हुआ
ये था कि बीच राह में टंकी का
गला सूख गया और स्कूटर की आवाज़
बंद हो गई। किसी तरह धकेलकर
शांति ने स्कूटर एक परिचित
की इमारत में खड़ा किया और घर
लौटने के लिए स्कूटर खोजने
लगी। जब दूर-दूर तक
तीन पहियों वाली कोई पहचानी
आकृति नहीं दिखी तब पता चला
कि शहर में तो हड़ताल है रिक्षेवालों
की। वो अपने किराए में बढ़ोत्तरी
माँग रहे हैं। कहते हैं कि माँ
भी बच्चे को रोने पर ही दूध
पिलाती है। और रिक्षेवाले
जानते हैं कि सरकार माईबाप
होती है।
शांति
की तरह बाक़ी शहरियों की रिक्षेवाली
की समस्या में कोई रुचि नहीं
थी वो सिर्फ़ घर लौटना चाहते
थे मगर स्वार्थी, खुदगर्ज़
रिक्षेवाले अपनी ज़रूरतों का
राग अलाप रहे थे। सारे रिक्षेवाले
शहर की सतह से ग़ायब हो गए थे,
ऐसा नहीं था। वो वहीं
थे पर कहीं भी जाने से मुन्किर
थे। कुछ गद्दार भी थे जो मोटे
किराए के लालच में इस मौक़े का
फ़ाएदा उठा रहे थे। घर जाने को
बेचैन सभी नागरिक ऐसे गद्दारों
की तलाश में थे और उन्हे मीटर
से अलग मोटे भाड़े के लालच से
लुभा रहे थे। फिर उनके राज़ी
न होने पर उन्हे गलिया भी रहे
थे। शांति ने इस तमाशे को थोड़ी
देर देखा, सहा,
ग़ुस्से से लाल-पीली
होके दो-तीन रिक्षेवालों
को बुरा-भला भी कहा।
कुछ देर में अजय आ गया। अजय
अपनी गाड़ी से कुछ पेट्रोल
निकालकर शांति के स्कूटर में
डाल सकता था मगर शांति जिस मूड
में थी उसे देखकर वो सीधे शांति
को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर
आ गया।
अगले
दिन भी हड़ताल थी। दो दिन की
हड़ताल से पूरे शहर के नागरिक
आजिज़ आ गए और तन-मन-धन
से रिक्षेवालों के विरोधी हो
गए। अख़बारों में रिक्षेवालों
की जनविरोधी व्यवहार के विरुद्ध
बड़े-बड़े लेख लिए
गए। शहर के एक लोकप्रिय रेडियो
स्टेशन ने रिक्षेवालों के
विरुद्ध मीटर डाउन आन्दोलन
चलाया -जिसमें वो
हर ऐसे रिक्षेवाले का नम्बर
पुलिस में शिकायत करते जो
उन्हे मनचाही जगह ले जाने से
मना करता है। शहर में गुण्डागर्दी
के बल पर अपनी साख बनाने वाली
प्रगतिशील सेना ने शहर में
कई रिक्षेवालों की पिटाई कर
दी और तीन रिक्षों को आग लगा
दी। शहर के पुलिस कमिश्नर ने
जनता की सहायता के लिए पूरे
शहर में सादे कपड़ों में सिपाहियों
को तैनात कर देने का ऐलान किया
जो बदतमीज़ और अक्खड़ रिक्षेवालों
को क़ानून के दायरे में लाएंगे।
शांति
ने तीसरे दिन सुबह जब यह बातें
अख़बार में पढ़ी तो उसे थोड़ी
अटपटी लगीं- ख़ासकर
ये अक्खड़ शब्द।
'ये
तो अजीब बात है.. ! '
'क्या..
?' अजय ने चाय पीते-पीते
पूछा।
'ये
रिक्षेवालों को अक्खड़ क्यों
कह रहे हैं..? '
'क्यों
अक्खड़ नहीं वो लोग.. ? मैं
तो कहता हूँ मक्कार भी है..
जब हमारी ज़रूरत होती
है.. तो कितना भी
पुकारो सुनते ही नहीं.. देखते
ही नहीं.. और दोपहर
के वक़्त जब कोई भाड़ा न मिल रहा
हो तो धीरे-धीरे
हार्न बजाते हुए पीछे-पीछे
चलते हैं.. पालतू
कुत्ते की तरह.. दुम
हिलाते हुए.. '
'ठीक
है.. मैं मानती हूँ..
वो करते हैं ऐसा..
पर हर रिक्षेवाला
अक्खड़ होता है.. ये
मैं नहीं मानती.. ये
तो पूर्वाग्रह है.. ये
तो वैसे ही है जैसे कोई कहे कि
हर पोस्टमैन डरपोक होता है..
? अक्खड़पन या डरपोकपन
किसी एक व्यक्ति का गुण हो
सकता है किसी समूह का नहीं..
'
'तो
तुम्ही बताओ कि क्यों करते
हैं वो ये सब.. ? '
'ये
ठीक बात है कि मैं कल बहुत पक
गई थी उनके व्यवहार से.. पर
अगर वो कहीं नहीं जाना चाहते
तो मैं कौन होती हूँ उनको मजबूर
करने वाली..? आज़ाद
देश है.. कोई ज़बरदस्ती
तो नहीं.. '
'अरे
ये क्या बात हुई? कल
को स्कूल का मास्टर भी कह दे
कि मैं इस बच्चे को पढ़ाऊँगा
और इसे नहीं.. '
'मास्टर
भले न कहते हों पर स्कूल तो
कहते हैं.. और हम कुछ
भी नहीं कर सकते? '
'अच्छा
तो दुकान वाला कहे कि मैं इसे
माल दूँगा और उसे नहीं..
दुकान खोली है तो सबको
माल देना पडे़गा.. '
'ऐसा
कोई नियम नहीं है.. दुकान
वाला अगर चाहे तो आप को माल न
बेचे.. आप उसे मजबूर
नहीं कर सकते! '
'अच्छा
छोड़ों उन्हे.. अगर
बैंकवाला अपने मन से लोगों
के साथ से व्यवहार करे.. एक
को पैसे निकालने दे.. और
दूसरे को मना कर दे.. तो?
'
'बैंकवाला
बैंक का नौकर है.. उसे
निश्चित तारीख़ पर निश्चित
वेतन मिलता है.. रिक्षेवाला
हमारा नौकर नहीं है.. वो
हर रोज़ कितना कमाएगा उसकी कोई
गारन्टी नहीं है.. अगर
उसे किसी जगह नहीं जाना है तो
वो क्यों जाए? '
'मगर
यही नियम है! .. सवारी
जहाँ बोले.. रिक्षेवाले
को जाना ही पड़ेगा.. '
'तो
ये नियम ही ग़लत है.. सरकार
ऐसे नियम बनाती ही क्यों है
जिसका पालन नहीं किया जा सके..
अगर मैं नियम बना दूं
कि मैं जो बनाऊं आप सब को खाना
पड़ेगा.. मुझे करेला
पसन्द है और टिण्डा भी..
खायेंगे आप लोग रोज़..?'
अजय
को बहुत परेशानी हो रही थी कि
उसकी अपनी बीवी कैसे और क्यों
रिक्षेवालों का पक्ष ले रही
है?
'तुम्हे
हो क्या गया है? भूल
गई अभी कल कितना झेला है तुमने..?
'
'नहीं
भूली नहीं.. बल्कि
मैंने तो सोचा कि बात क्या है
आख़िर..? मुझे तो ये
लगता है कि अगर रूट तय हो,
उनके काम करने की शिफ़्ट
तय हो.. और उसके बाद
रिक्षेवाले इन्कार करें तो
उन्हे दण्डित करें तो समझ आता
है.. लेकिन आज की
तारीख़ में शहर के एक छोर से
दूसरे छोर की दूरी तीस से पैंतीस
किलोमीटर है। अगर रिक्षेवाले
एक्दम उत्तरी कोने में अपने
घर लौटना चाहता है और सवारी
दक्षिणी कोने में अपने घर?
..तो आप रिक्षेवाले से
उम्मीद करते हैं कि वो फिर भी
आप के साथ जाए.. क्यों?
क्योंकि नियम है!!
और वहाँ जाने के बाद
उसे जो भी सवारी मिलें वो सब
आस-पास की तो वो क्या
करे?? अपने घर लौटने
की बात भूलकर हर सवारी को उसके
घर छोड़ता रहे..? ये
कैसा बेहूदा नियम है? किसने
बनाया है ये? इसमें
सिर्फ़ सवारी की सहूलियत है
रिक्षेवाली की नहीं।'
'पर
शांति.. ', अजय ने कुछ
कहना चाहा। पर शांति की बात
खत्म नहीं हुई थी।
'सरकार
रेल और बस जैसे पब्लिक ट्रान्सपोर्ट
को अच्छी तरह विकसित नहीं करती
और जनता को हो रही तकलीफ़ की
सारी ज़िम्मेवारी गंदी खोलियों
में गुज़ारा कर रहे रिक्षेवालों
के सर पर फोड़ी जा रही है कि वो
जनता को लूट रहे हैं और अपना
अक्खड़पन दिखाकर सता रहे हैं?!
ये ठीक है कि वो मीटर
में गड़बड़ियां करते हैं पर क्या
उन्होने मीटर में छेड़छाड़कर
के अपने महल बना लिए हैं?
महल कौन बना रहा है,
ज़रा सोचिये तो?!'
'लो!
तेल के दाम फिर बढ़
गए!?', अचानक अजय अख़बार
की सुर्खी देखकर चौंका।
'अब
तुम ही बताओ अजय.. एक
तरफ़ पेट्रोल कम्पनियां तो जब
चाहे अपने नफ़े-नुक़्सान
को ध्यान में रखकर दाम बढ़ा
सकती हैं। लेकिन रिक्षेवालों
और किसानों के रेट्स तय करने
की ज़िम्मेवारी अभी भी सरकार
ने अपने हाथ ले रखी है? मुक्त
बाज़ार की आज़ादी की बयार
रिक्षेवालों के नसीब में नहीं
है? वो सिर्फ़ बड़ी
पूँजी के लिए है? ज़रा
सोचिये तो!'
अजय
सोचने लगा था!
***
(छपी इस इतवार दैनिक भास्कर में)