तहलका के ताज़े अंक में देश के वित्त मंत्री माननीय पी चिदम्बरम साहब का इंटरव्यू छ्पा है जिसमें शोमा चौधरी ने कुछ करारे सवाल किए हैं और मंत्री जी ने कुछ ऐसी साफ़गोई से जवाब दिए हैं कि मेरी इस सरकार के प्रति रही सही शंकाए भी जाती रहीं। जैसे जब उनसे प्रदूषण के मामले पर पूछा गया कि "क्या जरूरी है कि हम विकास का वही रास्ता अपनाएं और वही गलतियां करें? क्या हमारा रास्ता अलग नहीं हो सकता?"
तो उनका कहना था कि “हमें भी विकसित देशों की तरह तरक्की करने का अधिकार है. कभी उनका मौका था. अब हमारा है…” यानी पर्यावरण को लगातार नुक़सान पहुँचा रहे औद्यौगिक इकाईयों के प्रति वे ‘त्वरित विकास’ के नाम पर आँख फेर लेना चाहते हैं। विकसित देशों ने जब ग़लतियाँ की तब पर्यावरण के खतरे इतने आसन्न न थे मगर हम सब कुछ जान-बूझ कर उस रस्ते क्यों जाना चाहते हैं जिस पर नाग बैठा हो?
माननीय मंत्री जी की ये बात सही है कि औद्यौगिकीकरण को अब वापस उलटाया नहीं जा सकता मगर उसे पर्यावरण के अनुकूल और अधिक मानवीय तो बनाया जा सकता है? कैनाडा और उत्तरी योरोप के कई देशों में औद्यौगिक समाज होने के बावजूद एक अन्तर्निहित मानवता भी है और ये संयोग नहीं है कि इन्ही देशों में पर्यावरण को लेकर संचेतना विकसित हुई है। अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है हमारा ग्राम्य समाज जो पहले से ही एक संतुलित पर्यावरण के आदर्श मॉडल पर खड़ा हुआ था.. उसके प्रति माननीय मंत्री जी के विचार बेहद अफ़सोसनाक है।
“गरीबी प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है. गरीब सबसे गंदी दुनिया में रहते हैं. उनकी दुनिया में सफाई, पेयजल, आवास, हवा...जैसी चीजें नारकीय अवस्था में होती हैं. हर चीज प्रदूषणयुक्त होती है. इसलिए मैंने कहा कि सबसे ज्यादा प्रदूषण गरीबी फैलाती है. ये हमारा अधिकार और कर्तव्य है कि पहले गरीबी को हटाया जाए.”
मंत्री जी ने यहाँ पर जिन ग़रीबों की बात की है वो साफ़ नहीं है कि किसे ग़रीब कह रहे हैं क्या ग़रीब से उनका अर्थ शहर की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले वो लोग जो गाँव से भाग कर आए हैं? पर ये अर्थ होता तो ऐसा क्यों कहते कि “गरीबी मुक्त भारत को लेकर मेरा जो सपना है उसमें एक बड़ी आबादी, तकरीबन 85 फीसद लोग शहरों में रहेंगे..” ज़ाहिर है के खातमा चाहने वाले मंत्री जी के विचार से शहर में रहने से ग़रीबी दूर होती है। तो फिर उनका अर्थ गाँव में रहने वाले करोड़ों-करोड़ ग़रीबों से होगा?
पर मंत्री जी जिन नारकीय तत्वों की बात कर रहे हैं क्या वे गाँव से ज़्यादा शहर की पहचान नहीं हैं? क्या औद्योगिकीकरण के पहले की दुनिया में इन तत्वों का प्रदूषण था? पेयजल की समस्या अगर रेगिस्तानी इलाक़ों को छोड़ दिया जाय तो कहीं नहीं थी.. ज़मीन में तीर मारने से पानी निकलता था, कुँए थे, बावड़ियाँ थी, तालाब थे, नदियाँ थी। आवास के लिए मीलों तक फैली ज़मीन थी। गन्दगी के नाम जैविक कचरा था जो सड़कर उत्पादक खाद में बदल जाता था। स्वच्छ हवा के लिए घने जंगल थे, उनकी समृद्ध जैविक विभिन्नता थी।
पर आज के शहरों में क्या हाल है? ऐसा कचरा है जो सदियों तक नष्ट नहीं होगा.. ज़हरीली गैसे हैं.. बांद्रा जैसे इलाक़ों में भी नलके से आने वाला काला पानी है..१० बाई १० के खोलियों में क़ैद दरज़नों लोग हैं..! और नारकीय अवस्था कहाँ हैं ये मंत्री जी के कुशाग्र मस्तिष्क के लिए अग्राह्य है या वे देश की आँखों में शुद्ध धूल झोंक रहे हैं..? सम्पन्नता के लिए मंत्री जी के एकमात्र उपाय औद्यौगिकीकरण ने ही तो वे सारे रोग पैदा किए हैं जिनको हल करने के लिए वे औद्यगिकीकरण का हक़ीम लाने की पैरवी कर रहे हैं। ये कैसा विरोधाभास है?
“गरीबी मुक्त भारत को लेकर मेरा जो सपना है उसमें एक बड़ी आबादी, तकरीबन 85 फीसद लोग शहरों में रहेंगे. महानगरों में नहीं बल्कि शहरों में. किसी शहरी वातावरण में जल आपूर्ति, बिजली, शिक्षा, सड़क, मनोरंजन और सुरक्षा को प्रभावी तरीके से मुहैया करवाना 6 लाख गांवों के मुकाबले ज्यादा आसान है.”
तो क्या उनका विश्वास है कि जैसे धारावी में दसियों लाख लोग एक सम्पन्न जीवन गुज़ार रहे हैं जहाँ उनको शिक्षा, पानी, और चिकित्सा आसानी से उपलब्ध कराई जा रही है? उनका मानना है कि गाँव-गाँव में ये सुविधाएं पहुँचाना बहुत टेढ़ी खीर है.. मगर शहर में आसान है?
मेरी समझ में ऐसे गाँव भी होंगे जहाँ प्राथमिक पाठशाला और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र न हो.. पर जहाँ हैं वहाँ उनको ठीक से चलाने की इच्छा-शक्ति सरकार की क्यों नहीं है। बहुधा गाँवों में समस्या ये नहीं है कि गाँव में बिजली के तार नहीं है.. समस्या ये है कि उन तारों में बिजली की आपूर्ति नहीं है? और गाँव की बात छोड़ दीजिये आप दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों के अलावा अन्य शहरों में इन सुविधाओं की क्या स्थिति है? मुम्बई में भी कई धारावी हैं और देश के तमाम छोटे-छोटे शहरों में भी तमाम छोटे—छोटे धारावी! वहाँ पर कितना पानी और कितनी बिजली मुहैय्या करा रहे हैं आप?
मंत्री जी कहते हैं कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, स्वच्छता आदि मदों पर अब तक की सबसे बड़ी धनराशि खर्च कर रहे हैं मगर पहले के मुक़ाबले उस राशि का वास्तविक मूल्य और बजट का प्रतिशत गोल कर जाते हैं।
यहाँ पर ये बताना भी उल्लेखनीय होगा कि शिक्षा के बजट के नाम पर जो पैसा खर्च किया जाता है उसका एक बड़ा हिस्सा आई.आई.एम जैसे संस्थानों को ग्रांट के तौर पर दान दिया जाता है जो अपने विद्यार्थियों से मोटी फ़ीस लेते हैं। क्या मंत्री जी कभी सोचते हैं कि मुनाफ़े की व्यवस्था के मूल्यों की शिक्षा देने वाले ये संस्थान राज्य की कल्याणकारी अवधारणा की छाँव में खड़े होकर अपना व्यापार क्यों करते हैं? मैं फिर पूछता हूँ ये कैसा विरोधाभास है?
मंत्री जी कहते हैं कि "ये एक साजिश है कि गरीब लोग गरीब ही रहें. हम जीवन की किस गुणवत्ता की बात कर रहे हैं? उनके पास खाना नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, शिक्षा नहीं है, पेयजल नहीं है.." ..मैं पूछना चाहता हूँ मंत्री जी से जो देश की ८५ प्रतिशत जनता को शहर में धकेल देने के स्वप्नदर्शी हैं कि इन बहुसंख्यक लोगों को शहरों में बसाने के लिए उनके पास क्या ब्लूप्रिंट है.. और फिर अगर सचमुच उनकी चिंता ग़रीब लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास है तो इन बुनियादी ज़रूरतों को बाज़ार की मुनाफ़ाखोरी के हवाले क्यों कर दिया गया है? जबकि इंगलैंड जैसे अनेक योरोपीय देशों में प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों की ज़िम्मेदारी राज्य वहन करता है। जबकि हमारे यहाँ उसे नोट काटने का धंधा बना दिया गया है।
मैं मंत्री जी के भोले भाले चेहरे पर उनकी मुस्कान पर विश्वास करना चाहता हूँ मगर फिर जब सोचता हूँ कि पाँच हज़ार बरस से ग़रीबी में रह रहे लोगों के लिए धड़कने वाले दिल के मालिक मंत्री जी सरकार में रहते हैं तो एनरॉन और वेदान्ता जैसे कम्पनियों के लिए मुनाफ़ा कमाने के लिए नीतियाँ मुकर्रर करते हैं और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो उनकी लिए वक़ालत करते हैं तो मेरा दिल टूट जाता है। इतने भोले चेहरे का व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है?
पर सच यही है कि आदिवासियों की ज़मीन हड़पने, पर्यावरण का बलात्कार करने, नियमों की धज्जियाँ उड़ाने वाली माइनिंग कम्पनी वेदान्ता जो विश्व भर में बदनाम और निन्दित है उसके टैक्स मामलों की पैरवी पी चिदमबरम साहब करते हैं और उनके बोर्ड के डाइरेक्टर का पद भी सम्हालते हैं और सत्ता में आने पर इस सर्वनिन्दित कम्पनी को अयोग्य घोषित करने के बजाय उसे धंधा करने की खुली छूट देते हैं और उस पर सवाल करने पर भड़क जाते हैं-
“उसका इससे क्या सबंध है? क्या आप अप्रत्यक्ष रूप से ये कह रही हैं कि मैं उनसे मिला हुआ हूं? अगर कोई वकील हत्या के मामले के किसी आरोपी की तरफ से जिरह कर रहा है तो क्या इसका ये मतलब है कि उसकी भी हत्या में मिलीभगत है?”
मिलीभगत का आरोप कौन लगा सकता है मंत्री जी पर ये सवाल तो बनता है कि आप ग़रीबों के खैरख्वाह हो कर उन लोगों की किसी भी मामले की पैरवी करते ही क्यों हैं जिन पर ग़रीबों की हत्या का आरोप हो?
मैं फिर भी नहीं कहता कि लोगों को गाँवों में ही बंद कर के रखा जाय.. अगर बहुमत शहरी सभ्यता को ही स्वीकार करना चाहता है और यही इतिहास की गति है तो मैं कौन होता हूँ किसी को रोकने वाला? मगर उन्हे भिखारी बना कर गाँव से शहर की ओर खदेड़ना में क्या जनहित हैं मेरी समझ में नहीं आता?
अपने सपने में एक और उल्लेखनीय बात मंत्री जी जोड़ते है “मैं ये भी मानता हूं कि एक बड़ी आबादी गांवों में रहना और खेती करना चाहेगी. इसका स्वागत होना चाहिए..” निश्चित ही ज़हर खा कर मरने की मानसिकता वाला किसान तो किसी तरह से खेती-बाड़ी से निकलने की मानसिकता रखता है तो फिर उनका इशारा ये किस आबादी की तरफ़ हो सकता है इसका फ़ैसला आप खुद करें!
अगर किसी दिन आप को अखबार के किसी कोने में छोटी इबारत में यह पढ़ने को मिल जाय कि देश की संसद ने सर्वसम्मति से क़ानून पारित कर दिया है कि अब देश का कोई भी नागरिक कहीं भी कितनी भी ज़मीन खरीद कर खेती कर सकता है तो आप को हैरान नहीं होना चाहिये।
शनिवार, 31 मई 2008
गुरुवार, 29 मई 2008
क्या फूटने वाला है बुलबुला?
इन दिनों हालात कुछ अच्छे नहीं जान पड़ते। चन्द महीनों पहले तक लग रहा था कि शहरों की सम्पन्नता गाँवों की दरिद्रता से चपक के पनप रही है.. पर हाल में स्थितियाँ जिस तेजी से बदली है.. उस से शहरों और शहरी सभ्यता की सम्पन्नता की सारी हवा निकलती हुई सी लग रही है।
पहले तो पूरे संसार में खाद्यान्न का संकट जिसका ठीकरा बुद्धिशाली बुश ने भारत के बढ़ते मध्यवर्ग पर फोड़ दिया.. और फिर अब ये तेल का संकट.. जिसके लिए कौन ज़िम्मेवार है बुश साहब भी नहीं बता रहे!
पिछले दस सालों में तेल की क़ीमत दस डॉलर प्रति बैरल से एक सौ तीस डॉलर प्रति बैरल जा पहुँची है। जो चार महीने पहले कुल सौ डॉलर थी और साल के अंत में दौ सौ तक भी पहुँच जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिये। चुनावी वर्ष में महँगाई को दबा कर रखने के लिए सरकार तेल कम्पनियों को दीवालिया होने की कगार तक धकेले जा रही है।
अगर केरोसिन, डीज़ल और कुकिंग गैस ड्योढ़े दामों पर बिकने लगे तो महँगाई का क्या हाल होगा? और ये दाम क्या वहीं रुकने वाले हैं..? वो तो दुगने तिगुने और चौगुने भी होते जाएंगे जैसे कि ओपेक की दशा और दिशा है। उस का प्रभाव पूरे अर्थतंत्र पर क्या होगा ये बताने की ईमानदारी किसी अर्थशास्त्री में नहीं दिखती.. सारे के सारे अर्थवेत्ता, सरकार और मीडिया जनता को विकास दर और सेंसेक्स की उछाल और पछाड़ में ही उलझाए रखते हैं।
हर आदमी जानता है कि अभी की महँगाई की वजह खाद्यान्न की कमी और उनकी बढ़ी हुई क़ीमतें हैं। ग़ौरतलब बात ये है कि ये क़ीमतें मूल उत्पादक यानी किसान के सिरे पर जस की तस हैं.. वो अभी भी अपना उत्पाद उन्ही माटी के मोल पे बेच रहा है जो उसे अस्तित्वविहीनता के मुहाने पर बनाए रखता है। मगर फिर भी दाम आसमान छुए जाते हैं.. कारण क्या है?
बाबा धूमिल ने कहा है कि लोहे का स्वाद लुहार से नहीं घोड़े से पूछा जाय.. । तो खेती-बाड़ी करने वाले अशोक जी बता रहे हैं कि गणित में सौ में सौ पाने वाले देश के महान अर्थशास्त्री जन अनाज के दामों की ज़रा सी जुम्बिश तक पकड़ लेते हैं मगर लोहे का मूस मुटा के हाथी हो जाय तो भी वो उन्हे नज़र नहीं आता?
पिछले छै महीनों में लोहे की क़ीमतें दुगनी हो चली हैं.. और दूसरी तरफ़ .. "आलू जैसी कुछ सब्जियां तो इतनी सस्ती है की किसानों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। हमारे यहाँ आज की तारीख में किसानों से ढाई रूपए किलो की दर से आलू खरीदने को भी कोई व्यापारी तैयार नहीं।"
अशोक भाई आगे कहते हैं कि ".. अनाज की कीमतें अधिक हैं, तो सरकार ने किसानों को भी उन अधिक कीमतों का लाभ क्यों नहीं दिया? केन्द्र सरकार इस साल भी किसानों से गेहूँ की खरीद पिछले साल के समर्थन मूल्य 1000 रूपए प्रति क्विंटल की दर से ही कर रही है।सच तो यह है की महंगाई की सबसे अधिक मार किसानों पर ही पड़ी है। उनके जीवन-यापन का व्यय बढ़ गया, कृषि लागत बढ़ गयी, लेकिन अनाज का समर्थन मूल्य पिछले साल वाला ही रहा। ... धन्य हैं भारत भाग्य विधाता। समर्थन मूल्य पाई भर भी नहीं बढाया, फिर भी कह रहे हैं कि अनाज मंहगे हैं। लोहे की कीमत डबल हो गई, फिर भी फरमाते हैं कि कीमतें कम हो रही है।"
मुझे अर्थशास्त्र की पेचीदा गलियाँ किसी भूलभुलैया से कभी कम नहीं लगी। लेकिन रोटी एक हो और खाने वाले चार तो ये गणित समझने के लिए आप को किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं। कुछ लोग का मुग़ालता हो सकता है कि साधन असीमित है.. पर ज़ाहिर बात है.. चाहे लोहा हो या तेल.. सीमित मात्रा में है। और जिस तरह से विकास का कार्यक्रम चल रहा है उसमें विकास से ज़्यादा विकास-दर का महत्व समझ आता है.. जैसे विकास भी कोई असीमित परिघटना हो!
बढ़ना अच्छी बात है.. पर शरीर के कुछ हिस्से बढ़ें और कुछ नहीं तो उस शरीर को स्वस्थ कोई कैसे कह सकता है? .. उसे कैंसर-ग्रस्त ही कहा जाएगा। क्या इसे विड्म्बना कहा जाय या तर्क-गति कि समाज और उसके लोग एक ही बीमारी से ग्रस्त होते हैं। ज़मीन हो, पानी हो या हवा.. सब सीमित मात्रा में हैं। मगर सभ्यता के जिस संस्करण में हम रहे हैं वो (प्रकृति और मनुष्य दोनों के ही) शोषण की व्यवस्था को ही सभ्य मानता है उसकी दृष्टि से भारत की ग्राम्य व्यवस्था एक अविकसित, पिछड़े समाज की अभिव्यक्ति थी।
उस 'असभ्य' व्यवस्था में आप जिन से कुछ लेते थे- पेड़,नदी, पहाड़, हवा, गाय,धरती- सबकी पूजा करते थे.. रोज़-रोज़ धन्यवाद करते थे। इतनी संवेदना रखते थे कि जो आप के लिए जल कर रौशनी करते हैं उनको जल चढ़ाते थे। उस संवेदना के अभाव और शुद्ध लालच से प्रेरित इस व्यवस्था में अब जबकि प्राकृतिक संसाधन अपनी सीमा तक पहुँच रहे हैं.. ये सवाल मौज़ूँ हो जाता है कि क्या बुलबुला फूटने वाला है?
पहले तो पूरे संसार में खाद्यान्न का संकट जिसका ठीकरा बुद्धिशाली बुश ने भारत के बढ़ते मध्यवर्ग पर फोड़ दिया.. और फिर अब ये तेल का संकट.. जिसके लिए कौन ज़िम्मेवार है बुश साहब भी नहीं बता रहे!
पिछले दस सालों में तेल की क़ीमत दस डॉलर प्रति बैरल से एक सौ तीस डॉलर प्रति बैरल जा पहुँची है। जो चार महीने पहले कुल सौ डॉलर थी और साल के अंत में दौ सौ तक भी पहुँच जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिये। चुनावी वर्ष में महँगाई को दबा कर रखने के लिए सरकार तेल कम्पनियों को दीवालिया होने की कगार तक धकेले जा रही है।
अगर केरोसिन, डीज़ल और कुकिंग गैस ड्योढ़े दामों पर बिकने लगे तो महँगाई का क्या हाल होगा? और ये दाम क्या वहीं रुकने वाले हैं..? वो तो दुगने तिगुने और चौगुने भी होते जाएंगे जैसे कि ओपेक की दशा और दिशा है। उस का प्रभाव पूरे अर्थतंत्र पर क्या होगा ये बताने की ईमानदारी किसी अर्थशास्त्री में नहीं दिखती.. सारे के सारे अर्थवेत्ता, सरकार और मीडिया जनता को विकास दर और सेंसेक्स की उछाल और पछाड़ में ही उलझाए रखते हैं।
हर आदमी जानता है कि अभी की महँगाई की वजह खाद्यान्न की कमी और उनकी बढ़ी हुई क़ीमतें हैं। ग़ौरतलब बात ये है कि ये क़ीमतें मूल उत्पादक यानी किसान के सिरे पर जस की तस हैं.. वो अभी भी अपना उत्पाद उन्ही माटी के मोल पे बेच रहा है जो उसे अस्तित्वविहीनता के मुहाने पर बनाए रखता है। मगर फिर भी दाम आसमान छुए जाते हैं.. कारण क्या है?
बाबा धूमिल ने कहा है कि लोहे का स्वाद लुहार से नहीं घोड़े से पूछा जाय.. । तो खेती-बाड़ी करने वाले अशोक जी बता रहे हैं कि गणित में सौ में सौ पाने वाले देश के महान अर्थशास्त्री जन अनाज के दामों की ज़रा सी जुम्बिश तक पकड़ लेते हैं मगर लोहे का मूस मुटा के हाथी हो जाय तो भी वो उन्हे नज़र नहीं आता?
पिछले छै महीनों में लोहे की क़ीमतें दुगनी हो चली हैं.. और दूसरी तरफ़ .. "आलू जैसी कुछ सब्जियां तो इतनी सस्ती है की किसानों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। हमारे यहाँ आज की तारीख में किसानों से ढाई रूपए किलो की दर से आलू खरीदने को भी कोई व्यापारी तैयार नहीं।"
अशोक भाई आगे कहते हैं कि ".. अनाज की कीमतें अधिक हैं, तो सरकार ने किसानों को भी उन अधिक कीमतों का लाभ क्यों नहीं दिया? केन्द्र सरकार इस साल भी किसानों से गेहूँ की खरीद पिछले साल के समर्थन मूल्य 1000 रूपए प्रति क्विंटल की दर से ही कर रही है।सच तो यह है की महंगाई की सबसे अधिक मार किसानों पर ही पड़ी है। उनके जीवन-यापन का व्यय बढ़ गया, कृषि लागत बढ़ गयी, लेकिन अनाज का समर्थन मूल्य पिछले साल वाला ही रहा। ... धन्य हैं भारत भाग्य विधाता। समर्थन मूल्य पाई भर भी नहीं बढाया, फिर भी कह रहे हैं कि अनाज मंहगे हैं। लोहे की कीमत डबल हो गई, फिर भी फरमाते हैं कि कीमतें कम हो रही है।"
मुझे अर्थशास्त्र की पेचीदा गलियाँ किसी भूलभुलैया से कभी कम नहीं लगी। लेकिन रोटी एक हो और खाने वाले चार तो ये गणित समझने के लिए आप को किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं। कुछ लोग का मुग़ालता हो सकता है कि साधन असीमित है.. पर ज़ाहिर बात है.. चाहे लोहा हो या तेल.. सीमित मात्रा में है। और जिस तरह से विकास का कार्यक्रम चल रहा है उसमें विकास से ज़्यादा विकास-दर का महत्व समझ आता है.. जैसे विकास भी कोई असीमित परिघटना हो!
बढ़ना अच्छी बात है.. पर शरीर के कुछ हिस्से बढ़ें और कुछ नहीं तो उस शरीर को स्वस्थ कोई कैसे कह सकता है? .. उसे कैंसर-ग्रस्त ही कहा जाएगा। क्या इसे विड्म्बना कहा जाय या तर्क-गति कि समाज और उसके लोग एक ही बीमारी से ग्रस्त होते हैं। ज़मीन हो, पानी हो या हवा.. सब सीमित मात्रा में हैं। मगर सभ्यता के जिस संस्करण में हम रहे हैं वो (प्रकृति और मनुष्य दोनों के ही) शोषण की व्यवस्था को ही सभ्य मानता है उसकी दृष्टि से भारत की ग्राम्य व्यवस्था एक अविकसित, पिछड़े समाज की अभिव्यक्ति थी।
उस 'असभ्य' व्यवस्था में आप जिन से कुछ लेते थे- पेड़,नदी, पहाड़, हवा, गाय,धरती- सबकी पूजा करते थे.. रोज़-रोज़ धन्यवाद करते थे। इतनी संवेदना रखते थे कि जो आप के लिए जल कर रौशनी करते हैं उनको जल चढ़ाते थे। उस संवेदना के अभाव और शुद्ध लालच से प्रेरित इस व्यवस्था में अब जबकि प्राकृतिक संसाधन अपनी सीमा तक पहुँच रहे हैं.. ये सवाल मौज़ूँ हो जाता है कि क्या बुलबुला फूटने वाला है?
शुक्रवार, 23 मई 2008
मेरे मित्र बोधिसत्त्व
बोधि को कोई ब्लॉगर कह रहा है कोई साहित्यकार। मैं बोधि को तब से जानता हूँ जब वे साहित्यकार नहीं थे और ब्लॉगर तो नहीं ही थे.. वे थे सिर्फ़ एक छात्र.. मेरी तरह। हम दोनों इलाहाबाद में पढ़ते थे.. और कुछ-कुछ सामाजिक सरोकार भी रखते थे। मैं पी एस ओ का सदस्य था और वे एस एफ़ आई के। ये दोनों संगठन बहुधा मुद्दों पर एक साथ खड़े होते थे और चुनाव में एक दूसरे के विरूद्ध प्रत्याशी खड़ा करते थे और लड़ते थे.. मगर मेरे और बोधि के बीच में कोई संघर्ष नहीं था.. हाँ बहसें होती थीं.. और जैसी कि मेरी आदत थी मैं सामने वाले को ध्वस्त करने की कोशिश में रहता भले ही वो मित्र बोधि ही क्यों न हों। पर मेरी इस मरकही फ़ित्रत के बावजूद बोधि और मेरे बीच कभी कोई कड़वी घटना नहीं घटी। हम मित्र ही बने रहे..
बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?
मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।
मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।
इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।
फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?
लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।
भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!
प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।
बरसों बाद हम मुम्बई में मिले और मित्रता वहीं से शुरु हो गई। संयोग से आज हम दोनों एक ही पेशे में हैं; दोनों ही शब्द बेच कर पैसे कमाते हैं। आजकल बोधि भाई एकता कपूर के लिए महाभारत सीरियल के लेखन की ज़िम्मेवारी संभाले हुए हैं। ऐसा मौका मुझे मिलता तो मैं भी लोक लेता.. पर ये सौभाग्य बोधि भाई को मिला है। वैसे ये महज़ भाग्य की ही बात नहीं है.. उनकी व्यवहार-कुशलता का भी योगदान है। मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूँ.. कई दूसरे लोग भी नहीं है.. पर इससे क्या बोधि की व्यवहार-कुशलता एक दुर्गुण में बदल जाती है?
मगर ये काम उन्हे मिलने के पीछे सब से महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह इस काम के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। बिना किताब का सहारा लिए वे घंटो महाभारत पर व्याख्यान कर सकते हैं.. रामचरित मानस की सैकड़ों चौपाइयाँ उन्हे मुँहज़बानी याद हैं। उनकी जैसी स्मृति का स्वामी मैंने दूसरा नहीं देखा। बोधि में अनेकों गुण हैं पर वो मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं हैं.. हम-आप सब की तरह मनुष्य हैं। जहाँ गुण हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। ज़रूर हैं—सबकी होती हैं।
मेरे मित्र हैं .. गुणों को सोहराता हूँ और अवगुणों को हतोत्साहित करता हूँ। और ऐसा भी नहीं कि मेरे उनके बीच कोई वैचारिक मतभेद नहीं.. दो अलग मस्तक हैं मतभेद तो स्वाभाविक है। पर मित्रता मस्तक का नहीं हृदय का विभाग है। ज्योतिष जानने वाले बन्धु जानते होंगे कि कुण्डली में मित्र का स्थान चौथा घर है.. हृदय का स्थान। वैसे ग्यारहवां घर भी मित्रों का बताया जाता है पर वो लाभ का स्थान है.. और उस स्थान से संचालित मित्रता भी नफ़ा-नुक़सान वाली होती है। असली मित्रता तो चौथे स्थान की ही है।
इसीलिए मेरे कई मित्र ऐसे भी हैं जो भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कुछ शिव सेना के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। यानी कि जिनसे वैचारिक रूप से छत्तीस का आँकड़ा है। पर मित्रता तो व्यक्ति से होती है उसके विचारों से नहीं.. विचार तो व्यक्ति की संरचना का बहुत छोटा हिस्सा है। विचार बदलने में देर नहीं लगती .. तर्क की बात है .. एक पल में विचार इधर के उधर हो जाते हैं। और अगर तर्क से नहीं हुए तो मतलब साफ़ है कि विचार की जड़ में कोई आवेग कुण्डली मार के पड़ा है.. विचार की प्रधानता की बात ही खत्म हो गई।
फिर भी अगर किसी को लगता है कि मित्रता विचार के आधार पर होती है तो बचपन के मित्रों का क्या करेंगे? वो तो मित्र कहलाने के क़ाबिल ही नहीं रहेंगे! जबकि सच्चाई ये है कि जब कॉलेज से निकल कर नौजवान कुछ विचार करने लायक होता है तो मित्र बनाने की कला न जाने कहाँ हेरा आता है?
लुब्बे-लुबाब ये है कि बोधि भाई साहित्यकार हैं, ब्लॉगर हैं, और भी बहुत कुछ हैं.. पर वे उस वजह से तो मेरे मित्र नहीं हैं? मित्र तो सिर्फ़ एक मनुष्य, एक व्यक्ति होने के नाते हैं और रहेंगे।
भाई बोधि को कुछ लोग देख कर पुलिसवाला और पहलवान भी समझ लेते हैं पर अपने डील-डौल के बावजूद वे इतने विनम्र हैं कि मेरी ज़रूरत की चार किलो की पुस्तक को खरीद कर बलार्ड पिअर से ढो के मेरे घर तक छोड़ जाते हैं, अपनी एकता कपूर के साथ अपनी मसरूफ़ियत के बीच। फिर खुद पेचिश से कमज़ोर हो जाने के बावजूद अपने घर के मेहमानों के आग्रह पर उन को टाँड़ से किताबें निकाल-निकाल कर भी दिखाते हैं.. भले ही वो मेहमान उनके मित्र हों चाहे न हों!
प्रमोद भाई, अब तो ज़ाहिर हो गया, बोधि को अपना मित्र नहीं मानते.. और वे जो कुछ कहें- वो उनका मामला है- वो कह सकते हैं। वे भी मेरे मित्र है.. और मैं उनकी इज़्ज़त करता हूँ। बोधि के बचाव की मुद्रा में मैं उन पर पलटवार नहीं कर सकता.. पर बोधि अकेले खड़े पिटते रहें ये भी मैं नहीं देख सकता। ग़लतियाँ सबसे होती हैं.. बोधि से भी हो सकता है हुई हो.. पर वे खलनायक हैं ऐसा मानना मेरे लिए अस्वीकार्य है।
बुधवार, 7 मई 2008
आई पी एल के छक्के
आई पी एल शुरु होने के पहले बहुत लोगों ने उसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न लगाए थे; मैं भी इस जमात में शामिल था। पर आज, ‘मनोरंजन के बाप’ के आग़ाज़ के बीसेक दिन बाद कोई शुबहा नहीं रह गया है कि पूरा देश अपनी शामें कहाँ ज़ाया कर रहा है।
मेरी सारी आशंकाओ को धूल चटाता हुआ आई पी एल साढ़े आठ की टी आर पी के साथ आरम्भ हुआ.. टी वी के शीर्ष कार्यक्रम ‘एकता की सास-बहू’ से दो अंक ऊपर.. हालत यह है कि सारे अन्य चैनल्स इसकी समाप्ति का इन्तज़ार कर रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ..? स्थानीयता, वफ़ादारी, भावनात्मक जुड़ाव जैसी तमाम सीमाओं के बावजूद आई पी एल के साथ लोग क्यों तमाशाई बने हुए हैं?
मैं ने लिखा था.. मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।
अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा?
मेरे आकलन सिर्फ़ यहाँ तक सही था कि वफ़ादारियाँ नहीं है.. इसके आगे ग़लत.. वफ़ादारियाँ नहीं हैं पर पूरा मज़ा उठाने के लिए लोग बड़ी आसानी से अपनी वफ़ादारियाँ चुन रहे हैं.. एक ही परिवार के भीतर लोगों की वफ़ादारियाँ बँट गई हैं। ऐसा होने के पीछे किसी खास खिलाड़ी का आकर्षण काम कर रहा है शायद!
वैसे मज़ा लेने वालो दो बैलों के युद्ध, दो मुर्ग़ों के युद्ध, दो कुत्तों के युद्ध में भी अपने-अपने पक्ष चुन कर मज़ा ले लेते हैं। मैंने इस पहलू का पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था। और सबसे बड़ी ग़लती मैंने ‘सब कुछ छोड़कर’ जैसा वाक्यांश इस्तेमाल कर के की.. भारतीयों के पास सब कुछ छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है..
मेरा ये ख्याल कि शुरुआत में लोग उत्सुकतावश देखेंगे पर जल्दी ही ऊब कर पूर्वस्थिति में लौट जाएंगे, पूरी तरह ग़लत था। मेरा सोचना था कि वे ऊब कर जो पहले कर रहे थे वो करने लगेंगे.. पर पूर्वस्थिति जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं.. वो तो कुछ कर ही नहीं रहे थे.. और आई पी एल को उनके उबाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी.. वो पहले से ही इतने ऊबे हुए थे कि अपने समय को कैसे काटे इस प्रश्न के आगे लाजवाब थे।
अधिक से अधिक हो ये सकता था कि वे रिमोट बीबी के हाथ में दे देते और ‘एकता की सास’ में क्या हुआ, देखने लगते बीबी के साथ। पर अभी शायद बीबी 'एकता की सास' से ऊब कर 'आई पी एल के छक्कों' को देख रही है। मेरे एक मित्र इस बात को कुछ यूँ रखते हैं कि “जिस आदमी ने दिन भर दफ़्तर में मरवाई हो वो शाम को आकर कुछ शुद्ध मनोरंजन चाहता है.. और आई पी एल से अच्छा ड्रामा उसे कहाँ मिलेगा?”
बात बहुत सरल है.. हर आदमी के भीतर एक तमाशाई है जो सड़क होने वाले झगड़े को देखने के लिए साइकिल रोक कर किनारे खड़ा हो जाता है। सिर्फ़ वही आदमी एक बार उड़ती नज़र डाल कर आगे बढ़ जाता है जिसके पास करने के लिए कुछ सार्थक हो.. घर से कोई मक़्सद ले कर निकला हो।
बात घूम कर फिर उसी मक़्सद पर जा अटकती है.. या तो अधिकाधिक लोग भटके हुए हैं और जीवन का उद्देश्य खोज पाने में नाकामयाब रहे हैं.. और बस कुछ विरले महापुरुषों ने अपना जीवन उस अमूल्य ध्येय को पाकर सफल किया है। और या फिर वे भ्रमित आत्मा है और वास्तव जीवन का कोई मक़सद नहीं.. और ये बात हर तमाशाई जानता है और सब कुछ भूल कर मज़े से तमाशा देखता है।
मेरी सारी आशंकाओ को धूल चटाता हुआ आई पी एल साढ़े आठ की टी आर पी के साथ आरम्भ हुआ.. टी वी के शीर्ष कार्यक्रम ‘एकता की सास-बहू’ से दो अंक ऊपर.. हालत यह है कि सारे अन्य चैनल्स इसकी समाप्ति का इन्तज़ार कर रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ..? स्थानीयता, वफ़ादारी, भावनात्मक जुड़ाव जैसी तमाम सीमाओं के बावजूद आई पी एल के साथ लोग क्यों तमाशाई बने हुए हैं?
मैं ने लिखा था.. मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।
अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा?
मेरे आकलन सिर्फ़ यहाँ तक सही था कि वफ़ादारियाँ नहीं है.. इसके आगे ग़लत.. वफ़ादारियाँ नहीं हैं पर पूरा मज़ा उठाने के लिए लोग बड़ी आसानी से अपनी वफ़ादारियाँ चुन रहे हैं.. एक ही परिवार के भीतर लोगों की वफ़ादारियाँ बँट गई हैं। ऐसा होने के पीछे किसी खास खिलाड़ी का आकर्षण काम कर रहा है शायद!
वैसे मज़ा लेने वालो दो बैलों के युद्ध, दो मुर्ग़ों के युद्ध, दो कुत्तों के युद्ध में भी अपने-अपने पक्ष चुन कर मज़ा ले लेते हैं। मैंने इस पहलू का पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था। और सबसे बड़ी ग़लती मैंने ‘सब कुछ छोड़कर’ जैसा वाक्यांश इस्तेमाल कर के की.. भारतीयों के पास सब कुछ छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है..
मेरा ये ख्याल कि शुरुआत में लोग उत्सुकतावश देखेंगे पर जल्दी ही ऊब कर पूर्वस्थिति में लौट जाएंगे, पूरी तरह ग़लत था। मेरा सोचना था कि वे ऊब कर जो पहले कर रहे थे वो करने लगेंगे.. पर पूर्वस्थिति जैसी कोई चीज़ थी ही नहीं.. वो तो कुछ कर ही नहीं रहे थे.. और आई पी एल को उनके उबाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी.. वो पहले से ही इतने ऊबे हुए थे कि अपने समय को कैसे काटे इस प्रश्न के आगे लाजवाब थे।
अधिक से अधिक हो ये सकता था कि वे रिमोट बीबी के हाथ में दे देते और ‘एकता की सास’ में क्या हुआ, देखने लगते बीबी के साथ। पर अभी शायद बीबी 'एकता की सास' से ऊब कर 'आई पी एल के छक्कों' को देख रही है। मेरे एक मित्र इस बात को कुछ यूँ रखते हैं कि “जिस आदमी ने दिन भर दफ़्तर में मरवाई हो वो शाम को आकर कुछ शुद्ध मनोरंजन चाहता है.. और आई पी एल से अच्छा ड्रामा उसे कहाँ मिलेगा?”
बात बहुत सरल है.. हर आदमी के भीतर एक तमाशाई है जो सड़क होने वाले झगड़े को देखने के लिए साइकिल रोक कर किनारे खड़ा हो जाता है। सिर्फ़ वही आदमी एक बार उड़ती नज़र डाल कर आगे बढ़ जाता है जिसके पास करने के लिए कुछ सार्थक हो.. घर से कोई मक़्सद ले कर निकला हो।
बात घूम कर फिर उसी मक़्सद पर जा अटकती है.. या तो अधिकाधिक लोग भटके हुए हैं और जीवन का उद्देश्य खोज पाने में नाकामयाब रहे हैं.. और बस कुछ विरले महापुरुषों ने अपना जीवन उस अमूल्य ध्येय को पाकर सफल किया है। और या फिर वे भ्रमित आत्मा है और वास्तव जीवन का कोई मक़सद नहीं.. और ये बात हर तमाशाई जानता है और सब कुछ भूल कर मज़े से तमाशा देखता है।
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