शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उस तरह से उपलब्ध नहीं है जैसे कि रूमी के बारे में। कुछ लोग मानते हैं कि वो किसी सिलसिले के सूफ़ी नहीं थे, बस एक इधर-उधर घूमने वाले दरवेश या क़लन्दर थे। एक अन्य स्रोत से ये भी हवाला मिलता है कि शम्स के दादा हशीशिन सम्प्रदाय
(१) के नेता हसन बिन सब्बाह के नाएब थे।
(२) बाद में शम्स के वालेद साहब ने सुन्नी इस्लाम ग्रहण कर लिया। लेकिन यह बात संदेहास्पद होते हुए भी दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इसमायली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ा थे। और ये इस्मायली ही थे जिन्होने सबसे पहले क़ुरान के ज़ाहिरी अर्थ को नकार कर बातिनी (छिपे हुए) अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरी दुनिया को नकार कर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।
रूमी और शम्स की मुलाक़ात के बाद ही रूमी को एक असाधारण अनुभव हुआ जिसके लिए उन्होने कहा कि उनके दिमाग़ में एक खिड़की सी खुली और उसमें से धुँआ निकल कर अर्श की ओर चला गया। यह निस्सन्देह एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की ओर इशारा है, जिसे तंत्र की भाषा में कह सकते हैं कि उनकी कुण्डलिनी सीधे सहस्रार तक जा पहुँची और समाधि लग गई।
इस अनुभव के बाद शम्स ने रूमी पर कुछ पाबन्दिया लगाईं जैसे कहा कि ख़ामोश रहो, किसी से मत बोलो। और रूमी चालीस दिन (या तीन महीने) तक न किसी और से बोले, और न शम्स से जुदा हुए। दोनों एक कमरे में बन्द रहे बस। दूसरे रूमी में कुछ रासायनिक परिवर्तन ख़ुदबख़ुद आये जैसे कि उन्होने मौलवी का चोगा उतार कर फ़क़ीरों का ख़िरक़ा पहन लिया, और कालान्तर में नाचना-गाना भी शुरु कर दिया। उनके इन बदलाव का ज़िम्मेदार उनके शिष्यों ने शम्स को माना और अपने गुरु को इस तरह से भ्रष्ट करने के लिए वे शम्स से नफ़रत करने लगे। वैसे कुछ और भी स्वतंत्र कारण थे कि लोग उन्हे नापसन्द करते, जैसे कि शम्स बहुत सी ऐसी बातें बोलते थे और करते थे जो कि इस्लाम के नियमों के ज़ाहिरी अर्थ के अनुसार कुफ़्र समझी जाती। शम्स इस ग़लतफ़हमी की परवाह न करते और लोग मानते कि उन्हे इस्लाम की परवाह नहीं है। साथ ही यह भी अफ़वाह थी कि शम्स शराब पीते हैं।
किसी रोज़ कुछ ढीठ मुफ़्तियों ने रूमी से पूछा कि शराब हराम है कि हलाल? उनका मक़सद शम्स तबरेज़ी को बदनाम करना था; रूमी ने रूपक में जवाब दिया, “यह इस बात पर टिका है कि पीने वाला कौन है? नदी में एक मुश्क शराब मिलाने से न तो नदी नशीली होती है न उसका रंग मैला होता है, और पूरी तरह से वज़ू के लायक़ बना रहता है। लेकिन अगर एक तसले पानी में एक बूंद भी शराब पड़ जाय तो पानी नापाक हो जाता है। सीधी बात है कि मौलाना शम्स अगर पीते हैं तो उन के लिए जाएज़ है क्योंकि वो नदी की तरह हैं लेकिन तुम्हारे जैसे रंडी के बिरादरों के लिए शराब तो क्या जौ की रोटी भी हराम है।” (३)
जैसे कि हवाले मिलते हैं शम्स एक बहुत ही सख़्त और सम्पूर्ण समर्पण की माँग करने वाले गुरु थे, दोस्त थे, जो भी नाम उनके रिश्ते को दिया जाय। क्योंकि उनको देखकर ये तय करना मुश्किल था कि कौन किस से सीख रहा है, ऐसा कहा जाता है। लेकिन घटनाक्रम से यह निर्णय निकाला जा सकता है कि शम्स ही गुरु थे और रूमी चेले; मुर्शिद समर्पण नहीं करता, मुरीद करता है। और रूमी ने किस तरह का समर्पण किया यह अफ़्लाकी ने मुनाक़िब ए आरिफ़ीन में लिखा है। वे लिखते हैं कि कोन्या की महफ़िलों में ये बातें होने लगीं थीं कि बहाउद्दीन बल्खी का बेटा (यानी रूमी) तो शम्स का फ़रमाबरदार लौंडा बन गया है। (४)
‘मुनाक़िब ए आरिफ़ीन’ में ही दिए एक अन्य क़िस्से में सुल्तान वलेद के हवाले से बताया जाता है कि एक रोज़ शम्स ने रूमी को उकसाने और आज़माने के लिए, एक हसीन सूरत की माँग की (सूफ़ियों में एक रवायत रही है कि वे किसी एक हसीन सूरत को प्रतीक बनाकर अल्लाह से इश्क़ का रास्ता खोलते हैं, उसे वे शाहिदी कहते हैं), तो रूमी ने अपनी मरियम की तरह पाक और बेगुनाह और बेहद ख़ूबसूरत बीवी कीरा ख़ातून का हाथ पकड़ कर उनके आगे पेश कर दिया; वो थीं। शम्स ने उन्हे देखकर कहा कि ये तो मेरी रूहानी बहन है, ये नहीं चलेंगी। बल्कि मुझे तो एक नाज़ुक और ख़ूबसूरत लड़के की चाहत है जो मेरी सेवा भी करे। फ़ौरन रूमी, युसूफ़ की तरह हसीन सुल्तान वलेद को ले आए और शम्स के आगे खड़ा कर दिया, और बोले कि उम्मीद है कि ये आप की ख़िदमत के और जूते ले आने, पहनाने के लायक़ है। तो शम्स बोले कि ये तो मेरा प्यारा बच्चा है; अब बस थोड़ी शराब का भी इन्तज़ाम हो जाता किसे मैं पानी की जगह पी सकता क्योंकि मैं उसके बिना नहीं रह सकता। इसके बाद रूमी बाहर गए और पड़ोस के यहूदियों के मुहल्ले से एक घड़े में शराब भी ले आए।
इसके बाद रूमी की फ़रमाबरदारी से क़ायल हो कर अचानक शम्स ने आनन्दातिरेक में एक चीख मारी और अपने जिस्म के कपड़े फाड़ दिये और बोले कि तुम जैसा कोई नहीं। (५) वे ये सब बातें रूमी के समर्पण की आज़माईश के लिए कर रहे थे।
जलालुद्दीन मुहम्मद रूमी और शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बीच के रिश्ते के बारे तमाम तरह की अटकलें लगाईं जाती रही हैं। इस तरह के क़िस्सों और रूमी के काव्य में शम्स के प्रति जुनूनी इश्क़ और उनके सम्पूर्ण समर्पण ही वो बातें है जो उनके बीच समलैंगिक सम्बन्ध होने का शुबहा पैदा करती है। रूमी भी मानते हैं कि इश्क़ कैसा भी हो अच्छा है। क्योंकि वह वास्तव में बन्दे और अल्लाह के बीच के इश्क़ का स्थानापन्न है और अन्ततः उसी ओर प्रेरित कर ले जाएगा। फिर भी उनके बीच में शारीरिक सम्बन्ध थे या नहीं इसे सिद्ध करने का कोई तरीक़ा नहीं है। लेकिन ये तो जग ज़ाहिर है कि उनके बीच बहुत गहरे, बहुत पक्के, भावनात्मक और आध्यात्मिक रिश्ते थे। जिसे रूमी ख़ुद अपने शब्दों में इश्क़ कहते हैं।
फ़र्क़ ये ज़रूर है कि पुरुष जब स्त्री से इश्क़ करता है तो उस में एक बहुत तगड़ा लैंगिक आयाम रहता है, वासना का प्रभाव रहता है। जबकि ऐसा मानते हैं कि सूफ़ियाना इश्क़ में मामला पूरी तरह रूहानी होता है। सूफ़ी शब्दों में एक नफ़्स से संचालित है और एक रूह से। आम आदमी तो इश्क़ को नफ़्स के, लैंगिक वासनाओं के दायरे से आज़ाद कर ही नहीं पाता। जबकि इश्क़ करने वाले हर सूफ़ी साधक की कोशिश अपने नफ़्स (मूलाधार की हैवानी ऊर्जा) को दिल और दिल से ऊपर की ओर ले जाने की है, ताकि वो हैवान से उन फ़रिश्ते की ओर यात्रा की जा सके, जिनके भीतर कोई दैहिक वासना नहीं होती।
मगर दूसरी तरफ़ यह भी सच है कि चूंकि दोनों तरह की ऊर्जाओं, सम्बन्धों, और उनकी अभिव्यक्तियों में इतना अधिक साम्य है एक को दूसरे में जाने या गिर जाने की बात भी मुमकिन लग सकती है। यानी इस राह के साधक भटक जाने पर वासनाओं के दलदल में जा गिरेंगे, और जा गिरते रहे हैं। और इस बात के व्यापक प्रमाण हैं कि कैसे बौद्धों और ईसाई मठो में व्यभिचार होता रहा। सूफ़ी साधकों के बीच वासना विचलना पैदा करती रही है। ख़ुद रूमी इस प्रवृत्ति के प्रति सचेत हैं कि कैसे लोगों ने सूफ़ी मार्ग को सिर्फ़ समलैंगिकता और ख़िरक़ा ही समझ लिया है। उनके क़िस्सो में और उनके जीवन के क़िस्सों में सूफ़ी समाज में इस व्यवहार के ज़िक्र आते रहे हैं। यहाँ तक कि जब मौलाना ने सुल्तान वलेद को शम्स का शागिर्द बनाया तो कहा कि मेरा बहाउद्दीन (सुल्तान वलेद का नाम, उनके दादा के नाम पर) न तो हशीश खाता है और न ही उसे समलैंगिकता की आदत है क्योंकि अल्लाह की नज़र में ये दोनों आदतें बहुत ही नापसंदगी की हैं। (६)
अंतरंगता की चाह और समर्पण की माँग दोनों तरह के इश्क़ में होती है। नफ़्स से संचालित सम्बन्धों में कभी-कदार हासिल होती है, जबकि रूह से चालित इश्क़ में उनकी प्रबल अभिव्यक्ति होती है। वो रूमी में भी है, सूर, तुलसी और मीरा में भी है। कहा जा सकता है कि भक्ति प्रेम की उच्चतम अवस्था है। लेकिन इस उच्चतम अवस्था के चिह्न देखकर निचली कामनाओं – लैंगिक सम्बन्ध- की भी मौजूदगी की कल्पना कर लेना तार्किक नहीं लगता।
सन्दर्भ:
१. उमैय्या वंश की अय्याशियों के विरोध से पैदा हुआ एक शिया सम्प्रदाय जिसने लड़ाई का एक गुरिल्ला तरीक़ा अपनाया। वे अपने उच्च पदस्थ दुश्मनों को हत्यारे भेजकर क़त्ल करवा देते थे। माना जाता था कि ये हत्यारे अफ़ीम पर पाले जाते थे, मगर यह बात संदेहास्पद है। (दि असैसिन्स; बर्नार्ड लुईस; ११) इन हशीशिन के नाम से अंग्रेज़ी का हत्यारे अर्थ का शब्द असैसिन विकसित हुआ।
२. लाइफ़ एण्ड वर्क्स ऑफ़ जलालुद्दीन रूमी; अफ़ज़ल इक़बाल; ११०
३. मुनाक़िबे आरिफ़ीन के अंग्रेज़ी अनुवाद फ़ीट्स ऑफ़ नोअर्स ऑफ़ गॉड, जॉन ओ केन, पृष्ठ ४४१
४. वही पृ. ४३६
५. वही पृ. ४२७
६. वही पृ. ४३६
(शालीनता की सीमाओं में रहने की मुराद से इस लेख को 'कलामे रूमी' में छपने से बचा लिया गया)
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