रविवार, 31 जुलाई 2011

सुन्दर




एक दिन पाखी ने स्कूल जाने से मना कर दिया। न बुखार, न पेटदर्द, और न ही दूसरी कोई तक़लीफ़। पाखी वैसी लड़की नहीं है जो पढ़ाई से जी चुराए या स्कूल जाने में कोताही करे। सबसे अव्वल तो नहीं आती पर पढ़ाई, खेलकूद और दूसरी सभी गतिविधियों में भी वो मन से भाग लेती रही है। इसलिए शांति ने सोचा कोई बात होगी तभी मना कर रही है। एक दिन स्कूल नहीं जाएगी तो आसमान नहीं गिर जाएगा। दफ़्तर के लिए देर हो रही थी, शांति निकल गई। दूसरे दिन भी पाखी ने फिर वही बात दोहरा दी स्कूल जाने का मन नहीं कर रहा। शांति ने सोचा चलो एक दिन और सही। पाखी उमर के ऐसे मक़ाम में पहुँच रही है जिस में मन का मिज़ाज ऊपर-नीचे होता रहता है - हो सकता है पाखी ऐसी ही किसी मनोदशा से गुज़र रही हो। लेकिन जब पाखी ने तीसरे दिन भी इंकार में गरदन हिला दी तो शांति भड़क उठी- आख़िर बात क्या है? क्यों नहीं जाना चाहती स्कूल?
बस नहीं जाना मुझे.. मुझे नहीं अच्छा लगता स्कूल..
स्कूल नहीं अच्छा लगता?’ ये तो कुछ नया था।
हुआ क्या है..? किसी से झगड़ा हो गया या टीचर मे कुछ कहा है.. ?’
नहीं कुछ नहीं हुआ है.. बस मुझे नहीं जाना है..
पाखी किसी विषय में फ़ेल हो गई हो इसकी तो शांति कल्पना भी नहीं कर सकती मगर फिर भी शांति ने वो भी पूछ ही लिया।
मम्मा!! मैं कभी फ़ेल हुई हूँ?’
तो फिर बात क्या है..?’
कोई बात नहीं है..
अगर कोई बात नहीं है.. तो चलो, स्कूल जाओ..

पाखी के अनेक प्रतिरोध के बावजूद शांति ने डाँटकर धमकाकर उसे तैयार तो कर दिया पर पाखी खड़े-खड़े टसुए बहाने लगी। आँसुओं के साथ काजल भी बहकर आँखों के इधर-उधर फैल गया। चिड़चिड़ाकर जब शांति ने उसकी सूरत की तुलना किसी भूतनी से की तो पाखी के अवसाद का राज़ खुल गया।
हाँ!! भूतनी ही तो हूँ मैं.. आप ही ने पैदा किया है मुझे ऐसा बदसूरत.. इसीलिए किसी को शकल नहीं दिखाना चाहती मैं..  

और तब शांति को समझ आया कि पाखी अपने आप से, अपनी चेहरे के साथ असहज ही नहीं हो गई बल्कि अपनी शकल से नफ़रत करने की हद तक चली गई है। शांति को ख़याल आया कि पिछले कुछ दिनों से पाखी इसी सुर में पेश आती रही है। स्कूल ही नहीं वो कहीं भी नहीं जाना चाहती। घर से निकलना और लोगों की नज़रों का सामना करना ही उसका रोग है। उसे लगने लगा है कि वो सुन्दर नहीं है। बाहर निकलना, और दुनिया के तमाम सौन्दर्य से रूबरू होना उसे एक यातना सा लगने लगा है। शाम को घूमने या खेलने के लिए बाहर निकलना उसने लगभग बंद कर दिया था। कभी किसी के घर जाने की बात आई तो कोई बहाना बना दिया। और कोई घर में आया तो भी कमरे में ही बंद रही। शांति ने डाँटा- नहीं मिलना है तो मत मिलो, कम से कम नमस्ते तो कर लो। तो भी पाखी शकल दिखाने को राज़ी नहीं होती रही थी। क्यों? क्योंकि उसे लगता है कि वह सुन्दर नहीं है।

सुन्दर न होना कोई अपराध तो नहीं मगर दुर्भाग्य ज़रूर है। सुन्दर पैदा हुआ जा सकता है। आसान काम है। लगभग सभी लोग सुन्दर ही पैदा होते हैं। पैदा होते समय सुन्दर आदमी मरते वक़्त तक भी सुन्दर बना रहेगा, यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह निहायत कठिन काम है। सुन्दरता का उमर के साथ बड़ा उलटा रिश्ता है। मरते-मरते तक आदमी की सारी सुन्दरता न जाने कब कैसे गिरकर-बहकर कहाँ तिरोहित हो जाती है। कोई विरला ही मरते समय भी सुन्दरता बचा ले जाता है। सुन्दरता बिलकुल भी स्थायी नहीं, बड़ी क्षणिक चीज़ है। कई बारी सुबह देखो तो आईना सुन्दरता की गवाही देता है मगर दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते सारी सुन्दरता न जाने कहाँ झड़ जाती है।

यह सब उलझनें पाखी से साझा करना, उसे और भरमाना होता। इसलिए शांति ने उसे बहलाने का रास्ता चुना। और उसे हर तरह से सिद्ध करने की कोशिश की वो कितनी प्यारी, अनोखी और ख़ूबसूरत है। पर बहुत जल्दी ही शांति को समझ आ गया कि पाखी का सुन्दरता का पैमाना शांति बिलकुल भी तय नहीं कर रही थी। फ़िल्म टीवी, मैगज़ीन्स, स्कूल, और सहेलियों का समूह, सबने मिलजुलकर पाखी के मन की दुनिया में सुन्दरता के जो मापदण्ड तय किए थे उन पर शांति का इख़्तियार लगभग बेअसर था।

शांति को फिर यह भी याद आया कि कुछ हफ़्तों से पाखी की आईने से कुछ अधिक ही दोस्ती हो चली थी। आते-जाते अक्सर शांति उसे किसी आईने के आगे खड़ा कुछ खोई हुई या कुछ खोजती हुई पाती। कभी बाल सवाँर रही है, कभी रोलर लगाके बैठी रहती। दिन भर में तीन-चार अलग-अलग फेसपैक पोत लेती। इस उमर में हर लड़की के यही ढंग होते है तो इन हरकतों को लेकर शांति कभी संजीदा नहीं हुई। मगर उसके लिए स्कूल जाना छोड़ देना शंका थोड़ी चिंता करने वाली बात हुई।

सुन्दरता बड़ा टेढ़ा सवाल है। और उसको पाने की डगर बड़ी फिसलन भरी है। शांति अपने अनुभव से जानती है कि आदर्श चेहरा-मोहरा और आकार-प्रकार रखने वाली औरतें भी अपनी सुन्दरता के प्रति भयानक रूप से सशंकित रहती हैं। उन्हे लगातार इस आश्वासन की भूख होती है कि वे सुन्दर हैं। जिस दिन दस-बारह लोग उनकी ख़ूबसूरती और आकर्षण की तारीफ़ न करें वे हताशा और विषाद के गर्त में उतराने लगती हैं। क्या है यह सुन्दरता का प्रपंच जिसमें सिर्फ सुन्दर होना ही काफ़ी नहीं, सुन्दर माना भी जाना चाहिये।

शांति यह भी जानती है कि सिर्फ़ ऊपरी नैन-नक़्श से सुन्दरता की शर्तें पूरी नहीं होतीं। बड़ी आँखों से न कुछ फ़र्क़ पड़ता है और न गोरे रंग से। अगर ऐसा होता तो चीन और अफ़्रीका के लोग सुन्दरता की दौड़ से पहले ही बाहर हो जाते। असली सौन्दर्य तो देह के भीतर से किसी उजाले की तरह बाहर आता है। जब वो आता है तो हम अक्सर उससे बिलकुल बेख़बर होते हैं। और जब नहीं आता तभी का तो सारा रोना है।

ख़ुद शांति ने ऐसे न जाने कितने संशयों का त्रास सहा है। वो जानती है उनकी तकलीफ़ पर इलाज.. नहीं जानती। अभी तक के जीवन में उसने ऐसे संशयों को अनदेखा किया है, टाला है, भरमाया है। और यही तरीक़ा उसने अपनी बेटी पर भी आज़माया। उसे शहर के एक सबसे महँगे और मशहूर सैलून में ले जाकर हेयरस्टायलिस्ट को सौंप दिया और चुपचाप वहीं बैठकर फ़ैशन मैगज़ीन्स के पन्ने पलटती रही और एहसास करती रही कि अब वो नौजवान नहीं रही, नई पीढ़ी की दुनिया कुछ और है। जब सर उठाकर देखा तो पाखी के ख़ूबसूरत लम्बे बाल फ़र्श पर टुकड़े-टुकड़े पड़े थे। शांति को उनके जाने का ज़रूर दुख था पर पाखी को बिलकुल नहीं। वो ख़ुश थी और चमक रही थी। पाखी की नज़र में उसका चेहरा उसकी कल्पना के किसी पैमाने में जाकर बैठ गया था। और एक उजाला बाहर आने लगा था उसकी देह से। समस्या का तात्कालिक अंत करके शांति बेटी को लिए घर आ गई। पर वो जानती है कि यह समस्या भी पेट की भूख की तरह है- कभी शांत नहीं होती।

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

मकान मालिक




उस दिन इतवार था। जब से शांति ने काम करना शुरू किया है शायद ही कोई इतवार ऐसा गया हो जब उसने सर न धोया हो। जिस तरह के धूल-धक्कड़ से गुज़र कर उसे काम पर जाना पड़ता है उसकी वजह से हफ़्ते में कम से कम एक बार और उसे सर से शहर की गर्द को उतारना पड़ता है। हफ़्ते के उस दिन शांति को इस काम के लिए अलग से समय निकालना पड़ता है। और अगर ऐसा न हो सके तो उसे गीले ही बालों में ट्रैफ़िक के बीच से गुज़रना पड़ता और सारी धुलाई पर धूल पड़ जाती। उस दिन भी शांति बिना किसी हड़बड़ी के बालकनी में खड़े होकर आराम से बाल सुखा रही थी। गीले बालों को पतले गमछे से फटकारते हुए जब वो आधी झुकी हुई थी तभी उसके कानो तक एक ऐसी टक्कर की धमक पहुँची जो अक्सर दुर्घटना के समय जन्म लेती है।

बालों को चेहरे से हटाकर जब शांति ने सड़क पर देखा तो टायरों से चिंघाड़ती हुई एक लम्बी गाड़ी तेज़ी से उसकी आँखों के सामने से ओझल हो गई। शांति को कुछ समझ नहीं आया तो उसने गरदन घुमाकर दूसरी दिशा में देखा तो एक मोटरसाइकल पलटी पड़ी थी और दो लोग भी गिरे पड़े थे। शांति का जी धक से रह गया। फिर उनमें से एक धीरे से उठा और पास पड़े अपने मोबाईल में कुछ करने लगा। पर दूसरे मे कोई हरकत नहीं की। वो वैसे ही पड़ा रहा। शांति से वहाँ खड़ा नहीं रहा गया। वो गमछा वहीं डालकर नीचे की ओर भागी। अजय बाहर के कमरे में बैठकर इतवारी अख़बार चाट रहा था। शांति को इस तरह हड़बड़ाता देख वो भी घबरा गया। वो भी पीछे-पीछे भागा।

जब वो नीचे पहुँचे तो दोनों जन ज़मीन पर अचेत पड़े थे। किसी में कोई हरकत नहीं थी। शांति को थोड़ी हैरानी हुई। आस-पास के कुछ और लोग भी थोड़ी देर में इकट्ठा हो गए। दोनों घायलो के शरीर से रिसकर लाल खू़न सड़क पर इधर-उधर फैल गया था। एक औंधे मुँह गिरा हुआ था और दूसरे का आधा दिख रहा चेहरा उतना ही सामान्य था जितना किसी भी राह चलते आदमी का होता है। शांति ने उनकी देह में किसी भी हरकत को आँखों से टटोलने की कोशिश की पर दोनों का बदन लगभग पत्थर की तरह बेहिस बना रहा। कुछ कहा नहीं जा सकता था कि वे जीवित थे या मर गए थे।  

वो एक ऐसा दुस्स्वप्न था जिससे हर कोई जाग पड़ना चाहता था। उस दुस्वप्न में क़ैद हो चुकी उन घायलों को हाथ लगाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई- शांति की भी नहीं। मगर उसने पुलिस को और हस्पताल की आपात सेवाओ को ज़रूर फ़ोन कर दिया। जब तक पुलिस और उनके बाद एम्बुलेन्स आई, तमाशबीनों की कई खेपें आकर जा चुकी थीं। अजय भी लौट गया था और शांति भी। लेकिन ऊपर जाकर भी शांति अपना ध्यान धीरे-धीरे ख़ून से ख़ाली हो रहे उन दो जनों से हटा नहीं सकी। देर तक बालकनी में खड़े होकर उधर ही देखती रही। और जब पुलिस पहुँची तो दुर्घटना की चश्मदीद गवाह शांति उन्हे घटनास्थल पर ही मिल गई। एक ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य पूरा करने शांति पुलिस के साथ भी चली गई। हालांकि अजय ने उसे इस पुलिसिया झमेले से बचाने की बहुत कोशिश की। यहाँ तक कि उसने शांति के बदले ख़ुद जाने तक की पेशकश की मगर वो शांति को मंज़ूर नहीं था। अपने नारीत्व को ऐसी अनैतिकताओं के पीछे छिपाना शांति को कभी गवारा नहीं हुआ।

पुलिस को कार को रंग और मौडल बताने से अधिक शांति के पास कुछ था भी नहीं। लेकिन पुलिस वालों में हर काम की अपनी गति और पद्धति होती है जो शांति की तबियत के ज़रा भी अनुकूल नहीं था। अगर मौक़ा इतना संजीदा न होता तो उसने अपनी चिड़चिड़ाहट का दमन न किया होता। और जब इंतज़ार का पानी हद से गुज़रने ही वाला था एक हवलदार ने आकर बताया कि दोनों जनों में से एक को भी बचाया नहीं जा सका। शांति को तो जैसे यक़ीन ही नहीं हुआ क्योंकि उनमें से एक तो दुर्घटना के तुरन्त बाद उठकर अपना मोबाईल देख रहा था। यह सोचकर शांति एक अपराधबोध से ग्रस्त हो गई- उसे ऐसा लगा कि जैसे उसी की चूक से मानवीय जीवन की यह हानि हुई हो। हस्पताल से घर लौटते हुए वो बार-बार अपने आप से सवाल करती रही कि क्या वो उनको बचाने के लिए कुछ और नहीं कर सकती थी?

अपना बयान दर्ज़ करवा कर शांति घर तो आ गई मगर उसका मन मरने वालों के साथ ही बना रहा। अगले दो-तीन दिन तक रह-रहकर वो दुर्घटना के दुस्स्वप्न में लौट जाती रही। फिर चौथे रोज़ दफ्तर से घर लौटते हुए उसे खाकी वर्दी में एक पहचानी सूरत अपनी इमारत की सीढ़ियों में दिखाई दी। ये व्यक्ति स्थानीय थाने का वही हवलदार था जिसने शांति का बयान दर्ज़ किया था। उससे मालूम हुआ कि कई दिन तक मरने वालों के सम्बन्धियों का कुछ पता नहीं चला। उनके मोबाईल में अधिकतर नम्बर दिल्ली और मुम्बई के थे। और वे सारे नम्बर उसके कामकाजी सम्पर्क थे और उनमें से एक भी न तो उसके घर-परिवार के बारे में कुछ जानता था और न ही उनके अन्तिम संस्कार में कोई दिलचस्पी रखता था। बहुत नम्बर आज़माने के बाद एक स्थानीय नम्बर मिला। और संयोग से वो उसके घरवालों का ही ऩम्बर था। हवलदार उन्ही से मिलने आया था क्योंकि वे शांति की ही इमारत में रहते हैं। यह जानकर शांति को बड़ा झटका लगा।

उसी शाम को शांति उन अभागे माँ-बाप से मिलने गई जिनके बेटे की लाश चार दिन लावारिस पड़ी रही और उन्हे कुछ ख़बर नहीं हुई। और जब ख़बर हुई वो सनाके में थे। इकलौता बेटा था। उसी के पराक्रम और उद्यम का नतीजा था कि वे एक खुले, हवादार, बड़े घर में रह रहे थे वरना उन्होने तो अपना पूरा जीवन संकरी झोपड़ियों में गुज़ारा था। पर उनका बेटा बड़े सपने देखता था। करोड़पति होने की क़सम खाई थी और उसी क़सम के लिए अभी तक शादी नहीं की थी। रियल स्टेट के धंधे में काफ़ी पैसा बनाया था उसने। दिल्ली और मुम्बई में कई फ़्लैट्स खरीद छोड़े थे जिनसे ख़ूब किराया मिलता था। पर कुछ खर्चा नहीं करता था। न गाड़ी थी न बंगला, खोली में रहता था और कम से कम में काम चलाता था। सब जोड़ रहा था करोड़पति होने के लिए- यह बताते-बताते उसकी माँ पछाड़े मार कर रोने लगी। शांति के पास दुर्गेश राय की माँ को दिलासा देने के लिए शब्द नहीं थे। हाँ, उसका नाम दुर्गेश राय था।
         
बाद में घर लौटकर उसे याद आया कि एक व्यक्ति की पहचान तब भी नहीं हुई थी और वो, मनुष्यता की इस भीड़ में अनन्त भागदौड़ के बाद एक लावारिस और बेनाम लाश के रूप में मुर्दाघर में पड़ा हुआ था। यह कैसा जीवन था जिसमें न जीने का कोई सुख था और न मरने की कोई गरिमा?


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)                                            


शनिवार, 23 जुलाई 2011

फ़रीद प्यारे..



फ़रीद आज पटने में दूल्हा बना हुआ है। कुछ मेरी तबियत ख़राब है और कुछ क़िस्मत ख़राब है जो उसके निकाह में शामिल नहीं हो पा रहा हूँ।  फ़रीद और आज से आधिकारिक तौर पर उसकी ज़िन्दगी में शरीक़ हो रही शीमा फ़ातिमा के सुखी और सम्पन्न वैवाहिक जीवन के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूँ।

कविता पर केन्द्रित प्रियंकर भाई की पत्रिका अक्षर के प्रवेशांक में फ़रीद के ऊपर मेरी यह छोटी सी टिप्पणी भी छपी थी, उसे साथ में चस्पां कर रहा हूँ। 




फ़रीद का कविकर्म

रीद की कविताओं में स्मृति है। उस स्मृति में एक दुर्लभ पारदर्शिता है। जिसमें रंग, भाव और विचार चटक धूप की तरह खिले रहते हैं। और चूंकि कहा ही गया है कि ताप या धूप से बेहतर रुजनाशक दूसरा नहीं होता इसलिए फ़रीद की कविताओं में एक ऐसी निर्दोषता है जो किसी छोटे मासूम बच्चे की तरह आप का मन मोह लेती है।

फ़रीद को मैं एक दशक से अधिक समय से जानता हूँ। वो पेशेवर कवि नहीं है। कवि बनने की महत्वाकांक्षा भी कभी नहीं थी उसमें और न अभी भी उसमें इस प्रकार का कोई दबाव मैं देख पाया हूँ। कविता लिखना उसका अभी दो-तीन बरस का विकास है। २००७ में फ़रीद ने पानी पर एक कविता लिखी थी, जो मैंने अपने निजी ब्लौग पर चस्पां की थी। तमाम वाहवाही के बावजूद फ़रीद ने न तो थोक में कविता लिखना शुरु किया और न ही अपना ब्लौग ही बनाने की तरफ़ क़दम बढ़ाया। ज़ाहिरन कविता लिखने की उसकी प्रेरणा छपास और वाहवाही से जुदा, भावना के उद्वेलन में दबी हुई रही है; जैसा कि होना भी चाहिये। 

लेकिन वो भी अपने काल से स्वतंत्र नहीं है क्योंकि कोई नहीं होता। हिन्दी कविता में जो नैतिक कार्यकर्तावाद या मौरल एक्टिविज़्म का रोग लगा हुआ है फ़रीद भी कहीं-कहीं उस से ग्रस्त नज़र आते हैं और किसी सामाजिक मसले पर अपने नैतिक उच्चबोध की क्रूर दृष्टि का प्रक्षेपण करते हैं। ये राजनैतिक शुचिता या पोलिटिकल करेक्टेडनेस का कीड़ा है। जो अपनी निजी विवेक पर भरोसा करने के बजाय हरदम स्थापित नैतिकता के मार्ग पर चलने की क़वायद करने लगता है। यह बड़ा भयंकर रोग है और अच्छे-अच्छे कवियों को अनुभूति की राह से उखाड़ फेंकने में ये कामयाब रहा है। नैतिक कार्यकर्तावाद के चलते कवि अपनी सहज अनूभूति को लगातार स्थापित नैतिकता पर जाँचता-परखता हुआ इस क़दर सशंकित और भयाकुल प्राणी में तब्दील होने लगता है कि बहुत जल्द वो विचार के नाम पर नारेबाज़ी और सरलीकृत समीकरण परोसकर अनुमोदन बटोरने में ही अपनी कविता की सफलता मानने लगता है और भूल जाता है कि अपने भावनात्मक अस्तित्व के साथ एकता किसी कवि की ही नहीं हर मनुष्य की बुनियादी ज़रूरत होती है। वैचारिक परिष्कार करने को मैं ग़लत नहीं मानता लेकिन कविता में आया हुआ विचार अगर अनुभूति का हमज़ाद नहीं है तो उसका नुक़्सान कविता को ही उठाना पड़ता है क्योंकि वह पाठक के पास भी अपनी विभक्त अवस्था के साथ ही उपस्थित होती है।

जो आप ने देखा नहीं उसकी कल्पना असम्भव है। कल्पना की उड़ान भी वास्तविकता से सीमित रहती है। आम तौर पर देखा गया है कि जो कविता अनुभूति की ज़मीन में उगती है, और कवि की अपनी निजी अनुभूति में कल्पना की पेंगे भर रही होती है वही कविता असरदार बनी रहती है लेकिन फ़रीद में यह अनोखी बात है कि जो कविता उसके जिये हुए सच से नहीं भी पनप रही, और जो राजनैतिक शुचिताबोध और नैतिक कार्यकर्तावाद के घेरे से संचालित मालूम देती है, वह भी मारक प्रभाव छोड़ने में कामयाब हो जाती है। यह बड़ा विरल हुनर है इसमें विचार की प्रधानता है और अनुभूति सहायक की भूमिका में है। अक्सर ऐसे प्रयोग असफल साबित होते हैं, मगर फ़रीद अब तक सफल है। 

कविता से वैचारिकता को निकाल पाना अब लगभग असम्भव है। जैसे कि एक बार शिशु  में झूठ बोलने की कला ने प्रवेश कर लिया तो उससे पहले की अबोधता को तब तक पाना सम्भव नहीं होता जब तक कि वह बुद्ध के बोधिभाव में उपलब्ध न हो जाय। एक बार विचार से भ्रष्ट हुई कविता, तमाम वैचारिक झंझावात से गुज़रकर, एक दूसरे स्तर पर जाकर ही निर्दोषता हासिल कर सकती है और किसी सम्यक संबुद्ध की तरह शुद्ध बोध की वाहक बन सकती है। कविता का क्षण इसी सम्बोधि का क्षण है। कवि की कला सम्बोधि के उस विरल क्षण को भाषा में पकड़ लेने की है। मुश्किल बस यही है कि अधिकतर कवि तमाम महत्वाकांक्षाओं के बावजूद सम्बोधि के उस स्तर तक पहुँचते नहीं, और जो कुछ पहुँचते भी हैं वो निरन्तर वहाँ टिक नहीं पाते, फ़िसलते रहते हैं। प्रेम की तरह सम्बोधि भी कभी होता है, कभी नहीं होता, वो स्थिर नहीं क्षणिक है।   

फ़रीद की कविताओं में सम्बोधि के वे क्षण दिखते हैं। लेकिन साथ ही फ़िसलने की सम्भावनाएं भी। क्योंकि सम्बोधि, लगभग सभी प्राकृतिक तत्वों की तरह अपने को पुनुरुत्पादित करना चाहती है और सम्भवतः कवि को फिर-फिर उसे हासिल करने के लिए उकसाती है। वेदों की अपौरुषेय़ता की जो बात है उसे इसी सन्दर्भ में समझे जाने की ज़रूरत है, वे पराक्रम से हासिल नहीं होते, उनका इलहाम होता है। सच्ची कविता और इलहाम में कोई अन्तर नहीं। कवि का मूल अर्थ प्रज्ञावान ही है और ऋचाएं रचने वाला ही ऋषि है।

फ़रीद वेदान्त का विद्यार्थी है और उसने सम्बोधि की क्षणिक उपलब्धि की है। अगर वह अपनी ही उपलब्धि से भ्रष्ट न हुआ तो वह सच्चे अर्थों में कवि या ऋषि हो सकता है।

*** 

[नीचे की सारी कविताएं मेरी इस टिप्पणी के बाद लिखी गईं हैं.. और किसी में भी राजनैतिक कार्यकर्तावाद की कोई झलक नहीं है। :) ]

अल्लाह मियाँ

अल्लाह मियाँ कभी मुझसे मिलना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

घूम के आओ गांव हमारे।
देख के आओ नद्दी नाले।
फटी पड़ी है वहाँ की धरती।
हौसले हिम्मत पस्त हमारे।
चाहो तो ख़ुद ही चल जाओ।
वरना चलना संग हमारे।

अल्लाह मियाँ कभी नींद से जगना
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के।

झांक के देखो,
खिड़की आंगन,
मेरा घर,
सरकार का दामन। 
ख़ाली बर्तन, ख़ाली बोरी,
ख़ाली झोली जेब है मेरी।

अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,  
मेहर तेरी उस ओर है।
भर कर रखा अन्न वहाँ पर,
पहरा जहाँ चहुँ ओर है।

अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के।
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल के।

बकरी

खेत में घास चरती बकरी
पास से गुज़रती हर ट्रेन को यूँ सिर उठा कर देखती है,
मानो पहली बार देख रही हो ट्रेन।
जैसे कोई देखता है गुज़रती बारात,
जैसे खिड़की से सिर निकाल कर कोई देखता है बारिश,  
जैसे एकाग्र हो कर सुनता है कोई तान। 

ट्रेन गुज़र जाने के बाद,
उस दृश्य आनन्द से निर्लिप्त वह,
चरने लग जाती है घास नये सिरे से।

क्यों लगता है ऐसा

पता नहीं क्यों हर बार लगता है,
रेल पर सफ़र करते हुए
कि टीटी आएगा और टिकट देख कर कहेगा
कि आपका टिकट ग़लत है
या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गये हैं,
आपकी गाड़ी का समय तो कुछ और है,
तारीख़ भी ग़लत है,
आपने ग़लत प्लेटफ़ॉर्म से ग़लत गाड़ी पकड़ ली है,
आप उल्टी तरफ़ जा रहे हैं।
और वह चेन खींच कर उतार देगा
मुझे निर्जन खेतों के बीच।


सोमवार, 18 जुलाई 2011

वे दिन



रात के कोई दस बजे थे। सड़कों पर ट्रैफ़िक की नदी का वेग कुछ मन्द ज़रूर हुआ था पर थमा न था। काली रात में तारों की चमक भी थी। मगर शहर धूल और धुएँ की मोटी चादर से ढका हुआ था। सर उठा कर देखने पर आसमान तो दिखता था पर तारे नहीं। हैलोजेन की रौशनी में नहाई सड़कों पर फ़िसलते स्कूटर पर सवार अजय तक कोई चमक नहीं पहुँचती थी पर शांति का मन न जाने कैसे उस तारों भरी रात के रूमान में नहाया हुआ था। अजय तो चाहता था कि वो कार से चलें मगर शांति ने ही इसरार किया कि पुराने दिनों की तरह स्कूटर से चलते हैं। और पुराने दिनों की याद में ही उसने स्कूटर अजय को ही चलाने दिया। पीछे की सीट पर से तेज़ी से गुज़रती दुनिया एक बहाव सी मालूम देती है। कभी-कभी सिर्फ़ बहना ही अच्छा लगता है।

सुनील, अजय का सहकर्मी है, नई-नई शादी हुई है उसकी। वैसे तो नवविवाहित दुनिया की ओर अधिक रुख़ करते नहीं। एक दूसरे को खोजने के लिए ही समय कम पड़ता है। इसलिए सुनील और नीता ने जब उन्हं खाने का न्योता दिया तो उन्है हैरत हुई और खुशी भी। किसी नवदम्पति को देखकर हमेशा एक सुख का अनुभव होता है। उनमें किसी फूल की तरह प्रकृति का चरम सौन्दर्य झलकता है। मुश्किल से ही उनके बीच  कभी कोई विवादी स्वर लगता है। एक दूसरे के संग पूरी तरह राज़ी, एक दूसरे में पूरी तरह रमे हुए, एक दूसरे में ही बसे हुए-जमे हुए। उनसे मिलने के ख़याल से ही शांति में एक उत्सुकता जाग गई थी। और जब ये तय किया कि वे बच्चों को छोड़कर जायेंगे तो उसे वे दिन याद आने लगे जब वो स्वयं एक नवविवाहिता थी। वे दिन भी क्या दिन थे। उन दिनों में भी संसार था, लोग थे, समाज था पर जैसे कोई कुछ अहमियत नहीं रखता था सिवाय उन दोनों के। मानो वे कमल के पत्ते की तरह संसाररूपी जल पर रहकर भी उससे गीले नहीं होते थे। अपनी भावनाओं के द्वीप में वे आदम और हव्वा की तरह निर्दोष रूप से रहते थे। वही निर्दोषपन शांति को उनके प्रति एक अनोखे आकर्षण से भरे हुए था।   

दरवाज़ा नीता ने खोला। साँवला रंग लेकिन खिला हुआ। आम तौर पर पीला रंग साँवली देह पर नहीं जाता। पर उसकी देह में कुछ ऐसी कांति थी कि हलकी पीली साड़ी उस पर ख़ूब फब रही थी। सुनील को शांति ने अजय के साथ पहले भी देखा है। पर उसे उसकी नवविवाहिता नीता के साथ एक अलग सुनील को देखना था। दोनों अजय और शांति से अलग-अलग होकर मिल रहे थे फिर भी जैसे एक दूसरे को थामे हुए थे हर पल। उनकी एक-एक चेष्टा एक दूसरे के बन्धन में थी। हाथ छूटे हुए थे मगर नज़रों से बँधे थे, नज़रो से छूटते तो मुद्राओं से बँधे रहते। उनके हाथ और पैर भी अनायास ही एक दूसरे की ओर उन्मुख रहते। वो अजय और शांति को देखकर मुस्करा रहे थे, हँस रहे थे, पर असल में उनकी एक-एक मुस्कान का स्रोत और लक्ष्य वे स्वयं थे। उनको देखकर शांति में भी अजय के प्रति उसके गहरे और पुराने प्रेम का रंग घुलने लगा, फिर से प्रेम का वही स्वाद मिलने लगा।

घर छोटा था पर सुरुचिपूर्ण था। उनकी दुनिया की तरह उनकी गृहस्थी भी सीमित थी। एक कोने में एक सितार भी रखा हुआ था। शांति को उत्सुकता हुई। नीता ने बताया कि वो बजाती है। और कुछ सुनाने की फ़रमाईश करने पर बजाने को राज़ी भी हो गई। संगीत सुनना और संगीतकार के सामने बैठकर सुनना और उसे देखना, दोनों एकदम अलग अनुभव हैं। नीता  राग के भावों को साज़ से ही नहीं अपने पूरे शरीर से भी अभिव्यक्त कर रही थी। शांति को उसका ये अंदाज़ बड़ा मोहक मालूम दिया और वह उन भावों में इतना डूब गई कि उसने कब अजय की बाँह कसके पकड़ ली उसे पता ही न चला। भावों की तरंगे उसके शरीर से अजय की देह में रिसने लगीँ। पर उधर से आने वाले भाव इतने अनुकूल नहीँ थे। शांति को लगा जैसे अजय उसकी पकड़ में बहुत सहज नहीं है। उसको अजय के शरीर में एक तरह के तनाव का अनुभूति हुई। शायद अजय उस संगीत का उतना आनन्द नहीं ले पा रहा था जितना शांति। सुनील का तो कहना ही क्या, वो तो प्रेम में डूबा था। उस पूरे माहौल में अजय के बदन से उमड़ता वो तनाव ही उसे विवादी स्वर लगा। शांति ने उस असहजता को वर्जित मानकर उसका हाथ छोड़ दिया। और उसे ज़रा अहमियत न देते हुए भूल भी गई।

तक़रीबन डेढ़ घंटे बाद जब वे घर वापस जाने के लिए नवदम्पति से विदा लेकर लिफ़्ट में सवार हुए तब तक शांति अजय की असहजता और तनाव दोनों को भूल चुकी थी। उस की तबियत पर उन क्षणों में भी संगीत के रुमान का रंग तारी था। लिफ़्ट का दरवाज़ा बंद होते ही वे अकेले हो गए। उन दिनों में ऐसे मौक़ों पर अजय जो करता था उसे सोचकर शांति के मन में झुरझुरी सी हो गई। उसने चाहा कि उन दिनों की तरह अजय उस पर झुक आए और हलके से चूम ले। उसने तिरछी नज़रों से देखा- अजय उदासीनता से कहीं परे देख रहा था। शांति ने चाहा कि वो ही उसे चूम ले। वो उसकी तरफ झुकी भी पर लिफ़्ट का दरवाज़ा खुला और अजय बिना उसकी ओर देखे आगे बढ़ गया। शांति गिरते-गिरते बची।

लौटते में भी शांति ने स्कूटर अजय को ही चलाने दिया। आसमान तब भी तारों से गछा हुआ था। और इस बार रात से रूमान नहीं बरस रहा था। उलटे शांति के मन से सारा रूमान रात की कालिमा में घुलता जाता था। बिना टूटे भी कैसे प्यार का धागा इतना ढीला पड़ जाता है कि उससे उदासी के सिवा कुछ और नहीं बुना जाता- बिना सोचे भी शांति इस ख़याल के सहारे ठहर गई।

रसोई में पानी की ख़ाली बोतलें भरते हुए शांति अजय से अपने रिश्ते के बारे में ही सोचती रही। अजय भी फ़्रिज से ठण्डा पानी लेने रसोई में चला आया। वे दिन होते तो अजय धीरे से आकर उसकी कमर में बाँहें डाल कर उसकी गरदन को चूम लेता। उसने चूमा भी मगर शांति की कल्पना में। वास्तविकता के तल पर फ़्रिज का दरवाज़ा खोले  अजय चुपचाप गटगट पानी पीता रहा। शांति के मन में बस एक ही सवाल घुमड़ रहा था और बहुत रोकने पर भी वो उसके मुँह से निकल ही गया- अब तुम मुझे प्यार नहीं करते न?

यह सुनते ही अजय को ज़ोर का ठसका लगा और वो खाँसने लगा।


***

(कल के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई)

चित्र - वैन गौ

रविवार, 10 जुलाई 2011

चूहा


 रात सोने के लिए थी। थक कर धराशाही हो जाने के लिए थी। पर रात डर जाने के लिए भी थी, नींद के झोंको में भी जागते रह जाने के लिए थी। रात में चाँद, टँके हुए तारे, जुगनू और खुशबू पलते थे मगर उसी रात में दुःस्वप्न और राक्षस भी मिलते थे। शांति ने बचपन में ही रात के दोनों मतलब सीख लिए थे यानी जी कर देख लिए थे। फिर एक लम्बे अन्तराल में शांति के लिए रात बेहोशी का बिछौना बनी रही। और एक दूसरी दुनिया बिछौने के नीचे दबी रही। परदों के पीछे छिपी रही।

और फिर एक दिन उसे एक  आकृति दिखी। पहले रसोई के प्लैटफार्म पर, फिर डस्टबिन के पास, और फिर अपनी अलमारी के नीचे। उनका चावल जैसा आकार और काला रंग शांति ने पहले भी देखा था। उसकी स्मृति के जिस भाग में उनकी पहचान स्थित थी, उस भाग में भयों का डेरा था। वो मूस की लेंड़ी थी और घर में उसके होने का अर्थ था कि चूहा घर में प्रवेश कर चुका था।  

चूहा, चूहा नहीं था वो अतीव शक्तियों का एक पुंज था। शांति की कल्पना में वो कुछ भी कर सकता था। वो अंधेरी नालियों में फ़िसल सकता था, नंगे बिजली के तारों पर दौड़ सकता था, बंद दरवाज़ों के आर-पार निकल सकता था, आसमान में उछल सकता था, पतले से पतले सूराखों से भी निकल सकता था। खुली आँखों में चूहा छोटा था पर आँखें बन्द होते ही चूहा हनुमान की तरह अपना आकार बढ़ा सकता था। पर चूहा हनुमान नहीं था, शांति के लिए तो बिलकुल नहीं। उसके लिए तो वो काल था- महाकाल। वो दाँतों से कुतर सकता था, पंजों में पकड़ सकता था, दबोच कर रगड़ सकता था।

शांति के लिए अपनी उर्वर कल्पनाओं के साथ घर में रहना लगभग असम्भव हो गया। जब घर में चूहे के होने का पहला निशान मिला तो रात हो चुकी थी। अच्छा यह था कि खाना खाया जा चुका था, सारा काम ख़त्म हो चुके थे और सोने की तैयारी की जा रही थी। पर मुश्किल यह थी कि चूहे ने उसे ऐसे समय पर घेरा था जब कि वो किसी काम की आड़ में अपने भय को छुपा नहीं सकती थी, उलटे वो एक ऐसी अवस्था में उतरने की तैयारी में थी जिसमें हर जानवर निरा अरक्षित होता है- नींद। और चूहा जागने में जितना ख़ौफ़नाक था उससे कई गुना अधिक ख़तरनाक वो नींद में था। क्योंकि नींद में अंधेरा था और अंधेरा डर की उर्वर ज़मीन था। उस रात शांति ने एक पल की भी नींद नहीं ली। आँखें भी ठीक से न झपकायीं। बत्तियां सारी रात जलती रहीं। अगला दिन दफ़्तर वालों के लिए बड़े विस्मय का दिन था। पहली बार उन्होने शांति को दफ़्तर में उबासियां लेते और बैठे-बैठे झपकियां लेते देखा था। और उसका ध्यान भी काम पर नहीं कहीं और था। दिन भर शांति फ़ोन पर तमाम लोगों से लम्बे-लम्बे वार्तालापों में किसी एक चीज़ के बाबत जानकारी लेती रही।

उस शाम जब शांति घर लौटी तो उसके हाथ में अपने बैग के अलावा एक और बड़ा पैकेट था। उस पैकेट में खाने की चीज़ थी, चूहे के खाने की ची़ज़- ज़हर। जिसे आटे की गोलियों में मिलाकर चूहे की राह में परोस दिया जाना था। पैकेट में लकड़ी और लोहे से बना एक नन्हा घर भी था, जिसे लोग चूहेदानी कहते हैं। वो चूहे की शक्ति और गति को सलाखों में सीमित करने का एक यंत्र था। उस शाम शांति को अपने खाने से अधिक चूहे के खाने की चिंता थी। बहुत जतन से उसने पूरे घर को आटे की ज़हर मिली गोलियों सजाया। उसके बाद अपने हाथों को कम से कम पाँच बार धोया, फिर भी खाने का एक कौर भी न निगल सकी। ज़हर के भय से नहीं, चूहे के होने के तनाव से उसके शरीर में युद्ध जैसी स्थिति हो गई थी। बदन ऐसे जल रहा था जैसे एक सौ दो बुखार हो। उस रात भी शांति को नींद नहीं आई। बत्तियां जलती रहीं। रात भर चूहे का प्रेत घर भर में कुलांचे भरता रहा। शांति की नींद और चैन को टुकड़ा-टुकड़ा कुतरता रहा। कुतरने की वो आवाज़ें शांति के कानों में घंटो की तरह बजती रहीं।

अगली सुबह घर में सारी जहरीली गोलियां साबुत पड़ी थीं और चूहेदानी भी खाली थी। अजय ने समझाया कि सब शंति का वहम है, कोई चूहा-वूहा नहीं है घर में। शांति उसकी बात पर यक़ीन कर ही लेती लेकिन डायनिंग टेबल पर रखी फलों की टोकरी में रखे केलो में से एक में बड़ा सा एक छेद था। वैसा ही एक छेद आलू की टोकरी में रखे एक आलू में भी था। अब कोई शक़ नहीं था कि चूहा पिछली रात घर में था और सक्रिय था। शांति का आतंक और तब गहरा गया जब उसे अपने बिस्तर के ठीक नीचे चूहे की विष्ठा के काले निशान मिले।

दफ़्तर में एक और कठिन दिन गुज़ारने के बाद शांति की आँखें सूज चुकी थीं और उनके नीचे गहरे काले धब्बे पड़ चुके थे। उस रात भय और थकान के बीच भारी गुत्थमगुत्था चलती रही। और देर रात के बाद एक ऐसा अन्तराल आया जब शांति का मस्तक परास्त हो रहा और वो कोई दो घंटे बेसुध पड़ी रही। और जब जागी तो हड़बड़ा के। बत्ती जल रही थी, आवाज़ें लगभग शांत थीं। गूलर के पीछे से हलका-हलका उजाला होना शुरु हो रहा था मगर अभी चिड़ियों ने बोलना शुरु नहीं किया था। परे घर में जल रहा बत्तियों के उजाले में शांति ने देखा कि ज़हर की गोलियां वैसी की वैसी पड़ी थीं। चूहे ने उन्हें छुआ भी नहीं था। मगर रसोई में रखी चूहेदानी खाली नहीं थी। एक काली लम्बी पूँछ चूहेदानी के बाहर पसरी हुई थी। उबकाई की एक लहर शांति के पेट से गले तक दौड़ गई। चूहा पकड़ा गया था। शांति के अवचेतन में आतंक मचा सकने की उसकी अतीव शक्तियों को खींचकर चूहेदानी की सलाखों में बन्द किया जा चुका था। फिर भी शांति उसको सीधे देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। अपनी सारी कायरता के बावजूद शांति की बचती हुई नज़रें चूहे की आँखों से टकरा ही गईँ। गंदे भूरे बालों से ढके उसकी देह में जड़ी उन दो आँखों से अपलक घूर रहा था उसे चूहा। उन गहरी काली आँखों में कहीं कोई अपराधबोध नहीं था। कोई ग्लानि, कोई हिंसा, क्रोध, प्रतिशोध, कुछ भी नहीँ। उलटे उन में एक अजीब सा आकर्षण और सम्मोहन था।

और उन गहरी काली आँखों के सम्मोहन में शांति बिलकुल भूलने लगी कि वो क्यों नफ़रत करती थी उससे? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वो उसके लुकाछिपी के खेल की हिमायती नहीं थी? या इसलिए कि किसी ज़माने में चूहे प्लेग के वाहक बने थे? या इसलिए कि चूहे आदमी की बनाई मालिकाना सरहदों को नहीं मानते और कु्त्तों की तरह आदमी के आगे दुम नहीं हिलाते? कोई भी कारण उसकी गहरी काली आँखों जितना मासूम नहीं था।

***

(आज के दैनिक भास्कर में छपी है) 

रविवार, 3 जुलाई 2011

झण्डा


हफ्ते भर की थकान थी और इतवार था। फ़िल्म देखने के लिए बच्चो की ज़िद भी थी। बच्चे छोटे ज़रुर थे पर ज़िद बड़ी थी। शांति का मन तो था कि दोपहर में पैर फैला के सो रहती लेकिन बच्चों की ज़िद के आगे झुकना ही पड़ा। पहले सोचा कि खाना खा के निकलेंगे फिर बच्चों की ज़िद कि खाना भी बाहर ही खायेंगे। और बाहर खाना खाने का मतलब है एक बड़ी धनराशि से सम्बन्ध विच्छेद। पैसे को पकड़ का रखने की चाहत को किनारा कर बच्चों की इच्छा को आगे रखा। मक्खन के साथ आलू पराँठे बने, खाए गए और एक मनोरंजक दोपहर गुज़ारने शर्मा परिवार मौल को निकल पड़ा। क्योंकि पहले के सिंगल थियेटर सिनेमाहौल अब नहीं बचे। जो बचे भी उनमें ऐसी फ़िल्में लगती हैं जो परिवार के साथ नहीं देखी जा सकतीं। नए सिनेमा का नया ठिकाना मौल के मल्टीप्लेक्स में ही था। शांति और अजय की तो इच्छा थी कि कोई हिन्दी फ़िल्म देखी जाय मगर अचरज पैर पटकने लगा कि कंगफ़ू पांडा ही देखेंगे और वो भी थ्रीडी। और इस ज़िद के भी विजयी होते ही वो जूते-मोज़े पहनकर दरवाज़े पर खड़ा हो गया और रटने लगा कि मम्मी चलो, पापा चलो!

मौल के आगे गाड़ियों की एक लम्बी कतार थी। सभी अन्दर जाने की मुराद रखते थे। शर्मा जी की गाड़ी भी उन्हीं में एक मुन्तज़िर हो गई। बहुत पहले, क़रीब दस-बारह बरस पहले क्या गाड़ी वाले और क्या बेगाड़ी वाले, कोई इधर देखता भी नहीं था। लोगों को ये तक ख़याल नहीं था कि उधर एक छोटा-मोटा तालाब है। गौरेया, बुलबुल, लहटोरा, और भुजंगा जानते थे और छोटे-बड़े बगले, कौए, और किलकिले भी जानते थे कि जेठ की गरमी को छोड़ दस-ग्यारह मास तालाब में पानी मिलता है और पानी में छोटी मछलियाँ, मेढक और केंचुए मिलते हैं। पास की बस्ती के स्कूल गोल करने वाले बच्चे और कुछ अनपढ़ आवारा बड़े भी उस ताल को जानते थे और कांटे में एक केंचुआ फंसाकर, और गाँजे की एक कली सुलगाकर मच्छीमार बन जाते थे। उस समय वो ताल गंजेड़ियों और मच्छीमारों को मौल था।

पहले मौल नहीं थे। कूचे थे, गलियां थीं, ठेले थे, मेले थे, बीच सड़क तक बढ़ी हुई दुकानें थीं। कीचड़ था, कचर-मचर थी, भिनभनाती हुई मक्खियाँ थीँ, पिनपिनाते हुए कुत्ते थे, रम्भाती गाएं थीं, अड़कर खड़े साँड़ थे। मूँछो पर ताव देते पहलवान थे, पनवाड़ी थे, उनके पान की मुरीद भीड़ थी। बोरी थी, कनस्तर था, पीपा था, भैंसा था, भैंसाटोली थी, फेरीवालों की हज़ार तरह की बोली थी। प्लास्टिक न था, शोविन्डो न थी, नए से नए फ़ैशन के कपड़े पहने यूरोपी नैन-नक्श के पुतले न थे। पिछले युग का और पिछड़े युग का पुराना भारत कहीं-कहीं अभी भी बाक़ी है, मगर मौल के अन्दर केवल उभरते भारत की झांकी है।

टिकट लेने में काफ़ी समय लग गया। उतनी देर में आस-पास लगे पोस्टरों के असर में बच्चों ने आने वाली फ़िल्मों को देखने की योजनाएं भी बना डालीं। और हौल में जाने के लिए स्नैक्स काउन्टर से होकर गुज़रना था और कुछ रक़म को वहाँ भी अलविदा कहना था। कहा गया। पाखी को मेक्सिकन नाचोज़ खाने थे और अचरज को पौपकौर्न। ठण्डा, काला और बुलबुलेदार पेय दोनों को चाहिये था। दिया गया और तब जाकर पुशबैक सीटों में बैठने का मौक़ा आया। फ़िल्म शुरु नहीं हुई थी, विज्ञापन चल रहे थे। कुछ लोग बैठे थे, कुछ खड़े थे, कुछ सीढ़ियों पर नाचोज़ और पौपकौर्न ले कर चढ़ रहे थे। और तभी एक चेतावनी ने सबको चेता दिया- राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने की चेतावनी। जो जहाँ था, थम गया और अपने आप में तन गया। एक झण्डा स्क्रीन पर उभरा और हवा की एक लहर उसे फहराने लगी। एक समूह पार्श्व से रवीन्द्रनाथ की रचना गाने लगा -लगभग निरुत्साहित कर देने वाली आवाज़ में। किसी ने बेअदबी नहीं की। ज़ाहिर था सब स्कूल गए थे। थोड़ी सी असहज कर देने वाली बात एक ही थी कि झण्डा और फहराने वाली लहर दोनों ही डिजिटल थे। न जाने क्यों यह बात शांति के गले में कहीं अटक गई और इन्टरवल में पैंसठ रुपये की कैपुचिनो लेते हुए भी झण्डे को ही सोचती रही। हौलीवुड में तैयार चीन का पांडा इन्टरवल के बाद भी तीनों आयामों में उछलकूद करता रहा लेकिन डिजिटल झण्डा गले से नहीं उतरा तो नहीं उतरा।

फ़िल्म ख़त्म होने के बाद खाने के मामले पर भी पारिवारिक विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई। पाखी को सदा की तरह कुछ नया आज़माना था- इस बार की फ़रमाईश थाई। अचरज को अपना मनपसन्द पित्ज़ा खाना था और अजय किसी भी तरह के प्रयोग करने के मूड में नहीं था। वो छोले-भटूरे पर अड़ गया फिर शांति ने किसी तरह चाइनीज़ पर सुलह करवाई। नूडल्स निगलने के पहले ही झण्डे वाली बात गले से उगल आई।

इस तरह से झण्डा दिखाने का क्या मतलब है?’
हम्म?’ अजय ने अनजानेपन में भँवे उचकाईं।  
अरे वो असली झण्डा नहीं था, कम्प्यूटर पर बनाया हुआ झण्डा था। राष्ट्रगान के लिए क्या एक असली झण्डा भी नहीं है उनके पास?  और कैसे गा रहे थे रोते हुए?’
क्या फ़रक पड़ता है शांति.. तुम बेकार ही हर बात पर सीरियस हो जाती हो.. अजय ने  मैदे के लच्छे सुड़कते हुए कहा।
बेकार सीरियस हो रही हूँ?’
और क्या, क्या फ़रक पड़ता है लोगों को कि झण्डा असली है या डिजिटल? लोग तो फ़िल्म देखने आते हैं झण्डे को सलाम करने थोड़ी आते हैं?’

अजय के जवाब से शांति बिलकुल लाजवाब हो गई। बात सही थी। इसे तो सरकार की मौक़ापरस्ती ही कहा जाएगा कि मनोरंजन के मक़सद से इकट्ठा हुए लोगों को देखकर वो देशभक्ति की घुट्टी पिला रही है। जैसे याद दिला रही हो कि खाओ पियो कुछ भी, मगर भूलो मत कि देश कौन सा है और झण्डा कौन सा है। क्या सरकार को अपने नागरिकों पर इतना भरोसा भी नहीं है? डरती है कि बदलते हुए भारत में लोग कहीं ज़्यादा ही न बदल जायें? चाइनीज़ खाने के ऊपर इटली की गेलातो आइसक्रीम की परत जमाते हुए शांति ने देखा कि एक मोटे महाशय को, जिन्होने अमरीका के झण्डे को अपने सीने पर सजा रखा था। वैसे यही सज्जन राष्ट्रगान के समय साँस रोककर खड़े भी हुए थे।

मौल से लौटते हुए यही सोचती रही शांति कि क्या होता है आख़िर देश का मतलब? वो क्या काग़ज़ पर छपा कोई नक़्शा है, कोई झण्डा है, कोई धुन है जिसे बचपन से सिखा और समझा दिया जाता है? या आदमी की भीतरी बुनावट में उसका कोई ताना-बाना पड़ा होता है?

***


(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


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