मंगलवार, 16 अक्टूबर 2007

घुमक्कड़ी के क़िस्से नहीं हैं अभी..

सभी मित्रों ने घुमक्कड़ी के क़िस्से सुनाने का आग्रह किया है.. अब मैं अजीब सी स्थिति में फँसा पा रहा हूँ अपने आप को.. सच तो यह है कि मैं घुमक्कड़ी के ‘घ’ को भी नहीं जानता.. घुमक्कड़ी के नाम पर महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन का लिखा लेख ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ याद आता है.. जिस की स्मृति से प्रेरित हो कर मैंने इस बार कानपुर के करेन्ट बुक डिपो से राहुल जी की घुमक्कड़ स्वामी और घुमक्कड़ शास्त्र खरीद ली.. घुमक्कड़ी के नाम पर यही उपलब्धि रही इन बीस दिनों में.. वरना तो अपने मुम्बई निवास की सुरक्षा से दिल्ली में भाईसाहब के घर की सुरक्षा में और फिर कानपुर में मम्मी और भाभी की ममता भरी सुरक्षा में सुखी रहा.. घुमक्कड़ी नहीं हुई.. नए और पुराने दोस्तों से मिलना ज़रूर हुआ.. उसकी तफ़सील पेश है..
एक दिन दिल्ली में दोस्तों के साथ फिर एक रोज़ दिल्ली में अपने छात्र जीवन के साथियों के साथ एक यादगार दोपहर बिताई गई.. जिसकी एक रपट चन्दू भाई ने अपने ब्लॉग पर चढ़ाई थी.. प्रमोद भाई तो बराबर मिलना होता ही रहता है मुम्बई में दिल्ली के साथियों में इरफ़ान और चन्दू भाई से भी लगातार बात होती रहती है.. और राजेश अभय जो मेरे साढ़ू भाई भी हैं.. उनसे भी सम्पर्क बना रहता है.. पंकज श्रीवास्तव भी मुम्बई जब भी आते हैं मिलते ही हैं.. बावजूद उसके इन पुराने दोस्तों से रू-ब-रू मिलना दिल को देर तक गरमाता रहा.. जिन नए साथियों से सालों बाद मिला वे थे रवि पटवाल और मनोज सिंह.. जिनसे लगभग पन्द्रह सोलह बरस बाद मिला.. रवि, जो डी जे हॉस्टल के मेरे कमरे में काफ़ी दिनों तक मेहमान भी रहे, से मिलना सचमुच सुखद रहा.. और जैसा कि चन्दू भाई ने भी लिखा कि उसके बाद दरिया गंज की पटरी बाज़ार में किताबों की ताकाझांकी बेहद भूल जाने योग्य रही.. बाद के कुछ दिन अपने धँधे के लिए दिए.. एक आने वाले सीरियल का एक एपीसोड लिखा.. और भेजा.. आम तौर पर इस तरह के काम में होता यह है कि आप काम करने की आखिरी घड़ी का इंतज़ार करते रहते हैं.. जिसे ‘डेडलाइन कहा जाता है.. काम आकर एक हफ़्ते से आप की मेल में पड़ा रहेगा.. इस बीच आप सब कुछ करेंगे पर काम नहीं करेंगे.. फ़ालतू से फ़ालतू काम करेंगे.. जिसके शीर्ष पर होगा अधलेटे हो कर टीवी पर क्रिकेट या न्यूज़ देखना.. पर काम.. नहीं करेंगे.. अर इस बीच दूसरा भी कोई काम नहीं होगा.. न तो कोई किताब पढ़ी जायेगी.. न कुछ सार्थक लिखा जा सकेगा.. काम आने से काम किए जाने के बीच का समय एक विचित्र प्रकार की ऊहापोह में बीतता है.. फिर आखिर कार वो घड़ी आ पहुँचती है जिस के बाद काम किए जाने पर पूरा न होगा.. और आप हार कर लिखने बैठ जाते हैं.. तो इसी ऊहापोह में गुज़रे चार पाँच दिन..


फिर जिन दोस्तों से मिलना नहीं हो पाया था उनसे सम्पर्क साधने की कोशिश की गई.. काकेश मिलने के लिहाज़ से निहायत व्यस्त पाए गए..हालांकि मेल पर वो मुझसे तमाम तरह की शिकायत करते रहे.. अरुण अरोड़ा और मैथिली जी से मिलना हुआ मैथिली जी के दफ़्तर में.. जहाँ अरुण जी हमसे और प्रमोद भाई से पंगा लेने की बराबर कोशिश करते रहे.. हम बचते रहे.. और प्रमोद भाई भिड़ते रहे..
मैथिली जी शांत भाव से विचार मुद्रा साधते रहे.. भूपेन बराबर प्रमोद भाई के बल बने रहे.. चाय पी गई.. भोजन पाया गया.. चलते चलते मैथिली जी ने मुझे मेरे पुराने शग़ल ज्योतिष से सम्बन्धित दो सॉफ़्टवेयर भेंट में दिए..जिसे उनके सुपुत्र सिरिल ने अपनी लगन से आला दरजे का बनाया है.. उसकी उन्नति के लिए मेरी ढेरों शुभकामनाएं..

फिर एक रोज़ ज.ने.वि. कैम्पस की सैर पर रहे हम.. हम यानी मैं, प्रमोद भाई और भूपेन.. मामू के ढाबे पर खाना भी खाया गया उस रोज़..ज़ुबान, गला और आँते जला सकने योग्य मसालेदार खाना और घास पर पड़ा भी रहा गया..

चलने से एक रोज़ पहले यूँ ही बातचीत में संजय तिवारी का ज़िक्र आया और मैथिली जी से उनका नम्बर भी मिल गया.. सोचा कि लगे हाथ उनसे भी मिल लिया जाय.. संजय तिवारी अपनी स्वरूप पर हमारी हैरानी के प्रति आश्वस्त थे.. और निश्चित ही वे हमारी कल्पना की तुलना में कहीं ज़्यादा गँवई निकले.. हमारे इस विशेषण से संजय प्रसन्न रहे कि उनका अवांछित शहरीकरण नहीं हुआ है.. भूमण्डलीकरण की पूँजीवादी शक्तियों के खिलाफ़ किए जा रहे तमाम छोटे-छोटे प्रयासों के बारे में चर्चा होती रही.. खाना भी खाया गया दरियागंज के एक पंजाबी ढाबे में जहाँ सब्ज़ी के नाम पर शाही पनीर और मटर पनीर ही मिलता है.. जैसे मटर टमाटर और गोभी के सिवा किसी अन्य शाक सब्ज़ी के बारे में कोई ज्ञान नहीं पंजाब में.. मरता क्या न करता खाया गया.. धुआँ निकालने योग्य मसालेदार..
और फिर दरियागंज स्थित राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन में उत्तरोत्तर महँगी होती किताबों को देखा गया.. और अनुवाद के मेहनताने को लेकर एक निराशाजनक चर्चा हुई राजकमल के मालिक अशोक महेश्वरी से.. अनुपम मिश्र की बहुचर्चित पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की एक प्रति प्राप्त हुई संजय से.. बतौर भेंट..व्यक्तिगत तौर पर असहमति के तमाम बिन्दु हो सकते हैं हमारे बीच मगर संजय तिवारी जैसे आदर्शवादी नौजवानों की बहुत ज़रूरत है इस देश को..

दिल्ली से निकलने के आखिरी दिन एक मित्र से मिलने के लिए सिविल लाइन्स तक चला गया.. जो फ़ौज में कर्नल हैं.. कर्नल साब ने मेरे सम्मान में जो भोज दिया वह अपनी मसालगी में किसी से कम नहीं था.. हमने धन्यवाद के सिवा कुछ नहीं कहा.. लचीले होने की कोशिश जो कर रहे थे.. शाम को लौटते हुए रिक्शे में फोन में सृजन शिल्पी का नाम चमका.. नाम देखते ही मैं शर्मसार हो गया.. मैं सृजन के बारे में बिलकुल भूल गया था.. यह भी कि उनका नम्बर मैं अपने फोन में स्टोर कर चुका था.. सरल-सहज सृजन ने मेरी इस भुलक्कड़ी को बिलकुल दिल पर नहीं लिया.. और कुछ ही देर बाद वसन्त कुंज स्थित मेरे भाई के निवास पर चले आए जो वसंतविहार स्थित उनके निवास से काफ़ी पास ही है..
पहली बार मिलते हुए हमने एक दूसरे के बारे में निजी विवरण भी लिए दिए और ब्लॉग्स, ब्लॉगरी, और ब्लॉगर्स वर्ल्ड पर भी बातचीत करते रहे.. इस बीच मेरे भाईसाहब भी आ गए और वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए.. वे सृजन द्वारा बताई गई तमाम योजनाओं के प्रति काफ़ी प्रभावित दिखे.. समय कम था.. मुझे कुछ देर में निकलना भी था.. चलते-चलते नेताजी पर सृजन के शोध की भी संक्षिप्त चर्चा हुई.. सृजन द्वारा दिए कुछ तथ्यों से मेरे भाईसाहब दुबारा काफ़ी सनसनी में रहे.. सृजन आजकल कम लिख रहे हैं क्योंकि एक लम्बी योजना पर कार्यरत है.. जो शीघ्र ही वे लोगों के सामने प्रस्तुत करेंगे.. ऐसी आशा है..
सृजन शिल्पी के साथ इस मीठी मुलाकात के साथ ही मेरा दिल्ली प्रवास समाप्त हुआ और मैं कानपुर के लिए रवाना हो गया.. जहाँ मेरी मुलाकात ब्लॉग जगत के पुरोधा भाई अनूप शुक्ला और सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी राजीव टण्डन जी से हुई.. उसका विवरण अगली पोस्ट में..

(घुमक्कड़ी के किस्से न सुना पाने के लिए दोस्तों से माफ़ी चाहता हूँ.. पर एक दिन सच में घुमक्कड़ की तरह घूमूँगा.. और तब ज़रूर सुनाऊँगा असली घुमक्कड़ी के सच्चे किस्से.. तब तक इस डालडा से सन्तोष करें..)

12 टिप्‍पणियां:

बोधिसत्व ने कहा…

इतने किस्से तो बयान कर गए और क्या कहना है । हम इसे ही घुमक्कड़ी के किस्से मान कर संतोष कर लेगें...

अनिल रघुराज ने कहा…

एक दुनिया खुलती जा रही परत-दर-परत। रहस्य बरकरार है। जारी रहिए...

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब, आगे के विवरण की प्रतीक्षा है। :)

Shiv ने कहा…

ये किस्सा ही तो है, अभय जी....आगे की कडियों का इंतजार रहेगा....

Udan Tashtari ने कहा…

यह खूब रही. जब ब्लॉगर मीट नहीं है तो घुमक्कड़ी मान लेने में कोई बुराई नहीं. जारी रहें मजा आ रहा है.

Rajeev (राजीव) ने कहा…

यह भी तो घुमक्कड़ी का ही बयान है। जब घूमने का मन पक्का कर लिया, वहीँ से चालू घुमक्कड़ी! फुरसतिया जी को देखिये, प्री-घुमक्कड़ी को भी प्रस्तावना के रूप में बयान कर देते हैं। यकीन न हो तो उनके साईकिल के किस्से देखे लें!

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बढ़िया विवरण दिया आपने!!
आभार!!
ज्योतिष में आपकी रुचि और फ़िर आपको सॉफ़्टवेयर मिलने ने हमारी रुचि बढ़ा दी है, अपने इस ज्ञान से हमें भी लाभान्वित करें!!

ePandit ने कहा…

हो तो गई जी घुमक्कड़ी। और कितनी करोगे?

दिलचस्प रहा यह विवरण।

chavannichap ने कहा…

कोई उद्वगिनता नहीं है...निर्मल और निश्छल विवरण...बहुत खूब

Sanjay Tiwari ने कहा…

लेखक होने के साथ-साथ आप अच्छे फोटोग्राफर भी हैं. बंबई पहुंच गये क्या?

इरफ़ान ने कहा…

आपने सही कहा. यह डालडा ही निकला. तटस्थता आपकी तबीयत का हिस्सा बन रही हो तो शायद इसे चिन्हित करना ज़रूरी है.पूरे विवरण में गर्मी का अभाव खटक रहा है.
संजय तिवारी जी को सूचित करें कि इन तस्वीरों में से एक मैंने खींची है.

अनूप शुक्ल ने कहा…

बढ़िया है। तमाम लोगों के बारे में पता चला। यह भी मिनी घुमक्कड़ी ही है। घुमक्कड़ी का इरादा जैसा राजीव टंडन जी बताया हमारा भी बन रहा है।

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