हफ्ते भर की थकान थी और इतवार था। फ़िल्म देखने के लिए बच्चो की ज़िद भी थी। बच्चे छोटे ज़रुर थे पर ज़िद बड़ी थी। शांति का मन तो था कि दोपहर में पैर फैला के सो रहती लेकिन बच्चों की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा। पहले सोचा कि खाना खा के निकलेंगे फिर बच्चों की ज़िद कि खाना भी बाहर ही खायेंगे। और बाहर खाना खाने का मतलब है एक बड़ी धनराशि से सम्बन्ध विच्छेद। पैसे को पकड़ का रखने की चाहत को किनारा कर बच्चों की इच्छा को आगे रखा। मक्खन के साथ आलू पराँठे बने, खाए गए और एक मनोरंजक दोपहर गुज़ारने शर्मा परिवार मौल को निकल पड़ा। क्योंकि पहले के सिंगल थियेटर सिनेमाहौल अब नहीं बचे। जो बचे भी उनमें ऐसी फ़िल्में लगती हैं जो परिवार के साथ नहीं देखी जा सकतीं। नए सिनेमा का नया ठिकाना मौल के मल्टीप्लेक्स में ही था। शांति और अजय की तो इच्छा थी कि कोई हिन्दी फ़िल्म देखी जाय मगर अचरज पैर पटकने लगा कि कंगफ़ू पांडा ही देखेंगे और वो भी थ्रीडी। और इस ज़िद के भी विजयी होते ही वो जूते-मोज़े पहनकर दरवाज़े पर खड़ा हो गया और रटने लगा कि मम्मी चलो, पापा चलो!
मौल के आगे गाड़ियों की एक लम्बी कतार थी। सभी अन्दर जाने की मुराद रखते थे। शर्मा जी की गाड़ी भी उन्हीं में एक मुन्तज़िर हो गई। बहुत पहले, क़रीब दस-बारह बरस पहले क्या गाड़ी वाले और क्या बेगाड़ी वाले, कोई इधर देखता भी नहीं था। लोगों को ये तक ख़याल नहीं था कि उधर एक छोटा-मोटा तालाब है। गौरेया, बुलबुल, लहटोरा, और भुजंगा जानते थे और छोटे-बड़े बगले, कौए, और किलकिले भी जानते थे कि जेठ की गरमी को छोड़ दस-ग्यारह मास तालाब में पानी मिलता है और पानी में छोटी मछलियाँ, मेढक और केंचुए मिलते हैं। पास की बस्ती के स्कूल गोल करने वाले बच्चे और कुछ अनपढ़ आवारा बड़े भी उस ताल को जानते थे और कांटे में एक केंचुआ फंसाकर, और गाँजे की एक कली सुलगाकर मच्छीमार बन जाते थे। उस समय वो ताल गंजेड़ियों और मच्छीमारों को मौल था।
पहले मौल नहीं थे। कूचे थे, गलियां थीं, ठेले थे, मेले थे, बीच सड़क तक बढ़ी हुई दुकानें थीं। कीचड़ था, कचर-मचर थी, भिनभनाती हुई मक्खियाँ थीँ, पिनपिनाते हुए कुत्ते थे, रम्भाती गाएं थीं, अड़कर खड़े साँड़ थे। मूँछो पर ताव देते पहलवान थे, पनवाड़ी थे, उनके पान की मुरीद भीड़ थी। बोरी थी, कनस्तर था, पीपा था, भैंसा था, भैंसाटोली थी, फेरीवालों की हज़ार तरह की बोली थी। प्लास्टिक न था, शोविन्डो न थी, नए से नए फ़ैशन के कपड़े पहने यूरोपी नैन-नक्श के पुतले न थे। पिछले युग का और पिछड़े युग का पुराना भारत कहीं-कहीं अभी भी बाक़ी है, मगर मौल के अन्दर केवल उभरते भारत की झांकी है।
टिकट लेने में काफ़ी समय लग गया। उतनी देर में आस-पास लगे पोस्टरों के असर में बच्चों ने आने वाली फ़िल्मों को देखने की योजनाएं भी बना डालीं। और हौल में जाने के लिए स्नैक्स काउन्टर से होकर गुज़रना था और कुछ रक़म को वहाँ भी अलविदा कहना था। कहा गया। पाखी को मेक्सिकन नाचोज़ खाने थे और अचरज को पौपकौर्न। ठण्डा, काला और बुलबुलेदार पेय दोनों को चाहिये था। दिया गया और तब जाकर पुशबैक सीटों में बैठने का मौक़ा आया। फ़िल्म शुरु नहीं हुई थी, विज्ञापन चल रहे थे। कुछ लोग बैठे थे, कुछ खड़े थे, कुछ सीढ़ियों पर नाचोज़ और पौपकौर्न ले कर चढ़ रहे थे। और तभी एक चेतावनी ने सबको चेता दिया- राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने की चेतावनी। जो जहाँ था, थम गया और अपने आप में तन गया। एक झण्डा स्क्रीन पर उभरा और हवा की एक लहर उसे फहराने लगी। एक समूह पार्श्व से रवीन्द्रनाथ की रचना गाने लगा -लगभग निरुत्साहित कर देने वाली आवाज़ में। किसी ने बेअदबी नहीं की। ज़ाहिर था सब स्कूल गए थे। थोड़ी सी असहज कर देने वाली बात एक ही थी कि झण्डा और फहराने वाली लहर दोनों ही डिजिटल थे। न जाने क्यों यह बात शांति के गले में कहीं अटक गई और इन्टरवल में पैंसठ रुपये की कैपुचिनो लेते हुए भी झण्डे को ही सोचती रही। हौलीवुड में तैयार चीन का पांडा इन्टरवल के बाद भी तीनों आयामों में उछलकूद करता रहा लेकिन डिजिटल झण्डा गले से नहीं उतरा तो नहीं उतरा।
फ़िल्म ख़त्म होने के बाद खाने के मामले पर भी पारिवारिक विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई। पाखी को सदा की तरह कुछ नया आज़माना था- इस बार की फ़रमाईश थाई। अचरज को अपना मनपसन्द पित्ज़ा खाना था और अजय किसी भी तरह के प्रयोग करने के मूड में नहीं था। वो छोले-भटूरे पर अड़ गया फिर शांति ने किसी तरह चाइनीज़ पर सुलह करवाई। नूडल्स निगलने के पहले ही झण्डे वाली बात गले से उगल आई।
‘इस तरह से झण्डा दिखाने का क्या मतलब है?’
‘हम्म?’ अजय ने अनजानेपन में भँवे उचकाईं।
‘अरे वो असली झण्डा नहीं था, कम्प्यूटर पर बनाया हुआ झण्डा था। राष्ट्रगान के लिए क्या एक असली झण्डा भी नहीं है उनके पास? और कैसे गा रहे थे रोते हुए?’
“क्या फ़रक पड़ता है शांति.. तुम बेकार ही हर बात पर सीरियस हो जाती हो..” अजय ने मैदे के लच्छे सुड़कते हुए कहा।
‘बेकार सीरियस हो रही हूँ?’
‘और क्या, क्या फ़रक पड़ता है लोगों को कि झण्डा असली है या डिजिटल? लोग तो फ़िल्म देखने आते हैं झण्डे को सलाम करने थोड़ी आते हैं?’
अजय के जवाब से शांति बिलकुल लाजवाब हो गई। बात सही थी। इसे तो सरकार की मौक़ापरस्ती ही कहा जाएगा कि मनोरंजन के मक़सद से इकट्ठा हुए लोगों को देखकर वो देशभक्ति की घुट्टी पिला रही है। जैसे याद दिला रही हो कि खाओ पियो कुछ भी, मगर भूलो मत कि देश कौन सा है और झण्डा कौन सा है। क्या सरकार को अपने नागरिकों पर इतना भरोसा भी नहीं है? डरती है कि बदलते हुए भारत में लोग कहीं ज़्यादा ही न बदल जायें? चाइनीज़ खाने के ऊपर इटली की गेलातो आइसक्रीम की परत जमाते हुए शांति ने देखा कि एक मोटे महाशय को, जिन्होने अमरीका के झण्डे को अपने सीने पर सजा रखा था। वैसे यही सज्जन राष्ट्रगान के समय साँस रोककर खड़े भी हुए थे।
मौल से लौटते हुए यही सोचती रही शांति कि क्या होता है आख़िर देश का मतलब? वो क्या काग़ज़ पर छपा कोई नक़्शा है, कोई झण्डा है, कोई धुन है जिसे बचपन से सिखा और समझा दिया जाता है? या आदमी की भीतरी बुनावट में उसका कोई ताना-बाना पड़ा होता है?
***
5 टिप्पणियां:
सुपर्ब कहानी | चुहलबाजियों से लेकर पुराने भारत तक, नए भारत से लेकर गंभीर कटाक्ष तक | कहानी का शानदार उतार चढ़ाव | क्या बात सर जी |
एक देशी गांजा पीकर केंचुआ मारकर मच्छीमार हो जाता है तो दूसरा अमरीकी झंडे को सीने से लगाकर मैदे के लच्छे सुडकने वाला भारतीय देशभक्त है |
आप जब शब्द निकाल कर लाते हैं और पिरोते है तो रश्क होता है, काश मैं भी अपनी बात को ऐसे जानदार शब्दों में कह पता ;-)
मॉल ने मनोरंजन की परिभाषायें बदल दी हैं।
देश में कुल कितने मल्टीप्लेक्स हैं? यह आँकड़ा ढूंढिए। दो तीन साल पहले जयप्रकाश चौकसे का एक आलेख था जो भास्कर की वेबसाइट पर मुझे नहीं मिला, उसमें उन्होंने किसी लेखिका के 'घोर असत्य' का खंडन किया था और जयप्रकाशजी ने बताया था कि भारत में कुल 200 मल्टीप्लेक्स ही हैं। 'घोर असत्य' उस लेख से यह पद मुझे याद है।
‘अरे वो असली झण्डा नहीं था, कम्प्यूटर पर बनाया हुआ झण्डा था। राष्ट्रगान के लिए क्या एक असली झण्डा भी नहीं है उनके पास? और कैसे गा रहे थे रोते हुए?’
“क्या फ़रक पड़ता है शांति.. तुम बेकार ही हर बात पर सीरियस हो जाती हो..” अजय ने मैदे के लच्छे सुड़कते हुए कहा।
‘बेकार सीरियस हो रही हूँ?’
‘और क्या, क्या फ़रक पड़ता है लोगों को कि झण्डा असली है या डिजिटल? लोग तो फ़िल्म देखने आते हैं झण्डे को सलाम करने थोड़ी आते हैं?’
सच में कोई फर्क नहीं पड़ता ना....पाता नहीं वो कोंन सा झंडा था जिसे अपने लहू से रंगा था इस देश के लोगों ने..
इसे कहानी नहीं कहूँगी अभय. यह तो उससे बहुत अधिक है. नई पुरानी जीवनशैली है,तालाब था, मॉल है. तालाब के समय तालाब की तरफ देखने वाले लोग हैं व उसे न् देख पाने वाले लोग. आलू के परांठे भी हैं और न जाने कितने विदेशी व्यंजन हैं.
झंडे वाला फंडा भी बढ़िया लगा. देश, नक्शा, देश का विचार, और भी बहुत से विचार. निर्मल आनन्द !
घुघूती बासूती
एक टिप्पणी भेजें