मैंने सोचा कि क्या शानदार बात है! जन-संघर्ष की लोकप्रिय विचारधारा में हमेशा अभिजात्य वर्ग खलनायक की भूमिका निभाता रहा है, मगर वन हैज़ टु गिव द डेविल इट्स ड्यू। मानव विकास को, इतिहास को अवस्थाओं में समझने वालों को अपनी समझ में ये गुंजाइश बनाए रखनी चाहिए कि इतिहास की द्वन्द्वात्मक व्याख्या करते समय द्वन्द्वरत दोनों पहलुओं की भूमिका की क़दरदानी हो। एक को आसमान पर बिठा कर दूसरे को खाक में न मिलाया जाय। अभिजात्य वर्ग ने जहाँ मानवता के बड़े हिस्से को अभी तक शोषण के चक्र में झोंके रखा है, वहीं दूसरी तरफ़ अपनी सत्ता शक्ति का इस्तेमाल उसने कला, विज्ञान, साहित्य और दर्शन को प्रायोजित करने में भी किया है।
पर फिर खयाल आया कि जन संघर्ष की लोकप्रिय विचारधारा इस तर्क को, इस नज़रिये को स्वीकार नहीं करती। क्यों? उसके अनुसार वास्तव में आम लोग ही अपनी परिपाटियों, मान्यताओं, और परमपराओं में संस्कृति को कला को जीवित रखते हैं। जबकि शासक वर्ग हमेशा विचार के, कला के, दर्शन के दमन की ही भूमिका निभाता रहा है। समाज को आगे ले जाने में उसकी कभी कोई प्रगतिशील भूमिका नहीं रही। क्योंकि सत्ता हमेशा वर्तमान को, स्टेटस-को को क़ायम रखने की कोशिश में ही रहती है, स्वभावतः। और प्रगति, स्वभाव से ही व्यवस्था को बदलने को उन्मुख होती है।मध्यकाल में सत्ताधारी चर्च ऐसे किसी भी विचार के विरोध में था जो उसकी रूढ़ियों को चुनौती देता हो- जैसे पृथ्वी गोल है। मगर व्यापारी वर्ग को इस विचार से कोई तक्लीफ़ नहीं थी, वह प्रगतिशील था। आज के दौर में अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण मनुष्य ही नहीं, पृथ्वी पर जीवन मात्र के लिए खतरनाक है, इस विचार को व्यापारी वर्ग पचा नहीं पा रहा। क्योंकि यह मानवता के वृहत हित में भले ही हो मगर उसके 'अपने' हितों के विरुद्ध है। या ऊर्जा के दूसरे स्रोतों पर किसी भी नई खोजों को लगातार कुचला जाता रहेगा क्योंकि वे पेट्रोलियम लॉबी के हितों के खिलाफ़ जाता है। सीधी बात है आज का व्यापारी वर्ग, जो शासक वर्ग है, प्रगतिशील नहीं रह गया; वह समाज को आगे बढ़ने से रोक रहा है। वह अपने हितों को महफ़ूज़ रखनें में रत है।
सवाल उठता है कि जीवन एक अवस्था को, बनाए रखने का उसे महफ़ूज़ रखने का नाम है या लगातार बदलते जाने का? इन्सान जवानी को दोनों हाथों से पकड़े रहना चाहता है, शायद दाँतों से भी। मगर कुदरत उसके ऐसे किसी इरादों पर गौर नहीं करती, वह बदलती जाती है। फिर भी अगर आदमी बन-ठन कर, मेकप थोप कर, बाल रंग कर, सर्जरी कराकर जवानी को महफ़ूज़ रखने की कोशिश करता रहे, या मिस्र के शासकों की तरह बाम-लेपन आदि करके मृत्यु के बाद भी बने रहने की कोशिश करता रहे, तो वह एक चलता फिरता जोकर बनेगा या ममी बनेगा। और मानव समाज एक जीवित समाज नहीं रहेगा बन जाएगा एक अजायबघर।
3 टिप्पणियां:
ये प्रमोद जी चीन से लौट आये क्या..?या आप कल चीन गये थे..?
अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण मनुष्य ही नहीं, पृथ्वी पर जीवन मात्र के लिए खतरनाक है, इस विचार को व्यापारी वर्ग ही नहीं राजनीतिक शक्तियां भी कहां पचा पा रही हैं ?
अच्छा लिखा.
बढ़िया मंथन. विचारणीय.
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