बुधवार, 15 अगस्त 2007

जन गण मन का अधिनायक क्या जार्ज पंचम है?

जन गण मन का अधिनायक जार्ज पंचम है.. ये भ्रांति काफ़ी आम है.. आज भी संजय तिवारी ने जब अपने चिट्ठे पर 'राष्ट्रगान में यह भाग्यविधाता कौन है' यह सवाल किया तो शिल्पा शर्मा और अनुनाद सिंह ने यही विश्वास व्यक्त किया कि रवीन्द्रबाबू ने यह गान जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था.. खुद रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनको और हम सबको जवाब देने के लिए हमारे बीच नहीं है.. अपने जीते जी भी उन्होने इस पर कभी कोई सफ़ाई पेश नहीं की.. पर उनके द्वारा स्थापित विश्वभारती (शांति निकेतन) के हिन्दी विभाग में कार्य कर चुके महापण्डित व मूर्धन्य विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने १९४८/४९/५० में (पुस्तक में साल का उल्लेख नहीं है) एक लेख लिखा था.. जिसे आप सब के लाभार्थ यहाँ छाप रहा हूँ..



जन गण मन अधिनायक जय हे

देश का राष्ट्रगीत वन्दे मातरम गान हो या जनगणमन अधिनायक, इस प्रश्न पर आज-कल बहुत वाद-विवाद हो रहा है। भारतीय विधान-सभा शीघ्र ही इस बात पर भी विचार करेगी। दोनों गानों के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। मुझे इन बातों पर यहाँ विचार करना अभीष्ट नहीं हैं। प्रन्तु इधर हाल ही में कुछ लोगों ने यह बात उड़ा दी है कि यह जनगण वाला गान कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने सम्राट जार्ज पंचम की स्तुति में लिखा था और वह पहले पहल सन १९१२ ई० के दिल्ली दरबार में गाया गया था। इस सम्बन्ध में मेरे पास अनेक सज्जनों ने पूछताछ की है। भारत का राष्ट्रगीत चाहे जो भी स्वीकार कर लिया जाय, वह हम लोगों के लिए पूजनीय और वन्दनीय होगा, पर किसी असत्य बात का प्रचार करना अनुचित है। मैंने विश्व भारती संसद (गवर्निंग बॉडी) के सदस्य की हैसियत से अन्य अनेक मित्रों के साथ एक वक्तव्य ३० नवम्बर, १९४८ को दिया था। परन्तु उस वक्तव्य के प्रकाशित होने के बाद भी पत्र आते रहे। इसलिए एक बार फिर मैं साधारण जनता के चित्त से इस भ्रान्त धारणा को दूर करने के उदेश्य से यह वक्तव्य प्रकाशित करा रहा हूँ।

कुछ दिनों पहले तक इस प्रकार के अपप्रचार का क्षेत्र बंगाल तक ही सीमित रहा है। कवि की जीवितावस्था में ही इस प्रकार की कानाफूसी चलने लगी थी। किसी किसी ने उनसे पत्र लिखकर यह जानने का प्रयत्न भी किया था कि इस कानाफूसी में कुछ तथ्य है या बिलकुल निराधार है। कवि ने बड़ी व्यथा के साथ सुधारानी देवी को अपने २३ मार्च,१९३९ के पत्र में लिखा था कि मैंने चतुर्थ या पंचम जार्ज को मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों के रथयात्रा का चिरसारथी कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं, उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।

रवीन्द्र-साहित्य का साधारण विद्यार्थी भी जानता है कि रवीन्द्रनाथ राजा या राजराजेश्वर किसे कहते हैं। साधारण जनता जिसे ईश्वर या भगवान कहती है उसी को रवीन्द्रनाथ ने राजा, राजेन्द्र, राजराजेश्वर आदि कहा है। उनके राजा, डाकघर, अरूपतन आदि नाटकों में यही राजा अदृश्य पात्र होता है। एक शक्ति कविता में उन्होने इसी राजेन्द्र को सीमाहीन काल का नियन्ता कहा है। एक गान में उन्होने लिखा है कि तेरे स्वामी ने तुझे जो कौड़ी दी है उसे ही तू हँश कर ले ले, हजार-हजार खिंचावों में पड़ा मारा-मारा न फिर। ऐसा हो कि तेरा हृदय जाने कि तेरे राजा हृदय में ही विद्यमान हैं।

जे कड़ि तोर स्वामीर देवा सेइ कड़ि तुइनिस रे हेसे।

लोकेर कथा जिसने काने फिरिसने आट हजार टाने।

जेन रे तोर हृदय जाने हृदय तोर आद्येन राजा॥

जो लोग सरल भाव से विश्वास कर सकते हैं कि रवीन्द्रनाथ ने राजेश्वर कहकर किसी पंचमजार्ज की स्तुति की है, वे यदि गान की पँक्तियों पर थोड़ा भी विचार करते तो उन्हे अपना भ्रम स्पष्ट हो जाता। कैसे कोई किसी पंचम या षष्ठ जार्ज को

विकट पन्थ उत्थान पतन मय युग युग धावित यात्री

हे चिर सारथि तव रथचक्रे मिखरित पथ दिन रात्री

दारुण विप्लव माँझे, तब शंखध्वनि बाजे

संकट दुख परित्राता (हिन्दी अनुवाद से)

कह सकता है? फिर कोई पंचम या अपंचम जार्ज को किस प्रकार

"घोर अन्धतम विकल निशा भयमूर्छित देश जनों में

जागृत था तव अविचल मंगल नत अनिमिष नयनों में

दुःस्वप्ने आतंके आश्रय तव मृदु अंके,

स्नेहमयी तुम माता।

कहकर उसे जनगण संकट त्राटक कह सकता है? और रवीन्द्रनाथ जैसे मनस्वी कवि से जो लोग आशा करते हैं कि किसी नरपति को वह इतना सम्मान देगा कि सम्पूर्ण भारत उसके चरणों में नतमाथ होगा, उसे क्या कहा जाय!

वस्तुतः यह गाना दिल्ली दरबार में नहीं बल्कि सन १९११ ई० में हुए कांग्रेस के कलकत्ते वाले अधिवेशन में गाया गया था। सन १९१४ ई० में जॉन मुरे ने दि हिस्टारिकल रेकार्ड ऑफ़ इम्पीरियल विज़िट टु इण्डिया, १९११ नाम से दिल्ली दरबार का एक अत्यन्त विशद विवरण प्रकाशित किया था। उसमें इस गान की कहीं चर्चा नहीं है। सन १९१४ में रवीन्द्रनाथ की कीर्ति समूचे विश्व में फैल गई थी। अगर यह गान दिल्ली दरबार में गाया गया होता तो अंग्रेज प्रकाशक ने अवश्य उसका उल्लेख किया होता, क्योंकि इस पुस्तिका का प्रधान उद्देश्य प्रचार ही था।

असल में १९११ के कांग्रेस के मॉडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पती की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन जनगणमन गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पती के स्वागत का प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। सन १९११ के २८ दिसम्बर के बंगाली में कांग्रेस अधिवेशन की रिपोर्ट इस प्रकार छपी थी

The proceedings commnenced witha patriotic song composed by Babu Rabindranath Tagore, the leading poet of Bengal (Janaganamana..) of which we give the English translation (यहाँ अँग्रेज़ी में इस गान का अनुवाद दिया गया था) Then after passing of the loyalty resolution, a Hindi song paying heartfelt homage to their imperial majesties was sung by Bengali boys and girls in chorus.

विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझ कर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्ही रिपोर्टों से आज यह भ्रम चल पड़ा है।

मैं स्पष्ट रूप से बता दूँ कि मैं वन्दे मातरम गान का कम भक्त या प्रशंसक नहीं हूँ। यह वक्तव्य इस उद्देश्य से दिया गया है कि असत्य बात प्रचारित न हो और इस महान कवि के सिर व्यर्थ का ऐसा दोषारोप न किया जाय जिसने भारतवर्ष की संस्कृति को सम्पूर्ण जगत में प्रतिष्ठा दिलाई। रवीन्द्र मनस्वी कवि थे, वे कभी किसी विदेशी नरपति की स्तुति में इतना मनोहर गान लिख ही नहीं सकते थे।

-हजारी प्रसाद द्विवेदी


भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'भाषा साहित्य और देश' में संकलित

20 टिप्‍पणियां:

Divine India ने कहा…

बिल्कुल सत्य कह रहे हैं आप…
पर भ्रम अभी-भी बना ही है…
स्वाधीनता दिवस की शुभकामना

Sanjay Tiwari ने कहा…

सवाल सिर्फ सवाल के लिए नहीं था. पंडित जी के लेख को यहां देकर आपने जबर्दस्त कार्य किया है. इस खोजबीन के लिए धन्यवाद.
पंडित जी साफ कह रहे हैं कि गुरूवर की चेतना इतनी व्यापक थी कि किसी राजा के लिए ऐसा लिख ही नहीं सकते थे. लेकिन अनिल रघुराज बता रहे हैं कि गुरूवर ने स्वीकार किया था कि उनके एक मित्र के कहने पर उन्होंने जार्ज पंचम के लिए ही यह गीत लिखा था. यह है उनके लेख का लिंक
http://diaryofanindian.blogspot.com/2007/04/blog-post_12.html
अच्छा और संग्रहणीय लेख प्रस्तुत करने के लिए आपको बधाई.

अनिल रघुराज ने कहा…

द्विवेदी जी के इस लेख से मेरा भी भ्रम दूर हुआ है। शुक्रिया...

ravishndtv ने कहा…

मुझे किसी तरह का भ्रम नहीं था। लेकिन पढ़कर ज्ञान प्राप्त हुआ। ब्लाग में गप्पबाजी के बीच इस तरह की शोध चर्चा से लाभांवित हुआ जाए। मैं तो हो चुका

ढाईआखर ने कहा…

अक्सर 'राष्ट्रवादी' बंधु वंदे मातरम के पक्ष में अपने तर्क देते हुए'जन गण मन' को राज भक्ति में लिखी गयी चारण कविता सिद्ध्‍ करने में लगे रहते हैं। आपने द्विवेदी जी की यह रचना छापकर एक बड़ा भ्रम दूर करने का काम किया है। शुक्रिया।

Unknown ने कहा…

यदि आप लोग अभी भी भ्रमित हैं तो मैं बताना चाहूँगा, और वह भी पूरी गारंटी के साथ, कि जी हाँ, जन गण मन का अधिनायक जार्ज पंचम ही है। बहुत से लोगों को तो शायद यह भी ज्ञात नहीं है कि जिस राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान को हम बचपन से ही गाते चले आ रहे हैं वह किस भाषा में है और उसका अर्थ क्या है? भारत के 100% लोग इसे गाते हैं किन्तु विडम्बना यह है कि इसे गाने वाले तथा गवाने वाले में से मुश्किल से 5% लोग भी शायद ही जानते हैं कि यह किस भाषा में है और इसका अर्थ क्या है?

दरअसल यह बंगाली भाषा में है (और गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की पाँच पदों की बंगाली कविता का सिर्फ एक पद है, जिसे न जाने किस प्रतिकूल परिस्थिति में गुरुवर को लिखना पड़ा, क्योंकि वे भी अंग्रेज विरोधी थे। फिर भी उन्होंने जार्ज पंचम को भारत का सम्राट या बादशाह नहीं कहा बल्कि अधिनायक कहा जिसका अर्थ तानाशाह - dictator - होता है)। यद्यपि मैं बंगाली नहीं जानता पर उत्सुकतावश पता करने पर इसका जो अर्थ मुझे पता चला वह मैं यहाँ आप लोगों की जानकारी के लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ:

जन गण मन अधिनायक जय हे,
(हे जनता के तानाशाह,)
भारत-भाग्य-विधाता।
(आप भारत देश के भाग्य को रचने वाले विधाता हैं।)
पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा,
(उस भारत के जिसके पंजाब, सिंध, गुजरात, महाराष्ट्र,)
द्वाविड़, उत्कल, बंग।
(द्रविड़ - मद्रास -, उड़ीसा, और बंगाल जैसे प्रदेश हैं।)
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना-गंगा,
(जिसके विन्ध्य तथा हिमालय जैसे पर्वत और यमुना-गंगा जैसी नदियाँ)
उच्छल जलधि तरंगा।
(जिनकी तरंगे उच्छृंकल होकर बहती हैं।)
तव शुभ नामे जागे,
(भोर में जागते ही आपका नाम लेते हैं,)
तव शुभ आशिष माँगे।
(और इस प्रकार आपका प्रातःस्मरण करके आपके आशीर्वाद की कामना करते हैं।)
जन-गण-मंगलदायक जय हे,
(हे जनता के मंगल करने वाले, आपकी जय हो,)
गाहे तव जयगाथा,
(वे सब आपका ही जयगान करते हैं,)
जन-गण-मंगलदायक जय हे,
(हे प्रजा के मंगलकारी महोदय,)
भारत भाग्य विधाता।
(आप ही भारत के भाग्य के विधाता हैं।)
जय हे, जय हे, जय हे,
(आपकी जय हो, जय हो, जय हो,)
जय, जय, जय, जय हे।
(जय, जय, जय, जय हो, अर्थात् सदा-सर्वदा जय होती रहे)

आभा ने कहा…

अच्छे मौके पर छापा है।
अच्छा लगा। किसी निबंध को दोबारा तिबारा पढ़ना।
आज कहाँ है ऐसे लोग जो पकड़ कर बैठ जाएँ कि बेटा यहाँ तो आ।
सच में मजा आया।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है। हरिशंकर परसाई जी की किताब ऐसा भी सोचा जाता है में भी इसी आशय का लेख है कि रवींन्द्र नाथ टैगोर ने यह गीत जार्ज पंचम की स्तुति में नहीं लिखा है।

अनुनाद सिंह ने कहा…

इस विषय पर बहुत चर्चा हो चुकी है और जारी रहेगी। फिलहाल विकिपेडिया पर अंग्रेजी में कुछ सम्यक जानकारी दी गयी है:

http://en.wikipedia.org/wiki/Jana_Gana_Mana

Pratyaksha ने कहा…

अच्छी जानकारी

अनुनाद सिंह ने कहा…

द्विवेदी जी की बात किसी भी प्रकार से शंका का समाधान करने में सक्षम नहीं दिख रही है। दलीलों में दम नहीं है।

ये 'जयगाथा' क्या कह रहा है? आम जनता भारत को 'भारत माता' के रूप में देखती चली आ रही है, इसमें ये 'भारत भाग्य बिधाता' और 'अधिनायक' पुरुष क्यों है? अगर व भगवान को सम्बोधित है तो टैगोर का भगवान क्या केवल भारत का भाग्य-विधाता है?

जहाँ तक यह कहना कि अंगरेजी अखबारों को कविता समझ में नही आयी, ये भी समझ के परे है। अंग्रेजों ने 'वन्दे मातरम' सहित हजारों गीतों, कविताओं को प्रतिबन्धित किया। कितनी सारी पुस्तकों को प्रतिबंधित किया। ऐसे में कैसे मान लिया जाय कि उनको यह गान समझ में नहीं आया? सबसे बड़ा साक्ष्य तो समय और मौके का साक्ष्य है।

अभय तिवारी ने कहा…

अगर टैगोर यह कह देते कि नहीं उन्होने यह गान जार्ज की स्तुति में नहीं लिखा.. तो क्या आप मानते.. दिवेदी जी ने उसका भी उल्लेख किया है.. दुनिया में काफ़ी चीज़ों का इलाज है..वितण्डा और मूर्खता का कोई इलाज नहीं..आप यदि सोच कर ही..मान कर ही बैठ गए हैं कि रवीन्द्रनाथ गद्दार था..तो आप को तो बंकिमचन्द्र भी नहीं समझा सकते..

वैसे संघियों के मुख से यह बाते अजीब सी लगती हैं जिन्होने अंग्रेज़ो से लड़ने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.. उन्हे सिर्फ़ मुसलमानों से लड़ने में रुचि थी.. और आज भी है..संघी लोग ऐसा क्यों करते हैं मेरी समझ के परे है.. लम्बे समय तक गाँधी का विरोध किया.. अब गाँधी की लाठी से दूसरो को पीटने लगे हैं.. हद है..

Sagar Chand Nahar ने कहा…

वैसे संघियों के मुख से यह बाते अजीब सी लगती हैं जिन्होने अंग्रेज़ो से लड़ने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.. उन्हे सिर्फ़ मुसलमानों से लड़ने में रुचि थी.. और आज भी है..संघी लोग ऐसा क्यों करते हैं मेरी समझ के परे है.. लम्बे समय तक गाँधी का विरोध किया.. अब गाँधी की लाठी से दूसरो को पीटने लगे हैं.. हद है..

अभयजी
क्षमा चाहता हूँ, इतने सुन्दर लेख में संघीयों और मुसलमानों के विवाद का जिक्र बीच में डालकर जायका क्यों खराब करते हैं, आप टिप्प्णी में इन शब्दों के लिखने के अलावा भी अपना जवाब खूबसूरती से दे चुके थे।

ePandit ने कहा…

अब असल बात तो राम जाने या फिर स्वयं गुरुदेव।

पर कुछ बातें तय हैं। एक यह कि यह गीत 27 दिसंबर 1911 को कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। कांग्रेस तब अंग्रेजों के प्रति वफादार होती थी। उस अधिवेशन का घोषित एजेण्डा जॉर्ज पंचम का स्वागत था।

वैसे गुरुदेव का कहना था कि उन्होंने यह गीत ईश्वर की स्तुति में लिखा था और कांग्रेसियों द्वारा अनुरोध पर उस अधिवेशन में गाने के लिए दे दिया।

कुल मिलाकर बहुत कन्फ्यूजन है, कहीं गुरुदेव ने एक ती र से दो शिकार तो नहीं किए। :)

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

निर्मल जी! हजारी प्रसाद द्विवेदी का मैने ढ़ेर सारा साहित्य पढा है. उनके प्रति मेरे माना में पर्याप्त आदर है. लेकिन मेरे लिए आदर का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि किसी को तर्कातीत मान लिया जाए. हम-आप जानते हैं कि हिंदी के कुछ शीर्षस्थ साहित्यकार और पत्रकार आज भी दो-चार लाख रुपये महीने के लिए आवारा पूँजी के बादशाहों की नौकरी भी कर सकते हैं. यह सही है या ग़लत इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूंगा, लेकिन नौकरी की अपनी कुछ मजबूरियां होती हैं. लाख इंकार के बावजूद उन्हें मानना ही पड़ता है. यह क्यों भूलते हैं कि द्विवेदी जी ने विश्वभारती में नौकरी भी की है?
पुनश्च, यह बात समझ में नहीं आती कि वह लोयाल्टी रेजोलुशन क्या था और अगर वह कॉंग्रेस का अधिवेशन था तो उसमें इम्पीरिअल मैजेस्टीज़ को होमेज पे करने वाला गाना बच्चों से क्यों गवाया गया? अगर ऐसा है तो फिर यह तो कॉंग्रेस की भी मंशा पर सवाल खड़ा करता है, जो कि सही भी है. सच्चाई तो यही है कि कॉंग्रेस आजादी की लड़ाई को गति देने नहीं मंथर करने के लिए ही पैदा हुई थी. खैर, यह ज्यादा गम्भीर मसला है और इस पर अलग से विमर्श की जरूरत है. 'जन-गण-मन' के संदर्भ में बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती अगर आप इस गान के पांचों खण्ड पोस्ट कर पाते तो!
जहाँ तक सवाल राष्ट्रगान के चयन का है तो यह केवल वितंडा के अलावा और कुछ नहीं है. जरूरी है कि पहले से लिखा हुआ कोई गीत ही लिया जाए. 'जन-गण-मन' और 'वंदेमातरम' के अलावा भी यहाँ राष्ट्रीय भावना के बहुत गीत हैं. उनमें भी कोई न पसंद आए तो नया लिखवाया जा सकता है. क्या यह ग़लत होगा?

Unknown ने कहा…

बहुत ढँढने के बाद मुझे http://www.mukto-mona.com/Special_Event_/5_yrs_anniv/asim_k_duttaroy/Genesis_of_Janagana.pdf में चौथा पद मिला है जो इस प्रकार है -

Ghoro Timiro Ghono Nibiro
Nishithay Pirito Murchhito Deshe
Jagrata Chhilo Tabo Abichalo Mangalo
Nato Nayanay Animeshe
Duhswapnay Atanke
Rakkha Karilay onke
Snehamoyee Tumi Mata
Jano Gano Dukho Trayaka
Jaya Hey Bharata Bhagya Bidhata
Jaya Hey, Jaya Hey, Jaya Hey,
Jaya Jaya Jaya, Jaya Hey

घारो तिमिरो घोनो निबिरो
निशिथाय पिरितो, मुर्छितो देशे
जाग्रत चिलो ताबो अबिछलो मंगलो
नातो नयनाय अनिमेशे
दुःस्वपने आतंके
राखा करिले ओंके
स्नेहमोयी तुमी माता
जानो गानो दुःखो त्रयका
जय हे, जय हे, जय हे,
जय, जय, जय, जय हे।

हो सकता है कि हिंदी अनुवाद में मुझसे कुछ गलती हुई हो, अतः सुविज्ञ पाठक उसे सुधार लेंगे।

एक बात और, उपरोक्त पद में एक बार माता शब्द का भी प्रयोग हुआ है, और बंगाली का ज्ञान न होने के कारण समझ नहीं पाया कि किस संदर्भ में माता कहा गया है, मैं भ्रमित भी हो गया हूँ।

जी.के. अवधिया

बेनामी ने कहा…

अभयजी, हमने सोचा आपको इसी बहाने परसाईजी का लेख पढ़वा दें। इसमें न सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ टैगोर के इस प्रकरण का जिक्र है बल्कि उस मानसिकता का भी जिक्र है जिसके तहत महान लोगों पर आक्षेप लगाये जाते हैं। :)
http://hindini.com/fursatiya/?p=323

debashish ने कहा…

अवधिया जी की दी कड़ी से एक और लेख मिला. "जन गण मन" के बारे में लोगों को जो भ्रम हैं वो ये लेख दूर कर सकता है, जो अड़ियल है उन्हें खैर कोई समझा नहीं सकता। इस लेख में ये भी बताया गया है कि टैगोर के गीत को "वंदे मातरम्" की जगह तरजीह क्यों मिली। मुझे लगता है ये निर्णय एकदम सही था और इससे हमारे देश की सही छवि बनी रही है।

उम्दा सोच ने कहा…

पंजाब सिंध गुज्ररात मराठा में अब सिन्ध* का क्या औचित्य बचता है? बहरहाल जन मन गन अधिनायक से हम राष्ट्रध्वज या रष्ट्रपिता को भी संबोधित कर सकते हैं!

dkprajapati ने कहा…

my father dr. kl prajapati said that firstly he had sung this song in the year 1946 in his ewing christian college of allahbad in the honour of jawarharlal nehru. after the freedom of india from the britishers this song had been annnounced as the national anthem of india....

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