फ़रीद आज पटने में दूल्हा बना हुआ है। कुछ मेरी तबियत ख़राब है और कुछ क़िस्मत ख़राब है जो उसके निकाह में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ। फ़रीद और आज से आधिकारिक तौर पर उसकी ज़िन्दगी में शरीक़ हो रही शीमा फ़ातिमा के सुखी और सम्पन्न वैवाहिक जीवन के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूँ।
कविता पर केन्द्रित प्रियंकर भाई की पत्रिका अक्षर के प्रवेशांक में फ़रीद के ऊपर मेरी यह छोटी सी टिप्पणी भी छपी थी, उसे साथ में चस्पां कर रहा हूँ।
फ़रीद का कविकर्म
फ़रीद की कविताओं में स्मृति है। उस स्मृति में एक दुर्लभ
पारदर्शिता है। जिसमें रंग, भाव और विचार चटक धूप की तरह खिले रहते हैं। और चूंकि
कहा ही गया है कि ताप या धूप से बेहतर रुजनाशक दूसरा नहीं होता इसलिए फ़रीद की
कविताओं में एक ऐसी निर्दोषता है जो किसी छोटे मासूम बच्चे की तरह आप का मन मोह
लेती है।
फ़रीद को मैं एक दशक से अधिक समय से जानता हूँ। वो
पेशेवर कवि नहीं है। कवि बनने की महत्वाकांक्षा भी कभी नहीं थी उसमें और न अभी भी
उसमें इस प्रकार का कोई दबाव मैं देख पाया हूँ। कविता लिखना उसका अभी दो-तीन बरस
का विकास है। २००७ में फ़रीद ने पानी पर एक कविता लिखी थी, जो मैंने अपने निजी
ब्लौग पर चस्पां की थी। तमाम वाहवाही के बावजूद फ़रीद ने न तो थोक में कविता लिखना
शुरु किया और न ही अपना ब्लौग ही बनाने की तरफ़ क़दम बढ़ाया। ज़ाहिरन कविता लिखने की
उसकी प्रेरणा छपास और वाहवाही से जुदा, भावना के उद्वेलन में दबी हुई रही है; जैसा
कि होना भी चाहिये।
लेकिन वो भी अपने काल से स्वतंत्र नहीं है क्योंकि
कोई नहीं होता। हिन्दी कविता में जो नैतिक कार्यकर्तावाद या मौरल एक्टिविज़्म का
रोग लगा हुआ है फ़रीद भी कहीं-कहीं उस से ग्रस्त नज़र आते हैं और किसी सामाजिक मसले
पर अपने नैतिक उच्चबोध की क्रूर दृष्टि का प्रक्षेपण करते हैं। ये राजनैतिक शुचिता
या पोलिटिकल करेक्टेडनेस का कीड़ा है। जो अपनी निजी विवेक पर भरोसा करने के बजाय
हरदम स्थापित नैतिकता के मार्ग पर चलने की क़वायद करने लगता है। यह बड़ा भयंकर रोग
है और अच्छे-अच्छे कवियों को अनुभूति की राह से उखाड़ फेंकने में ये कामयाब रहा है।
नैतिक कार्यकर्तावाद के चलते कवि अपनी सहज अनूभूति को लगातार स्थापित नैतिकता पर
जाँचता-परखता हुआ इस क़दर सशंकित और भयाकुल प्राणी में तब्दील होने लगता है कि बहुत
जल्द वो विचार के नाम पर नारेबाज़ी और सरलीकृत समीकरण परोसकर अनुमोदन बटोरने में ही
अपनी कविता की सफलता मानने लगता है और भूल जाता है कि अपने भावनात्मक अस्तित्व के
साथ एकता किसी कवि की ही नहीं हर मनुष्य की बुनियादी ज़रूरत होती है। वैचारिक
परिष्कार करने को मैं ग़लत नहीं मानता लेकिन कविता में आया हुआ विचार अगर अनुभूति
का हमज़ाद नहीं है तो उसका नुक़्सान कविता को ही उठाना पड़ता है क्योंकि वह पाठक के
पास भी अपनी विभक्त अवस्था के साथ ही उपस्थित होती है।
जो आप ने देखा नहीं उसकी कल्पना असम्भव है। कल्पना
की उड़ान भी वास्तविकता से सीमित रहती है। आम तौर पर देखा गया है कि जो कविता
अनुभूति की ज़मीन में उगती है, और कवि की अपनी निजी अनुभूति में कल्पना की पेंगे भर
रही होती है वही कविता असरदार बनी रहती है लेकिन फ़रीद में यह अनोखी बात है कि जो
कविता उसके जिये हुए सच से नहीं भी पनप रही, और जो राजनैतिक शुचिताबोध और नैतिक
कार्यकर्तावाद के घेरे से संचालित मालूम देती है, वह भी मारक प्रभाव छोड़ने में
कामयाब हो जाती है। यह बड़ा विरल हुनर है इसमें विचार की प्रधानता है और अनुभूति
सहायक की भूमिका में है। अक्सर ऐसे प्रयोग असफल साबित होते हैं, मगर फ़रीद अब तक
सफल है।
कविता से वैचारिकता को निकाल पाना अब लगभग असम्भव
है। जैसे कि एक बार शिशु में झूठ बोलने की
कला ने प्रवेश कर लिया तो उससे पहले की अबोधता को तब तक पाना सम्भव नहीं होता जब
तक कि वह बुद्ध के बोधिभाव में उपलब्ध न हो जाय। एक बार विचार से भ्रष्ट हुई
कविता, तमाम वैचारिक झंझावात से गुज़रकर, एक दूसरे स्तर पर जाकर ही निर्दोषता हासिल
कर सकती है और किसी सम्यक संबुद्ध की तरह शुद्ध बोध की वाहक बन सकती है। कविता का
क्षण इसी सम्बोधि का क्षण है। कवि की कला सम्बोधि के उस विरल क्षण को भाषा में पकड़
लेने की है। मुश्किल बस यही है कि अधिकतर कवि तमाम महत्वाकांक्षाओं के बावजूद
सम्बोधि के उस स्तर तक पहुँचते नहीं, और जो कुछ पहुँचते भी हैं वो निरन्तर वहाँ
टिक नहीं पाते, फ़िसलते रहते हैं। प्रेम की तरह सम्बोधि भी कभी होता है, कभी नहीं
होता, वो स्थिर नहीं क्षणिक है।
फ़रीद की कविताओं में सम्बोधि के वे क्षण दिखते हैं।
लेकिन साथ ही फ़िसलने की सम्भावनाएं भी। क्योंकि सम्बोधि, लगभग सभी प्राकृतिक
तत्वों की तरह अपने को पुनुरुत्पादित करना चाहती है और सम्भवतः कवि को फिर-फिर उसे
हासिल करने के लिए उकसाती है। वेदों की अपौरुषेय़ता की जो बात है उसे इसी सन्दर्भ
में समझे जाने की ज़रूरत है, वे पराक्रम से हासिल नहीं होते, उनका इलहाम होता है।
सच्ची कविता और इलहाम में कोई अन्तर नहीं। कवि का मूल अर्थ प्रज्ञावान ही है और
ऋचाएं रचने वाला ही ऋषि है।
फ़रीद वेदान्त का विद्यार्थी है और उसने सम्बोधि की क्षणिक
उपलब्धि की है। अगर वह अपनी ही उपलब्धि से भ्रष्ट न हुआ तो वह सच्चे अर्थों में
कवि या ऋषि हो सकता है।
***
अल्लाह मियाँ
अल्लाह मियाँ कभी मुझसे मिलना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।
घूम के आओ गांव हमारे।
देख के आओ नद्दी नाले।
फटी पड़ी है वहाँ की धरती।
हौसले हिम्मत पस्त हमारे।
चाहो तो ख़ुद ही चल जाओ।
वरना चलना संग हमारे।
अल्लाह मियाँ कभी नींद से जगना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।
झांक के देखो,
खिड़की आंगन,
मेरा घर,
सरकार का दामन।
ख़ाली बर्तन, ख़ाली बोरी,
ख़ाली झोली जेब है मेरी।
अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,
मेहर तेरी उस ओर है।
भर कर रखा अन्न वहाँ पर,
पहरा जहाँ चहुँ ओर है।
अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल
के।
बकरी
खेत में घास चरती बकरी
पास से गुज़रती हर ट्रेन को यूँ सिर उठा कर देखती है,
मानो पहली बार देख रही हो ट्रेन।
जैसे कोई देखता है गुज़रती बारात,
जैसे खिड़की से सिर निकाल कर कोई देखता है बारिश,
जैसे एकाग्र हो कर सुनता है कोई तान।
ट्रेन गुज़र जाने के बाद,
उस दृश्य आनन्द से निर्लिप्त वह,
चरने लग जाती है घास नये सिरे से।
क्यों लगता है ऐसा
पता नहीं क्यों हर बार लगता है,
रेल पर सफ़र करते हुए
कि टीटी आएगा और टिकट देख कर कहेगा
कि आपका टिकट ग़लत है
या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गये हैं,
आपकी गाड़ी का समय तो कुछ और है,
तारीख़ भी ग़लत है,
आपने ग़लत प्लेटफ़ॉर्म से ग़लत गाड़ी पकड़ ली है,
आप उल्टी तरफ़ जा रहे हैं।
और वह चेन खींच कर उतार देगा
मुझे निर्जन खेतों के बीच।
12 टिप्पणियां:
@ नैतिक कार्यकर्तावाद के चलते कवि अपनी सहज अनूभूति को लगातार स्थापित नैतिकता पर जाँचता-परखता हुआ इस क़दर सशंकित और भयाकुल प्राणी में तब्दील होने लगता है कि बहुत जल्द वो विचार के नाम पर नारेबाज़ी और सरलीकृत समीकरण परोसकर अनुमोदन बटोरने में ही अपनी कविता की सफलता मानने लगता है और भूल जाता है कि अपने भावनात्मक अस्तित्व के साथ एकता किसी कवि की ही नहीं हर मनुष्य की बुनियादी ज़रूरत होती है।
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बहुत सही कहा।
नैतिकता का कीड़ा कहीं कहीं तो इतना ज्यादा होता है कि कोफ्त होने लगती है ऐसे कवित्त से। भड़र भड़र कवित्त ठेलते 'नैतिकता परिपालक कवियहिये' पका के रख देते हैं।
फरीद के बारे में जानना अच्छा लगा। कविताएं भी सुन्दर हैं। विशेषकर वो बकरी और घास वाली कविता।
GGShaikh said:
फ़रीद प्यारे...
(बाबा) फ़रीद...इस नाम से ही रूहानियत की खुशबू उड़े...
फ़रीद की पहली कविता, कविता ही ... अल्लाह मियाँ कभी न टाल सके वैसी इल्तेजा... जो इंसान को तो रुला ही दे...
उनकी कविताएं पसंद आई...
सच्ची कविता और इल्हाम में कोई अंतर नहीं होता...क्या बात है अभय जी ! कवि का मूल अर्थ प्रज्ञावान ही है...और ऋचाएं रचने वाला ही ऋषि है.
टिप्पणी में अभय जी के सूचन भी इल्हामी...
आप दोस्त ही नहीं पासबान भी लगो.
फ़रीद जी को "शादी मुबारक" और बेस्ट विशिस...
फ़रीद जी को शादी मुबारक....
पहले तो आलेख पर ही मुग्ध हो दुआएं न्योछावर कर रही थी (लम्बी उम्र हो इस कलम की)...पर रचना "अल्लाह मियां" पढ़ तो प्रशंसा के शब्द कहाँ से लाऊं ..कुछ समझ नहीं पड़ रहा...
कुल मिलाकर संक्षेप में कहूँ तो....आभार इस सुन्दर पोस्ट के लिए....
प्रिय बन्धु फ़रीद और शीमा फ़ातिमा को इस पावन अवसर पर हार्दिक शुभ कामना , सस्नेह ,
अफ़लातून
फरीद जी को बधाई, अब नया बल मिलेगा साहित्य सृजन को।
मैं आभागा नहीं समझ पाया......
पर
अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,
मेहर तेरी उस ओर है।
भर कर रखा अन्न वहाँ पर,
पहरा जहाँ चहुँ ओर है।
ये कविता दिल को छु गयी.
bs itna hi ..
bahut khoob
आपकी बढ़िया टिप्पणी में स्पेसों की गड़बड़ है।
फरीद जी को शुभकामनायें ..और उनकी रचना पढवाने के लिए आभार
मुबारक हो !
अभय जी का और आप सब मित्रों का बहुत बहुत शुक्रिया।
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