गुरुवार, 5 अप्रैल 2007

स्त्री टूटी नहीं है और ना तोड़ी जा सकती है..

जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री पुरुष सम्बंधों और स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ..स्त्री पर अपने ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. कल आपने पढ़ा दूसरा टुकड़ा.. जिसमें गुरुदेव ने कहा.. मगर क्योंकि आदमी अपनी सत्ता के अभिमान में उन सारी चीज़ों का उपहास करता है जो कि जीवित हैं और उन सम्बंधो का जो कि मानवीय है, तो बहुत सारी स्त्रियाँ गला फाड़ के चीख रही हैं ये सिद्ध करने के लिये कि वे स्त्रियाँ नहीं हैं और संगठन और सत्ता में ही उनकी सच्ची अभिव्यक्ति होती है। वर्तमान काल में जब उन्हे अस्तित्व की जैविक ज़रूरत और प्रेम और सहानुभूति के गहरी आध्यात्मिक ज़रूरत की संरक्षक के बतौर सिर्फ़ माँ समझा जाय तो उन्हे लगता है कि उनके सम्मान को क्षति होती है.. आज पढ़िये तीसरा और अन्तिम टुकड़ा..


काफ़ी समय से बदलाव जारी हैं समाज की ठोस परत के नीचे जिस पर स्त्री की दुनिया की बुनियाद रखी है। हाल में, विज्ञान की मदद से, मनुष्य की सभ्यता और ज़्यादा पौरुषीय होती जा रही है। जिसके कारण व्यक्ति की पूरी वास्तविकता की उपेक्षा हो रही है। व्यक्तिगत रिश्तों के इलाक़े में संगठन अपने पैर फैला रहा है और भावनाओं का स्थान पर क़ानून। पौरुषीय आदर्शों से प्रभावित कुछ समाजो में, भ्रूण हत्या का चलन होता रहा है ताकि स्त्रियों की जनसंख्या पर क्रूरता से काबू बनाये रखा जाय। वही चीज़ एक दूसरे रूप में आधुनिक सभ्यता में भी हो रही है। सत्ता और सम्पदा के अपने सतत लोभ के चलते इस सभ्यता ने स्त्री को उसकी दुनिया के अधिकतर भाग से वंचित कर दिया है। घर रोज़-ब रोज़ दफ़्तर से और घेरा जा रहा है। स्त्रियो के लिये कुछ भी ना छोड़ कर इस ने पूरी दुनिया को निगल लिया है। ये अपकार ही नहीं अपमान भी है।

सत्ता के लिये आदमी की आक्रामकता के कारण स्त्रियों को महज़ सजावटी क्षेत्रों में हमेशा के लिये धकेला नहीं जा सकता। क्योंकि वह सभ्यता के लिये आदमी से कोई कम ज़रूरी नहीं बल्कि शायद ज़्यादा ज़रूरी है। पृथ्वी की भौमिकी इतिहास में विराट विभीषिकाओं के दौर भी गुज़रे हैं जबकि पृथ्वी ने परिपक्वता की वो नरमी हासिल नहीं की थी जो किसी भी प्रकार के हिंसक प्रदर्शन को तुच्छ समझती है। व्यापारिक स्पर्धा और सत्ता के लिये संघर्ष करने वाली सभ्यता को उस अवस्था की श्रेष्ठता के लिये भी जगह बनानी चाहिये जिसकी शक्ति, सौन्दर्य और शुभता की गहराई में छिपी होती है। इतिहास की बागडोर अभीप्सा के हाथ अब बहुत रह ली। क्योंकि व्यक्ति को अपने हर हक़ के लिये सत्ता पक्ष से बलपूर्वक छीना झपटी करनी पड़ी है और अपनी भलाई को प्राप्त करने के लिये भी बुराई की मदद लेनी पड़ी है। मगर इस तरह की व्यवस्था लम्बे समय तक नहीं चल सकती। ऐसी व्यवस्था को बार बार हिंसा क्रे बीजों का सामना करना होगा जो उसके कोनों दरारों म्रें ही पड़े रहते हैं, और सामना करना होगा अंधेरे में फैले व्यवधानों का जो इसको नेस्तनाबूद कर देंगे जबकि ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं होगी।

हालाँकि इतिहास की वर्तमान अवस्था में पुरुष अपने पौरुष का सिक्का चला रहा है और अपनी सभ्यता को शिलाखण्डों से बनाता आ रहा है, विकास के जीवन सिद्धान्त की उपेक्षा कर के। मगर वह स्त्री के स्वभाव को दबा कर मिट्टी या अपनी बिल्डिंगों का मृत सीमेन्ट रेतादि नहीं बना सकता। स्त्री के घर टूट गये हो पर स्त्री नहीं टूटी है और ना तोड़ी जा सकती है। सिर्फ़ आदमी की व्यापारिक इजारेदारी के खिलाफ़ संघर्ष करते हुये स्त्री अपने रोज़गार की आज़ादी खोज रही है, ऐसा नहीं है कि बल्कि ये संघर्ष है आदमी की सभ्यता पर इजारेदारी के खिलाफ़ जहाँ वह रोज़ उसका हृदय खण्डित कर रहा है और जीवन विध्वंस कर रहा है। उसे स्त्री का सम्पूर्ण भार मानवीय दुनिया के सृजन में लगाते हुये सामाजिक असंतुलन को फिर से संतुलन में लाना चाहिये। संगठन की पैशाचिक मोटर-कार जीवन के राजमार्ग पर चलते हुये, विपत्ति और विकृति फैलाते हुये, घरघरा किरकिरा रही है क्योंकि दुनिया में तेज़ गति ही उसकी प्रथम वरीयता है। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति के घायल और चोटिल जगत में स्त्री का आगमन हो, और वो हर एक को अपनाये, बेकार को और तुच्छ को भी। वह भावनाओं के सुन्दर सुमनों को वैज्ञानिक प्रवीणता के झुलसा देने वाले ठहाकों से छाँव दे । लोभ के सांगठनिक साम्राज्य के द्वारा जीवन को उसकी सामान्यताओं से वंचित किये जाने पर जन्मी और बढ़ती अशुद्धताओं को बुहार कर बाहर करे । समय आ गया है कि जब उसका कार्य क्षेत्र घरेलू आयामों से कहीं बाहर तक फैल गया है और स्त्री की ज़िम्मेदारी पहले से और बढ़ गई है। दुनिया ने, अपने अपमानित व्यक्तियों के समेत, अपनी गुहार उस तक पहुँचा दी है। इन व्यक्तियों को अपनी सच्चा मूल्य फिर से पाना है, खुले आसमान में फिर से सर उठाना है, और उसके प्रेम के सहारे ईश्वर में अपनी आस्था का पुनर्जागरण करना है। आदमियों ने आज की सभ्यता की अर्थहीनता देख ली है, जो राष्ट्रवाद पर आधारित है, यानी कि आर्थिक और राजनैतिक आधारों पर, और उसके परिणाम सैन्यवाद पर। आदमी अपनी आज़ादी और मानवता खोता रहा है विशाल मशीनी संगठनों मे फ़िट होने के लिये। तो अगली सभ्यता, ऐसी आशा है !!!, सिर्फ़ आर्थिक, राजनैतिक स्पर्धा और शोषण पर नहीं और सिर्फ़ कार्यकुशलता के आर्थिक आदर्शों पर नहीं बल्कि विश्वव्यापी सामाजिक सहयोग, आदान प्रदान के आध्यात्मिक आदर्शों पर आधारित होगी। और तब स्त्रियों को अपना सच्चा स्थान मिलेगा।

क्योंकि पुरुष विशाल और पैशाचिक संगठन बानाते रहे हैं, उन्हे ये सोचने की आदत हो गई है कि सत्ता उत्पादन अपने आप में कोई स्वाभाविक आदर्श है। ये आदत उनमें बैठ गई है। और उन्हे विकास के वर्तमान आदर्शों मे सत्य की ग़ैर मौजूदगी को देखने में मुश्किल हो रही है। मगर स्त्री अपनी एक मानसिक ताज़गी ले आ सकती है इस आध्यात्मिक सभ्यता के निर्माण के इस नवीन कार्य में, यदि वह अपने उत्तरदायित्व के प्रति सचेत बनी रहे।

निश्चित ही वह चंचल हो सकती है अपने नज़रिये में संकीर्ण हो सकती है और अपने लक्ष्य से भटक भी सकती है। स्त्री अलग थलग रही है, आदमी के पीछे एक ग़ुमनामी में रही है अब तक, पर मेरा ख्याल है कि आने वाली सभ्यता में इस बात की खानापूरी हो जायेगी। और जीवन की अगली पीढ़ी में हारेंगे वे मनुष्य जो अपनी सत्ता की डींगे मारते रहे, और आक्रामक तरीक़ों से शोषण करते रहे और जिनका भरोसा उठ गया है अपने मालिक की शिक्षा के असल अर्थ से कि कमज़ोर ही पृथ्वी का उत्तराधिकारी होगा। यही बात प्राचीन दिनों में भी घटी थी, प्रागैतिहासिक काल में, डायनासोर और मैमॉथ जैसे विशाल प्राणियों के साथ। उन्होने पृथ्वी का उत्तराधिकार खो दिया है। बलशाली प्रयासों के लिये उनके पास विराट मज्जायें थी लेकिन उन्हे अपने से कहीं कमज़ोर प्राणियों से हारना पड़ा उनसे जिनकी मज्जा कम थी, आकार कम था। और भविष्य की सभ्यताओं में भी, स्त्री जो कि कमज़ोर प्राणी है, अपने बाहिरी आकार में, मज्जा में, और जो हमेशा पीछे रहीं और छोड़ दी गईं पुरुष नाम के उस विशाल प्राणी के साये में, वे अपनी जगह हासिल करेंगी और बड़े प्राणियों को रास्ता देना होगा।
समाप्त

5 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

हार्दिक बधाई , इस प्रस्तुति के लिए । इसे हिन्दी-विकीपीडिया पर भी डाल दें ।

ghughutibasuti ने कहा…

अभय जी,मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके मन में स्त्री प्रति केवल आदर है। किन्तु जब कोई पुरुष हमें परिभाषित करता है तो स्वाभाविक रूप से हमारे कान खड़े हो जाते हैं। सदियों से उपदेश सुनकर व वह कौन है, कैसी है, कितनी महान है, कितनी त्यागमयी है,प्रभु ने उसे क्यों बनाया ,वह धरती पर अपने लिये,अपने जीवन को जीने के लिये नहीं आई आदि सुनकर हमें कुछ घबराहट, छटपटाहट होने लगती है। आपको भी होगी जब कोई आपको यह सब कहे।
ऐसे में कुछ शक सा होने लगेगा। यदि आप पेड़ पर चढ़ कर अपने खाने के लिये फल तोड़ रहे हों और कोई आकर आपकी महानता, दानवीरता के बारे में बोलने लगे तो क्या आपको नहीं लगेगा कि वह चाहता है कि आप स्वयं न खा कर उसे खिलायें? कुछ ऐसा ही हमारे साथ होता है। तब लगता है कि भाई, हमें महान मत बनाओ बस जीने दो। हम केवल व्यक्ति भर हैं।
वैसे आपको नहीं लगता कि गुरुदेव की भाषा में यहाँ कुछ बाइबल की भाषा का पुट है?
घुघूती बासूती

अनामदास ने कहा…

कोटिशः धन्यवाद. बेहद अनूठा और सुंदर दृष्टिकोण. कोई वज्रमूर्ख ही होगा जो गुरूदेव को स्त्री विरोधी कहे लेकिन वे यूरोपीय फ़ेमिनिज़्म की कच्ची समझ वाले लोग-लुगाइयों से तो वे असहमत ज़रूर हैं. और माल हो तो फ़ौरन निकालिए, अनुवाद की फैक्ट्री में काम करता हूँ, सामग्री सुझाइए तो मैं भी छाप दूँगा, कुछ तो भला होगा, वर्ना नेट पर रहेगा, न जाने कौन कब ढूँढ ले.
अनामदास

बेनामी ने कहा…

स्त्री टूटी नहीं है और ना तोड़ी जा सकती है.. हमारा भी यही मानना है लेकिन फिर भी आदमी तोडने का प्रयास करता रहता है। घूघुतीजी की बातों में भी दम है

अभय तिवारी ने कहा…

भाई अनामदास..आपके प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद..
माल जैसा तो बहुत कुछ नहीं है मेरे पास.. हाँ अम्बेदकर के लेखन से हम जैसे बहुत लोग अपरिचित हैं.. नेट पर अंग्रेज़ी में उपलबध है.. आप कोशिश करना चाहें तो स्वागत है..देखें यहाँ - http://ambedkar.org/

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