शुक्रवार, 27 अप्रैल 2007

एक और प्रतिभाशाली कवि.. एक और चिट्ठा..

अभी कल ही आपका परिचय कराया मित्र बोधिसत्व से और आज मिलाना चाहता हूँ अपने एक वरिष्ठ और पुराने साथी से.. जो एक बेहद प्रतिभाशाली कवि हैं.. नाम है चन्द्रभूषण .. और इनके चिट्ठे का नाम है पहलू..

मैं चन्दू भाई को १९८६ से जानता हूँ.. वो मुझसे पहले से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे.. पर मैंने उन्हे जाना प्रगतिशील छात्र संगठन (पी एस ओ) के माध्यम से.. संगठन का कर्यालय था १७१ कर्नलगंज, इलाहाबाद.. कार्यालय के सामने है प्रसिद्ध जवाहर बाल भवन और आनन्द भवन.. और पीछे है सी आइ डी का कार्यालय.. पीएसओ के कार्यालय में कुछ साथी ऐसे भी थे जो ना सिर्फ़ वहाँ दिन रात काम करते थे बल्कि वहाँ रहते भी थे.. उन साथियों मे एक चन्दू भाई भी थे.. चन्दू भाई ग़रीब ब्राह्मण परिवार से आये थे.. और विश्वविद्यालय में गणित पढ़ रहे थे.. पर अक्सर दिमाग़ में गणित से ज़्यादा रहने खाने के सवाल जगह घेरते.. ऐसे बुरे दिनो के बीच चन्दू भाई अपने दुःख और अपने स्वार्थ की ही चिन्ता नहीं करते रहते.. उनके मानसिक पटल पर वृहत्तर सामजिक सरोकारों की दावेदारी थी.. वहाँ छुद्र स्वार्थों को अपने पैर फैलाने की जगह नहीं मिली.. आरक्षण के सवाल पर उनकी पारिवारिक विपन्नता स्वाभाविक रूप से उन्हे आर्थिक आधार पर आरक्षण वाले तर्क के साथ गोलबन्द कर सकती थी.. पर उन्होने स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पास भी नहीं फटकने दिया.. और सामाजिक न्याय का पक्ष चुना..

अपनी पढ़ाई बीच में ही अधूरी छोड़ के चन्दू भाई १९८८ में सी पी आई एम एल से वैचारिक साम्य रखने वाले समकालीन जनमत में पूर्णकालिक रूप से सहयोग करने के लिये इलाहाबाद से पटना चले गये.. और उस दौरान राजनीति संस्कृति विज्ञान दर्शन से लेकर साहित्य तक अपनी लेखनी चलाते रहे.. उसके बाद भी मिलता तो मैं उनसे रहा हूँ पर मेरी स्मृति में चन्दू भाई की वही छवि अंकित है जो जनमत जाने के पहले उनके व्यक्तित्व की थी.. बाद में १९९६ में जनमत के बंद होने के साथ वो दिल्ली चले आये और तब से अखबारी दुनिया के बीच अपने भीतर के बेहतर इंसान को बचाने की प्रक्रिया में संघर्षरत हैं.. हिन्दी की कई प्रमुख पत्रिकाओं में चन्दू भाई के लेख कविताएं समीक्षाएं और तीन चार कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं.. बारह से अधिक किताबों का अनुवाद सम्पादित कर चुके हैं.. मगर बेहद कोमल संवेदनाओं के स्वामी चन्दू भाई भीतर से कवि हैं.. उनकी एक पंक्ति मुझे नहीं भूलती (जो अब तक शायद किसी कविता का अंग बन गई हो) .. मैं, मेरे एक और मित्र राजेश अभय और चन्दू भाई साथ में थे.. हम कुछ नशे में थे.. कुछ दुख में थे और कुछ गुस्से में.. और चन्दू भाई ने आसमान में घूरते हुये कहा.. साथी आज की रात.. आओ मारें चाँद को एक लात..

परिचय को और लम्बा नहीं करूंगा.. चन्दू भाई का इतनी रात गये नाम से एक कविता संग्रह २००१ में संवाद प्रकाशन से निकल चुका है.. जिन्होने इसे पढ़ा है उनका मानना है कि हमारे समय के सबसे सच्चे और ईमानदार प्रतिबिम्ब आपको यहाँ देखने को मिलेंगे... आप इस संग्रह को निम्न पते से मंगा सकते हैं..
ए-४, ईडेन रोज़, वृंदावन,
एवरशाइन सिटी, वसई रोड,
ठाणे पूर्व, महाराष्ट्र -४०१२०८

'इतनी रात गये' से मेरी पसंद की एक कविता..

दुविधा


सब कुछ खुला खुला सा है
पहरा मगर सख्त है
न दिन है न रात है
अजीब सा कोई वक़्त है

सुन्न शरीरों पर रस की फुहार
अपनी अपनी नींदो में खोये
सभी नाच रहे हैं
बहुत बुरा है यहाँ खुली आँख रखना
देखना सब कुछ चुपचाप सहना
उससे बुरा यह
कि थिरक रहे हैं अपने भी पाँव
न रोक पाता हूँ इन्हे
न शामिल हो पाता हूँ
चहार सू व्यापी इस एकरस लय में

ज़िन्दगी के सफ़र का
ये कौन सा मुकाम, उफ़
कि क्षितिज पर अटका है
आत्मा का सूरज
न उगता है, ना डूबता है

7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

इतनी रात गए की पांडुलिपि पहले-पहल मेरे हाथ लगी थी, जब मैं इलाहाबाद में बी.ए. कर रही थी। मुझे क्‍या पता, कौन है चंद्रभूषण, फिलहाल पढ़ने की बीमारी थी। जो भी हाथ लगे, पढ़ जाती, सो उसे भी पढ़ गई। मगर पढ़ने के बाद ये जानने का मोह संवरण नहीं कर पाई कि कौन हैं ये चंद्रभूषण। कोई शक नहीं कि कविताएं बहुत सुंदर हैं। हिंदी में ऐसी चीजें कम ही होती हैं। आलोक ने इसे छापकर एक बढिया काम किया। लेकिन चांद को लात मारने की उनकी इच्‍छा मुझ पर आज ही जाहिर हुई। बहुत अच्‍छे।
मनीषा

बेनामी ने कहा…

जैसी शख्‍सीयत, वैसा परिचय। चंद्रभूषण और इरफान दो नाम थे, हो हमारे छोटे शहरों में रहते हुए हम एक साथ लेते थे। जनमत हम पढ़ते थे और उत्तेजित रहा करते थे। चंद्रभूष्‍ाण कवि हैं, ये बहुत बाद में जाकर हमें पता चला। लेकिन इस पता चलने के बाद भी कवि के रूप में स्‍वीकार करना मुश्किल था। एक विचारवान और ज़‍िम्‍मेदार संस्‍कृतिकर्मी की छवि को कवि में परिवर्तित कर पाने में हम अक्षम थे। 2000 ईस्‍वी में मैं प्रभात ख़बर की रविवारी पत्रिका का संपादक था। होली अंक में हमने चंद्रभूषण का एक संस्‍मरण जनमत से साभार पब्लिश किया था। एक ऐसा संस्‍मरण, जिसमें होली की बिंदास बतकही से अलग कैसा हो वीरों का वसंत की गर्माहट लिये था। बहुतेरी छवियां हैं और उन्‍हें संजो कर रखना एक बड़ा काम है। इसलिए दिल्‍ली में रहते हुए आज तक मैंने उनसे मिलने की हिम्‍मत नहीं की। लेकिन इस दुनिया में नये सिरे से वे हमारे सामने होंगे- हमारा नये सिरे से परिचय भी होगा।
अभय जी, आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद। आपने हिंदी कवियों की इस नयी यात्रा को दर्ज करके नेक काम किया है।

deepak ने कहा…

अभय जी,
काफ़ी समय से आपका ब्लोग पढ रहा हूं, आप के लिखने का अंदाज मुझे बहुत भाता है । शायद इसलिये कि आपके और अपने विचारों में काफ़ी साम्य पाता हूं । समकालीन जनमत में भी पढा करता था । वामपंथी न होते हुए भी उनकी तडप मुझे प्रभावित करती थी । हिंदी के कवियों से परिचय कराने की आपकी यह कोशिश अपूर्व है । खास्कर तब तो और भी जब वे आपके मित्र हों । यदि भोपाल के कवि जोशी जी से आपके परिचय हो तो उन्हे भी लायें ।

सुभाष मौर्य ने कहा…

अभय भाई साधुवाद। आपके संस्‍मरणों में कवि के साथ मानों पूरा इलाहाबाद जी उठता है। बोधि भाई और अब चंद्रभूषण। अगला नंबर किसका है। क्‍या रविकांत। उम्‍मीद है आप उनसे परिचित ही होंगे। बोधिभाई के बाद वाली पीढी के और इलाहाबादी साहित्‍यकारों के दुलरूआ रविकांत। वह भी आजकल लखनऊ में टीवी चैनल में मजूरी कर रहे हैं। प्रणय कृष्‍ण के माध्‍यम से उनसे उनके सोहबतिया बाग वाले घर पर मुलाकात हुई थी। उन्‍हीं से पहले पहल बोधि भाई के बारे में जाना। 171 कर्नलगंज मैंने भी बैठकें लगायी हैं। लेकिन मैं उसे अब भी आइसा क दफ्तर के रूप में ही जानता था। आपसे पता चला कि वह कभी पीएसओ का भी कार्यालय था। अब वहां सबद नाम की किताबों की अच्‍छी सी दुकान खुल गयी है जिसे सुनीता जी चलाती है। इलाहाबाद में पढाई के 10 साल गुजरे लेकिन तब उसका महत्‍व समझ नहीं आता था। साल 2000 में जब इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से जेएनयू चला आया तो अब वो शहर बेतरह याद आता है। आप यू ही इलाहाबाद को सुनाते रहें। हम भी इसी बहाने इलाहाबाद को जी लिया करेंगे। एक बार फिर से साधुवाद।

ghughutibasuti ने कहा…

धन्यवाद अभय जी , इतनी अच्छी कविता पढ़ाने के लिये और कवि के बारे में बताने के लिये ।
घुघूती बासूती

बोधिसत्व ने कहा…

चंदू भाई इतनी रात गए पढ़ कर चुप रह जाना पड़ा था क्योंकि जब पढ़ा था तब साहित्यिक पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिख रहा था। मैं वैसे भी कम लिखता हूँ लेकिन आप पर लिख कर उऋण होना चाहता हूँ । अपनी पत्रिका में लिखने से तो अभी कोई नहीं रोक सकता जल्द ही लिख रहा हूँ।

बेनामी ने कहा…

अभय, दो-तीन दिन से इसी पर अटके है। कुछ नया लिखिए। बीच-बीच में कहां गुम हो जाते हैं।
मनीषा

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