ट्रायल शो में से एक ट्रायल में मैंने भी इसका आस्वादन किया। इस तरह की फ़िल्में भारत में कम ही बनी हैं और सन अस्सी के बाद तो बिलकुल ही नहीं बनीं। असल में समान्तर सिनेमा के नाम पर भारत में जो सिनेमा बनाया गया वह मोटे तौर पर सामाजिक सच्चाई का सिनेमा था। सिनेमाई कला की बरीक़ियों का अनुसंधान और संधान करने वाले सिनेमा के साधक कम ही रहे। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और बिमल राय, कला और सामाजिक सच्चाई को संतुलित करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे कला पिछड़ती गई और जिसे कथ्य कहा जाता है उसकी धार भोथरी होती गई। (बहुत लोग मानते हैं कि शिल्प और कथ्य दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं, पर इस मसले पर मैं गोदार का मुरीद हूँ जो मानते थे कि कथ्य शिल्प की अन्तर्वस्तु है और शिल्प कथ्य का आवरण)
मुख्यधारा के सिनेमा ने ही सामाजिक परिवर्तन को एक मसाले की तरह अख्तियार कर लिया और अगर आप भूले न हो तों मेरी आवाज़ सुनो, आज का एम एल एल राम अवतार, इंक़िलाब, अंकुश, प्रतिघात आदि फ़िल्में इसी अन्दाज़ की फ़िल्में थीं। मणि कौल और कुमार शाहणी ने ही कलात्मक सिनेमा के महीन परचम की झण्डाबरदारी की लेकिन वह नदी नब्बे आते-आते तक सूख गई। कला के जोखिम से भरी एक अनोखी फ़िल्म कमल स्वरूप की ओम दरबदर भी अस्सी के दशक के नारेबाज़ों का शिकार हुई थी जिसे तब के ‘सचेत’ बुद्धिजीवियों ने इसलिए नकार दिया क्योंकि उसमें सामाजिक सच्चाईयों का कोई प्रगतिशील संदेश उन्हे नहीं मिल सका; आज कला के भूखे लोग खोज-खोज के वो फ़िल्म देखने के लिए मचलते हैं।
नब्बे और नई सदी के वर्षों में प्रयोग तो कई हुए पर कामयाब कम हुए। लगभग टीवी के जन्म और नई आर्थिक नीति के समान्तर ही समान्तर सिनेमा की मृत्यु हो गई। मल्टीप्लेक्स फ़िल्मों का उदय हुआ, फ़िल्मों में बड़े तकनीकि विकास हुए मगर कलात्मक विकास पिछड़ता रहा। खरगोश इन अकाल वर्षों में वर्षा की पहली फुहार की तरह हैं, उस ज़मीन पर जहाँ सिनेमाई प्रयोग के नाम पर लोग शुद्ध नक़ल, योरोपीय सिनेमा और अमरीकी इन्डेपेन्डेन्ट सिनेमा को हिन्दी की बोतल में ढाल कर पेश करने के आगे जाने से क़तराते रहे हों। खरगोश पर सिनेमा की ईरानी परम्परा का प्रभाव ज़रूर दिखता है पर किसी फ़िल्म का नहीं ज़रा नहीं।
फ़िल्म को विदिशा और महेश्वर की पुरानी क़स्बाई दुनिया में फ़िल्मांकित किया गया है। उसका भूगोल बच्चे की मानसिक दुनिया का भूगोल बनता है दरअसल। विवेक शाह का कैमरा और मनोज सिक्का का ध्वनि संयोजन दोनों फ़िल्म की अंतरंगता के माध्यम हैं। जैसा कि पुरस्कारों की झड़ी से ही ज़ाहिर है कि ओसियान में लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। मेरी उम्मीद है कि यह सफलता परेश भाई को आगे तमाम ऐसी और फ़िल्में बनाने के रास्ते साफ़ करेगी और उनके दर्शक इस फ़िल्म की कला से अभिभूत होकर इस परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। विशेषकर इस तथ्य की रौशनी में कि आजकल सामाजिक संदेश को प्रसारित करने का बीड़ा मनोरंजन टीवी ने अपने हाथ ले लिया है, और सिनेमा की ज़मीन का संकट गहरा गया है.. या शायद ये बेहतर हुआ है!
मंगलवार, 3 नवंबर 2009
राज्य की नैतिकता और तमाम उलझे सवाल
माओवादियों की नीति और हिंसा के खिलाफ़ लिखे मेरे पिछले लेख को कुछ पाठकों ने उसे आदिवासियों के अधिकारों के खिलाफ़ भी समझ लिया। और यह भी समझ लिया कि मैं राज्य की हर उलटी-सीधी हिंसा और अन्याय का समर्थक हूँ। शायद लेख के शीर्षक से ऐसा बोध हुआ है। ऐसा नहीं है, मैं राज्य की हिंसा का समर्थक नहीं हूँ और मैं पूरी तरह से चाहता हूँ कि आदिवासियों के साथ न्याय हो।
यह राज्य और लोकतंत्र दोनों ही विभिन्न प्रकार रोगों, दोषों से आक्रान्त है लेकिन मैं शरीर में बुखार या दूसरा कोई रोग हो जाने पर हाथ-पैर फेंक कर उससे लड़ने या हताश हो कर ये सोचने कि ‘अब तो मर ही जायेंगे’ की जगह रोग को समझ लेने और उपलब्ध ज्ञान और पिछले अनुभवों के आधार पर उपचार में क्या-क्या कष्ट आने वाला है, उसे जान लेना अधिक बेहतर समझता हूँ। मुझे लगता है कि इस मामले में बहुत सारे लोग राज्य और सरकार के खिलाफ़ एक प्रकार के हताश आक्रोश से भरकर विरोध कर रहे हैं। जैसे कि देखा कि मित्र आनन्द प्रधान ने चिंता व्यक्त की है कि देश में अघोषित आपातकाल लगने वाला है। अरुंधति मानती हैं कि इस देश में लोकतंत्र ही नहीं है एक ढकोसला है। और भी बहुत सारे बुद्धिजीवी चिंतक ऐसी ही चिंताए व्यक्त कर रहे हैं।
लोकतंत्र क्या है? रूसो, वालतेयर के नवजागरण के विचारों और फ़्रांसीसी क्रांति के गर्भ से जन्मा यह शासनतंत्र बंधुता, समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों पर आधारित हुआ। लेकिन जन्म लेते ही खुद फ़्रांस में इसका अस्तित्व खतरे में पड़ा रहा और एक समय चक्र के बाद ही इसकी पुनर्स्थापना हो सकी। ब्रिटेन, अमरीका और अन्य योरोपीय देशों में यह फिर भी एक कुदरती चाल से क़ाबिज़ हुआ, भारत में लोकतंत्र लगभग ऊपर से आरूढ़ हुआ। जनता लोकतंत्र के लिए नहीं अंग्रेज़ो को बाहर करने के लिए आन्दोलन कर रही थी। अंग्रेज़ बाहर गए उनका बनाया तंत्र रह गया।
इस तंत्र की ज़रूरत, पहुँच और क्षमता कहाँ तक थी और कितनी थी, यह सब कहना मुश्किल है। माओवादी तो मानते हैं कि हम अभी भी अर्धसामन्ती समाज में हैं (फिर भी लड़ाई पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से?)। लेकिन हमारे लगभग सभी बुद्धिजीवी संवाद के समय एक ऐसी जगह से अपनी बात शुरु करते हैं जहाँ पर लोकतंत्र एक ऐसा खूबसूरत और कल्याणकारी लिबास है जो सरकार ठीक से पहन नहीं पा रही और जगह-जगह से उघड़ जा रही है। गोरख पाण्डेय के गीत की एक पंक्ति है : समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई। गीत व्यंग्य में है पर मैं मानता हूँ कि क्रांतिकारी समाजवाद की गति हम देख चुके हैं, जल्दी में बहुत नुक़्सान भी हुए। और अभी तो ये लगता है कि लोकतंत्र बबुआ धीरे-धीरे आई।
राज्य का स्वरूप आज जैसा है, हमेशा वैसा नहीं था। मेरे मित्र आशुतोष आज के इस राज्य को अन्याय की मशीनरी मानते हैं, है, पर मेरा आग्रह है कि वर्तमान की आलोचना करते हुए आदर्शों और सुनहरे सपनों को तो नज़र में ज़रूर रखें पर उसका इतिहास भी मत भूल जाइये। ऐतिहासिक रूप से हम जिसे भारत का स्वर्ण काल समझते हैं –मुग़ल काल – उस दौर में व्यक्ति को सम्पत्ति का अधिकार नहीं होता था, सबै भूमि गोपाल की नहीं, बादशाह की होती थी। जब जिस को चाहे दी जब चाही वापस ले ली। आज रहीम खानखाना बड़े अच्छे हैं कल मन उखड़ गया सब कुछ छीन-छान कर भिखारी बना दिया। कल तक जो दसहज़ारी सरदार था, जंग में काम आ गया या बादशाह रूठ गए, दी हुई जागीर वापस ले ली, यहाँ तक कि मकान और सौगातें भीं। दसहज़ारी सरदार का सारा खानदान दाने-दाने को मोहताज़ हो गया। यह हाल मनसबदारों का हो सकता था तो आम जन के क्या हुक़ुक़ थे, पूछे जाने की ज़रूरत है क्या?
अंग्रेज़ो के सत्ता में आने के पहले आलम ये था कि पूरा ‘देश’ (उस वक़्त देश क्या था, ठीक-ठीक कहना मुश्किल था, लोग दूसरे गाँव जाकर भी परदेसी हो जाते थे) घोड़ों की टापों के नीचे लगातार रौंदा जा रहा था। बरसात के चार महीने जब नदियां उफ़न कर सेनाओं की आवाजाही पर रोक लगा देतीं, साल भर मराठे, ईरानी, तूरानी, अफ़्गान, जाट, रोहिल्ले, और सिक्ख आपस में तलवार भांजते रहते। इसी सब के बीच पिंडारी भी थे जो राजस्थान में टौंक से निकलते और कर्णाटक के दक्षिणी इलाक़ो तक गाँव-गाँव को लूटते और आग लगाते जाते। कई बार ऐसा होता कि एक गाँव साल में तीन-चार बार अग्नि को समर्पित हो जाता। ऐसी हालत से बचने के लिए कुछ गाँवो ने शहरपनाह की तर्ज पर गाँवपनाह की चहारदीवारियां बना रखी थीं ताकि लुटेरों और चौथ लेने आने वाली फ़ौजों से कुछ सुरक्षा मिले। पर चौथ के भूखे लड़ाके गाँव वासियों के खिलाफ़ तोप का भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकते।
आज हमारी ज़बान अंग्रेज़ो को गाली देती नहीं थकती लेकिन सच तो यह है कि उनहोने इस भूमिखण्ड को एक भयंकर अराजकता से मुक्ति दिलाई। अराजकता का आतंक कैसा होता था इसे बनारसी दास ने अपनी किताब अर्धकथानक में लिखा है कि जब उनके गाँव में पता चला कि अकबर की मौत हो गई तो लोग-बाग़ के दिल संदेह और भय से दहल उठे। लोगों ने अपने कीमती वस्त्र और गहने ज़मीन में गाड़ दिये। और बहुत से लोग अपनी-अपनी सम्पत्ति को लेके इधर-उधर भागने लगे। हर आदमी घर की रक्षा के लिए हथियार एकत्र करने लगा। ऐसी अराजकता का आलम अकबर महान के मरने पर था। अठारहवीं सदी का जो हाल जो हुआ वो हमारे लिए अकल्पनीय है।
शाह आलम की सत्ता दिल्ली से पालम तक सिमट कर रह गई थी। मगर उसके बहुत पहले यानी १७०७ में औरंगज़ेब की मौत के ठीक बाद से ही अस्थिरता घर कर गई थी और पूरी सदी पूरे देश का नक़्शा और मिल्कियत लगातार बदलता रहा। रात को सोते समय कौन राजा था और सुबह जागते समय कौन- कोई ठीक-ठीक नहीं कह सकता था। कितने मुग़ल सलातीन अंधे किए गए, उनकी औरतों को लज्जित किया गया, गिनती मुश्किल है। खुद शाह आलम उनके एक पुराने वफ़ादार के हाथों अंधे हुए। ऐसी हालत में आम जन किस असुरक्षा की मानसिकता में जीते होंगे, ये जानने के लिए कभी मौक़ा लगे तो ‘मीर की आप बीती’ पढ़ लीजियेगा, सूरते हाल साफ़ हो जाएगा।
जिन अंग्रेज़ो के खिलाफ़ हमने १७५७ से लड़ना शुरु किया, १८५७ में महासंग्राम किया, और १९४७ तक लड़ते रहे, वो अंग्रेज़ वास्तव में इतिहास की एक प्रगतिशील शक्ति थे, ये बात हम आज समझ सकते हैं। उस व़क्त वो विदेशी हमारे दुश्मन थे जो हमारे देश को बुरी तरह से अपनी छवि में ढाल रहे थे, हमारी मर्ज़ी, परम्परा और संस्कारों के विरुद्ध। आज हम जो भी लोकतंत्र, जनतंत्र, मानव अधिकार के नाम पर जिन भी चीज़ों का जाप करते हैं, वो हमारी अपनी सोच नहीं है, अंग्रेज़ो के साथ यूरोप से आयातित चिंतन है।
हम आज अमरीका द्वारा इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान में की जा रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ बोलते नहीं थकते। हम ऐसे किसी देश का दूसरे देश पर हमला कर देना ग़लत मानते हैं। ग़लत है.. पर किस नैतिकता के आधार पर? हमारी भारतीय परम्परा में इस तरह के आपसी युद्ध को लेकर 'मानवीय' नैतिकता का कोई आग्रह नहीं रहा। (बुद्ध और महावीर की अहिंसक परम्परा को छोड़ दें तो) उलटे लड़ना और रणभूमि में शहीद होना एक योद्धा के लिए उच्च नैतिक मूल्य है। कहा ही गया है कि वीर भोग्या वसुंधरा। और इस भोग की शुरुआत युद्ध जीतते ही लूट-पाट से आरम्भ हो जाती, जिसे विजेता का अधिकार माना जाता। सबसे बड़ा लुटेरा राजा कहलाने का अधिकारी होता था। (आज वीर भोग्या वसुंधरा मानने वालों को हम अपराधी कहते हैं)
इस्लामिक नैतिकता का युद्ध के बारे में क्या नज़रिया है? अब जब मुहम्मद साहब और खुल्फ़ा उल रशीदुन ही खुद युद्ध का परचम उठा कर चले हो और पराजित जातियों के मर्दोज़न को गु़लाम बनाने की रवायत बरक़रार रखी हो तो इस्लामिक नैतिकता में कोई शुबहे की गुंज़ाइश नहीं है। मुहम्मद साहब ने ७०० यहूदियों के गले इसलिए कटवा दिए थे क्योंकि उन्हे शक़ था कि वो उनके साथ ग़द्दारी करने वाले थे।
विष्णु भट्ट गोडशे की एक किताब है- माझा प्रवास। इस किताब में १८५७ की गदर का आँखो देखा वर्णन है। झांसी में अंग्रेज़ो की लूट के समय लेखक वहीं थे; लिखते हैं कि लूट सात दिन चली। पहले दिन अंग्रेज़ सिपाहियों ने लूटा। उनको देख कर भूसे के ढेर में छिप गए लोगों को आग लगा कर जला देते। कुँए में कूदते तो बन्दूक लेकर जगत पर जम जाते-लोग डूबकर मरते या गोली खाकर। खोज-खोज कर लोगों को मार गया- आम जनों को। इस लूट को विजन कहा गया – जनविहीन कर देने की प्रक्रिया। तीन दिन गोरों ने सोना, चांदी, रूपया-पैसा, ज़ेवर आदि लूटा। चौथे दिन काले मन्दराजी लोगों ने बर्तन भांड़े लूटे। अगले दिन हैदराबाद वालों के नाम; उन्होने कपड़े लूटे। उसके बाद रियासती पलटनें आईं, उन्होने अनाज लूटा।
बाबर ने खुद अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उसे लोगों को मारकर उनके कटी हुई खोपड़ियों का पहाड़ बनाने का शौक़ था। हर लड़ाई के बाद ऐसा ज़रूर किया जाता; शायद अपने प्रतिद्वन्दियों के दिल में खौफ़ पैदा करने के लिए। अहमद शाह अब्दाली ने भी इस पुरानी परम्परा को अपने भारत अभियान में जारी रखा। हलाकू ने बग़दाद शहर को क़त्लेआम के बाद जला कर राख कर दिया था। दिल्ली कितनी बार उजड़ी है, कोई हिसाब नहीं है।
और हर छोटी-बड़ी लड़ाई के बाद औरतों का क्या हाल होता था, इसके लिए किसी कल्पना शक्ति की ज़रूरत नहीं है। कहते हैं कि आज दुनिया में चंगेज़ खान के सबसे अधिक वंशज है; कैसे, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। इस पृष्ठभूमि में अगर आप इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान का युद्ध देंखे तो आप को मानवीय लग सकता है। अबू ग़रीब की यातना जैसी घटना को छोड़ दें तो अमरीकी फ़ौजों ने न तो लूट-पाट की और न ही बेवजह हत्या-बलात्कार। (भाई मेरे, कृपया इसे अमरीकी नीति का अनुमोदन समझ कर चढ़े मत आईयेगा, ज़रा ठण्ड रखकर पढ़िये, बात-बात पर तलवार मत निकालिए हे मानवतावादी!)
मसला यह है कि आम जीवन में ‘मानवीय’ मूल्य और युद्ध में भी मानवता बरतने की जो नीति विकसित हुई है यह शुद्ध योरोपीय चिन्तन है और आधुनिक काल में पैदा हुआ है। कुछ लोग इस कारुणिक विचार की उत्पत्ति इमैन्वल कान्ट के दर्शन से देखते हैं। जो भी हो, जिस नैतिकता के दम पर हम अमरीका को गाली देते हैं, उस का ठीक-ठीक आगा-पीछा भी हमें नहीं मालूम। वो कैसे, किस रस्ते से हम तक पहुँची, और कैसे वह हमारी और हम उसके मालिक बन बैठे, हम नहीं जानते। हम उदार जन जिन मानवीय मूल्यों की बात-बात पर दुहाई देते हैं वो आम जन (राज्य के कर्मचारी, अधिकारी, सिपाही, सैनिक आदि भी) के भीतर कितने आत्मसात हैं, हमें नहीं मालूम।
हम जिस जीवन को जी रहे हैं, जिन सुविधाओं को भोग रहे हैं, क्या उस के लिए ‘हम’ ने संघर्ष किया है? क्या वो ‘हमारी’ आंकाक्षाओं और प्रयत्नों का परिणाम है? भारत में स्त्रियों को मताधिकार मिला, दलितों को आरक्षण मिला है, इसके लिए भारतीय स्त्रियों और दलितों ने कितना संघर्ष किया? क्या क़ुर्बानियां दी? तो फिर बिना संघर्ष, बिना बलिदान के कैसे मिल गयी उनको यह वरीयता? औरतों को मताधिकार योरोप के देशों में लम्बे संघर्ष के बाद मिला (और वो भी मिला क्योंकि स्त्री स्वातंत्र्य पूँजीवाद की ज़रूरत है, उसे सस्ता मज़दूर चाहिये) भारत में यूँ ही मिल गया? कैसे? बिना लड़े ये लड़ाईयां कैसे जीती जा रही हैं? वो कौन सी शक्ति है जो इस बदलाव के पीछे है?
शायद हमें यह मानने की ज़रूरत है कि कुछ अधिकार माँगने से, लड़ने से मिलते हैं, और कुछ बहुत लड़ने पर भी नहीं मिलते क्योंकि उनके लिए ऐतिहासिक परिस्थिति परिपक्व नहीं थी, और कुछ बैठे-बिठाए मिल जाते हैं क्योंकि वो इतिहास की ज़रूरत हैं। सोचिये इन में से कुछ अधिकार हमें अंग्रेज़ो के समय में ही हासिल हो गए थे?
आखिर क्या दबाव थे जिसके तहत अंग्रेज़ो ने मताधिकार और प्रतिनिधित्व जैसे ये अधिकार हमारी तरफ़ बढ़ा दिए थे? लोकप्रिय शासक अकबर के समय ऐसा क्यों नहीं हो सका? योद्धाओं की सन्तान उस अकबर ने तो ज़मीनदार, मनसबदार, जागीरदार और सूबेदार की श्रेणियों में ही सत्ता का वितरण करके मान लिया कि जनता का प्रतिनिधित्व सम्पन्न हो गया, चुनाव और मताधिकार जैसी बात उसके ख्याल में भी नहीं आई, बावजूद उसकी सारी भलमनसाहत के। लेकिन ‘सौदागर’ अंग्रेज़ ने सत्ता के बाज़ार को जन-जन तक फैला दिया और आमजन को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दे दिया। इस अधिकार को हमें मिले लगभग अस्सी बरस से भी ऊपर हो गया लेकिन कितनी अजीब बात है कि हम आज भी अपने लिए ज़मीनदार, मनसबदार, जागीरदार और सूबेदार ही चुनते हैं, अपने प्रतिनिधि नहीं। ये दोष राज्य का है कि जनता का?
ये ठीक बात है कि राज्य हमारे जीवन की अधिकतर बातों का नियन्ता है और उसने ही हमें शिकायत करने का भी हक़ हमें नियत कर दिया है। पर हमारी भी आदत हो चुकी है सारी समस्याओं को किसी एक संस्था के मत्थे मढ़ कर छुट्टी पाने की। ये प्रवृत्ति हमारी अपने जीवन की स्वयं ज़िम्मेदारी न लेने और हर बात के लिए ईश्वर पर निर्भर होने की आदत का अवशेष है। ईश्वर से हमारी शिकायतों का सिलसिला थमता नहीं दिखता। हम बजाय पुरुषार्थ पर विश्वास करने के हर चीज़ के लिए ईश्वर के आगे झोली फैलाये खड़े रहते हैं।
(वैसे कुछ चीज़ों का ठीकरा हम अंग्रेज़ों के सर भी फोड़ते हैं जैसे कि साम्प्रदायिकता; अच्छे-खासे प्रगतिशील लोग इस बात पर विश्वास करना पसन्द करते हैं कि अंग्रेज़ो के पहले भारत में साम्प्रदायिक मन-मुटाव नाम की चीज़ थी ही नहीं। एक मिसाल के तौर पर अशफ़ाक़ुल्ला खाँ के बारे में खुद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके साथ आने से सिद्ध हो गया कि मुसलमान ग़द्दार नहीं होते- क्या ऐसी बातें सौ-पचास बरस के अंग्रेज़ों के षडयन्त्र से किसी के मन में बैठ सकती हैं या उसके लिए आपसी नफ़रत का एक लम्बी विरासत होनी चाहिये?)
इस प्रवृत्ति की सबसे अच्छा उदाहरण शिरडी के साईं बाबा के भक्त हैं: साईं बाबा का दो शब्दों का संदेश है- श्रद्धा और सबुरी; उनके भक्तों में न तो श्रद्धा है और न सबुरी, शिरडी जा के माँग-माँग कर उन्हे मरने के बाद भी हकालते रहते हैं। ऐसे अनास्था वाले लोग – हम सभी, भले ही हम साईं बाबा के भक्त हो या न हों, इस दोष के रोगी हैं – राज्य के प्रति भी ऐसी ही अनास्था से पेश आते हैं। ये नहीं है, वो नहीं है, ये नहीं दिया, वो नहीं दिया। कोई विपदा आती है तो टीवी का कैमरा आते ही लोग शुरु हो जाते हैं, हमें तो कोई पूछने नहीं आया, किसी ने हमारी खबर नहीं ली? सवाल यह भी पूछना चाहिये लोगों ने एक-दूसरे की कितनी मदद की?
वेलफ़ेयर स्टेट (पहले थे, अब पता नहीं हैं कि नहीं) का तो काम है लोगों की मदद करना लेकिन इस स्थिति को अठाहरवीं सदी से तुलना कर लें और समझें। सरकार/राज्य किसी ईश्वर का स्थानापन्न है – ईश्वर के प्रति तो हम उच्छवास भरते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर कहाँ हो तुम - लेकिन सरकार को सीधे गरियाते हैं। क्योंकि वो हमारी प्रतिनिधि है, उसे हमारे हित में काम करना चाहिये, लेकिन वो करती नहीं, क्योंकि हमारे प्रतिनिधि हमारे नहीं किसी पूँजीपति के प्रतिनिधि हैं। एक बार फिर से- क्या इस का दोष राज्य का है कि जनता का?
अपनी इस अनास्था के चलते हमारे भीतर की उद्यमता पर भी असर पड़ा है, वो भी गहरे तौर पर भ्रष्ट हो चली है। किसी भी काम को हम पूरी शिद्द्त और मनोयोग से कर ही नहीं पाते। थोड़ी सी सुख-सुविधा और ऐशो आराम हमारी नैतिकता और आदर्श को ढहा देने के लिए काफ़ी साबित होते हैं। मुस्लिम हितों की बात करने वाले क्रांतिकारी अपने राजनैतिक करियर के लिए उन्ही के शक़-शुबहों के सहारे उनका शोषण करने लगते हैं। मज़दूरों के महान नेता, कोकाकोला को देशनिकाला देने वाले जार्ज साहब किस गली में जा कर फ़ंसते हैं। अपने भीतर की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करने निकले कविवर पुरुस्कारों की जुगाड़ू राजनीति में दण्ड पेलने लगते हैं। बाक़ी छोड़िये देखिये उदाहरण शिबू सोरेन और मधु कोडा का, आदिवासियों के बीच से निकले उनकी आकांक्षाओं को स्वर देने के लिए लेकिन कहाँ जा गिरे? क्या इन के पतन पीछे सरकार और राज्य का चरित्र ही उत्तरदायी है?
राज्य से पहले हम एक समाज हैं और समाज से पहले हम एक व्यक्ति। व्यक्ति के रूप में हम कितने नैतिक हैं? ये कौन सी बात है कि गूँहू रोटी को गाली दे कि वो बेस्वाद है? ये बात ठीक है कि राज्य का जो स्वरूप हमें मिला है उसे वैसा बनाने में हमने कोई भूमिका नहीं निभाई है, मगर सरकार तो हमारी ही अभिव्यक्ति है न? और अगर हम राज्य के इस स्वरूप से असंतुष्ट हैं तो हमारे पास कोई विकल्प तो होना चाहिये?
माओवादियों के विकल्प की चर्चा मैं पिछले लेख में कर चुका हूँ, वो मेरी समझ से वरेण्य नहीं है। अरुंधति से जब पूछा गया तो उन्होने कहा कि उनके पास कोई मैनिफ़ेस्टो नहीं है। यही हाल देश के सभी (ग़ैर-मार्क्सवादी) असंतुष्ट बुद्धिजीवियों का है: उनके पास शिकायतें तो हैं, सवाल तो हैं पर विकल्प नहीं है। अरुंधति का जो लम्बा लेख आउटलुक में छ्पा है उसकी मुख्य बातें निम्न हैं :
१) आदिवासी जंगल- पहाड़-नदी के साथ एकाकार हैं (जैसे आदिकाल में सभी मनुष्य थे)
२) बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदिवासियों की इस सम्पदा पर नज़र गड़ा के बैठी हैं और उसे हथियाने के लिए कार्यरत हैं।
३) यह सम्पदा एक अनुमान के अनुसार चार ट्रिलियन (१२ शून्य) डालर्स की है, भारत के जीडीपी से कई गुना अधिक।
४) देश की सरकार ने ऐसी बहुराष्टीय कम्पनियों के साथ समझ के समझौते कर रखे हैं जिसके तहत ७-८% के हिस्सेदारी पर भारत सरकार यह सम्पदा उनके हवाले कर देगी।
५) इस मुनाफ़े में आदिवासियों को कोई हिस्सा नहीं मिलेगा, जो उसके असली मालिक हैं।
६) उलटे उन्हे अपने घर, गाँव, और वातावरण –जिसके साथ वो एकीकृत हैं –से बेदखल कर दिया जाएगा।
७) माओवादियों ने आदिवासियों के असंतोष को स्वर दिया है, पर वो बरगलाए हुए नहीं है, उनकी अपनी एक लड़ाकू परम्परा है।
८) माओवादियों के साथ उनकी इस हथियारबन्दी से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खनन का अपना काम नहीं कर पा रहीं।
९) सरकार पर इन समझौतों को निभाने के लिए दबाव बढ़ रहा है औरे जिसके कारण वो इस समस्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही है।
१०) वही सरकार जो विकास के नाम पर विस्थापित पाँच करोड़ लोगों का पुनर्वास नहीं कर सकी, उसे ३०० सेज़ बनाने के लिए १,४०००० हेक्टेयर ज़मीन मिल जाती है।
११) सरकार के साथ-साथ (चिदम्बरम वेदान्ता के लिए वक़ील और डाइरेक्टर के पद भी सम्हाल चुके हैं) अदालतें भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों बिक चुकी हैं।
१२) और जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए माओवादियों के दम-खम और आतंक का हौवा बना रही है ताकि उनके बहाने आदिवासियों को रौंदा जा सके और साथ ही दूसरी लोकतांत्रिक आवाज़ों को भी।
१३) सरकार उनसे बात तक करने को तैयार नहीं वह युद्ध चाहती है बस।
१४) पूँजी के हाथ की कठपुतली मीडिया सरकार का प्रवक्ता बना हुआ है, और कोई स्वतंत्र रपट करने के बजाय सरकार की भाषा बोल रहा है।
मोटे तौर पर इनमें से शायद ही कोई ऐसी बात हो कि जिसका कोई संवेदनशील व्यक्ति विरोध करेगा। बंधुता, समानता और स्वतंत्रता के मूल्य हम सभी ने भीतर तक स्वीकार कर लिए हैं (ये सवाल भी उठता है कैसे अपना लिए हैं, बिना उन पर विचार किए, क्योंकि वो खुद व्यवस्था द्वारा प्रचारित हैं; और सच में कितने अपनाए हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि व्यापक जन भीतर अभी भी किसी अन्य नैतिक मापदण्ड के सहारे हैं) और ये जो हो रहा है इन आदर्शों से मेल नहीं खाता। ज़ाहिर तौर पर अत्याचार हो रहा है। मैं इस अत्याचार का विरोध करता हूँ और चाहता हूँ कि पर्यावरण की हानि न हो, जंगल-पहाड़-नदी की पवित्रता बनी रही, पर मेरे चाहने और विरोध करने भर से क्या होता है। इतिहास बड़ा क्रूर है उसकी विशाल नदी के बीच मेरी नन्ही वैचारिक (और तमाम दूसरों की ठोस आन्दोलित) चेष्टाएं क्या बिसात रखती हैं।
इस नदी की धारा को पलटने के लिए जिस प्रकार की हिंसा और नरबलि लगेगी उस के प्रति हम अहिंसक उदारजनों का क्या नज़रिया होगा, यह भी सोचना चाहिये। माओवादी तथा दूसरे पके हुए राजनीतिकर्मियों को कोई शुबहा नहीं होता, वो अपनी तरह की व्यवस्था लाने के लिए हर क़ुरबानी देने के लिए तैयार रहते हैं।
स्वयं अरुंधति भी जानती हैं कि माओवादी, आदिवासियों की बलि देकर आम जनता के आगे नरसंहार का एक विहंगम दृश्य खड़ा कर के अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने की नीति खेल सकते हैं। लेकिन फिर भी वो उनके समर्थन में इसलिए जाती हैं क्योंकि उन्हे इस कॉरपोरेट पूँजीवाद के अधिक समाजवादी तंत्र पर भरोसा है (फिर भी ये सवाल रह जाता है कि उसमें पर्यावरण के मसलों की जगह कहाँ रहेगी?), इसीलिए अरुंधति जिस मुखर स्वर से राज्य की हिंसा की आलोचना करती हैं माओवादी हिंसा की नहीं करतीं। यानी विरोध हिंसा का नहीं, हिंसा के चरित्र का है।
आप तय कीजिये कि आप किस हिंसा के हिमायती हैं। हिंसा से छुटकारा नहीं है। बुद्ध की शिक्षाएं पा कर भी जापानी हिंसा के पुजारी बनी रहे। गाँधी बाबा अहिंसा-अहिंसा करते रहे, देश उन्हे बापू, महात्मा कहता रहा और जब देश आज़ादी की बारी आई तो लाखों लोग अल्लाहोअकबर और हरहरमहादेव कह कर लड़ मरे। हिंसा की ऐसी सर्वव्यापकता के बावजूद हम हिंसा को अनैतिक मान कर अपना पक्ष चुनते हैं, मैं भी – ऐसा है अपने युग की नैतिकता का दबाव।
मेरी इच्छा है कि सरकार और माओवादी के नेतृत्व में आदिवासी जन बातचीत करें और सरकार उनकी ज़मीन का उन्हे उचित मुआवज़ा दे, और साथ ही यह भे सुनिश्चित करे कि पर्यावरण की हानि न हो या कम से कम हो। ऐसा चाहने वाले किसी भी नागरिक आन्दोलन का मैं समर्थन करता हूँ। साफ़ तौर पर मैं नहीं चाहता कि मार-काट हो, मैं नहीं चाहता कि माओवादी प्रबल होकर इस राज्यतंत्र को कमज़ोर करें और १८ वीं सदी वाली अराजकता का परिदृश्य दोहराया जाय। पर ये सब सदिच्छाएं हैं, देखें ऐसा सम्भव हो पाता है कि नहीं।
यह राज्य और लोकतंत्र दोनों ही विभिन्न प्रकार रोगों, दोषों से आक्रान्त है लेकिन मैं शरीर में बुखार या दूसरा कोई रोग हो जाने पर हाथ-पैर फेंक कर उससे लड़ने या हताश हो कर ये सोचने कि ‘अब तो मर ही जायेंगे’ की जगह रोग को समझ लेने और उपलब्ध ज्ञान और पिछले अनुभवों के आधार पर उपचार में क्या-क्या कष्ट आने वाला है, उसे जान लेना अधिक बेहतर समझता हूँ। मुझे लगता है कि इस मामले में बहुत सारे लोग राज्य और सरकार के खिलाफ़ एक प्रकार के हताश आक्रोश से भरकर विरोध कर रहे हैं। जैसे कि देखा कि मित्र आनन्द प्रधान ने चिंता व्यक्त की है कि देश में अघोषित आपातकाल लगने वाला है। अरुंधति मानती हैं कि इस देश में लोकतंत्र ही नहीं है एक ढकोसला है। और भी बहुत सारे बुद्धिजीवी चिंतक ऐसी ही चिंताए व्यक्त कर रहे हैं।
लोकतंत्र क्या है? रूसो, वालतेयर के नवजागरण के विचारों और फ़्रांसीसी क्रांति के गर्भ से जन्मा यह शासनतंत्र बंधुता, समानता और स्वतंत्रता के आदर्शों पर आधारित हुआ। लेकिन जन्म लेते ही खुद फ़्रांस में इसका अस्तित्व खतरे में पड़ा रहा और एक समय चक्र के बाद ही इसकी पुनर्स्थापना हो सकी। ब्रिटेन, अमरीका और अन्य योरोपीय देशों में यह फिर भी एक कुदरती चाल से क़ाबिज़ हुआ, भारत में लोकतंत्र लगभग ऊपर से आरूढ़ हुआ। जनता लोकतंत्र के लिए नहीं अंग्रेज़ो को बाहर करने के लिए आन्दोलन कर रही थी। अंग्रेज़ बाहर गए उनका बनाया तंत्र रह गया।
इस तंत्र की ज़रूरत, पहुँच और क्षमता कहाँ तक थी और कितनी थी, यह सब कहना मुश्किल है। माओवादी तो मानते हैं कि हम अभी भी अर्धसामन्ती समाज में हैं (फिर भी लड़ाई पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से?)। लेकिन हमारे लगभग सभी बुद्धिजीवी संवाद के समय एक ऐसी जगह से अपनी बात शुरु करते हैं जहाँ पर लोकतंत्र एक ऐसा खूबसूरत और कल्याणकारी लिबास है जो सरकार ठीक से पहन नहीं पा रही और जगह-जगह से उघड़ जा रही है। गोरख पाण्डेय के गीत की एक पंक्ति है : समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई। गीत व्यंग्य में है पर मैं मानता हूँ कि क्रांतिकारी समाजवाद की गति हम देख चुके हैं, जल्दी में बहुत नुक़्सान भी हुए। और अभी तो ये लगता है कि लोकतंत्र बबुआ धीरे-धीरे आई।
राज्य का स्वरूप आज जैसा है, हमेशा वैसा नहीं था। मेरे मित्र आशुतोष आज के इस राज्य को अन्याय की मशीनरी मानते हैं, है, पर मेरा आग्रह है कि वर्तमान की आलोचना करते हुए आदर्शों और सुनहरे सपनों को तो नज़र में ज़रूर रखें पर उसका इतिहास भी मत भूल जाइये। ऐतिहासिक रूप से हम जिसे भारत का स्वर्ण काल समझते हैं –मुग़ल काल – उस दौर में व्यक्ति को सम्पत्ति का अधिकार नहीं होता था, सबै भूमि गोपाल की नहीं, बादशाह की होती थी। जब जिस को चाहे दी जब चाही वापस ले ली। आज रहीम खानखाना बड़े अच्छे हैं कल मन उखड़ गया सब कुछ छीन-छान कर भिखारी बना दिया। कल तक जो दसहज़ारी सरदार था, जंग में काम आ गया या बादशाह रूठ गए, दी हुई जागीर वापस ले ली, यहाँ तक कि मकान और सौगातें भीं। दसहज़ारी सरदार का सारा खानदान दाने-दाने को मोहताज़ हो गया। यह हाल मनसबदारों का हो सकता था तो आम जन के क्या हुक़ुक़ थे, पूछे जाने की ज़रूरत है क्या?
अंग्रेज़ो के सत्ता में आने के पहले आलम ये था कि पूरा ‘देश’ (उस वक़्त देश क्या था, ठीक-ठीक कहना मुश्किल था, लोग दूसरे गाँव जाकर भी परदेसी हो जाते थे) घोड़ों की टापों के नीचे लगातार रौंदा जा रहा था। बरसात के चार महीने जब नदियां उफ़न कर सेनाओं की आवाजाही पर रोक लगा देतीं, साल भर मराठे, ईरानी, तूरानी, अफ़्गान, जाट, रोहिल्ले, और सिक्ख आपस में तलवार भांजते रहते। इसी सब के बीच पिंडारी भी थे जो राजस्थान में टौंक से निकलते और कर्णाटक के दक्षिणी इलाक़ो तक गाँव-गाँव को लूटते और आग लगाते जाते। कई बार ऐसा होता कि एक गाँव साल में तीन-चार बार अग्नि को समर्पित हो जाता। ऐसी हालत से बचने के लिए कुछ गाँवो ने शहरपनाह की तर्ज पर गाँवपनाह की चहारदीवारियां बना रखी थीं ताकि लुटेरों और चौथ लेने आने वाली फ़ौजों से कुछ सुरक्षा मिले। पर चौथ के भूखे लड़ाके गाँव वासियों के खिलाफ़ तोप का भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकते।
आज हमारी ज़बान अंग्रेज़ो को गाली देती नहीं थकती लेकिन सच तो यह है कि उनहोने इस भूमिखण्ड को एक भयंकर अराजकता से मुक्ति दिलाई। अराजकता का आतंक कैसा होता था इसे बनारसी दास ने अपनी किताब अर्धकथानक में लिखा है कि जब उनके गाँव में पता चला कि अकबर की मौत हो गई तो लोग-बाग़ के दिल संदेह और भय से दहल उठे। लोगों ने अपने कीमती वस्त्र और गहने ज़मीन में गाड़ दिये। और बहुत से लोग अपनी-अपनी सम्पत्ति को लेके इधर-उधर भागने लगे। हर आदमी घर की रक्षा के लिए हथियार एकत्र करने लगा। ऐसी अराजकता का आलम अकबर महान के मरने पर था। अठारहवीं सदी का जो हाल जो हुआ वो हमारे लिए अकल्पनीय है।
शाह आलम की सत्ता दिल्ली से पालम तक सिमट कर रह गई थी। मगर उसके बहुत पहले यानी १७०७ में औरंगज़ेब की मौत के ठीक बाद से ही अस्थिरता घर कर गई थी और पूरी सदी पूरे देश का नक़्शा और मिल्कियत लगातार बदलता रहा। रात को सोते समय कौन राजा था और सुबह जागते समय कौन- कोई ठीक-ठीक नहीं कह सकता था। कितने मुग़ल सलातीन अंधे किए गए, उनकी औरतों को लज्जित किया गया, गिनती मुश्किल है। खुद शाह आलम उनके एक पुराने वफ़ादार के हाथों अंधे हुए। ऐसी हालत में आम जन किस असुरक्षा की मानसिकता में जीते होंगे, ये जानने के लिए कभी मौक़ा लगे तो ‘मीर की आप बीती’ पढ़ लीजियेगा, सूरते हाल साफ़ हो जाएगा।
जिन अंग्रेज़ो के खिलाफ़ हमने १७५७ से लड़ना शुरु किया, १८५७ में महासंग्राम किया, और १९४७ तक लड़ते रहे, वो अंग्रेज़ वास्तव में इतिहास की एक प्रगतिशील शक्ति थे, ये बात हम आज समझ सकते हैं। उस व़क्त वो विदेशी हमारे दुश्मन थे जो हमारे देश को बुरी तरह से अपनी छवि में ढाल रहे थे, हमारी मर्ज़ी, परम्परा और संस्कारों के विरुद्ध। आज हम जो भी लोकतंत्र, जनतंत्र, मानव अधिकार के नाम पर जिन भी चीज़ों का जाप करते हैं, वो हमारी अपनी सोच नहीं है, अंग्रेज़ो के साथ यूरोप से आयातित चिंतन है।
हम आज अमरीका द्वारा इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान में की जा रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ बोलते नहीं थकते। हम ऐसे किसी देश का दूसरे देश पर हमला कर देना ग़लत मानते हैं। ग़लत है.. पर किस नैतिकता के आधार पर? हमारी भारतीय परम्परा में इस तरह के आपसी युद्ध को लेकर 'मानवीय' नैतिकता का कोई आग्रह नहीं रहा। (बुद्ध और महावीर की अहिंसक परम्परा को छोड़ दें तो) उलटे लड़ना और रणभूमि में शहीद होना एक योद्धा के लिए उच्च नैतिक मूल्य है। कहा ही गया है कि वीर भोग्या वसुंधरा। और इस भोग की शुरुआत युद्ध जीतते ही लूट-पाट से आरम्भ हो जाती, जिसे विजेता का अधिकार माना जाता। सबसे बड़ा लुटेरा राजा कहलाने का अधिकारी होता था। (आज वीर भोग्या वसुंधरा मानने वालों को हम अपराधी कहते हैं)
इस्लामिक नैतिकता का युद्ध के बारे में क्या नज़रिया है? अब जब मुहम्मद साहब और खुल्फ़ा उल रशीदुन ही खुद युद्ध का परचम उठा कर चले हो और पराजित जातियों के मर्दोज़न को गु़लाम बनाने की रवायत बरक़रार रखी हो तो इस्लामिक नैतिकता में कोई शुबहे की गुंज़ाइश नहीं है। मुहम्मद साहब ने ७०० यहूदियों के गले इसलिए कटवा दिए थे क्योंकि उन्हे शक़ था कि वो उनके साथ ग़द्दारी करने वाले थे।
विष्णु भट्ट गोडशे की एक किताब है- माझा प्रवास। इस किताब में १८५७ की गदर का आँखो देखा वर्णन है। झांसी में अंग्रेज़ो की लूट के समय लेखक वहीं थे; लिखते हैं कि लूट सात दिन चली। पहले दिन अंग्रेज़ सिपाहियों ने लूटा। उनको देख कर भूसे के ढेर में छिप गए लोगों को आग लगा कर जला देते। कुँए में कूदते तो बन्दूक लेकर जगत पर जम जाते-लोग डूबकर मरते या गोली खाकर। खोज-खोज कर लोगों को मार गया- आम जनों को। इस लूट को विजन कहा गया – जनविहीन कर देने की प्रक्रिया। तीन दिन गोरों ने सोना, चांदी, रूपया-पैसा, ज़ेवर आदि लूटा। चौथे दिन काले मन्दराजी लोगों ने बर्तन भांड़े लूटे। अगले दिन हैदराबाद वालों के नाम; उन्होने कपड़े लूटे। उसके बाद रियासती पलटनें आईं, उन्होने अनाज लूटा।
बाबर ने खुद अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उसे लोगों को मारकर उनके कटी हुई खोपड़ियों का पहाड़ बनाने का शौक़ था। हर लड़ाई के बाद ऐसा ज़रूर किया जाता; शायद अपने प्रतिद्वन्दियों के दिल में खौफ़ पैदा करने के लिए। अहमद शाह अब्दाली ने भी इस पुरानी परम्परा को अपने भारत अभियान में जारी रखा। हलाकू ने बग़दाद शहर को क़त्लेआम के बाद जला कर राख कर दिया था। दिल्ली कितनी बार उजड़ी है, कोई हिसाब नहीं है।
और हर छोटी-बड़ी लड़ाई के बाद औरतों का क्या हाल होता था, इसके लिए किसी कल्पना शक्ति की ज़रूरत नहीं है। कहते हैं कि आज दुनिया में चंगेज़ खान के सबसे अधिक वंशज है; कैसे, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। इस पृष्ठभूमि में अगर आप इराक़ और अफ़्ग़ानिस्तान का युद्ध देंखे तो आप को मानवीय लग सकता है। अबू ग़रीब की यातना जैसी घटना को छोड़ दें तो अमरीकी फ़ौजों ने न तो लूट-पाट की और न ही बेवजह हत्या-बलात्कार। (भाई मेरे, कृपया इसे अमरीकी नीति का अनुमोदन समझ कर चढ़े मत आईयेगा, ज़रा ठण्ड रखकर पढ़िये, बात-बात पर तलवार मत निकालिए हे मानवतावादी!)
मसला यह है कि आम जीवन में ‘मानवीय’ मूल्य और युद्ध में भी मानवता बरतने की जो नीति विकसित हुई है यह शुद्ध योरोपीय चिन्तन है और आधुनिक काल में पैदा हुआ है। कुछ लोग इस कारुणिक विचार की उत्पत्ति इमैन्वल कान्ट के दर्शन से देखते हैं। जो भी हो, जिस नैतिकता के दम पर हम अमरीका को गाली देते हैं, उस का ठीक-ठीक आगा-पीछा भी हमें नहीं मालूम। वो कैसे, किस रस्ते से हम तक पहुँची, और कैसे वह हमारी और हम उसके मालिक बन बैठे, हम नहीं जानते। हम उदार जन जिन मानवीय मूल्यों की बात-बात पर दुहाई देते हैं वो आम जन (राज्य के कर्मचारी, अधिकारी, सिपाही, सैनिक आदि भी) के भीतर कितने आत्मसात हैं, हमें नहीं मालूम।
हम जिस जीवन को जी रहे हैं, जिन सुविधाओं को भोग रहे हैं, क्या उस के लिए ‘हम’ ने संघर्ष किया है? क्या वो ‘हमारी’ आंकाक्षाओं और प्रयत्नों का परिणाम है? भारत में स्त्रियों को मताधिकार मिला, दलितों को आरक्षण मिला है, इसके लिए भारतीय स्त्रियों और दलितों ने कितना संघर्ष किया? क्या क़ुर्बानियां दी? तो फिर बिना संघर्ष, बिना बलिदान के कैसे मिल गयी उनको यह वरीयता? औरतों को मताधिकार योरोप के देशों में लम्बे संघर्ष के बाद मिला (और वो भी मिला क्योंकि स्त्री स्वातंत्र्य पूँजीवाद की ज़रूरत है, उसे सस्ता मज़दूर चाहिये) भारत में यूँ ही मिल गया? कैसे? बिना लड़े ये लड़ाईयां कैसे जीती जा रही हैं? वो कौन सी शक्ति है जो इस बदलाव के पीछे है?
शायद हमें यह मानने की ज़रूरत है कि कुछ अधिकार माँगने से, लड़ने से मिलते हैं, और कुछ बहुत लड़ने पर भी नहीं मिलते क्योंकि उनके लिए ऐतिहासिक परिस्थिति परिपक्व नहीं थी, और कुछ बैठे-बिठाए मिल जाते हैं क्योंकि वो इतिहास की ज़रूरत हैं। सोचिये इन में से कुछ अधिकार हमें अंग्रेज़ो के समय में ही हासिल हो गए थे?
आखिर क्या दबाव थे जिसके तहत अंग्रेज़ो ने मताधिकार और प्रतिनिधित्व जैसे ये अधिकार हमारी तरफ़ बढ़ा दिए थे? लोकप्रिय शासक अकबर के समय ऐसा क्यों नहीं हो सका? योद्धाओं की सन्तान उस अकबर ने तो ज़मीनदार, मनसबदार, जागीरदार और सूबेदार की श्रेणियों में ही सत्ता का वितरण करके मान लिया कि जनता का प्रतिनिधित्व सम्पन्न हो गया, चुनाव और मताधिकार जैसी बात उसके ख्याल में भी नहीं आई, बावजूद उसकी सारी भलमनसाहत के। लेकिन ‘सौदागर’ अंग्रेज़ ने सत्ता के बाज़ार को जन-जन तक फैला दिया और आमजन को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दे दिया। इस अधिकार को हमें मिले लगभग अस्सी बरस से भी ऊपर हो गया लेकिन कितनी अजीब बात है कि हम आज भी अपने लिए ज़मीनदार, मनसबदार, जागीरदार और सूबेदार ही चुनते हैं, अपने प्रतिनिधि नहीं। ये दोष राज्य का है कि जनता का?
ये ठीक बात है कि राज्य हमारे जीवन की अधिकतर बातों का नियन्ता है और उसने ही हमें शिकायत करने का भी हक़ हमें नियत कर दिया है। पर हमारी भी आदत हो चुकी है सारी समस्याओं को किसी एक संस्था के मत्थे मढ़ कर छुट्टी पाने की। ये प्रवृत्ति हमारी अपने जीवन की स्वयं ज़िम्मेदारी न लेने और हर बात के लिए ईश्वर पर निर्भर होने की आदत का अवशेष है। ईश्वर से हमारी शिकायतों का सिलसिला थमता नहीं दिखता। हम बजाय पुरुषार्थ पर विश्वास करने के हर चीज़ के लिए ईश्वर के आगे झोली फैलाये खड़े रहते हैं।
(वैसे कुछ चीज़ों का ठीकरा हम अंग्रेज़ों के सर भी फोड़ते हैं जैसे कि साम्प्रदायिकता; अच्छे-खासे प्रगतिशील लोग इस बात पर विश्वास करना पसन्द करते हैं कि अंग्रेज़ो के पहले भारत में साम्प्रदायिक मन-मुटाव नाम की चीज़ थी ही नहीं। एक मिसाल के तौर पर अशफ़ाक़ुल्ला खाँ के बारे में खुद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके साथ आने से सिद्ध हो गया कि मुसलमान ग़द्दार नहीं होते- क्या ऐसी बातें सौ-पचास बरस के अंग्रेज़ों के षडयन्त्र से किसी के मन में बैठ सकती हैं या उसके लिए आपसी नफ़रत का एक लम्बी विरासत होनी चाहिये?)
इस प्रवृत्ति की सबसे अच्छा उदाहरण शिरडी के साईं बाबा के भक्त हैं: साईं बाबा का दो शब्दों का संदेश है- श्रद्धा और सबुरी; उनके भक्तों में न तो श्रद्धा है और न सबुरी, शिरडी जा के माँग-माँग कर उन्हे मरने के बाद भी हकालते रहते हैं। ऐसे अनास्था वाले लोग – हम सभी, भले ही हम साईं बाबा के भक्त हो या न हों, इस दोष के रोगी हैं – राज्य के प्रति भी ऐसी ही अनास्था से पेश आते हैं। ये नहीं है, वो नहीं है, ये नहीं दिया, वो नहीं दिया। कोई विपदा आती है तो टीवी का कैमरा आते ही लोग शुरु हो जाते हैं, हमें तो कोई पूछने नहीं आया, किसी ने हमारी खबर नहीं ली? सवाल यह भी पूछना चाहिये लोगों ने एक-दूसरे की कितनी मदद की?
वेलफ़ेयर स्टेट (पहले थे, अब पता नहीं हैं कि नहीं) का तो काम है लोगों की मदद करना लेकिन इस स्थिति को अठाहरवीं सदी से तुलना कर लें और समझें। सरकार/राज्य किसी ईश्वर का स्थानापन्न है – ईश्वर के प्रति तो हम उच्छवास भरते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर कहाँ हो तुम - लेकिन सरकार को सीधे गरियाते हैं। क्योंकि वो हमारी प्रतिनिधि है, उसे हमारे हित में काम करना चाहिये, लेकिन वो करती नहीं, क्योंकि हमारे प्रतिनिधि हमारे नहीं किसी पूँजीपति के प्रतिनिधि हैं। एक बार फिर से- क्या इस का दोष राज्य का है कि जनता का?
अपनी इस अनास्था के चलते हमारे भीतर की उद्यमता पर भी असर पड़ा है, वो भी गहरे तौर पर भ्रष्ट हो चली है। किसी भी काम को हम पूरी शिद्द्त और मनोयोग से कर ही नहीं पाते। थोड़ी सी सुख-सुविधा और ऐशो आराम हमारी नैतिकता और आदर्श को ढहा देने के लिए काफ़ी साबित होते हैं। मुस्लिम हितों की बात करने वाले क्रांतिकारी अपने राजनैतिक करियर के लिए उन्ही के शक़-शुबहों के सहारे उनका शोषण करने लगते हैं। मज़दूरों के महान नेता, कोकाकोला को देशनिकाला देने वाले जार्ज साहब किस गली में जा कर फ़ंसते हैं। अपने भीतर की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करने निकले कविवर पुरुस्कारों की जुगाड़ू राजनीति में दण्ड पेलने लगते हैं। बाक़ी छोड़िये देखिये उदाहरण शिबू सोरेन और मधु कोडा का, आदिवासियों के बीच से निकले उनकी आकांक्षाओं को स्वर देने के लिए लेकिन कहाँ जा गिरे? क्या इन के पतन पीछे सरकार और राज्य का चरित्र ही उत्तरदायी है?
राज्य से पहले हम एक समाज हैं और समाज से पहले हम एक व्यक्ति। व्यक्ति के रूप में हम कितने नैतिक हैं? ये कौन सी बात है कि गूँहू रोटी को गाली दे कि वो बेस्वाद है? ये बात ठीक है कि राज्य का जो स्वरूप हमें मिला है उसे वैसा बनाने में हमने कोई भूमिका नहीं निभाई है, मगर सरकार तो हमारी ही अभिव्यक्ति है न? और अगर हम राज्य के इस स्वरूप से असंतुष्ट हैं तो हमारे पास कोई विकल्प तो होना चाहिये?
माओवादियों के विकल्प की चर्चा मैं पिछले लेख में कर चुका हूँ, वो मेरी समझ से वरेण्य नहीं है। अरुंधति से जब पूछा गया तो उन्होने कहा कि उनके पास कोई मैनिफ़ेस्टो नहीं है। यही हाल देश के सभी (ग़ैर-मार्क्सवादी) असंतुष्ट बुद्धिजीवियों का है: उनके पास शिकायतें तो हैं, सवाल तो हैं पर विकल्प नहीं है। अरुंधति का जो लम्बा लेख आउटलुक में छ्पा है उसकी मुख्य बातें निम्न हैं :
१) आदिवासी जंगल- पहाड़-नदी के साथ एकाकार हैं (जैसे आदिकाल में सभी मनुष्य थे)
२) बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदिवासियों की इस सम्पदा पर नज़र गड़ा के बैठी हैं और उसे हथियाने के लिए कार्यरत हैं।
३) यह सम्पदा एक अनुमान के अनुसार चार ट्रिलियन (१२ शून्य) डालर्स की है, भारत के जीडीपी से कई गुना अधिक।
४) देश की सरकार ने ऐसी बहुराष्टीय कम्पनियों के साथ समझ के समझौते कर रखे हैं जिसके तहत ७-८% के हिस्सेदारी पर भारत सरकार यह सम्पदा उनके हवाले कर देगी।
५) इस मुनाफ़े में आदिवासियों को कोई हिस्सा नहीं मिलेगा, जो उसके असली मालिक हैं।
६) उलटे उन्हे अपने घर, गाँव, और वातावरण –जिसके साथ वो एकीकृत हैं –से बेदखल कर दिया जाएगा।
७) माओवादियों ने आदिवासियों के असंतोष को स्वर दिया है, पर वो बरगलाए हुए नहीं है, उनकी अपनी एक लड़ाकू परम्परा है।
८) माओवादियों के साथ उनकी इस हथियारबन्दी से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खनन का अपना काम नहीं कर पा रहीं।
९) सरकार पर इन समझौतों को निभाने के लिए दबाव बढ़ रहा है औरे जिसके कारण वो इस समस्या को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रही है।
१०) वही सरकार जो विकास के नाम पर विस्थापित पाँच करोड़ लोगों का पुनर्वास नहीं कर सकी, उसे ३०० सेज़ बनाने के लिए १,४०००० हेक्टेयर ज़मीन मिल जाती है।
११) सरकार के साथ-साथ (चिदम्बरम वेदान्ता के लिए वक़ील और डाइरेक्टर के पद भी सम्हाल चुके हैं) अदालतें भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों बिक चुकी हैं।
१२) और जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए माओवादियों के दम-खम और आतंक का हौवा बना रही है ताकि उनके बहाने आदिवासियों को रौंदा जा सके और साथ ही दूसरी लोकतांत्रिक आवाज़ों को भी।
१३) सरकार उनसे बात तक करने को तैयार नहीं वह युद्ध चाहती है बस।
१४) पूँजी के हाथ की कठपुतली मीडिया सरकार का प्रवक्ता बना हुआ है, और कोई स्वतंत्र रपट करने के बजाय सरकार की भाषा बोल रहा है।
मोटे तौर पर इनमें से शायद ही कोई ऐसी बात हो कि जिसका कोई संवेदनशील व्यक्ति विरोध करेगा। बंधुता, समानता और स्वतंत्रता के मूल्य हम सभी ने भीतर तक स्वीकार कर लिए हैं (ये सवाल भी उठता है कैसे अपना लिए हैं, बिना उन पर विचार किए, क्योंकि वो खुद व्यवस्था द्वारा प्रचारित हैं; और सच में कितने अपनाए हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि व्यापक जन भीतर अभी भी किसी अन्य नैतिक मापदण्ड के सहारे हैं) और ये जो हो रहा है इन आदर्शों से मेल नहीं खाता। ज़ाहिर तौर पर अत्याचार हो रहा है। मैं इस अत्याचार का विरोध करता हूँ और चाहता हूँ कि पर्यावरण की हानि न हो, जंगल-पहाड़-नदी की पवित्रता बनी रही, पर मेरे चाहने और विरोध करने भर से क्या होता है। इतिहास बड़ा क्रूर है उसकी विशाल नदी के बीच मेरी नन्ही वैचारिक (और तमाम दूसरों की ठोस आन्दोलित) चेष्टाएं क्या बिसात रखती हैं।
इस नदी की धारा को पलटने के लिए जिस प्रकार की हिंसा और नरबलि लगेगी उस के प्रति हम अहिंसक उदारजनों का क्या नज़रिया होगा, यह भी सोचना चाहिये। माओवादी तथा दूसरे पके हुए राजनीतिकर्मियों को कोई शुबहा नहीं होता, वो अपनी तरह की व्यवस्था लाने के लिए हर क़ुरबानी देने के लिए तैयार रहते हैं।
स्वयं अरुंधति भी जानती हैं कि माओवादी, आदिवासियों की बलि देकर आम जनता के आगे नरसंहार का एक विहंगम दृश्य खड़ा कर के अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने की नीति खेल सकते हैं। लेकिन फिर भी वो उनके समर्थन में इसलिए जाती हैं क्योंकि उन्हे इस कॉरपोरेट पूँजीवाद के अधिक समाजवादी तंत्र पर भरोसा है (फिर भी ये सवाल रह जाता है कि उसमें पर्यावरण के मसलों की जगह कहाँ रहेगी?), इसीलिए अरुंधति जिस मुखर स्वर से राज्य की हिंसा की आलोचना करती हैं माओवादी हिंसा की नहीं करतीं। यानी विरोध हिंसा का नहीं, हिंसा के चरित्र का है।
आप तय कीजिये कि आप किस हिंसा के हिमायती हैं। हिंसा से छुटकारा नहीं है। बुद्ध की शिक्षाएं पा कर भी जापानी हिंसा के पुजारी बनी रहे। गाँधी बाबा अहिंसा-अहिंसा करते रहे, देश उन्हे बापू, महात्मा कहता रहा और जब देश आज़ादी की बारी आई तो लाखों लोग अल्लाहोअकबर और हरहरमहादेव कह कर लड़ मरे। हिंसा की ऐसी सर्वव्यापकता के बावजूद हम हिंसा को अनैतिक मान कर अपना पक्ष चुनते हैं, मैं भी – ऐसा है अपने युग की नैतिकता का दबाव।
मेरी इच्छा है कि सरकार और माओवादी के नेतृत्व में आदिवासी जन बातचीत करें और सरकार उनकी ज़मीन का उन्हे उचित मुआवज़ा दे, और साथ ही यह भे सुनिश्चित करे कि पर्यावरण की हानि न हो या कम से कम हो। ऐसा चाहने वाले किसी भी नागरिक आन्दोलन का मैं समर्थन करता हूँ। साफ़ तौर पर मैं नहीं चाहता कि मार-काट हो, मैं नहीं चाहता कि माओवादी प्रबल होकर इस राज्यतंत्र को कमज़ोर करें और १८ वीं सदी वाली अराजकता का परिदृश्य दोहराया जाय। पर ये सब सदिच्छाएं हैं, देखें ऐसा सम्भव हो पाता है कि नहीं।
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