शनिवार, 11 अगस्त 2007

फूलों का तारों का..

आज टी वी पर दो विज्ञापन देखकर मन सीझ गया.. लगा कि सब कुछ ऐंठ कर अड़कड़ा नहीं गया है अपनी संस्कृति में.. फिर ऐसा यक़ीन हो रहा है कि हमारी जड़े इतनी जल्दी नहीं हिलने वालीं.. अच्छे या बुरे दोनों अर्थ हैं इसके.. अच्छा भी बाहरी प्रभावों में आसानी से हवा नहीं होने वाला.. और बुरा भी रोज़ की रगड़ के बावजूद आसानी से नहीं टलने वाला..

पहला विज्ञापन एक किसी घड़ी का है.. एक दोस्त दूसरे से कहता है कि याद है बचपन में मैने अपनी कलम तुझे दी थी.. कामिनी को मैं भी प्यार करता था. तेरे लिए कु़र्बानी दी.. दूसरा कहता है कि तुझे क्या चाहिये.. तू बोल.. पहला दोस्त दूसरे दोस्त की पुरानी घड़ी माँग लेता है जिस पर २५% की छूट है.. विज्ञापन घड़ी का है.. पर मुद्दा दोस्तों के बीच भावुक नाते का है.. ये दोस्ती का जज़्बा हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य से दो दशक से खो सा गया सा है..

पुरानी फ़िल्मों के जानकार जानते हैं कि हिन्दी फ़िल्म इतिहास का एक बड़ा हिस्सा मर्दानी दोस्ती के नाम है.. सत्तर का दशक तो खासकर.. कुछ मतवाले इस दोस्ती में समलैंगिक पाठ भी करते हैं.. अस्सी इक्यासी में दोस्ताना याराना आई थीं.. चश्मे बद्दूर भी उसी वक़्त की पैदाइश है.. मगर उसके बाद से हिन्दी फ़िल्मों में से दोस्ती की दुकान ही उठ गई.. २००१ में आई दिल चाहता है से इस विषय की वापसी हुई.. मगर सिकुड़े रूप में.. आज यह विज्ञापन देख कर अच्छा लगा.. इसका समाजशास्त्रीय पाठ यही होगा कि इस बीच समाज के बीच दोस्ती को एक गैर-उपयोगी जज़्बे के रूप में समझा जाता रहा.. या दूसरे मुद्दे इस जज़्बे से अधिक छाये रहे.. अब इस जज़्बे की वापसी को शायद समाज में उथल पुथल के बाद लौटती सहजता कह कर समझा जा सकता है..

दूसरा विज्ञापन कैडबरी चॉकलेट का..राखी के मौके पर बहन और भाई का प्यार.. विज्ञापन में कुछ भी खास नहीं है.. बस राखी का अवसर ही कुछ नयापन है.. फिर से हिन्दी फ़िल्मों के ज़रिये याद करें कि साठ सत्तर के दशकों में भाई बहन के सम्बन्ध पर एक गाना तीसरी चौथी फ़िल्म में हो ही जाता था.. चाहे हरे राम हरे कृष्णा का फूलों का तारों का सबका कहना हो.. या मजबूर का देख सकता हूँ मैं कुछ भी होते हुए.. इन्हे सुनते हुए भाई बहनों की आँखें नम हो जाती थीं.. अस्सी नब्बे के दशकों में इनका भी विलोप हुआ..विज्ञापन की दुनिया में इनकी वापसी की आहटें सुनकर अच्छा लग रहा है.. पर बीत गए से जुड़े कुछ सवाल परेशान करते हैं..

राखी के फ़िल्मों से विलोप का क्या कारण रहा? क्या भाई बहन के बीच भावुक सम्बन्धों में कोई गुणात्मक परिवर्तन आया.. या समाज में स्त्री पुरुष सम्बन्धों के खुलने के कारण इस सम्बन्ध के तागे कमज़ोर पड़ गए.. ? पिछले दिनों ग्रीटिंग कार्ड बनाने वाली कम्पनियों के बनाए हुए या किसी और के बनाए हुए तमाम किस्म के दिवस बताए जाने लगे.. मदर्स डे.. फ़ादर्स डे.. एंड सो ऑन.. मगर इसके बीच अपना देसी सिस्टर्स डे थोड़ा उपेक्षित क्यों है..? क्यों वैलेंटाइअन डे जैसा एक अनजाना दिवस हमारे जाने पहचाने और संस्कारों में गहरे धँसे रक्षाबन्धन से ज़्यादा लोकप्रिय साबित हो रहा है..? क्या इसलिए कि यौन क्रांति की दहलीज पर खड़े समाज में.. उस समाज में जिस में राखी भाई और राखी बहन बनाने की ऐसी परम्परा हो कि साल के किसी भी दिन एक धागा भेज कर कु़रबान होने लायक जज़्बा जगाया जा सकता हो.. ऐसे समाज में सिस्टर्स डे की बात करना सामाजिक बदलाव की गति के खिलाफ़ होगा. ?

8 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत गरुह ठेलने की बजाय यह लेखन बहुत अच्छा लगा.

संजय बेंगाणी ने कहा…

सही है.
समय कहाँ एक सा रहा है. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. दोस्तो में, भाई बहनों में प्यार तो अभी भी वही है, बस दिखावा नहीं होता.

azdak ने कहा…

हां, होगा! सामाजिक बदलाव के खिलाफ. बात करना! होगा?

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सटीक मुद्दा!!
मुझे लगता है हम आज दिखावे में ज्यादा जी रहे हैं जो डे मनाते है वह सिर्फ़ दूसरों को दिखाने के लिए, अपने आस-पास के समूह के लिए मनाते हैं कि देखो हम भी आधुनिक है पर जो मन की भावनाएं हैं कम से कम वह मरी नही है रिश्ते और भावनाएं अब प्रदर्शित कम हो रहे हैं रिश्ते सिर्फ़ वही प्रदर्शित हो रहे हैं जिनसे "स्टेटस" वाली बात हो, जैसे कि "गर्लफ़्रेंड-बॉयफ़्रेंड"!!

अनामदास ने कहा…

रोज़ रोज़ ऐसे नहीं चलता, हर चीज़ के दिन मुकर्रर है ताकि आर्चीज़, हॉलमार्क और पेपररोज़ जैसी कंपनियों को प्लानिंग-मार्केटिंग में असुविधा न हो. हाल ही में तो फ्रेंडशिप डे मनाया है, मदर्स डे, फादर्स डे, वेलेंटाइंस डे सब तो परंपरागत हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है. और क्या चाहते हैं आप, एक ठो राखी है जो आ रही है. उसका कार्ड वार्ड तो बिकने ही लगा है, अभी उसके दो टुकड़े होने हैं, ब्रदर्स डे और सिस्टर्स डे, अलग-अलग, एक ही बार मनाके मज़ा कम क्यों करते हैं.

Udan Tashtari ने कहा…

आपकी सोच और चिंतन बिल्कुल सही है.

रक्षा बंधन से भावनात्मक लगाव तो एक भारतीय के मन से कभी कम नहीं हो सकता. मगर आज के युवाओं का पाश्च्यातिकरण की ओर बढ़ते लगाव के बादल उन भावनाओं के प्रदर्शन पर हावी होकर उन्हें फारवर्ड दिखने में मदद कर रहे हैं और वह परोक्ष रुप से वेलेन्टाईन डे जैसे डेज पर ज्यादा उन्मादित दिखते हैं. बाजार उनके इसी नज़रिये को भुनाता है, यह बाजार का स्वभाव है. ऐसे परिवर्तन समाज में हमेशा से सोते रहे हैं और होते रहेंगे, इससे रिश्तों की मान्यतायें कम नहीं होती.

आपको भी याद होगा कि पहले विवाह आयोजन भी पांच दिवसीय हुआ करता था और अब मात्र चंद घंटो का. मगर आयोजन के समय के घटने की वजह से पति पत्नी के संबंधों की मान्यताओं में तो कमी नहीं आई. जो कुछ भी आई है उसकी दीगर वजहें हैं. आयोजन के समय में कटौती नहीं.

बोधिसत्व ने कहा…

पढ़ कर सचमुच निर्मल आनन्द की प्राप्ति हुई। मेरा मानना है कि भावनाओं को छूना बड़ा कठिन होता है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा लिखा है। बहुत अच्छा लगा! चार दिन से बाकी था इसे बांचना! :)

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