रविवार, 10 जुलाई 2011

चूहा


 रात सोने के लिए थी। थक कर धराशाही हो जाने के लिए थी। पर रात डर जाने के लिए भी थी, नींद के झोंको में भी जागते रह जाने के लिए थी। रात में चाँद, टँके हुए तारे, जुगनू और खुशबू पलते थे मगर उसी रात में दुःस्वप्न और राक्षस भी मिलते थे। शांति ने बचपन में ही रात के दोनों मतलब सीख लिए थे यानी जी कर देख लिए थे। फिर एक लम्बे अन्तराल में शांति के लिए रात बेहोशी का बिछौना बनी रही। और एक दूसरी दुनिया बिछौने के नीचे दबी रही। परदों के पीछे छिपी रही।

और फिर एक दिन उसे एक  आकृति दिखी। पहले रसोई के प्लैटफार्म पर, फिर डस्टबिन के पास, और फिर अपनी अलमारी के नीचे। उनका चावल जैसा आकार और काला रंग शांति ने पहले भी देखा था। उसकी स्मृति के जिस भाग में उनकी पहचान स्थित थी, उस भाग में भयों का डेरा था। वो मूस की लेंड़ी थी और घर में उसके होने का अर्थ था कि चूहा घर में प्रवेश कर चुका था।  

चूहा, चूहा नहीं था वो अतीव शक्तियों का एक पुंज था। शांति की कल्पना में वो कुछ भी कर सकता था। वो अंधेरी नालियों में फ़िसल सकता था, नंगे बिजली के तारों पर दौड़ सकता था, बंद दरवाज़ों के आर-पार निकल सकता था, आसमान में उछल सकता था, पतले से पतले सूराखों से भी निकल सकता था। खुली आँखों में चूहा छोटा था पर आँखें बन्द होते ही चूहा हनुमान की तरह अपना आकार बढ़ा सकता था। पर चूहा हनुमान नहीं था, शांति के लिए तो बिलकुल नहीं। उसके लिए तो वो काल था- महाकाल। वो दाँतों से कुतर सकता था, पंजों में पकड़ सकता था, दबोच कर रगड़ सकता था।

शांति के लिए अपनी उर्वर कल्पनाओं के साथ घर में रहना लगभग असम्भव हो गया। जब घर में चूहे के होने का पहला निशान मिला तो रात हो चुकी थी। अच्छा यह था कि खाना खाया जा चुका था, सारा काम ख़त्म हो चुके थे और सोने की तैयारी की जा रही थी। पर मुश्किल यह थी कि चूहे ने उसे ऐसे समय पर घेरा था जब कि वो किसी काम की आड़ में अपने भय को छुपा नहीं सकती थी, उलटे वो एक ऐसी अवस्था में उतरने की तैयारी में थी जिसमें हर जानवर निरा अरक्षित होता है- नींद। और चूहा जागने में जितना ख़ौफ़नाक था उससे कई गुना अधिक ख़तरनाक वो नींद में था। क्योंकि नींद में अंधेरा था और अंधेरा डर की उर्वर ज़मीन था। उस रात शांति ने एक पल की भी नींद नहीं ली। आँखें भी ठीक से न झपकायीं। बत्तियां सारी रात जलती रहीं। अगला दिन दफ़्तर वालों के लिए बड़े विस्मय का दिन था। पहली बार उन्होने शांति को दफ़्तर में उबासियां लेते और बैठे-बैठे झपकियां लेते देखा था। और उसका ध्यान भी काम पर नहीं कहीं और था। दिन भर शांति फ़ोन पर तमाम लोगों से लम्बे-लम्बे वार्तालापों में किसी एक चीज़ के बाबत जानकारी लेती रही।

उस शाम जब शांति घर लौटी तो उसके हाथ में अपने बैग के अलावा एक और बड़ा पैकेट था। उस पैकेट में खाने की चीज़ थी, चूहे के खाने की ची़ज़- ज़हर। जिसे आटे की गोलियों में मिलाकर चूहे की राह में परोस दिया जाना था। पैकेट में लकड़ी और लोहे से बना एक नन्हा घर भी था, जिसे लोग चूहेदानी कहते हैं। वो चूहे की शक्ति और गति को सलाखों में सीमित करने का एक यंत्र था। उस शाम शांति को अपने खाने से अधिक चूहे के खाने की चिंता थी। बहुत जतन से उसने पूरे घर को आटे की ज़हर मिली गोलियों सजाया। उसके बाद अपने हाथों को कम से कम पाँच बार धोया, फिर भी खाने का एक कौर भी न निगल सकी। ज़हर के भय से नहीं, चूहे के होने के तनाव से उसके शरीर में युद्ध जैसी स्थिति हो गई थी। बदन ऐसे जल रहा था जैसे एक सौ दो बुखार हो। उस रात भी शांति को नींद नहीं आई। बत्तियां जलती रहीं। रात भर चूहे का प्रेत घर भर में कुलांचे भरता रहा। शांति की नींद और चैन को टुकड़ा-टुकड़ा कुतरता रहा। कुतरने की वो आवाज़ें शांति के कानों में घंटो की तरह बजती रहीं।

अगली सुबह घर में सारी जहरीली गोलियां साबुत पड़ी थीं और चूहेदानी भी खाली थी। अजय ने समझाया कि सब शंति का वहम है, कोई चूहा-वूहा नहीं है घर में। शांति उसकी बात पर यक़ीन कर ही लेती लेकिन डायनिंग टेबल पर रखी फलों की टोकरी में रखे केलो में से एक में बड़ा सा एक छेद था। वैसा ही एक छेद आलू की टोकरी में रखे एक आलू में भी था। अब कोई शक़ नहीं था कि चूहा पिछली रात घर में था और सक्रिय था। शांति का आतंक और तब गहरा गया जब उसे अपने बिस्तर के ठीक नीचे चूहे की विष्ठा के काले निशान मिले।

दफ़्तर में एक और कठिन दिन गुज़ारने के बाद शांति की आँखें सूज चुकी थीं और उनके नीचे गहरे काले धब्बे पड़ चुके थे। उस रात भय और थकान के बीच भारी गुत्थमगुत्था चलती रही। और देर रात के बाद एक ऐसा अन्तराल आया जब शांति का मस्तक परास्त हो रहा और वो कोई दो घंटे बेसुध पड़ी रही। और जब जागी तो हड़बड़ा के। बत्ती जल रही थी, आवाज़ें लगभग शांत थीं। गूलर के पीछे से हलका-हलका उजाला होना शुरु हो रहा था मगर अभी चिड़ियों ने बोलना शुरु नहीं किया था। परे घर में जल रहा बत्तियों के उजाले में शांति ने देखा कि ज़हर की गोलियां वैसी की वैसी पड़ी थीं। चूहे ने उन्हें छुआ भी नहीं था। मगर रसोई में रखी चूहेदानी खाली नहीं थी। एक काली लम्बी पूँछ चूहेदानी के बाहर पसरी हुई थी। उबकाई की एक लहर शांति के पेट से गले तक दौड़ गई। चूहा पकड़ा गया था। शांति के अवचेतन में आतंक मचा सकने की उसकी अतीव शक्तियों को खींचकर चूहेदानी की सलाखों में बन्द किया जा चुका था। फिर भी शांति उसको सीधे देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। अपनी सारी कायरता के बावजूद शांति की बचती हुई नज़रें चूहे की आँखों से टकरा ही गईँ। गंदे भूरे बालों से ढके उसकी देह में जड़ी उन दो आँखों से अपलक घूर रहा था उसे चूहा। उन गहरी काली आँखों में कहीं कोई अपराधबोध नहीं था। कोई ग्लानि, कोई हिंसा, क्रोध, प्रतिशोध, कुछ भी नहीँ। उलटे उन में एक अजीब सा आकर्षण और सम्मोहन था।

और उन गहरी काली आँखों के सम्मोहन में शांति बिलकुल भूलने लगी कि वो क्यों नफ़रत करती थी उससे? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वो उसके लुकाछिपी के खेल की हिमायती नहीं थी? या इसलिए कि किसी ज़माने में चूहे प्लेग के वाहक बने थे? या इसलिए कि चूहे आदमी की बनाई मालिकाना सरहदों को नहीं मानते और कु्त्तों की तरह आदमी के आगे दुम नहीं हिलाते? कोई भी कारण उसकी गहरी काली आँखों जितना मासूम नहीं था।

***

(आज के दैनिक भास्कर में छपी है) 

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चूहे से जूझना अपने आप में एक युद्ध है।

रंजना ने कहा…

मन को तहों के अन्दर ले जाकर कुछ पल को नितांत मौन कर देने में सक्षम कथा....

बहुत ही प्रभावशाली व रोचक गठन...

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

चूहा और आतंकवादी क्या एक ही प्रजाति के नहीं?

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