रविवार, 31 जुलाई 2011

सुन्दर




एक दिन पाखी ने स्कूल जाने से मना कर दिया। न बुखार, न पेटदर्द, और न ही दूसरी कोई तक़लीफ़। पाखी वैसी लड़की नहीं है जो पढ़ाई से जी चुराए या स्कूल जाने में कोताही करे। सबसे अव्वल तो नहीं आती पर पढ़ाई, खेलकूद और दूसरी सभी गतिविधियों में भी वो मन से भाग लेती रही है। इसलिए शांति ने सोचा कोई बात होगी तभी मना कर रही है। एक दिन स्कूल नहीं जाएगी तो आसमान नहीं गिर जाएगा। दफ़्तर के लिए देर हो रही थी, शांति निकल गई। दूसरे दिन भी पाखी ने फिर वही बात दोहरा दी स्कूल जाने का मन नहीं कर रहा। शांति ने सोचा चलो एक दिन और सही। पाखी उमर के ऐसे मक़ाम में पहुँच रही है जिस में मन का मिज़ाज ऊपर-नीचे होता रहता है - हो सकता है पाखी ऐसी ही किसी मनोदशा से गुज़र रही हो। लेकिन जब पाखी ने तीसरे दिन भी इंकार में गरदन हिला दी तो शांति भड़क उठी- आख़िर बात क्या है? क्यों नहीं जाना चाहती स्कूल?
बस नहीं जाना मुझे.. मुझे नहीं अच्छा लगता स्कूल..
स्कूल नहीं अच्छा लगता?’ ये तो कुछ नया था।
हुआ क्या है..? किसी से झगड़ा हो गया या टीचर मे कुछ कहा है.. ?’
नहीं कुछ नहीं हुआ है.. बस मुझे नहीं जाना है..
पाखी किसी विषय में फ़ेल हो गई हो इसकी तो शांति कल्पना भी नहीं कर सकती मगर फिर भी शांति ने वो भी पूछ ही लिया।
मम्मा!! मैं कभी फ़ेल हुई हूँ?’
तो फिर बात क्या है..?’
कोई बात नहीं है..
अगर कोई बात नहीं है.. तो चलो, स्कूल जाओ..

पाखी के अनेक प्रतिरोध के बावजूद शांति ने डाँटकर धमकाकर उसे तैयार तो कर दिया पर पाखी खड़े-खड़े टसुए बहाने लगी। आँसुओं के साथ काजल भी बहकर आँखों के इधर-उधर फैल गया। चिड़चिड़ाकर जब शांति ने उसकी सूरत की तुलना किसी भूतनी से की तो पाखी के अवसाद का राज़ खुल गया।
हाँ!! भूतनी ही तो हूँ मैं.. आप ही ने पैदा किया है मुझे ऐसा बदसूरत.. इसीलिए किसी को शकल नहीं दिखाना चाहती मैं..  

और तब शांति को समझ आया कि पाखी अपने आप से, अपनी चेहरे के साथ असहज ही नहीं हो गई बल्कि अपनी शकल से नफ़रत करने की हद तक चली गई है। शांति को ख़याल आया कि पिछले कुछ दिनों से पाखी इसी सुर में पेश आती रही है। स्कूल ही नहीं वो कहीं भी नहीं जाना चाहती। घर से निकलना और लोगों की नज़रों का सामना करना ही उसका रोग है। उसे लगने लगा है कि वो सुन्दर नहीं है। बाहर निकलना, और दुनिया के तमाम सौन्दर्य से रूबरू होना उसे एक यातना सा लगने लगा है। शाम को घूमने या खेलने के लिए बाहर निकलना उसने लगभग बंद कर दिया था। कभी किसी के घर जाने की बात आई तो कोई बहाना बना दिया। और कोई घर में आया तो भी कमरे में ही बंद रही। शांति ने डाँटा- नहीं मिलना है तो मत मिलो, कम से कम नमस्ते तो कर लो। तो भी पाखी शकल दिखाने को राज़ी नहीं होती रही थी। क्यों? क्योंकि उसे लगता है कि वह सुन्दर नहीं है।

सुन्दर न होना कोई अपराध तो नहीं मगर दुर्भाग्य ज़रूर है। सुन्दर पैदा हुआ जा सकता है। आसान काम है। लगभग सभी लोग सुन्दर ही पैदा होते हैं। पैदा होते समय सुन्दर आदमी मरते वक़्त तक भी सुन्दर बना रहेगा, यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह निहायत कठिन काम है। सुन्दरता का उमर के साथ बड़ा उलटा रिश्ता है। मरते-मरते तक आदमी की सारी सुन्दरता न जाने कब कैसे गिरकर-बहकर कहाँ तिरोहित हो जाती है। कोई विरला ही मरते समय भी सुन्दरता बचा ले जाता है। सुन्दरता बिलकुल भी स्थायी नहीं, बड़ी क्षणिक चीज़ है। कई बारी सुबह देखो तो आईना सुन्दरता की गवाही देता है मगर दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते सारी सुन्दरता न जाने कहाँ झड़ जाती है।

यह सब उलझनें पाखी से साझा करना, उसे और भरमाना होता। इसलिए शांति ने उसे बहलाने का रास्ता चुना। और उसे हर तरह से सिद्ध करने की कोशिश की वो कितनी प्यारी, अनोखी और ख़ूबसूरत है। पर बहुत जल्दी ही शांति को समझ आ गया कि पाखी का सुन्दरता का पैमाना शांति बिलकुल भी तय नहीं कर रही थी। फ़िल्म टीवी, मैगज़ीन्स, स्कूल, और सहेलियों का समूह, सबने मिलजुलकर पाखी के मन की दुनिया में सुन्दरता के जो मापदण्ड तय किए थे उन पर शांति का इख़्तियार लगभग बेअसर था।

शांति को फिर यह भी याद आया कि कुछ हफ़्तों से पाखी की आईने से कुछ अधिक ही दोस्ती हो चली थी। आते-जाते अक्सर शांति उसे किसी आईने के आगे खड़ा कुछ खोई हुई या कुछ खोजती हुई पाती। कभी बाल सवाँर रही है, कभी रोलर लगाके बैठी रहती। दिन भर में तीन-चार अलग-अलग फेसपैक पोत लेती। इस उमर में हर लड़की के यही ढंग होते है तो इन हरकतों को लेकर शांति कभी संजीदा नहीं हुई। मगर उसके लिए स्कूल जाना छोड़ देना शंका थोड़ी चिंता करने वाली बात हुई।

सुन्दरता बड़ा टेढ़ा सवाल है। और उसको पाने की डगर बड़ी फिसलन भरी है। शांति अपने अनुभव से जानती है कि आदर्श चेहरा-मोहरा और आकार-प्रकार रखने वाली औरतें भी अपनी सुन्दरता के प्रति भयानक रूप से सशंकित रहती हैं। उन्हे लगातार इस आश्वासन की भूख होती है कि वे सुन्दर हैं। जिस दिन दस-बारह लोग उनकी ख़ूबसूरती और आकर्षण की तारीफ़ न करें वे हताशा और विषाद के गर्त में उतराने लगती हैं। क्या है यह सुन्दरता का प्रपंच जिसमें सिर्फ सुन्दर होना ही काफ़ी नहीं, सुन्दर माना भी जाना चाहिये।

शांति यह भी जानती है कि सिर्फ़ ऊपरी नैन-नक़्श से सुन्दरता की शर्तें पूरी नहीं होतीं। बड़ी आँखों से न कुछ फ़र्क़ पड़ता है और न गोरे रंग से। अगर ऐसा होता तो चीन और अफ़्रीका के लोग सुन्दरता की दौड़ से पहले ही बाहर हो जाते। असली सौन्दर्य तो देह के भीतर से किसी उजाले की तरह बाहर आता है। जब वो आता है तो हम अक्सर उससे बिलकुल बेख़बर होते हैं। और जब नहीं आता तभी का तो सारा रोना है।

ख़ुद शांति ने ऐसे न जाने कितने संशयों का त्रास सहा है। वो जानती है उनकी तकलीफ़ पर इलाज.. नहीं जानती। अभी तक के जीवन में उसने ऐसे संशयों को अनदेखा किया है, टाला है, भरमाया है। और यही तरीक़ा उसने अपनी बेटी पर भी आज़माया। उसे शहर के एक सबसे महँगे और मशहूर सैलून में ले जाकर हेयरस्टायलिस्ट को सौंप दिया और चुपचाप वहीं बैठकर फ़ैशन मैगज़ीन्स के पन्ने पलटती रही और एहसास करती रही कि अब वो नौजवान नहीं रही, नई पीढ़ी की दुनिया कुछ और है। जब सर उठाकर देखा तो पाखी के ख़ूबसूरत लम्बे बाल फ़र्श पर टुकड़े-टुकड़े पड़े थे। शांति को उनके जाने का ज़रूर दुख था पर पाखी को बिलकुल नहीं। वो ख़ुश थी और चमक रही थी। पाखी की नज़र में उसका चेहरा उसकी कल्पना के किसी पैमाने में जाकर बैठ गया था। और एक उजाला बाहर आने लगा था उसकी देह से। समस्या का तात्कालिक अंत करके शांति बेटी को लिए घर आ गई। पर वो जानती है कि यह समस्या भी पेट की भूख की तरह है- कभी शांत नहीं होती।

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आइने की दोस्ती सच में बड़ी खराब है।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

सुन्दरता चेहरे में नहीं, व्यक्ति के भीतर होती है। भीतर का व्यक्तित्व अच्छी शिक्षा और अच्छे संसर्ग से बदला भी जा सकता है। सोच की सुन्दरता शरीर की सुन्दरता से बहुत आगे है। पाखी को समझाइए न।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छी कहानी रही ये तो! सिद्धार्थ सही कह रहे हैं। :)

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